मीडिया का बाजारवाद

mediaमनोज कुमार

मीडिया का बाजारवाद कहें अथवा बाजार का मीडिया, दोनों ही अर्थों में मीडिया और बाजार एक-दूसरे के पर्याय हैं। मीडिया का बाजार के बिना और बाजार का मीडिया के बिना गुजारा नहीं है। दरअसल, दोनों ही एक सायकल के दो पहिये के समान हैं जहां एक पहिया बाहर हुआ तो सायकल विकलांग होने के कगार पर खड़ी होगी। मीडिया का बाजारवाद बहुआयामी अर्थों वाला है। मीडिया से बाजार का संचालन होता है फिर वह मसला खबरों को बेचने और खरीदने का हो, लोगों की भावनाओं को खरीदने या बेचने का हो या समाज की जरूरत की वस्तुओं की तरफ लोगों को आकर्षित करने का हो।
ध्यान रहे कि यहां हम मीडिया के बाजारवाद की बात कर रहे हैं न कि पत्रकारिता की। पत्रकारिता का न तो कभी कोई बाजार रहा है और न ही उसका बाजारवाद से कभी कोई रिश्ता बन सकता है क्योंकि पत्रकारिता खरीदने अथवा बेचने की वस्तु नहीं बल्कि वह समाज को दिशा देने का कार्य करती रही है और अपने जिंदा रहने तक यह दायित्व निभाती रहेगी। पत्रकारिता का फलक इतना विस्तारित है कि उसे किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता है। समाज में उपजने वाली विसंगति के केन्द्र में पत्रकारिता है, लोगों की पीड़ा को आवाज देने का नाम पत्रकारिता है, जोर-जुल्म और समाज के ताने-बाने को क्षतिग्रस्त करने वालों के खिलाफ जो आवाज गूंजती है, वह पत्रकारिता है। पत्रकारिता का यह गौरवशाली स्वरूप अपने जन्मकाल से रहा है। पराधीन भारत में पत्रकारिता ने अपने दायित्वों का निर्वहन किया और आज स्वाधीन भारत में पत्रकारिता की ओज कायम है। समाज का विश्वास पत्रकारिता पर है तो इसलिये कि जब उसकी सुनवाई कहीं नहीं होती है तब पत्रकारिता उसकी आवाज बन जाती है। जिस सरकार और सरकारी दफ्तर में आम आदमी की आवाज अनसुनी कर दी जाती है, वहां पत्रकारिता आम आदमी की आवाज बन कर उसे न्याय दिलानेे के लिये तत्पर दिखायी देता है। यह पत्रकारिता की साख है और यही साख मीडिया से उसे अलग बनाता है।
लगभग तीन दशक के आसपास का समय हुआ होगा जब टेलीविजन अवतरित हुआ। पहले पहल तो इसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कहकर पुकारा गया लेकिन यह नाम असरदायक नहीं लगा और पत्रकारिता और टेलीविजन प्रसारण को मिलाकर एक नाम दिया गया मीडिया। कोई पक्के दावे के साथ नहीं कह सकता कि मीडिय नाम की यह चिडिय़ा किस देश से उडक़र भारत में आयी। मीडिया इतना सहज और सरल शब्द लगा कि यह तेजी से लोगों की जुबान पर चढ़ता गया और बिना किसी विरोध मीडिया शब्द ऐसा स्थापित हुआ कि पत्रकारिता नेपथ्य में चला गया और मीडिया का वर्चस्व स्थापित हो गया।
मीडिया वास्तव में है क्या? मीडिया का शाब्दिक अर्थ हिन्दी में माध्यम होता है। माध्यम अर्थात किसी कार्य को अंजाम तक पहुंचाने का साधन। इस अर्थ में मीडिया का स्वरूप पत्रकारिता से कतई मेल नहीं खाता है क्योंकि पत्रकारिता, मीडिया की तरह साधन नहीं, साध्य है और साध्य एक निश्चित लक्ष्य एवं उद्देश्य की पूर्ति के लिये किया जाता है।
