परिणाम में बदले अनुमान

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partiesप्रमोद भार्गव

4 दिसंबर को 5 राज्यों में मतदान समय पूरा होने के बाद जो एगिजट पोल खबरिया चैनलों पर जारी हुए हैं,उनमें ज्यादातर अनुमान नतीजे की कसौटी पर खरे उतरे हैं। ओपीनियन पोल और एगिजट पोल देश के चार बड़े राज्यों में संभावित चुनावी परिणाम जता रहे थे, वही निकले। मध्यप्रदेश और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट जनादेश प्राप्त हो गया है, जबकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस  को कांटे की टक्कर का सामना करते हुए बहुमत मिल गया है। लेकिन वह दो तिहार्इ बहुमत से पिछड़ गर्इ है।कांग्रेस को यह जीत सोनिया या राहुल की वजह से नहीं बलिक कांग्रेसियों पर बस्तर क्षेत्र में हुए नक्सली हमले की वजह से मिली है। दिल्ली में त्रिशंकु विधानसभा के अनुमान लगाये गये थे, जो सही साबित हुए। यहां कांग्रेस का  उम्मीद से ज्यादा पिछड़ जाना और मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का अरविंद केजरीवाल से हार जाना हैरान करने वाले नतीजे हैं। मतदान के बड़े प्रतिशत को अब तक सत्तारूढ़ दल के खिलाफ व्यकिगत असंतुष्टि और व्यापक असंतोष के रूप में देखा जाता था,लेकिन मतदाता में आर्इ बड़ी जागरूकता ने परिदृष्य को बदला है,इसलिए इसे केवल नकारात्मकता की तराजू पर तौलना राजनीतिक प्रेक्षकों की बड़ी भूल है। इसे सकारात्मक दृष्टि से भी देखने की जरूरत है।

दिल्ली में मतदान समाप्त होते ही समाचार चैनलों पर, एगिजट पोल के नतीजे आने का सिलसिला शुरू हो गया था। एगिजट पोलों के संभावित रूझान 5 में से 4 राज्यों में भाजपा को विजय दिला रहे थे। छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस के बीच नजदीकी मुकाबला जता रहे थे, जो सही साबित हुआ। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा फिर से पूर्ण बहुमत से सत्तारूढ़ हो गर्इ। राजस्थान में कांग्रेस की अशोंक गहलोत कि विदार्इ के साथ,वसुंधरा राजे सिधियां की अगुआर्इ में कमल खिल गया है। देश की राजधानी दिल्ली में जरूर त्रिशंकु विधानसभा के नतीजे आए हैं। क्योंकि वहां अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने सत्तारूढ़ कांग्रेस और भाजपा दोनों ही को पेचीदा हालात में डाला हुआ था। आप को भी 6 से लेकर 18 विधानसभा क्षेत्रों में जीत मिलने की उम्मीद सर्वेक्षणों ने जतार्इ थी। यहां तक कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी केजरीवाल से पराजित हो सकती हैं के अनुमान एगिजट पोल के थे जो परिणाम की कसौटी पर खरे उतरे हैं।  देश के सभी नामी चैनल दिल्ली में आप की तो गरिमापूर्ण उपस्थिति दर्ज करा रहे थे, वामदल,  सपा,बसपा,राकांपा व शिवसेना के असरकारी दखल को कोर्इ सर्वे स्वीकार नहीं कर रहा था, जो नतीजों के बाद  देखने में भी नहीं आया। तय है, आने वाले समय में संप्रदाय और जाति विशेष की राजनीति करने वाले दलों को नए राज्यों में अपने दल का  विस्तार करना और मौजूदा पहचान को बनाए रखना मुश्किल होगा।

