बिना लड़े शहीद होते सैनिक

5
153

प्रमोद भार्गव

death of five soldiers                                दुनिया में शायद भारत ऐसा इकलौता देश है,जहां सीमा पर तैनात सैनिकों का बिना लड़े ही शहीद होने का सिलसिला जारी है। ऐसा गलत विदेश नीति और इकतरफा युद्ध विराम की शर्तों का पालन करने के कारण हो रहा है। जबकि पिछले छह महीने के भीतर पकिस्तान 57 मर्तबा युद्धविराम का उल्लंघन और 3 माह के दौरान 20 बार सीमा पर हमला करके प्रत्यक्ष युद्ध से हालात पैदा कर चुका है। पांच भारतीय सैनिकों की हत्या ठीक उस वक्त की गर्इ जब साउदी अरब में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भारतीय उपमहाद्वीप में हथियारों की होड़ खत्म करने और भारत से रिश्ते मधुर बनाने की इच्छा जाहिर कर रहे थे। कमोबेश यही वह समय था,जब जम्मू-कश्मीर के पूंछ सेक्टर में स्थित नियंत्रण रेखा पर घात लगाकर गश्त कर रहे भारतीय सेनिकों पर हमला किया गया। इस घटना के चंद घण्टे पहले ही सांबा सेक्टर में पाकिस्तानी सेना ने गोलीबारी करके बीएसएफ के एक जवान को मौत के घाट उतार दिया था। पीठ में छुरा घोंपने वाली इन क्रूर करतूतों से बचने के लिए पाकिस्तान ने एक नया बहाना ढूढ़ लिया है कि सेना नहीं,सेना की वर्दी में आतंकवादी इन घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। दूर्भाग्यपूर्ण व शर्मनाक है कि हमारे रक्षा मंत्री एके एंटनी ने भी पाकिस्तानी हरकतों के बचाव में कह दिया कि पाकिस्तानी सेना की वर्दी में आतंकवादियों ने ही हमला किया है। सवाल उठता है कि एंटनी ने किन सबूतों के आधार पर यह बयान दिया? पाकिस्तानी सेना और आतंकवादियों की पहचान का उनका आधार क्या है?                     सेना के भेश में आतंकवादी थे या वाकर्इ पाक सैनिक इस बाबत रक्षा मंत्री एंटनी को पाक के पूर्व लेफिटेंट जनरल एवं पाक खुफिया ऐजेंसी आर्इएसआर्इ के पूर्व अधिकारी शाहिद अजीज के उस रहस्योदघाटन पर गौर करने की जरूरत है जो अजीज ने ‘द नेशनल डेली में किया था। इसमें कहा गया था कि कारगिल युद्ध में पाक आतंकवादी नहीं,बलिक उनकी वर्दी में पाकिस्तानी सेना के नियमित सैनिक ही लड़ रहे थे और इस लड़ार्इ का लक्ष्य सियाचिन पर कब्जा करना था। चूंकि यह लड़ार्इ बिना किसी योजना और अंतरराष्ट्रीय हालातों का अदांजा किए बिना लड़ी गर्इ थी, इसलिए तात्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने पूरे मामले को रफादफा कर दिया था। क्योंकि यदि इस छदम युद्ध की हकीकत सामने आ जाती तो मुशर्रफ को ही संघर्ष के लिए जिम्मेबार ठहराया जाता। जाहिर है, पाकिस्तानी फौज इस्लामाबाद के नियंत्रण में नहीं है। आतंकी सरगना हाफिज सर्इद भारत-पाक सीमा पर खुलेआम घूम रहा है। जैश, लष्कर और हिजबुल के आतंकी दहशतगर्दी फैलाने में शरीक हैं। पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सत्ता परिर्वतन भले ही हो गया है, लेकिन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का सैन्य संगठनों पर कोर्इ नियंत्रण नहीं है। बलिक वे सेना और आतंकियों के दबाव में हैं। यही वजह है कि नवाज शरीफ कश्मीर हड़पने की नीतियों से संबंधित फाइल खोलने को फिर से तत्पर हैं। उन्होंने कारगिल युद्ध के समय भारत से जो वादे किए थे, उन्हें भूला दिया है।

