बाबरी मसजिद प्रकरण- सांप्रदायिक विचारधारा ने असत्‍य का साथ थामा

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बाबरी मस्जिद प्रकरण में उपजी सांप्रदायिक विचारधारा ने जहां एक ओर कानून एवं संविधान को अस्वीकार किया, दूसरी ओर, इतिहास का विद्रूपीकरण किया। इतिहास के तथ्यों की अवैज्ञानिक एवं सांप्रदायिक व्याख्या की गई, इतिहास के चुने हुए अंशों एवं तथ्यों का इस्तेमाल किया। और यह सब किया गया विद्वेष एवं घृणा पैदा करने के लिए व समाज में विभेद पैदा करने के लिए। इस काम में झूठ का सहारा लिया गया। मुस्लिम शासकों, मुसलमानों एवं भारतीय इतिहास की विकृत एवं खंडित व्याख्या की गई। इस प्रक्रिया में इतिहास के नाम पर तथ्यों को गढ़ा गया। जो तथ्य इतिहास में नहीं थे, उनकी रचना की गई।

भारतीय समाज का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इतिहास क्या है तथा बाबरी मस्जिद प्रकरण से जुड़े वास्तविक तथ्य एवं उनकी वैज्ञानिक व्याख्या क्या हो सकती है। यहां हम कुछ उन तथाकथित ऐतिहासिक तथ्यों की जांच करेंगे जो बाबरी मस्जिद प्रकरण के संदर्भ में गढ़े गए हैं। एक लेखक हैं रामगोपाल पांडे, उन्होंने राम जन्मभूमि का रोमांचकारी इतिहास लिखा है। इस पुस्तक के उद्धरणों का सांप्रदायिक संगठन सबसे ज्यादा प्रयोग कर रहे हैं, इस पुस्तक में बिना किसी प्रमाण के इतिहास के बारे में अनेक दंतकथाएं दी गई हैं। जाहिर है दंतकथाएं, तथ्यों की पुष्टि के बिना सिर्फ दंत कथाएं ही कहलाएंगी उनको इतिहास का दर्जा नहीं दिया जा सकता। इस पुस्तक में बताया गया है कि हिंदुओं में दस बार, अकबर के युग में 20 बार, औरंगजेब के समय तीन बार, अंग्रेजों के समय 31 बार और अवध के शासन के समय आठ बार मंदिर मुक्ति के लिए कोशिश की गई थी पर लेखक ने अपने दावे के लिए किसी भी समसामयिक तथ्य का हवाला नहीं दिया है। हकीकत में, बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर हिंदुओं एवं मुसलमानों में सबसे पहली लड़ाई 1855 ई. में हुईथी, जिसका वर्णन मिर्जाजान की हदी गाह-अल-शुहद में विस्तार से किया गया है, हालांकि यह वर्णन एकांगी है।

इसी तरह मॉडर्न रिव्यू 6 जुलाई 1924 के अंक में किन्हीं ‘सत्यदेव परिव्राजक’ का लिखा विवरण हिंदू सांप्रदायिक संगठन प्रचारित कर रहे हैं। इसमें कहा गया है, ”परिव्राजकजी को किसी पुराने कागजों की छानबीन में प्राचीन मुगलकालीन सरकारी कागजातों के साथ फारसी लिपि में लिथो प्रेस द्वारा प्रकाशित शाही मुहर संयुक्त बाबर का एक शाही फरमान प्राप्त हुआ था, जो अयोध्या में स्थित श्री रामजन्मभूमि को गिराकर मस्जिद बनाने के संबंध में शाही अधिकारियों के लिए जारी किया गया था। परिव्राजक द्वारा पेश तथाकथित दस्तावेज इस प्रकार है- ‘शहंशाहे हिंद मालिकुल जहां बादशाह बाबर के हुक्म से हजरत जलाल शाह के हुक्म से बमूजिव अयोध्या में राम जन्मभूमि को मिसमार करके उसकी जगह उसी के मसाले से मस्जिद तामीर करने की इजाजत दे दी गई है, बजरिए इस हुक्म-नामें के तुमको बतौर इत्तला करके आगाह किया जाता है कि हिंदुस्तान के किसी भी गैर सूबे से कोई हिंदू अयोध्या न जाने पाए, जिस शख्त पर सुबहा हो कि वह जाना चाहता है, फौरन गिरफ्तार करके दाखिल जींदा कर दिया जाए, हुक्म का सख्ती से तामील हो फर्ज समझकर।”

इस दस्तावेज की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाया गया है। दस्तावेज एवं परिव्राजक के बयान से कई प्रश्न उठते हैं, पहली बात यह कि बाबर के जमाने में लिथो प्रेस नहीं था। अगर लिथोप्रेस होता तो सभी शाही फरमान उसी में छापे जाते। दूसरी बात यह कि परिव्राजक महोदय ने इस फरमान को कहां से प्राप्त किया, उस स्रोत का हवाला क्यों नहीं दिया? अगर मुगलकालीन कागजों में मिला था तो वे कागज उन्हें कहां मिले थे? तीसरी बात यह कि बाबरनामा में इतने महत्वपूर्ण दस्तावेज का जिक्र न होना क्या यह साबित नहीं करता कि यह फरमान गढ़ा गया है। आखिरी बात यह है कि बाबर के जमाने में उर्दू भाषा सरकारी भाषा नहीं थी। अत: यह दस्तावेज पूरी तरह अप्रामाणिक सिद्ध होता है।

