कर्इ चक्रव्यूह तोड़ने होंगे मोदी को

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modi1-300x182-अरविंद जयतिलक

प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रुप में नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा के साथ ही भारतीय जनता पार्टी को अच्छी खबरें खबरें मिलनी शुरू हो गयी है। उसके वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवानी का मोदी विरोध राग मद्धिम पड़ने लगा है वही कर्नाटक और झारखंड में पार्टी के सेनापति रह चुके येदुरप्पा और बाबूलाल मरांडी दोनों ने भी मोदी की तारीफ कर घर वापसी के संकेत दे दिए हैं। भाजपा के लिए अच्छी खबर यह भी है कि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने भी मोदी को बधार्इ दी है। साथ ही दिल्ली विश्वविधालय छात्रसंघ चुनाव में अखिल भारतीय विधार्थी परिषद की शानदार जीत भी कम उत्साहजनक नहीं है। जो सबसे दिलचस्प पहलू है वह यह कि मोदी के नाम पर मुहर लगने के बाद कांग्रेस, वामपंथी, राजद, सपा और जेडीयू के अलावा किसी अन्य क्षेत्रीय दलों ने उनके खिलाफ तल्ख टिप्पणी नहीं की है। यानी कहा जा सकता है कि मोदी देश के सभी राजनीतिक दलों के लिए अछूत नहीं हैं। कश्मीर से लेकर असम तक अधिकांश क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने दोस्ती के दरवाजे खुले रखे हैं। अब यह मोदी पर निर्भर करता है कि वे अपनी रणनीति से उन दलों को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब होते हैं या नहीं। लेकिन एक बात आइने की तरह साफ है कि मोदी घर से मिल रही चुनौतियों से उबर गए हैं और अब उनका पूरा जोर एनडीए के विस्तार और मौजूदा केंद्र की सत्ता को उखाड़ फेंकने पर होगा। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा भी उछाल दिया है। तमाम चुनावी सर्वेक्षणों के मुताबिक देश में मोदी की लोकप्रियता चरम पर है और देश का एक बड़ा वर्ग उन्हें प्रधानमंत्री के रुप में निहार भी रहा है। लेकिन इसके लिए उन्हें चुनौतियों की कड़ी अगिनपरीक्षाओं से गुजरना होगा। उनके समक्ष जो चुनौतियां हैं उनमें एनडीए के विस्तार के अलावा जनाधारविहिन राज्यों में मौजूदगी दर्ज कराना, लोकसभा से पहले चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी का परचम लहराना, उत्तर प्रदेश और बिहार में सर्वाधिक सीटें और कांग्रेस्स के चक्रव्यूह को तोड़ना विषेश रुप से महत्वपूर्ण है। हालांकि मोदी के लिए इन चुनौतियों से निपटना बहुत कठिन नहीं होगा। उनके लिए राहत की बात बस इतनी है कि केंद्र की यूपीए सरकार सभी मोर्चे पर विफल है और जनता का विश्वास खो रही है। उसकी दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों से महंगार्इ और भ्रष्टाचार चरम पर है। आतंकवाद व नक्सलवाद ने देश में कोहराम मचा रखा है। ऐसे में अगर मोदी अपनी छवि नायक जैसी बना लेते हैं तो यह आश्चर्यपूर्ण नहीं होगा। बिगड़ी परिसिथतियों में देश ने हमेशा ही नायक का तलाश किया है। लेकिन जनता की आकांक्षाओं को फलीभूत करने के लिए मोदी को एनडीए का विस्तार करना होगा। इसलिए कि भाजपा की मौजूदगी सभी राज्यों में नहीं है। उसे दिल्ली का तख्तोताज तभी नसीब होगा जब एनडीए मजबूत होगा। फिलहाल एनडीए में शिवसेना और अकाली दल ही हैं। वह भी इसलिए कि उनका भारतीय जनता पार्टी से वैचारिक निकटता है। लेकिन दिल्ली की राह आसान तब होगी जब भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण-पश्चिम तक अपना परचम लहराएगी। अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता ने मोदी को बधार्इ दी है। लेकिन यह कहना कि वे एनडीए में शामिल होंगी अभी जल्दबाजी होगी। मोदी की सफलता इस पर भी निर्भर करेगी कि वे दक्षिण में पार्टी का जनाधार बढ़ाने में कितना कामयाब होते हैं। भाजपा कर्नाटक में अपनी सत्ता गंवा चुकी है। वहां उसकी सिथति में सुधार तब होगा जब येदुरप्पा की घर वापसी होगी। लेकिन सवाल यह कि क्या लालकृष्ण आडवानी और अनंत कुमार इसके लिए तैयार होंगे? बहरहाल यही माना जा रहा है कि मोदी येदुरप्पा को घर लाने की कोशिश कर सकते हैं। आंध्र में भी भाजपा की मौजूदगी शुन्य है। टीडीपी, वाइएसआर कांग्रेस और टीआरएस चुनाव पूर्व उससे गठबंधन करने को तैयार होंगे इसमें आशंका है। उन्हें डर है कि भाजपा के साथ खड़े होने से उनका मुस्लिम जनाधार खिसक सकता है। अगर मोदी इन दलों को एनडीए में शामिल करने में सफल नहीं भी होते हैं लेकिन चुनाव बाद उनसे समर्थन लेने का भरोसा हासिल कर लेते हैं तो