इसी लेख में अजीज ने इसी साल जनवरी माह में मेंढर क्षेत्र में भारतीय सैनिकों के सर कलम किए जाने की जो घटना घटी थी,उस परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान को चेताते हुए लिखा था, कारगिल की तरह हमने अब तक जो भी निरर्थक लड़ाइयां लड़ी है, उनसे हमने कोर्इ सबक नहीं लिया है। सच्चार्इ यह है कि हमारे गलत कामों की कीमत हमारे बच्चे अपने खून से चुका रहे हैं। पाक इस समय जिस तरह आंतरिक और बाहरी विपदाओं से जूझ रहा है उससे उसकी आर्थिक बदहाली बढ़ रही है। यहां कठिन होते जा रहे हालातों का एक कारण यह भी है कि वहां के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेनानायक पद पर रहते हुए धर्म के नाम पर लोगों को भड़काने व आतंकवाद को प्रोत्साहित करने का काम करते हैं, लेकिन जब पदच्युत हो जाते हैं तो देश छोड़ जाते हैं। मुशर्रफ और शरीफ ने भी यही किया था। पाक में हालात ऐसे ही बने रहे तो एक दिन जनता सड़को पर होगी और सेना को मनमानी पर उतरने का मौका मिल जाएगा। ऐसे में यदि पाक के भीतर या सीमा पर कोर्इ बड़ी घटना घटती है तो यह कहना मुश्किल होगा कि यह घटना को अंजाम सेना ने दिया है या आतंकवादियों ने? जैसा की मेंढर और हाल ही में पूंछ सेक्टर में घटी घटनाओं के बाबत सामने आया है।

सीमा पर बदतर हो रहे हालात और आतंकी घटनाओं के क्रम में वक्त आ गया है कि हम र्इंट का जबाव पत्थर से दें। लेकिन हम हैं कि रिश्ते सुधारने की पहल अपनी ओर से करते हुए पाक के प्रति रहमदिली बरत रहे हैं। जबकि हमें सख्ती बरतने की जरूरत है। जरूरी नहीं की यह सखती खून का बदला खून जैसी प्रतिहिंसा का रूख अपनाकर दिखार्इ जाए। फिलहाल जब तक युद्ध की स्थिति निर्मित नहीं हो जाती है तब तक जारी आर्थिक समझौतों को प्रतिबंधित कर दिया जाए। रेल सेवा बंद कर दी जाए। अभी दोंनो देशो के बीच व्यापार तीन अरब डालर तक पहुंच गया है। यदि यह व्यापार खत्म होता है तो इससे ज्यादा नुकसान पाक को ही होगा। क्योंकि पाक उत्पादक देश नहीं है। उसे खाध सामग्री से लेकर उपभोक्ता वस्तुएं भारत और चीन से निर्यात करनी होती हैं। यदि ऐसा होता है तो पाक में खाध व उपभोक्ता वस्तूओं का टोटा पड़ जाएगा, इस लिहाज से वहां का आम नागरिक पाक सरकार को आतंकवाद पर काबू पाने के लिए विवश कर सकता है। खेल, पर्यटन और तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए सुविधा का जो सरलीकरण किया गया है,उस पर भी फिलहाल अंकुश लगाना जरूरी है।

इन प्रतिबंधो पर अमल की दृष्टि से यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कोर्इ कठिनार्इ महसूसतें हैं तो उन्हें उसी अमेरिका से सबक लेने की जरूरत है जिसकी आर्थिक नीतियों के वह प्रबल पैरोकार हैं। अमेरिका ने खुले तौर से ऐलान किया था कि उसके मित्र देश र्इरान से कोर्इ व्यापार न करें। भारत भी उन देशो से ऐसा कह सकता है कि यदि आप हमसे व्यापार करते हैं तो पाक से न करें। लेकिन इतना कहने की न तो मनमोहन सिंह के मुहं में जुबान है और न ही संप्रग सरकार में इतनी हिम्मत है कि वह ऐसा कोर्इ कठोर रुख अपनाएं कि प्रधानमंत्री व सोनीया गांधी ऐसे निर्णय लेने को विवश हों कि पाकिस्तान भारत के समक्ष घुटने टेकने को विपक्ष मजबूर हो जाए?