इसी तरह की असत्य से भरी अनेक कृतियां हिंदू सांप्रदायिक संगठनों ने छापी हैं। विश्व हिंदू परिषद् के एक अन्य प्रकाशन अतीत की आहुतियां, वर्तमान का संकल्प में दीवान-ए-अकबरी का हवाला दिया गया है। दीवान-ए-अकबरी के उद्धरण के सहारे लिखा गया कि अकबर लिखता है-”जन्मभूमि के वापस लेने के लिए हिंदुओं ने बीस बार हमले किए, अपनी हिंदू रिआया का दिल जख्मी न हो, इसलिए बादशाह हिंदशाह जलालुद्दीन अकबर ने राजा बीरबल और टोडरमल की राय से इजाजत बख्श दी और हुक्म दिया कि कोई शख्स इनके पूजा-पाठ में किसी तरह की रोक-टोक न करे।” बाबर युगीन स्थापत्य पर शोधरत इतिहासकार श्री शेरसिंह ने इस संदर्भ में कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं।

शेरसिंह ने पहली बात यह कही कि अकबर पढ़ा-लिखा नहीं था। अत: उसके द्वारा दीवान-ए-अकबरी का लिखना गलत है। आईन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है कि अकबर के लिए प्रतिदिन कुछ विद्वान जुटते थे और उसके लिए पाठ करते थे, बादशाह बेहद गौर से शुरू से आखिर तक सुनता था और पाठ करने वालों को पन्नों के हिसाब से भुगतान करता था।

इतिहासकार शेरसिंह ने दूसरी बात यह बताई है कि दीवान-ए का मतलब है संपूर्ण रचनावली, जब लिखना-पढ़ना ही नहीं जानता था तो संपूर्ण रचनावली कैसी?

इस प्रसंग में डी.एन.मार्शल की कृति मुगल इन इंडिया महत्वपूर्ण सूचना देती है, इस पुस्तक में उस समय की दो पुस्तकों का जिक्र है:

1. दीवान-ए-अली अकबर, जो हिजरी 1194 यानी सन 1784 में लिखी गई, इसका लेखक है अली अकबर बिन असद अल्लाह, इस पुस्तक में सूफी कविताओं का संकलन है।

2. दीवान-ए-अली अकबर, इसके लेखक हैं मुहियाल दीन अली अकबर मोइदी चिश्ती। इसकी रचना 12वीं हिजरी के आखिर में हुई या 18वीं सदी में। यह भी सूफी कविताओं का संकलन है।

डी.एन.मार्शल की सूची में दीवान-ए-अकबरी का कहीं कोई नाम नहीं है, अगर इस नाम से कोई ग्रंथ है तो वह धोखे से अधिक कुछ नहीं है। अकबर के प्रधानमंत्री अबुल फजल अलामी ने ‘आईन-ए-अकबरी’ जरूर लिखा था, जो सन् 1857 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक में ‘अयुध्या’ का जिक्र है, अबुल फजल लिखता है ‘अयुध्या (अयोध्या) पवित्र जगह है, यह अवध में है, जहां चैत में शुक्ल पक्ष की नवमी को बड़ा भारी मेला जुटता है,

‘हिंदू त्यौहारों’ पर भी उसने अलग से लिखा है। पर, कहीं भी उसने जन्मस्थान, राम जन्म मंदिर का जिक्र नहीं किया है। अगर उस जमाने में बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद रहा होता तो अबुल फजल उसका जिक्र जरूर करता। अत: दीवान-ए-अकबरी धोखे से ज्यादा महत्व नहीं रखता।

हिंदू सांप्रदायिक संगठनों की तरफ से जिन ऐतिहासिक साक्ष्यों का उपयोग किया है, वे सबके सब ब्रिटिश इतिहासकारों ने तैयार किए हैं जिनमें सोची-समझी योजना के तहत हिंदू-मुस्लिम विवाद के बीज बोए गए हैं। इसका कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य पेश नहीं किया गया है जिससे इस बात का पता चले कि बाबरी मस्जिद की जगह ही राम मंदिर था।

दूसरी बात यह है कि अगर ऐसा साक्ष्य हो भी तो क्या मध्ययुग की गलती को एक दूसरी गलती करके दोहराना तर्कसंगत होगा? बाबर ने अगर कोई काम किया तो उसकी भरपाई सारे देश की जनता एवं लोकतांत्रिक राज्य क्यों करें? यह मध्ययुग की गलती सुधारने के लिए मध्ययुग में जाने जैसा ही होगा और आज के दौर में मध्ययुग में जाने का मतलब एक भयानक स्वप्न जैसा ही हो सकता है।

