बदहाली का कारण बनी धारा – 370 ?

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download (1)प्रमोद भार्गव

जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली धारा-370 को अब तक भारत की राष्ट्रीय अखंडता और संप्रभुता जैसे बड़े सवालों से जोड़कर देखा जाता रहा है। इसके साथ ही कश्मीर को वहां रह रहे हिंदुओं की सुरक्षा और विस्थापित पंडितों की समस्या के बरक्ष भी देखा जाता रहा है। हालांकि भाजपा छोड़ अन्य राजनीतिक दलों के लिए विस्थापित पंडित इसलिए महत्वपूर्ण  नहीं हैं, क्योंकि वे अपनी संख्या बल के आधार पर राजनीति में जय-पराजय का परिणाम देने वाला हस्तक्षेप नहीं कर पाते। गोया, वे मुस्लिमो की तरह प्रभावी वोट बैंक किसी राजनीतिक दल का नहीं बन पाए हैं। किंतु कश्मीर समस्या उक्त अनुत्तरित सवालों से ही जुड़ी नहीं है, यह कश्मीरी डोगरे, लददाखी बौद्ध, सिख और अन्य दलित व पिछड़ी जातियों के मानवाधिकार हनन से भी जुड़ी है। यह समस्या 1947 में बंटवारे के बाद भड़की सांप्रदायिक हिंसा के नतीजतन पश्चिमी पाकिस्तान से पलायन करके जम्मू क्षेत्र में आए हिंदुओं से भी जुड़ी है। चूंकि ये लोग 65 साल पहले जम्मू-कश्मीर के मूल निवासी नहीं थे, इसलिए आज तक इन लाचारों को भारत की नागरिकता तो मिल गर्इ है, किंतु राज्य की नागरिकता नहीं मिली है। जबकि विडंबना देखिए, विभाजन की मार झेलकर पाकिस्तान से आए सभी शरणार्थी देश में जहां भी बसे, वहां की उन्हें नागरिकता दे दी गर्इ। आज वे सभी सम्मानित भारतीय नागरिक हैं। तय है, कश्मीर घाटी में बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय को छोड़, अन्य धर्म और जनजातियों के लोग बदहाली तथा आत्मरक्षा के संकट से जूझ रहे हैं।

इस लिहाज से भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी धारा-370 की व्यापक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन करने की वकालात कर रहे हैं, तो इसे गंभीरता से लेने की जरुरत है। मोदी ने कहा है कि जम्मू-कश्मीर में दलित, बौद्ध, स्थानीय जन-जातियां और महिलाएं अन्य राज्यों की तुलना में समान अधिकार हासिल करने से वंचित हैं, इसलिए इस संवैधानिक प्रावधान से वाकर्इ कश्मीरियों को कोर्इ फायदा हुआ भी है अथवा नहीं, इसकी समीक्षा होनी चाहिए ? यहां गौरतलब है कि जब देश में मुस्लिम समुदाय के सामाजिक व आर्थिक आकलन की दृष्टि से सच्चर समिति बिठार्इ जा सकती है और देश के सभी अल्पसंख्यकों व दलितों की यथार्थ तस्वीर सामने लाने के लिए रंगनाथ मिश्र आयोग से रिपोर्ट तैयार करार्इ जा सकती है, तो जम्मू-कश्मीर में रह रहे अल्पसंख्यकों व दलितों की हकीकत जानने के लिए अनुच्छेद 370 के व्यापक परिप्रेक्ष्य में इन लोगों की सामाजिक व आर्थिक हैसियत की समीक्षा क्यों नहीं करार्इ जा सकती ? कश्मीर में इंसानियत कितनी बदहाल है, यह भारत विभाजन के दौरान  पश्चिम पाकिस्तान से जम्मू क्षेत्र में बसे हिंदुओं के अक्ष का आकलन करके जाना जा सकता है। चूंकि ये लोग रिफूजी थे और इनका संबंध महाराजा हरिसिंह के तत्कालीन राज्य से नहीं था, इसलिए इन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य की नागरिकता आज तक नहीं मिली है। अलबत्ता इनके पास भारतीय नागरिकता जरुर है। क्या इस परिप्रेक्ष्य में धारा – 370 की समीक्षा की जरुरत नहीं है ? दरअसल, इस धारा में प्रावधान है कि जम्मू-कश्मीर के परंपरागत मूल निवासियों को ही नागरिकता के अधिकार दिए जाएंगे, जो राज्य -विषय अर्थात स्टेट सब्जेक्ट के तहत आते हैं। इसी विषय के अंतर्गत आने वाले लोग यहां घर और भूमि का क्रय-विक्रय कर सकते हैं। उन्हें ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने का हक है। सरकारी नौकरियों पर भी उन्हीं का एकाधिकार है।