पाकिस्तान को विवश करने की दृष्टि से हमें अमेरिका के प्रति भी थोड़ा कड़ा रूख अपनाना होगा। क्योंकि पाक सेना की दबंगर्इ बढ़ाने का परोक्ष रूप से काम अमेरिका ही कर रहा है। अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक मदद बहाल कर दी है। यह राशि तीन अरब डालर सालाना है। इसके पहले अमेरिका ने पाक को इतनी बड़ी धनराशि पहले कभी उपलब्ध नहीं करार्इ। ऐसा अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेना बाहर निकालने की रणनीति के चलते कर रहा है। यह मदद पाक कूटनीति का पर्याय होने की बजाय, सेना और आर्इएसआर्इ की कोशिशों का परिणाम है,इसलिए इस धनराशि का इस्तेमाल भारत के खिलाफ जारी आतंकी गतिविधियों में होना तय है। यहां गौरतलब यह भी है कि पाक-अफगान सीमा पर पाक के कारीब ड़ेढ लाख सैनिक तैनात हैं। अमेरिका सैनिकों कि जब अफगान से पूरी तरह वापिसी हो जाएगी तब सेना की इस सीमा पर जरूरत खत्म हो जाएगी। ऐसे में यदि इन सैनिकों की तैनाती भारत-पाक सीमा पर कर दी जाती है तो भारत की मुषिकलें और बढ़ जाएंगी। इस लिहाज से भारत के नेतृत्वकर्ताओं में यदि जरा भी दूरदर्शिता है तो जरूरी है कि वह पाक सेना की अफगान सीमा से वापिसी के पहले  कोर्इ कारगर कदम उठा लें। इस स्थिति को पाक को मुहंतोड़ जवाब देने का मुनासिब वक्त भी कहा जा सकता है। लेकिन मनमोहन सिंह में इतना जज्बा कहां ? मनमोहन सिंह तो किसी ऐसी फिराक में लगे दिखार्इ देते हैं कि नवाज शरीफ से कोर्इ ऐसा तालमेल बैठ जाए, जिसके क्रम में पाकिस्तान से कश्मीर के सिलसिले में कोर्इ ऐसा समझौता हो जाए, जिससे उनके लिए नोबेल शांति पुरूस्कार के द्वार खुल जाएं। अमेरिका से मनमोहन इसलिए नाराजी मोल लेना नहीं चाहते, क्योंकि देश का प्रधानमंत्री न रहने पर उनकी मंशा है कि अमेरिका की मदद से वे राष्ट्रसंघ, अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष अथवा विश्व बैंक के अध्यक्ष बन जांए ? यह महत्वकांक्षा भारत को आतंरिक और बाहरी दोनों ही स्तर पर कमजोर बनाने का काम कर रही है।

5 COMMENTS

  1. शिवेन्द्र मोहन जी, मैं आपकी भावनाओं को समझ रहा हूँ,पर क्या आप जानते है कि बी.एस.ऍफ़ में जवान की नौकरी दिलाने के लिए बिहार में एजेंट लोग कितना पैसा लेते है. यह रकम पचास हजार से एक लाख के बीच कुछ भी हो सकता है. अब बताइये आप ऐसे जवानों से क्या अपेक्षा कर सकते हैं?उन्हें आप कौन सी देश भक्ति सिखा सकते हैं?जो लोग इस पूरे गोरख धंधे को जानते हैं,उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी ,यह आप अच्छी तरह समझ सकते हैं. आपके इस कथन से मैं सहमत हूँ कि यह भावना भीं अवश्य है कि मेरे घर का तो नहीं मरा.यह भावना उसी तरह की है कि सब कोई चाहता है कि भगत सिंह पैदा हो,पर मेरे घर नहीं.

  2. शिवेन्द्र मोहन जी, मैं आपकी भावनाओं को समझ रहा हूँ,पर क्या आप जानते है कि बी.एस.ऍफ़ में जवान की नौकरी दिलाने के लिए बिहार में एजेंट लोग कितना पैसा लेते है. यह रकम पचास हजार से एक लाख के बीच कुछ भी हो सकता है. अब बताइये आप ऐसे जवानों से क्या अपेक्षा कर सकते हैं?उन्हें आप कौन सी देश भक्ति सिखा सकते हैं?जो लोग इस पूरे गोरख धंधे को जानते हैं,उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी ,यह आप अच्छी तरह समझ सकते हैं. आपके इस कथन से मैं सहमत हूँ कि यह भावना भीं अवश्य है कि मेरे घर का तो नहीं मरा.यह भावना उसी तरह की है कि सब कोई चाहता है कि भगत सिंह पैदा हो,पर मेरे घर नहीं.