यहां स्मरणीय है कि अयोध्या माहात्म्य नामक संस्कृत ग्रंथ के बारे में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के सन् 1875 के अंकों से यह बात प्रमाणित होती है कि राम का जन्मस्थान विवादास्पद जगह से दक्षिणपूर्व की ओर था।

अवध एवं अयोध्या के इतिहास का गंभीर अध्ययन करने वाले इतिहासकार सुशील श्रीवास्तव ने प्रोब इंडिया में 19 जनवरी 1988 में लिखा कि राम जन्मभूमि स्थान बाबरी मस्जिद की जगह ही था, यह स्थानीय लोकविश्वासों एवं लोकगीतों में वर्णित धाराणाओं पर आधारित है इसके पक्ष में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं, वे यह भी कहते हैं कि इसके कोई प्रमाण नहीं हैं कि बाबर ने मंदिर तोड़ा था।

प्रोब इंडिया पत्रिका ने एक अन्य इतिहासकार आलोक मित्र को भी अयोध्या भेजा था, जिनका सुशील श्रीवास्तव से अनेक मसलों पर मतभेद था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में निष्कर्ष देते हुए लिखा-‘विवादास्पद स्थान पर ही राम जन्मभूमि थी यह एक झूठी कहानी है।’

एक अन्य शोधटीम इतिहाकसार शेर सिंह, इतिहासकार सुशील श्रीवास्तव एवं शोध छात्र इंदुधर द्विवेदी के नेतृत्व में अयोध्या गई थी। इस टीम ने अयोध्या माहात्म्य पुस्तक के आधार पर यह पता लगाने की कोशिश की थी कि वास्तविक जन्मस्थान कहां है? इस टीम ने पाया कि अयोध्या में सात ऐसी जगह हैं, जिन्हें जन्मस्थान कहा जाता है। इनमें से कोई भी जगह बाबरी मस्जिद स्थान को स्पर्श तक नहीं करती।

हाल ही में विश्व हिंदू परिषद् के तर्कों के पक्ष में कुछ इतिहासकारों ने वी.वी.लाल की पुरातात्विक खुदाई के बारे में चौंकने वाले तथ्य दिए हैं जिनका पिछले 15 वर्षों से कहीं अता-पता नहीं था और न ही वी.वी.लाल की खुदाई संबंधी रिपोर्ट में उनका जिक्र है। यह बात इतिहासकारों प्रो.के.एन. पन्निकर, प्रो.रोमिला थापर, प्रो.एस.गोपाल ने बताई है। हिंदू सांप्रदायिक तत्वों के बाबरी मस्जिद प्रकरण के ऐतिहासिक सूत्र ज्यों-ज्यों झूठे साबित होते जा रहे हैं, वे नए-नए झूठ एवं तथ्य गढ़ते जा रहे हैं। उनमें नवीनतम है इस विवाद का गांधी फॉर्मूला, भाजपा के महामंत्री कृष्णलाल शर्मा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस फॉर्मूले की जानकारी दी है। अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया ने तथाकथित गांधी फार्मूले की प्रामाणिकता की गहराई से छानबीन की और पाया कि न तो ऐसा कोई अखबार छपता था और न ही गांधी ने ऐसा कोई लेख लिखा था। हिंदू सांप्रदायिक संगठनों की इतिहास गढ़ने की ये कुछ बानगियां हैं, असल में उनका समूचा साहित्य तो सैकड़ों टन में है। उस सबका विवेचन इस लेख में असंभव है।

इस समूचे प्रकरण में सबसे त्रासद पक्ष यह भी है कि हिंदी साहित्य के अनेक लेखकों पर मध्ययुगीन इतिहास का प्रभाव पड़ा है, खासकर आधुनिक युगीन लेखकों के ऊपर, यहां मैं सिर्फ एक उदाहरण दे रहा हूं-अमृतलाल नागर कृत उपन्यास है ‘मानस का हंस’। यह तुलसीदास के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाला उपन्यास है। इस उपन्यास में वे सभी तथ्य हैं जो तथाकथित इतिहास लेखक रामगोपाल पांडे की कृति राम जन्मभूमि का रोमांचकारी इतिहास में हैं या जो ‘तथ्य ’परिव्राजकजी के मॉर्डन रिव्यू वाले शाही फरमान तथा लेख में हैं, और विश्व हिंदू परिषद् द्वारा प्रकाशित अतीत की आहुतियां: वर्तमान का संकल्प में उद्धृत तथाकथित दीवान-ए-अकबरी में है। ये सभी कृतियां गढ़ी गई हैं।