भी यह उनके लिए बड़ी उपलबिध होगी। दक्षिणी राज्य केरल में भी भाजपा जनाधार विहिन है। लेकिन वहां मोदी के प्रशंषकों की कमी नहीं है। अगर मोदी वहां के छोटे दलों को साथ लेने में कामयाब होते हैं तो न केवल देश में अच्छा संदेश जाएगा बलिक देर-सबेर वहां कमल खिल सकता है। मोदी के सामने पूर्वोत्तर समेत ओडिसा और बंगाल में भी जनाधार बढ़ाने की चुनौती है। ओडिसा की कुल 21 लोकसभा सीटों में भाजपा के पास एक भी सीट नहीं है। जबकि यहां उसके काडर मौजूद हैं। कुछ ऐसा ही हाल बंगाल का है। यहां की कुल 42 सीटों में उसके पास सिर्फ एक सीट है। मोदी को इन दोनों राज्यों में पार्टी को खड़ा करना होगा। हालांकि अभी ममता और नवीन पटनायक के रुख से नहीं लगता है कि वे एनडीए में शामिल होगी। हां, चुनाव बाद ये दोनों दल शर्तों के आधार पर समर्थन दे सकते हैं। मोदी की दूसरी चुनौती लोकसभा चुनाव से पहले देश के चार राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली में भाजपा का परचम लहराना है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार है। इन दोनों राज्यों में कांगे्रस की हालत पतली और नेतृत्व को लेकर सिरफुटौव्वल है। कांग्रेस हार्इमान ने राहुल गांधी के पसंद ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ में चुनावी कमान थमा दी है। लेकिन दिगिवजय सिंह और कमलनाथ को यह रास नहीं आ रहा है। दोनों को ज्योतिरादित्य फूटी आंख भी नहीं सुहाते हैं। ऐसे में वे उनकी राह में कांटे नहीं बिछा सकते हैं। दूसरी ओर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह दोनों ने अपने-अपने राज्यों में विकास को नर्इ ऊंचार्इ दी है। इन सरकारों के खिलाफ कोर्इ नाराजगी भी नहीं है। जबकि राजस्थान में कांग्रेस की गहलोत सरकार के खिलाफ जनता का जबरदस्त आक्रोष है। संभव है कि भाजपा इन तीनों राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब हो जाए। उसका श्रेय शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा राजे लेने की कोशिश कर सकते हैं। लेकिन देश में संदेश यही जाएगा कि यह जीत मोदी के करिश्माई नेतृत्व का नतीजा है। लेकिन अगर कहीं भाजपा दिल्ली में हार का मुंह देखती है तो उसका खामियाजा मोदी को भुगतना होगा। न केवल उनके करिश्माई व्यकितत्व और नेतृत्व पर सवाल उठेगा बलिक घर के आंगन से भी चुनौती की डुगडुगी बजनी शुरू हो जाएगी। मोदी एनडीए को 272 प्लस के आंकड़े पर तभी ला सकते हैं जब उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा का प्रदर्शन उम्दा होगा। दोनों राज्यों में लोकसभा की कुल 120 सीटें हैं। 2009 के आमचुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश की कुल 80 में से 10 और बिहार की कुल 40 में 12 सीटें मिली थी। यानी कुल सीटों का छठवां हिस्सा। अगर मोदी इसे तीन गुना करने में कामयाब रहते हैं तो बेशक दिल्ली का सफर आसान हो सकता है। वैसे बिहार में जेडीयू से अलग होने के बाद भी भाजपा नेताओं-कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा की सिथति बहुत मजबूत नहीं है। उसकी पतली हालत का अंदाजा इसी से लग जाता है कि विगत डेढ़ दशक में यहां जितने भी उपचुनाव हुए उसमें उसे निर्दलीय उम्मीदवारों से भी कम वोट मिले हैं। हालांकि मोदी ने उत्तर प्रदेश में सांगठनिक ढांचा मजबूत करने और जनाधार बढ़ाने के उद्देश्य से चुनावी कमान अपने खास सेनापति अमित शाह को सौंप दी है लेकिन असल चुनौती अभी बाकी है। वैसे मोदी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याषी घोषित होने के बाद उत्तर प्रदेश भी मोदी के रंग में रंगना शुरू हो गया है। लेकिन अभी मोदी को तथाकथित सेक्यूलर दलों के कुंठा भरे सांप्रदायिक सवालों के जवाब देने के साथ कांग्रेस के बुने चक्रव्यूह को तोड़ना होगा। सरकार इशरत जहां मुठभेड़ और आइपीएस डीजी बंजारा की चिठठी की आड़ लेकर उनके खिलाफ सीबीआर्इ की घेराबंदी करा सकती है। देखना दिलचस्प होगा कि मोर्चे पर डटे मोदी अपने विरोधियों को कैसे मात देते हैं।

 

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  1. भाजपा का कंग्रेस्सीकरण जब तक समाप्त नहीं होता क्या अंतर कौन सामने आता है? एक राष्ट्रीय दल के रूपमे भाजपा ने अपनी विश्वशनीयता खो दी है जिसके पास कोई राष्ट्रीय नेता नहीं है और इस प्रकार वह असहाय सी दिखती है -किसी व्यक्ति उसकी जातीय प्रष्ठभूमि राजनीती का मतलब यदि यहे एही तो बहुत दूर लक्ष्य है ?

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