  3. आज टाइम्स आफ इंडिया में एक समाचार छपा है कि इन जवानों ने किस तरह सीमा पर लापरवाही बरती थी,जिसके कारण उन्हें अपने प्राणों क़ी बलि देनी पड़ी.क्या इससे दूसरे जवानों या भारतीय सेना के कमांडरों को सबक नहीं लेनी चाहिए कि भविष्य में ऐसा न हों?

  4. मुझे कभी कभी लगता है क़ि मैं वैसा क्यों नहीं सोच पाता हूँ,जैसा एक आम भारतीय सोचता है. जनवरी में पाकिस्तानी हमारी सेना के एक जवान का सर काट कर ले गए. हमने खूब हो हल्ला मचाया. वे लोग चुपचाप सब कुछ सुनते रहे. कुछ दिनों में हम शांत हो गए. उन्होंने हमारेजवान का सर भारतीय सीमा के अन्दर आकर काटा था. इससे क्या अंतर पड़ता है क़ि वे पाकिस्तानी सैनिक थे या आतंकवादी या डाकू? वे हमारे घर में घुसे थे. हमारे ये जवान और पूरी सेना सीमा क़ी रक्षा के लिए तैनात हैं. वे तो अपनी भी रक्षा नहीं कर सके.मान लिया कि गलती हुई और उसकी कीमत उन्हें अपने प्राणों से चुकानी पड़ी. उसी समय इसकी समीक्षा क्यों नहीं हुई? क्यों नहीं ऐसे कदम उठाये गए,जिससे इस घटना क़ी पुनरावृति नहीं हो? इससे क्या पता चलता है? उस गलती से हमने क्या सबक लिया? कुछ महीनो चुप रहने के बाद उन्होंने दोबारा वही हरकत की.इस बार तो उन्होंने पांच जवानों को गोलियों से भून ड़ाला. हमने देश भर में कोहराम मचाया. संसद में भी इसकी गूंज सुनाई दी. नेताओं को दहाड़ने का मौका मिला,पर क्या किसी ने लोकल कमांडर या सेनाध्यक्ष से यह प्रश्न पूछा कि बार बार ऐसा क्यों हो रहा है? क्या हमारे सैनिक हाँथ पाँव बाँध कर सीमा पर खड़े कर दिए गए हैं? नक्शालियों से लड़ाई में जब पुलिस और अर्ध सैनिक बालों के जवान मारे जाते हैं तो यह कहा जता है कि हमारे इन जवानों को बहुत तरह की पाबंदियों के बीच काम करना पड़ता है.क्या ऐसी पाबंदियां सीमा पर भी लागू हैक्या हमारे जवानों को यह हिदायत है कि तुम तब तक हथियार मत उठाओ,जबतक सीमा के अन्दर आया हुआ घुसपैठी तुम पर आक्रमण नहीं करे. अगर ऐसा है तो क्यों नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र इसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाता? अगर ऐसा नहीं है,तो यही आवाज सेना या सेनाध्यक्ष के विरुद्ध क्यों नहीं उठती ,जो स्वयं तो शहीद हो ही रहे हैं,साथ साथ राष्ट्र का मनोबल भी गिरा रहे हैं?
    रही बात अमेरिका से हमारी तुलना कि, तो क्या हम सच में इतने मजबूत हैं कि किसी तरह का व्यापारिक या अन्य प्रतिवंध लगा सकें?इस बारे में प्रवक्ता पर एक बार पहले भी मैं बचपन में पढ़ी एक कहानी उद्धृत कर चूका हूँ..जिसमे एक सियार ने वाही करने का प्रयत्न किया था,जो उसके पहले बाघ कर चूका था. परिणाम क्या हुआ था?सियार बेमौत मारा गया था.

    • सिंह साहब, एक आम भारतीय तो सो रहा. उसे देश दुनिया की कोई फ़िक्र नहीं है. एक आम नागरिक को इस घटना से जितना उद्द्वेलित होना चाहिए था, घर से बाहर आना चाहिए था वैसा कुछ हुआ नहीं. मतलब साफ़ है मेरे घर का तो नहीं मरा……… बस बाकि देश जाए भाड़ में. युवा रंगीनीयों में खोया हुआ है, बुजुर्ग ताश के पत्तों में. बाकि सब दो दूनी चार करने में जुटे हुए हैं. रहे हम और आप …. हम दोनों अपना अपना खून ही जला सकते हैं इन घटनाओ से.

Leave a Reply to शिवेन्द्र मोहन सिंह Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here