अमृतलाल नागर ने ‘मानस का हंस’ 23 मार्च 1972 को लिखकर पूरा किया। यहां उस उपन्यास के कुछ अंश दिए जा रहे हैं जो सांप्रदायिक प्रचार सामग्री से हूबहू मिलते हैं। वे एक जगह लिकते हैं: रामनवमी की तिथि निकट थी। अयोध्या में उसे लेकर हलचल भी आरंभ हो गई थी, जब से जन्मभूमि के मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई है, तब से भावुक भक्त अपने आराध्य की जन्मभूमि में प्रवेश करने से रोक दिए गए हैं। प्रतिवर्ष यों तो सारे भारत में रामनवमी का पावन दिन आनंद से आता है, पर अयोध्या में वह तिथि मानो तलवार की धार पर चलकर ही आती है। भावुक भक्तों की विह्वलता और शूरवीरों का रणबांकुरापन प्रतिवर्ष होली बीतते ही बढ़ने लगता है। गांव दर-गांव लड़के न्योते जाते हैं, उनकी बड़ी-बड़ी गुप्त योजनाएं बनती हैं, आक्रमण होते हैं, राम जन्मभूमि का क्षेत्र शहीदों के लहू से हर साल सींचा जाता है। ऐसी मान्यता है कि विजेताओं के हाथों से अपने पर-ब्रह्म की पावन अवतार भूमि को मुक्त कराने में जो अपने प्राण निछावर करते हैं, उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं।… रामजी का जन्मदिन भक्तों के घरों में गुपचुम मनाया जाता है, पहले तो किसी भी समय नगर में खुले आम कोई धार्मिक कृत्य करना एकदम मना था, पर शेरशाह के पुत्र के समय जब हेमचंद्र बक्काल उनके प्रमुख सहायक थे तब से अयोध्यावासियों को छूट मिल गई थी। …राम की जन्मभूमि में रामकथा न कही जाए यह अन्याय उन्हें सहन नहीं होता था।

एक अन्य जगह वे लिखते हैं:

तुलसीदास के कानों में आगामी रामनवमी के दिन होने वाले संघर्ष की बातें पड़ने लगीं। उस दिन अयोध्या में बड़ा बखेड़ा होगा। ऐसा लगता था कि अब की या तो रामजी की अयोध्या में उनकी भक्त जनता ही रहेगी या फिर बाबर की मस्जिद ही। लोग बाग अकसर निडर और मुखर होकर यह कहते सुनाई पड़ते थे कि उन्हें इस बार कोई भी शक्ति राम जन्मभूमि में जाकर पूजा करने से रोक नहीं सकेगी।

बस्ती में फैली हुई यह दबी-दबी अफवाहें तुलसीदास को एक विचित्र स्फूर्ति देती थीं। वे प्रतिदिन ठीक मध्याह्न के समय बाबरी मस्जिद की ओर अवश्य जाया करते थे। एक जगह वे लिखते हैं-

मध्याह्न बेला के लगभग आधी-पौन घड़ी पहले ही अयोध्या में जगह-जगह डौंढी पिटी मुल्क खुदा का, मुल्क हिंदोस्थान का, अमल शहंशाह जलालुद्दीन अकबर शाह का…। अयोध्या की गली-गली में आनंद छा गया था।…

अमृतलाल नागर के उद्धृत अंशों की तुलना तथाकथित दीवान-ए-अकबरी में वर्णित अंशों से सहज ही की जा सकती है जिसका पर्दाफाश इतिहासकार शेरसिंह ने किया है।

उल्लेखनीय है इतिहास एवं साहित्य के क्षेत्र में विद्रूपीकरण की कोशिश सांप्रदायिक शक्तियों के द्वारा वर्षों से अंदर ही अंदर चल रही थी। अमृतलाल ने जिस सच का वर्णन किया है अगर वह सच था तो उसका जिक्र तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में क्यों नहीं किया? उनके समकालीन किसी भी हिंदू लेखक-कवि ने क्यों नहीं किया? तुलसीदास रचित बारह ग्रंथ हैं। इनमें विनयपत्रिका रामजी के दरबार में फरियाद के रूप में लिखी गई रचना है। बाबरी मस्जिद प्रकरण एवं मुस्लिम शासकों के द्वारा हिंदुओं के उत्पीड़न के बारे में तुलसी ने कही भी कुछ क्यों नहीं लिखा? क्या तुलसी का हिंदुत्व निकृष्ट श्रेणी का था? जो वे ऐसा सोच एवं लिख नहीं पाए और नागरजी को 500 वर्ष बाद दिखाई दे गया! तुलसीदास का रहीम के साथ पत्र-व्यवहार दोहों में चलता था। इस पत्र-व्यवहार में भी इस सबका जिक्र नहीं है। तब तुलसी को क्या मुसलमानों ने खरीद लिया था? या नागरजी को हिंदू सांप्रदायिक तत्वों ने खरीद लिया? तुलसी का यथार्थ तुलसी न लिखे। तुलसी को दिखाई न दे। हठात् सैकड़ों वर्ष बाद नागरजी को दिखाई दे। सांप्रदायिकीकरण का कमाल।