मीडिया शब्द का फौरीतौर पर देखें तो टेलीविजन प्रसारण के लिये प्रयुक्त होता है जहां समाचार है, विचार है, मनोरंजन है, बाजार है आदि-इत्यादि। हालांकि टेलीविजन की अपनी सीमा है किन्तु टेलीविजन प्रसारण जब मीडिया बन जाता है तो उसकी सारी सीमायें टूट जाती है और वह बाजार के मुंह में चला जाता है। मीडिया इस समय बाजारवाद के शिकंजे में है। मर्यादा और सीमा बाजार के लिये कभी कोई मायने नहीं रखती हैं। शायद यही कारण है कि बाजार ने मीडिया को भी वस्तु मान लिया और खरीद-फरोख्त के स्तर पर पहुंच गया। बाजार एक मगरमच्छ है और उसका मुंह इतना बड़ा है कि वह हर किसी को निगलने के लिये तैयार है।
पिछले दिनों कुछेक मामले समाज के सामने आये जिनमें मीडिया के खरीद-फरोख्त की सूचनायें शामिल है। मामला अदालत तक पहुंच गया और समाज के सामने सवालिया निशान छोड़ गया है। देने वाला कहता है कि मांगने वाला दोषी और मांगने वाला स्वयं को पाक-साफ बताता है। यह कोई प्रसंग नहीं है कि दोषी कौन? असल बात तो यह है कि लेन-देन की बात ही कहां से आयी? यदि मामला ऐसा है तो यह विचारणीय है कि बाजार ने कहा कि तुम बिको और दूसरे से कहा खरीदो। बाजार अपनी नीति और नियम से चल रहा था। सौदा बना नहीं और टूट गया और इस टूटन में नैतिकता को आड़े लिया गया। बाजार इस मामले में भी जीत गया क्योंकि इस पूरे सौदे में जो दो शामिल थे, उनका जमकर प्रचार हुआ जिसे समाज बदनामी कहता है किन्तु बदनाम होकर भी नाम कमाने की प्रवृत्ति ने बाजार को विजयी बना दिया।
बाजार के पास नैतिक-अनैतिक शब्द के लिये कोई स्थान नहीं होता है। वह तो नफा और नुकसान पर टिका होता है और उसका झुकाव नफे की तरफ ही होता है क्योंकि व्यापार में नुकसान कोई नहीं उठाना चाहता। बाजार हर उस चीज को बेच देना चाहता है जो बिक रही हो। इस खरीद-बिकवाली में सामाजिक रिश्तों का ताना-बाना भले ही छिन्न-भिन्न हो जाये, इसकी परवाह बाजार नहीं करता है। इन दिनों मीडिया के बाजार में सर्वाधिक बिकने वाला मामला था बलात्कार का। देश की राजधानी नईदिल्ली में हुये वीभत्स बलात्कार के मामले के बाद तो जैसे बलात्कार की बाढ़ सी आ गयी। मीडिया रोज खोद-खोद कर मामले लाता रहा और इस बात का भी ध्यान नहीं रखा कि रोज-रोज की खबरों से किशोरवय के बच्चों के मानस पर क्या असर होगा। मीडिया की रेटिंग ने नैतिकता के सारे पैमाने को किनारे कर दिया। स्मरण रहे कि इसके पहले गड्ढे में गिरा प्रिंस भी मीडिया के लिये हॉटकेक की तरह था जिसे भुनाया गया। प्रिंस के बाद गड्ढे में गिरने वाला हर बच्चा कैमरे की कैद में था। यह और बात है कि मीडिया के प्रयासों से कितने बच्चों की जान बची या आज की तारीख में कितने बच्चों को गड्ढे में गिरने से बचाया जा सका है, इसकी कोई जानकारी नहीं है। हो सकता है कि अब कोई बच्चा गड्ढे में गिर नहीं रहा हो।