राज्य विषय से इतर लोग देश के नागरिक भले ही हैं, लेकिन राज्य के नागरिक नहीं हैं, इसलिए ये लोक कल्याणकारी लाभ से वंचित हैं, क्योंकि इनके पास राशन-कार्ड नहीं हैं। इन्हें ग्राम पंचायत, नगरीय निकाय और विधान सभा चुनाव में लड़ने का अधिकार तो छोडि़ए, वोट डालने तक का अधिकार भी नहीं है। हां, संसदीय चुनाव में जरुर ये महरुम वोट डालने का अधिकार रखते हैं। करीब ढार्इ लाख इन शरणार्थियों में से ज्यादातर अनुसूचित जाति से हैं। इनके बच्चे दसवीं पास कर भी लेते हैं, तो उन्हें आगे पढ़ने के लिए छात्रवृतितयां नहीं मिलती ? आखिर भारतीय नागरिक होने के बावजूद बुनियादी सुविधाओं व अधिकारों से ये लोग वंचित क्यों हैं, इसकी पड़ताल होनी चाहिए ? इनके बुनियादी हकों की पैरवी करने की जरुरत मायावती को भी है, जो केवल दलित वोट बैंक के बूते राजनीतिक वर्चस्व कायम किए हुए हैं।

संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रावधान रखते वक्त पंडित नेहरु ने खुद उम्मीद जतार्इ थी की समय के साथ राज्य को विशेष दर्जा देने वाले प्रावधान की जरुरत ही नहीं रह जाएगी। दुर्भाग्य से ऐसा निजी राजनीतिक लिप्साओं और सत्ता में बने रहने की महत्वाकांक्षाओं के चलते नहीं हो पाया। वरना 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ था, तभी यह राज्य भारत का अविभाजित हिस्सा बन गया था। यह स्वीकृति ब्रीटिश और भारतीय संसद के विभिन्न कानूनों के अनुरुप थी, जो अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तकाजों पर भी खरी उतरती थी। महाराजा हरिसिंह ने राज्य विलीनीकरण के दस्तावेजों पर ठीक उसी तरह दस्तखत किए थे, जिस तरह से अन्य रियासतों के राजाओं ने किए थे।

लेकिन इसी वक्त शेख अब्दुल्ला ने भारतीय संविधान के दायरे से कश्मीर को अलग रखने की कवायद शुरू कर दी थी। यही वह समय था जब पाकिस्तानी कबाइलियों ने कश्मीर पर हमला बोल दिया। इस हमले से भयभीत होकर महाराजा हरिसिंह श्रीनगर से प्राण बचाकर भाग निकले। हरिसिंह के इस  पलायन को शेख अब्दुल्ला ने एक सुनहरा अवसर मानते हुए कहा कि हरिसिंह राज्य छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं, इसलिए जम्मू कश्मीर का विलीनीकरण वैध नहीं ठहराया जा सकता है। यही वह समय था, जब मोहम्मद अली जिन्ना ने रियासतों के भारत में विलय को लेकर भोपाल और हैदरावाद रियासतों के मुस्लिम शासक होने के कारण उन्हें पाकिस्तान में शामिल करने की पैरवी करते हुए शेख अब्दुल्ला और राजस्थान के कुछ हिंदू राजाओं को भी भारत से अलग रहने की शह दी।