खैर, हो सकता है, तुलसीदास से भूल हो गई और वे बाबरी मस्जिद प्रकरण एवं हिंदुओं के उत्पीड़न पर वह सबकुछ नहीं लिख पाए जो नागरजी ने लिका है, पर दूसरे लेखकों का क्या करेंगे जिन्होंने इसका जिक्र तक नहीं किया। स्वामी अग्रदास (सन 1575), नाभादास (सन 1600) और प्राणचंद चौहान (1610 ई.) ये तीनों ही रामाश्रयी हैं, ये भी तथाकथित मुस्लिम बर्बरता पर चुप हैं। इसके अलावा कृष्णाश्रयी शाखा के भी कवियों की परंपरा थी जो बाबर के ही युग की है जिनमें सूरदास, नंददास, कृष्णदास, कुंभनदास, छीतस्वामी, मीराबाई इन सबने बाबरी मस्जिद के संदर्भ में उन सब बातों को नहीं उठाया, जिनका नागरजी ने मानस का हंस में जिक्र किया है।

बाबर अगर मूर्ति तोड़क, हिंदू विरोधी एवं मंदिर तोड़क था तो अपनी राजधानी आगरा के पास मथुरा में मौजूदा मंदिरों को उसने क्यों नहीं तोड़ा? बाबर जब भारत आया था कृष्णाश्रयी शाखा के संतों का आंदोलन चरमोत्कर्ष पर था, अगर उसने हिंदुओं पर अत्याचार किए थे, मंदिर तोड़े थे तो उन सबका जिक्र तत्कालीन लेखकों की रचनाओं में क्यों नहीं है? यहां तक वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक महाप्रभु बल्लभाचार्य की रचनाओं में म्लेच्छों के प्रभाव बढ़ने का कोई जिक्र है, पर, राम जन्मस्थान मंदिर तोडे ज़ाने और बाबरी मस्जिद बनाये जाने का कोई जिक्र नहीं है। क्या आज के हिंदुत्ववादी महाप्रभु वल्लभाचार्य से बड़े हिंदू हैं? सिखों के गुरू गोविंद सिंह ने जफरनामा काव्य में कहीं भी राममंदिर तोड़े जाने का जिक्र नहीं किया है। यह काव्य औरंगजेब को चिट्ठी की शैली में लिखा गया था।

हिंदुत्ववादी संगठन शिवाजी को अपना हीरो मानते हैं। शिवाजी ने औरंगजेब को जो पत्र लिखा था, उसमें भी अयोध्या के राममंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाए जाने का जिक्र नहीं है। ये सब हिंदू थे और हिंदू होने के कारण स्वाभिमान महसूस भी करते थे। इनके अलावा राष्ट्रवादी हिंदू नेताओं बालगंगाधार तिलक, बंकिम, दयानंद, लाला लाजपत राय, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद, महात्मा गांधी आदि ने कहीं भी अयोध्या के बारे में वह कुछ नहीं कहा और लिखा जिसकी नागरजी ने चर्चा की है।

13 COMMENTS

  1. “शेरसिंह ने पहली बात यह कही कि अकबर पढ़ा-लिखा नहीं था। अत: उसके द्वारा दीवान-ए-अकबरी का लिखना गलत है।” – प्रेत लेखन के बारे मे ज्ञात है, अथवा पेट्रो डालर की भांति इसके बारे मे भी पूछ कर अपनी अयोग्यता दर्शाओगे?

    “दीवान-ए का मतलब है संपूर्ण रचनावली” – अब जरा दीवान – ए – आम और दीवान – ए – खास का मतलब भी समझा दो, शायद संपूर्ण आम (पूरा आम क फल) और संपूर्ण खस शर्बत बनाने के लिए

    “डी.एन.मार्शल की सूची में दीवान-ए-अकबरी का कहीं कोई नाम नहीं है, अगर इस नाम से कोई ग्रंथ है” – शायद उस समय भी लाइसेंस परमिट युग रहा होगा, जिसमे किताब लिखने का लाइसेंस लेना होता हओगा और वह लाइसेंस मार्शल साहब देते होंगे, अतः अगर उनके पास इसका जिक्र नही है तो यह फर्जी (या गैर कानूनी, जैसा भी सुधी पाठक गण समझ लें) है।

    “अबुल फजल लिखता है ‘अयुध्या (अयोध्या) पवित्र जगह है, यह अवध में है, जहां चैत में शुक्ल पक्ष की नवमी को बड़ा भारी मेला जुटता है, ‘हिंदू त्यौहारों’ पर भी उसने अलग से लिखा है। पर, कहीं भी उसने जन्मस्थान, राम जन्म मंदिर का जिक्र नहीं किया है।” – बाबरी मस्जिद का जिक्र है या नही इस बात को बडी चतुराई से हजम कर गये टीचर जी, बडी मुश्किल की बात है न, अगर यही तर्क मस्जिद के लिए देने लगे तो मस्जिद भी नही रहेगी, अब क्या किया जाए?