मतदान के बड़े प्रतिशत के बावजूद मतदाता को मौन माना जा रहा था, लेकिन मतदाता मौन कतर्इ नहीं था। मौन होता तो चैनल एगिजट पोल के लिए कैसे सर्वे कर पाते ? हां,उसने खुलकर किसी भी  राज्य सरकार को न तो अच्छा कहा और न ही उसके कामकाज के प्रति मुखरता से नाराजगी जतार्इ। मतदाता की यह मानसिता, उसके परिपक्व होने का पर्याय है। वह समझदार हो गया है। अपनी खुशी अथवा कटुता प्रकट करके वह किसी दल विशेष से बुरार्इ मोल लेना नहीं चाहता। इस लिहाज से अभिव्यकित की स्वतंत्र व जीवंत माध्यम बनी सोशल साइट्रस पर खातेदारों ने दलीय रूचि नहीं दिखार्इ। हां क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुददे उछालकर आभासी मित्रों की राय जानने की कोशिश में जरूर लगे रहे। मानसिक रूप से परिपक्व हुए मतदाता की यही पहचान है।

पारंपरिक नजरीए से मतदान में बड़ी रूचि को सामान्यत: एंटी इनकमबेंसी का संकेत,मसलन मौजूदा सरकार के विपरीत चली लहर माना जाता है। इसे प्रमाणित करने के लिए 1971,1977 और 1980 के आम चुनाव में हुए ज्यादा मतदान के उदाहरण दिए जाते है। लेकिन यह धारणा पिछले कुछ चुनावों में बदली है। 2010 के चुनाव में बिहार में मतदान प्रतिशत बढ़कर 52 हो गया था, लेकिन नीतीश कुमार की ही वापिसी हुर्इ। जबकि पश्चिमी बंगाल में ऐतिहासिक मतदान 84 फीसदी हुआ और मतदाताओं ने 34 साल पुरानी माक्र्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की बुद्धदेव भट्रटाचार्य की सरकार को परास्त कर,ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जीत दिलार्इ। गोया, चुनाव विश्लेशकों और राजनीतिक दलों को अब किसी मुगालते में रहने की जरूरत नहीं है,मतदाता पारंपरिक जड़ता और प्रचालित समीकरण तोड़ने पर आमदा हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी को 29 सीटें जीता कर मतदाता ने साफ कर दिया है कि वह भ्रष्टाचार मुक्त शासन और मंहगार्इ से मुकित चाहता है।  लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पूरी होना देखना चाहता है। शिवराज को लाडली लक्ष्मी योजना और एक रुपये किलो में 35 किलो अनाज और 1 रु में नमक की थैली ने स्पष्ट बहुमत पर पहुंचा दिया।

हालांकि राजस्थान में अशोंक गहलोत भी लोक लुभावन नीतियों को अमल में लाने में जुटे थे। शीला दीक्षित भी दिल्ली को बड़े जतन से संभाल रही थीं। उनका व्यकितत्व भी देश के अन्य मुख्यमंत्रियों से कहीं बेहतर था, बावजूद उन्हें केंद्र की नीतिगत नाकामियों का खामियाजा भुगतना पड़ा। कांग्रेस की मदर इंडिया सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी मंहगार्इ व भ्रष्टाचार को काबू में लेने की कोशिशों के वजाय आम सभाओं में धर्म निरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के बेबुनियादी मुददों को उछालते रहे। इन मुददों से मुस्लिम वोट भले ध्रुवीकृत हुआ हो लेकिन उसे सीटों में नहीं बदला जा सका। राजस्थान में महिला मनावाधिकार आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा को भी हार का मुंह देखना पड़ा। कांग्रेस को युवा मतदाताओं ने भी वोट नहीं दिया। यह वोट दिल्ली में आप और राजस्थान व मध्यप्रदेश में मोदी के नाम पर भाजपा को मिला। आप और उसके नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में यह साबित कर दिया कि कम से कम खर्चे पर और बिना शराब व पैसा बांटें भी चुनाव जीते जा सकते हैं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेसियों पर हुए नक्सली हमले ने बदलाव की सहानुभूती लहर रच दी थी, लेकिन कांग्रेस इसे पूरी तरह भुना नहीं पार्इ। यदि वह भुनाने में सफल हो जाती तो उसे स्पष्ट तौर से दो तिहार्इ बहुमत मिल गया होता ?