मीडिया का सूत्र वाक्य रहा है कि जो दिखता है, वह बिकता है और वह सबकुछ बेचने पर आमादा है। सामान तो वह बेचने के उपक्रम में जुटा हुआ ही है, वह इमोशन का भी व्यापार करने से चूक नहीं रहा है। मीडिया के घेरे में जब अखबार भी आ जाये तो उसका चरित्र पूरा न सही, थोड़ा तो बदल ही जाता है। कहावत है ना गिरगिट को देखकर गिरगिट रंग बदल ही लेता है, सो अखबारों के बारे में इस मुद्दे पर बहुत अलग राय नहीं बनाया जाना चाहिये। मेरी पत्रकारिता के शुरूआती दिनों में कस्बानुमा अखबार के पाठकों के बारे में हमें बताया जाता था कि हमारे अखबार के ग्राहक वो सारे लोग हैं जो मैट्रिक अथवा उसके समकक्ष है और यही कस्बाई अखबार जब राजधानी पहुंचा तो इसके मायने ही बदल गये। कल तक आम आदमी का अखबार नौकरशाहों और पूंजीपतियों का अखबार बन गया। यह दुर्भाग्यजनक ही नहीं बल्कि शर्मनाक भी कहें तो संकोच नहीं होना चाहिये।
मीडिया का बाजारवाद का फलक इतना बड़ा है कि वह किसी को नहीं बख्शता है। शर्त यही होती है कि टीआरपी बढऩे तक ही किसी विषय को वस्तु बनाया जाता है। एक टेलीविजन चैनल के हेड बताते हैं कि सुबह सुबह ही यह तय कर दिया जाता है कि आज किस खबर को खेलना है अर्थात उस दिन की सबसे ज्यादा बिकने वाली यानि टीआरपी देने वाली खबर को बार बार दिखाया जाना है। याद रहे कि एक चैनल ने चर्चित आरूषि हत्याकांड को लेकर एक स्पेशल स्टोरी प्लान किया और बता दिया कि आज यह स्पष्ट हो जाएगा कि आरूषि का हत्यारा कौन है? तकरीबन एक घंटे के इस कार्यक्रम में विज्ञापन तो बटोरा गया लेकिन दर्शकों को निराशा ही हाथ लगी। दरअसल, यह एक किस्म की सनसनी फैलाने का मामला है। लम्बे समय से लोग इंतजार में बैठे हैं कि आरूषि के हत्यारों का पता चले और ऐसे में जब एक टेलीविजन चैनल कहता है कि वह इस राज से परदा उठायेगा तो स्वाभाविक है कि दर्शकों की रूचि होगी। दर्शकों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ का यह तरीका बेहद घटिया है।
मीडिया की बातें करते हैं तो यह भी साफ हो जाता है कि मीडिया में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के साथ साथ मुद्रित माध्यम भी शामिल है। बाजारवाद का शिकार मुद्रित माध्यम भी है, इस बात से इंकार करना मुश्किल है। जिस तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिये कुछ खेल-तमाशे करता है, वैसे ही अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के लिये मुद्रित माध्यम कुछ भी करगुजरने को तैयार है।
अखबार और पत्रिकाओं की कीमत को जमीन पर लाने से लेकर अखबार, पत्रिकाओं के साथ बाल्टी, साबुन और न जाने क्या क्या उपहार देने के लिये बेताब हैं। मुद्रित माध्यम के पास कंटेंट को समृद्ध करने का कोई प्रयास नहीं दिखता है बल्कि वह शार्टकट तरीके से अपनी प्रसार संख्या को आसमानी ऊंचाई तक पहुंचाना चाहता है। यह राज-रोग किसी एक को नहीं बल्कि लगभग हर प्रकाशन संस्थान को लग चुका है। आज खबरों के नाम पर पाठकों को सूचनायें मिल रही है और जो खबरें आ रही हैं, उसमें भी संदेह की कुछ लाइनें होती हैं। यक्ष प्रश्र तो यह है कि इसमें भेद करे कौन और पहचान कर ठीक करेगा कौन।