    “हिंदू सांप्रदायिक संगठनों की तरफ से जिन ऐतिहासिक साक्ष्यों का उपयोग किया है, वे सबके सब ब्रिटिश इतिहासकारों ने तैयार किए हैं जिनमें सोची-समझी योजना के तहत हिंदू-मुस्लिम विवाद के बीज बोए गए हैं।” – अभी उपर लेखक महोदय का एक वाक्य उद्ध्रत किया है जिसमे वो किसी मार्शल साहब क जिक्र कर रहे है जो कि उनके दृष्टि मे वो एक दम सच है और मार्शल साहब चुंकि सच बोल रहे हैं तो वर्तमान उद्धरण के परिप्रेक्ष्य मे मैं यह मानने को मजबूर हूँ कि मार्शल साहब विशुद्ध हिन्दुस्तानी रहे होंगे।

    “बाबर ने अगर कोई काम किया तो उसकी भरपाई सारे देश की जनता एवं लोकतांत्रिक राज्य क्यों करें” – किसने कहा उसकी भरपाई देश से होगी, सच को स्वीकारो, वह जगह देश की सरकारी सम्पत्ति नही है अब तक, उसको उसके असली मालिक को दो। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे हम कोहिनूर माँगे तो इग्लैण्ड कहे कि हमारा देश पहले की गलतियों की भरपाइ करने को तैयार नही है।

    “यहां स्मरणीय है कि अयोध्या माहात्म्य नामक संस्कृत ग्रंथ के बारे में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के सन् 1875 के अंकों से यह बात प्रमाणित होती है कि राम का जन्मस्थान विवादास्पद जगह से दक्षिणपूर्व की ओर था।” – मतलब मानते हैं कि राम जन्म्स्थान था, अर्थात राम भी होंगे, जरा अपनी पोलित ब्युरो से पूछ लीजीए कही वो आपके इस बयान पर आप को सोमनाथ की तरह तडीपार न कर दें।

    “अमृतलाल ने जिस सच का वर्णन किया है अगर वह सच था तो उसका जिक्र तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में क्यों नहीं किया” – महान बाबरी ढांचा, जिसके लिए कितने ही हिन्दुओं के प्राण हर लिए गये, इसका जिक्र बाबर और उनके वंशजों के किस रचना मे मिलता है जरा बताने का कष्ट करें।

    “स्वामी अग्रदास (सन 1575), नाभादास (सन 1600) और प्राणचंद चौहान (1610 ई.) ये तीनों ही रामाश्रयी हैं, ये भी तथाकथित मुस्लिम बर्बरता पर चुप हैं।” – मुस्लिम बर्बरता तो कहानीकारों के दिमाग की उपज है, साथ ही जजिया कर, महिलाओं को उठाना, बल्कि अभी हाल मे कश्मीर से हिन्दुओं को भगाया जाना, सिखों को धमकी देना, यह सब अखबारों मे छपने वाली कहानियाँ हैं।

    “बाबर अगर मूर्ति तोड़क, हिंदू विरोधी एवं मंदिर तोड़क था तो अपनी राजधानी आगरा के पास मथुरा में मौजूदा मंदिरों को उसने क्यों नहीं तोड़ा”- बहुत बढिया प्रश्न है, अब मुझे बताइए, अगर भाजपा मुस्लिम एवं मस्जिद विरोधी है तो राजस्थान मे सरकार आने पर अजमेर की दरगाह क्यों नही तोडी? उत्तर प्रदेश मे ताज महल कैसे बच गया? हुगली का ईदगाह कैसे बची हुई है, जरूर यहां भाजपा की सरकार कभी नही रही होगी, सरकारी आंकडो मे भाजपा वालों ने फेर बदल कर दिया होगा।

  2. क्या इस लेख को लिखने वाले विध्वान अब अपने लेख को परिवर्तित करेंगे??? अब भी फ़्र्जी तर्को से जनता को मुर्ख बनाते रहने का खेल चालु रखेंगे???आप से एक विनती है अब बकवास बंद कर ये सारी दलिले अब सुपिर्म कोर्ट मे दिजियेगा,और शर्मा जी शिकायत जरुर किजियेगा कि पुरि कि पुरि हिन्दु को देने को कहा…………………………..शिवाजि महाराज ने तो अनेको मन्दिरो का जिग्र नही किया तो वो मन्दिर थे हि नही???क्या तर्क देते हो सहाब????जरा थोडा तो ख्याल करिये अपनी इतनी बडि योग्यता का,एतनी बडी पोस्ट का………………………….आप शिक्षक है,अगर शिक्षक ही विध्यार्थियो को असत्य पढायेगा तो भारत का क्या हाल होगा,राम ही मालिक है…………….

  3. सदैव की तरह बहुत ही बढ़िया और तर्क सांगत लेख ! ऐसे शोध और पत्रकारिता के लिए चतुर्वेदी जी को बधाई ! आगे भी आपके ऐसे ही तर्क सांगत लेखों की प्रतीक्षा रहेगी ! आपका प्रशंसक राज सिंह !

  4. श्री जगदीश्वर जी के आलेख को में तसल्ली से पढता हूँ .उनके तथ्यपूर्ण और युक्तिसंगत प्रस्तुतिकरण से अपने अपरिपक्वा विचारों को परिष्कृत करने का उप्क्रुम पाता हूँ .सच्चा हिन्दू वो नहीं जो असत्य और भ्रामक दुष्प्रचार से अन्य धर्मावलम्बियों पर अतीत के अनदेखे इल्जाम लगाये .बल्कि सच्चा हिन्दू वो जो जगदीश्वर चतुर्वेदी की तरह विशुद्ध सचाई को उद्घाटित करे ,भले ही वह मुझे भी कडुवा लगे ..सभी हिदू मुस्लिम भाइयों को आपस में एकता कायम करते हुए कोर्ट का फैसला मान्य करना ही सबके हित में और देश के हित में है .फैसला आज आ चूका है .जो सभी को मंजूर करना चाहिए .प्रवक्ता .कॉम को इस विषय पर चर्चा प्रस्तुत करने की बधाई .