भारत की तमाम रियासतों के विलीनीकरण की समस्या से तो सरदार वल्लभभार्इ पटेल निपटे। किंतु जम्मू कश्मीर के विलय के मुददे को नेहरु ने अपने पास ही रखा। नेहरु का कश्मीर से लगाव इसलिए भी था, क्योंकि यह उनकी जन्मभूमि थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस समय जम्मू को कश्मीर से अलग रखते हुए हिंदू बहुल राज्य बनाने की कोशिश में थे। मुखर्जी शेख अब्दुल्ला की मांग के विरोध में ‘एक विधान एक निशान के हिमायती थे, जबकि अब्दुल्ला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के अंतर्गत विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर रहे थे। इसी दौरान जम्मू की जेल में मुखर्जी की रहस्यमय में परिस्थिति में मौत हो गर्इ। नतीजतन पूरे जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में उग्र व हिंसक आंदोलन भड़क गया। शेख अब्दुल्ला की गिरफतारी हुर्इ। इसके बाद नेहरु और अब्दुल्ला के बीच 1953 में एक समझौता हुआ और अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिल गया।

जम्मू कश्मीर के भारत में विलय और राज्य पर भारतीय संविधान को पूरी तरह लागू करने की मांग को लेकर जो आंदोलन 1947 से 1953 में नेहरु-अब्दूल्ला के बीच हुर्इ संधि तक चला, वही आंदोलन करवट लेते हुए कालांतर कश्मीर में अलगाववाद की चपेट में आ गया। कश्मीर में हिंदु, सिख, डोगरे व बौद्धों के विस्थापन से लेकर उनकी सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक बदहाली की जड़ में यही अनुच्छेद है। इस लिहाज से यदि संवैधानिक प्रावधान धारा-370 का जम्मू-कश्मीर को मूल बाशिंदों के लिए लाभकारी साबित नहीं हुआ है तो उस पर विचार-विमर्श से परहेज क्यों ? वास्तव में आज धारा 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को जिस तरह के अधिकार प्राप्त हैं, उससे न केवल अलगाववाद को हवा मिल रही है, बलिक सभी गैर मुस्लिम समुदाय असमानता और अन्याय का दंश झेलते हुए आत्मरक्षा के संकट से भी जूझ रहे हैं, इसलिए 370 पर बहस के विचार को तरजीह दी जानी चाहिए।

4 COMMENTS

  1. नमस्कार !
    आपके लेख में अच्छी जानकारी समाहित है, जिसको पढ़कर अच्छा लगा.

    कुछ साल पहले मैंने इस सन्दर्भ में एक कश्मीरी (मुस्लिम युवक) से बात कि थी, जिसमे उसने साफ -साफ कहा था कि हम, भारत सरकार से अपनी सुरक्षा चाहते है, हम किसी भी देश के अधीन नहीं रहना चाहते है, इसके जवाब में मैंने उससे पूछा कि भारत सरकार आर्थिक सुरक्षा, बाहरी सुरक्षा, और हर तरह कि आपकी मदत करे, और आपलोग उसमे बिलाय नहीं चाहते, इसमें भारत का क्या फायदा है, इसके जवाब में वो चुप हो गया, लेकिन मेरे समझ में एक बात समझ में नहीं आई, कुटनित्ति कि दुहाई देते नेता कश्मीर के मुद्दे पर कबतक आतंकी घटनाये होते देखते रहेंगे ? शायद ये इसलिए एसे ही मुद्दा बना हुआ है, क्यों कि मरनेवाले आम लोग है, जो लोग हर दिन पैदा होते है और मरते है.