मीडिया और पत्रकारिता के बीच एक बड़ा बुनियादी फर्क यह भी है कि एक सीमा के बाद जाकर मीडिया की समाज के प्रति संवेदना खत्म हो जाती है। वह निर्मम होकर बाजार का अनुगामी बन जाता है और बाजार के दिशा-निर्देशों का पालन करने लगता है। उसके सामने बाजार का दिया लक्ष्य और जरूरत होती है और उसी के अनुरूप काम करता है। मीडिया के ठीक उलट पत्रकारिता की प्रवृत्ति है। वह मीडिया की तरह एक सीमा के बाद संवेदनहीन नहीं होता है बल्कि पत्रकारिता की धडक़न समाज की संवेदनाओं में ही बसती है। वह करीब से और बेहद करीब से समाज की भावनाओं और संवेदनाओं को समझ कर उसकी भावनाओं को व्यक्त करता है। वह जानता है कि किस बात और तथ्य को रखने से समाज आलोकित होगा और किन बातों से सामाजिक संरचना छिन्न-भिन्न हो जाएगी। पत्रकारिता मीडिया की तरह गैरजवाबदार, गैरजिम्मेदार नही हो सका है, इसलिये बाजार उसके नियंत्रण में रहा है न कि पत्रकारिता बाजार के नियंत्रण में।
मीडिया के बाजारवाद का ही परिणाम है कि पिछले एक दशक से पेडन्यूज को लेकर समाज चिंता में है। अधिकाधिक धन बटोरने की प्रवृत्ति ने भ्रामक और झूठे विषय-वस्तु को स्थापित किया और आज बात मीडिया से लेकर पत्रकारिता की विश्वसनीयता को तार तार कर रहा है। पेडन्यूज के संदर्भ में इस बात को समझ लेना भी जरूरी है कि पेड न्यूज, पेडन्यूज न होकर पेड कटेंट होता है।
कंटेंट से यहां आशय समाचार विश£ेषण एवं फीचर को लेकर है क्योंकि पेडन्यूज में वह गुंजाईश नहीं होती है जो कि कंटेंट एनालिसिस में होती है। मीडिया शब्द की तरह पेडन्यूज भी एक आसान और सरल शब्द है जिसे कहीं भी चलाया जा सकता है। पेडन्यूज के मामले में मीडिया के साथ साथ पत्रकारिता भी कटघरे में है। पेडन्यूज के मामले में मुद्रित माध्यम भी लांछित हुआ है। हालांकि पेडन्यूज की बीमारी आज की नहीं है, यह भी सच है क्योंकि किसी भी सरकार द्वारा अपनी इमेज बिल्डिंग के लिये न्यूज फीचर की सूरत में दिया जाने वाले तथ्य सौफीसद सरकारी होते हैं जिसकी पड़ताल किये बिना ज्यों का त्यों प्रकाशित कर दिया जाता है। यह भी सच है कि ऐसे न्यूज फीचर के साथ मुद्रित माध्यम इम्पेक्ट फीचर, स्पॉटलाइट जैसे उपशीर्षक का उपयोग करते हैं जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह न्यूज का हिस्सा नहीं है बल्कि प्रायोजित है। टेलीविजन के परदे पर यह अलग करना जरा मुश्किल सा काम होता है क्योंकि रोजमर्रा की खबरों के फ्रेम के आसपास विज्ञापनों का जमावड़ा होता है जिसे देखने के बाद यह कह पाना मुश्किल होता है कि परदे पर दिखाया जा रहा न्यूज प्रायोजित है अथवा विज्ञापन को न्यूज प्रायोजित कर रहा है। चुनाव ने दस्तक देना आरंभ कर दिया है और एक बार फिर पेडन्यूज का राक्षस अपना मुंह खोलेगा ताकि वह समूचे मीडिया को निगल जाये, गटक जाये क्योंकि मीडिया का बाजारवाद अपने चरम पर है।
मीडिया का बाजारवाद वास्तव में समाज के लिये घातक बनता जा रहा है। कभी दूरदर्शन से आरंभ हुआ टेलीविजन चैनलों की संख्या सौ से ऊपर जा पहुंची है और लगातार संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। अपराध और अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है जिसका समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

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