  5. माननीय जगदीश्‍वर चतुर्वेदी जी!
    अच्छे लेख, सच्चाई उजागर करने और इतनी जानकारी जुटाने के लिए बधाई!
    पहली बात यह कि बाबर के जमाने में लिथो प्रेस नहीं था।
    बाबर के जमाने में उर्दू भाषा सरकारी भाषा नहीं थी।
    झूट तो झूट ही होता है
    तरस आता है इनकी हालत पर

    चतुर्वेदी जी बहुत बहुत बधाई हो आशा है आप आगे भी ऐसे ही नकाब उठाते रहेंगे

    कुछ लोगो से ये सच्चाई बर्दास्त नहीं होगी
    भगवान् भला करे उनका
    ॐ …………शांति शांति ……….

  6. दिनेश गोड़ जी
    सच तो कड़वा ही होता है
    आपका भड़कना सही है
    शायद आप अभी भी सपना देखा रहे है
    मुसलमानों का नामो निशान मिटाना इतना आसान समझ लिया है आपने
    “२०%हैं कब का नामो निशान मिट गया होता”
    ये सब करना तुमने नानी जी का घर समझ लिया है
    तुम तो चाहते ही ये हो
    लेकिन सपने देखने पर कोई पाबन्दी थोड़े है देखो खूब देखो भाई

  7. कमाल करते है चतुर्वेदी जी… इतनी उम्र हो गयी आपकी दिमाग तो चलाया करें…सत्य को न बोलना और झूठ बोलना दो अलग अलग बातें हैं. ये जो दुनिया भर के उदाहरण आपने गिना दिए जिन्होंने राम जन्म भूमि का जिक्र नहीं किया किन्तु उन्होंने ऐसा भी तो नहीं कहा की वहां राम का जन्म हुआ ही नहीं था.उन्होंने तो उस सम्बन्ध में कुछ कहा ही नहीं किन्तु आप तो इतना कुछ बक गए की आपने देश के ८०% हिन्दुओं के पूज्यनीय भगवान् श्री राम के जन्म पर दी सवाल पैदा कर दिया. झूठ तो आप बोल रहे हैं. आज अगर मनमोहन सिंह जी देशवासियों को देश भक्ति का भाषण देते हुए यदि २०० वर्ष की अंग्रेजों द्वारा किये गए अत्याचारों का जिक्र न करें तो क्या आप ये मान लेंगे कि अंग्रेजों ने कभी भारत को गुलाम बनाया ही नहीं, ये तो साम्प्रदायिक हिन्दू मनगढ़ंद कहानियां बना रहे हैं. आप तो भरी धुप में आँखे बंद कर यह बोलने की चेष्टा कर रहे हैं कि सूरज तो अभी निकला ही नहीं है तो बताएं आपको राह कौन दिखाए जब आप ने निर्णय ही कर लिया है कि मुझे अपने पूर्वजों के विरोध में ही बोलना है भले ही वे सत्य के रक्षक हों, दुष्टों के विनाशक हों और मर्यादा पुरषोत्तम हों, किन्तु हमें क्या करना है, हम तो बुद्धूजीवी है न, हमें तो फिजूल की बातें कर के ही देश की भोली भाली जनता को बेवकूफ बनाना है न.
    आपने अपने पूरे लेख में पता नहीं कितनी बार साम्प्रदायिक हिन्दू शब्द का उपयोग किया है, हिन्दू तो आपकी नज़र में आतंकी ही रहेगा,. चतुर्वेदी जी हिन्दू यदि साम्प्रदायिक या आतंकी होता तो २०% मुस्लिमों और ईसाईयों का यहाँ से नामो निशाँ मिट गया होता. किन्तु आपकी नज़र में वे हिन्दू साम्प्रदायिक हैं जो अपनी व अपने परिजनों की रक्षा के लिए हथियार उठाते हैं और वो जो कश्मीर में हमारे पंडित भाइयों को मार कर खदेड़ चुके हैं वे तो आपकी नज़र में शान्ति दूत हैं न. हम सभी हिन्दू तो झूठे हैं,झूट के अलावा हम कुछ बोलते नहीं हैं तो क्या बाबर और उसके जिहादी औलादों ने आपको बिहारी के दोहे सुना दिए…ओह क्षमा करें बिहारी के दोहे आपको क्यों पसंद आने लगे वे तो आपके लिए किसी हिन्दू द्वारा जारी जानलेवा फतवे की तरह ही होंगे न…क्यों? अरे वो तो भगवान् श्री कृष्ण के सम्मान में लिखे गए हैं न और आपके हिसाब से जब राम का जन्म ही नहीं हुआ तो कृष्ण का कहाँ से से हुआ होगा …और यदि हुआ भी होगा तो वो भी आपकी नज़र में आतंकी ही होंगे जिन्होंने कौरवों के विरुद्ध शस्त्र उठाने के लिए पांडवों को प्रेरित किया…आपको पता है भगवान् कृष्ण ने ऐसा क्यों किया था? आपको कहाँ से पता होगा, मै बताता हूँ उन्होंने सत्य की रक्षा के लिये ऐसा किया. और जब आज भगवान् श्री कृष्ण की संताने हम भारतीय सत्य की रक्षा के लिये उन्ही के दिखाए मार्ग पर चल रहे हैं तो हम साम्प्रदायिक हैं, हम आतंकवादी हैं…
    चतुर्वेदी जी आपने पता नहीं अपनी कितनी ऊर्जा आज यह कहने में लगा दी की हम भारतीय सामोरादायिक है, आपने कितनी ही ऊर्जा बाबर को निर्दोष सिद्ध करने में लगा दी. कितनी आसानी से आपने कह डाला कि बाबर ने भारत में किसी तरह का कोई उत्पात नहीं किया, उसने किसी भी हिन्दू पर कोई अत्याचार नहीं किया, तो ज़रा आप ये बताएं कि बाबर भारत में क्या घास खाने आया था?उसे यहाँ अपने पूरे सैन्य बल के साथ आने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी, वो तो शांति का पुजारी था न. हमारे देश में आने के लिये उसे सेना कि क्या आवश्यकता पड़ी…उतार दीजिये चतुर्वेदी जी…
    चतुर्वेदी जी आपने जिस तरह से हमारे पूज्यनीय भगवान् राम पर प्रश्न चिन्ह लगाया है आपसे यही कहना चाहता हूँ कि मै आपसे उम्र में बहुत छूता हूँ किन्तु फिर भी एक नसीहत देना चाहूँगा कि हमारी सहिष्णुता को हमारो कमजोरी न समझें, और अपनी मर्यादा को भंग न करें अन्यथा आपके साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाएगा जो एक देश द्रोही के साथ किया जाता है.
    जिस तरह से आपने राम पर प्रश्न उठाया है इसी प्रकार मोहम्मद साहब पर उठा के देख लीजिये आपको आभास हो जाएगा कि कौन आतंकी है और कौन शांति का प्रतीक.
    चतुर्वेदी जी आपके इस नकारात्मक लेख ने मुझे न केवल निराश किया है बल्कि क्रोध से भर दिया है कि हमारे देश में कुछ असामाजिक तत्व आज गौरवपूर्ण जीवन जी रहे हैं जिन्हें ये भी नहीं पता कि कौन आक्रान्ता है और कौन रक्षक???
    हाय रे मेरी भारत माता आज तेरी ही कुछ संताने अपने बाप का नाम भी नहीं जानती बल्कि उसी बाप के चिन्हों को मिटाने वाले आक्रान्ता को अपना बाप मानती हैं…शर्म करो चतुर्वेदी जी…