मत प्रतिशत का सबसे अहम, सुखद व सकारात्मक पहलू है कि यह अनिवार्य मतदान की जरूरत की पूर्ति कर रहा है। हालांकि फिलहाल हमारे देश में अनिवार्य मतदान की संवैधानिक बाध्यता नहीं है। मेरी सोच के मुताबिक ज्यादा मतदान की जो बड़ी खूबी है, वह है कि अब अल्पसंख्यक व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से छुटकारा मिलेगा। इससे कालातंर में राजनीतिक दलों  को भी तुष्टिकरण की मजबूरी से मुकित मिलेगी। क्योंकि जब मतदान प्रतिशत 75 से 85 प्रतिशत होने लग जाएगा तो किसी धर्म,जाति,भाषा या क्षेत्र विशेष से जुड़े मतदाताओं की अहमियत कम हो जाएगी। नतीजतन उनका संख्याबल जीत या हार को गारंटी से प्रभावित नहीं कर पाएगा। लिहाजा सांप्रदायिक व जातीय आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति नगण्य हो जाएगी। यह स्थिति मतदाता को धन व शराब के लालच से मुक्त कर देगी। क्योंकि कोर्इ प्रत्याशी छोटे मतदाता समूहों को तो लालच का चुग्गा डालकर बरगला सकता है, लेकिन संख्यात्मक दृष्टि से बड़े समूहों को लुभाना मुश्किल होगा ? दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में बड़े मत प्रतिशत ने धर्म और जाति समूह से जुड़े वोट बैंक के मिथक को इस चुनाव में तोड़ दिया है।

इन चुनावों को लोकसभा के 2014 में होने वाले चुनाव के संदर्भ में सेमीफाइनल माना जा रहा था। नरेंद्र मोदी के लिए भी ये चुनाव परीक्षा थे। जाहिर है नतीजों के बाद कांग्रेस रसातल में है और भाजपा को नये पंख मिल गये है। इन चुनावों ने तय कर दिया है कि देश का बहुसंख्यक समाज केवल कारपोरेट घरानों की खुशफहमी में अपनी खुशहाली नहीं देख सकता। उसकी खुशहाली के लिए नीतियों को समावेशी बनाना होगा, जिससे लोक हितकारी जमीनी योजनाएं बने और वंचित तबके का जीवन खुशहाल हो ?

2 COMMENTS

  1. लेखक ने लेख शायद चुनाव नतीजों के आने से पहले रुझान देखकर ही लिख दिया जिस से 36 गढ़ में कांग्रेस को न केवल जीता दिया बल्कि उसकी वजेह भी ब्तादी जबकि वहां बीजेपी ही जीती है। ऐसे ही दिल्ली में आप पार्टी की २९ सीट लिखी हैं जबकि वे २८ हैं। आप को लेकर चान्क्ये के आलावा सबका अनुमान गच्चा खा गया है ये भी लिखा जाना चाहिए था। भार्गव जी बड़े लेखक हैं हम उनका बहुत सम्मान करते हैं लेकिन इस जल्दबाजी से उनकी हैरत हुई है।

  2. कांग्रेस ने तो चुनाव आयोग से कह कर पहले ही प्री पोल पर रोक लगवा दी थी क्योंकि वे पहले से ही वे कांग्रेस के खिलाफ जा रहे थे,और कांग्रेस इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थी .वैसे भी कोई भी पदासीन सरकार अपने खिलाफ ऐसे पोल को नकारती ही है.वोह तो एग्जिट पोल को भी मैंने को तैयार नहीं थे, पर इस पर रोक नहीं लगवा सकते थे.इस बार विश्लेषण पहले से ज्यादा सटीक थे और लगभग सही सिद्ध भी हुए पर जनतंत्र में ऐसी रोक लगाना उचित नहीं था न है. आखिर सच को तो स्वीकार करना ही पड़ता है.पांच दिन नींद सो भी लें तो क्या,..

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