    सच तो ये है, कि जबतक ये ३७० और कश्मीर का कोई आर -पार हल नहीं निकलता, भारत का विकास इस बड़े मुद्दे को सुलझाए बगैर नहीं मिलेगा.

  2. भार्गवजी, अच्छा लेख है.लेकिन नेहरू कि जन्म भूमि कश्मीर नहीं थी. वो इलाहबाद में पैदा हुए थे.और अब तो कुछ लोगों ने ये भी कहा है कि जवाहरलाल नेहरू के दादा ‘गंगाधर’ नेहरू वास्तव में मुग़ल बादशाह बहादुरशाह के अधीन दिल्ली के कोतवाल गयासुद्दीन गाज़ी ही थे जिसने अंग्रेजों के हाथों मारे जाने के डर से भेष और नाम बदल कर दिल्ली से आगरा पलायन कर लिया था.और स्वयं को कश्मीरी पंडित बताकर अंग्रेज़ों की आँख में धूल झोंक दी थी.कुछ लोग यहाँ तक भी कहते हैं की शेख अब्दुल्ला के पिता मुबारक अली और मोतीलाल नेहरू एक ही व्यक्ति के दो नाम थे.अतः जवाहरलाल नेहरू जी ने अपने अर्ध भ्राता को लाभ पहुँचाने के लिए जबरन शेख अब्दुल्ला को महाराजा हरीसिंह द्वारा हस्ताक्षरित विलयपत्र के बीच में डालकर कश्मीर का नासूर पैदा किया था.अगर इस रियासत को भी पूरी तरह सरदार पटेल के जिम्मे छोड़ दिया गया होता तो शेष रियासतों की भांति इसका भी भारत में सदैव के लिए विलय हो जाता.

  3. भार्गव जी,
    नमस्कार
    एक वस्तु परख और तथ्य परख आलेख के लिए बधाई। धारा 370 भारत के राजनैतिक नेत्रत्व की वह दुर्बलतम कड़ी है जिसके कारण जम्मू कश्मीर के लाखों हिंदुओं को आज तक यह ज्ञात नहीं हो पाया कि स्वतन्त्रता किस चीज का नाम है? इसका अभिप्राय है की इन लोगों का स्वतन्त्रता संग्राम आज भी जारी है लेकिन भारत में इन लोगों के स्वतन्त्रता संग्राम की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता जो कि एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है जबकि आवश्यकता कश्मीर के हिंदुओं को समर्थन देने की है जिससे की वह देश के आजादी के परिवेश के साथ अपना तालमेल बना सकें। एक बार पुनः धन्यवाद।

  4. विकीपेडिया के अनुसार===>कश्मिर घाटी का क्षेत्रफल १५९४८ चौरस किलोमिटर है।
    ====> और समूचे जम्मू कश्मिर राज्यका क्षेत्रफल(१४ गुणा)==> २२२,२३६ चौरस किलो मिटर है।
    ===> अर्थात कश्मिर घाटी का क्षेत्र समूचे राज्य का, केवल ७.१७६ % (प्रतिशत ) ही होता है।
    ===>शीत कालीन राजधानी भी जम्मु में खिसकायी जाती है।
    प्रश्न(१)ऐसा ७% का क्षेत्र सारे कश्मिर को अपना समझ कर, सारे हिंदू पण्डितों को निष्कासित कर, अपनी मनमानी, स्वतंत्र भारत में, किस बल पर और कैसे कर रहा है?
    प्रश्न(२) क्या मनमोहन सिंह शासन के हाथ भी उनकी पगडी की भाँति बँधे है?
    प्रश्न (३) उमर कहीं भी (अहमदाबाद में भी) बहस के लिए तैयार है, तो लोकसभा में क्यों, मना करता है?
    रास्ता भी जम्मु से ही जा सकता है।
    सरदार जी—>क्षेत्रीय आपात्काल लाओ और धारा ३७० समाप्त करो। आप सरदार (सर वाले) हो।

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