    • बंधुवर नाराज न हों। मैं अपने संघ के नेट दोस्तों से भी यही कहना चाहता हूँ कि विचार या ज्ञानचर्चा में नाराज नहीं होते, अपनी असहमति,भिन्न विचार आदि पेश करते हैं। मैं ज्ञानचर्चा के लिए लिखता हूँ,किसी को क्रोधित करने या नाराज करने या अपमान करने के लिए नहीं लिखता। आप निश्चिंत रहें मेरे भी संघ परिवार के सदस्यों से बेहतर मानवीय संबंध हैं।

      • संघ परिवार से आपके सम्बन्ध हैं इस लिए आपको अनर्गल लिखने का अधिकार नहीं प्राप्त हो जाताहैं गलत लिखते हो तो प्रतिक्रिया सुनने का साहस भी रखो ,

    • दिनेश गोड़ जी
      सच तो कड़वा ही होता है
      आपका भड़कना सही है
      शायद आप अभी भी सपना देखा रहे है
      मुसलमानों का नामो निशान मिटाना इतना आसान समझ लिया है आपने
      “२०%हैं कब का नामो निशान मिट गया होता”
      ये सब करना तुमने नानी जी का घर समझ लिया है
      तुम तो चाहते ही ये हो
      लेकिन सपने देखने पर कोई पाबन्दी थोड़े है देखो खूब देखो भाई

      • त्यागी सच बोलने का इतना ही शौक है तो जा कर घाटी मे कश्मीरी पंडितों की स्थिति के बारे मे बोल कर दिखाओ, या यह कडवा कुछ ज्यादा ही है।

        एक कडवा comment नीचे भी है व्यास जी का, क्या उसको कडवा होने के कारण तुम सच मानते हो? तर्क की बात करो कहावतें हवा मे मत उछालो।

    • आपको अभी तक पता नहीं ,बाबरी मस्जीद चतुर्वेदी जी के दिलोदिमाग में हैं बाबर चतुर्वेदीजी के पूर्वज थे .

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