विशेष राज्य का दर्जा विकास की कुंजी नहीं

देवेन्द्र कुमार 

images (1)एक लंबा संघर्ष, अनगिनत कुर्बानियां और जनान्दोलन की कोख से उपजा झारखंड अपने जन्म के साथ ही राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है। 15 नवंबर 2000 में बिहार से अलग होकर झारखंड एक अलग राज्य बना और भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता संभाली। बाबूलाल मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने, मगर 27 महीने बाद मंत्रीमंडल में कुछ मंत्रियों के विरोध के बाद मंराडी को रूखसत होना पड़ा। झारखंड के गठन को 13 वर्ष का लंबा अर्सा बीत चुका है। लेकिन इतने लंबे अर्से के बाद भी राज्य में राजनीतिक अस्थिरता आज तक बनी हुई है। यहां की राजनीति में छोटे छोटे राजनीतिक दलों और निर्दलियों की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि यह हमेशा किंग मेकर की भूमिका में रहे हैं। झारखंड राज्य का अति पिछड़ा होने का सबसे बड़ा कारण यहां की राजनीतिक अस्थिरता ही है। झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता का सबसे बड़ा अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिहार से विभाजन के बाद राज्य में तीन बार राष्ट्रडपति शासन लग चुका है।

राज्य में जो भी पार्टी सत्ता में आयी उसकी गिद्ध जैसी दृष्टि राज्य के विकास पर न होकर अपार संसाधनों को लूटने पर टिकी रही। राजनीतिक अस्थिरता का सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा यहां की जनता को उठाना पड़ा। झारखंड के साथ अस्तित्व में आए उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ विकास की दृष्टि से कहीं आगे निकल गए। वास्तव में जिन सिद्धांतों और मूल्यों को लेकर झारखंड आंदोलन चला था, शहादतें दी गई थी, उसे ज़मीदोज़ कर दिया गया। एक बार फिर झारखंड के विकास को गति देने के लिए झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने का मुद्दा पिछले दिनों समाचार पत्रों की सुर्खियां बना रहा। सवाल यह उठता है कि राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने के बाद क्या राज्य में विकास की गति तेज़ हो पाएगी? झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग कई राजनीतिक पार्टियां भी कर रहीं हैं, कुछ राजनीतिक दल तो इसके लिए सड़को पर भी उतर आए हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब यही राजनीतिक दल सत्ता में थे तो राज्य के विकास के लिए इन राजनीतिक दलों की नींद उस वक्त क्यों नहीं खुली?

सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के अनुसार 39.96 फीसदी के साथ गरीब राज्यों में झारखंड दूसरे नंबर पर है। झारखंड में बढ़ती गरीबी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य के 35 लाख परिवार गरीबी रेखा से नीचे अपनी जिंदगी गुज़र बसर कर रहे हैं। राज्य के 75.3 फीसदी लोग दैनिक वेतन भोगी श्रमिक हैं। इनमें से बहुत से परिवार ऐसे हैं कि अगर घर का मुखिया एक दिन काम पर न जाए तो शाम को इनके परिवार का चूल्हा नहीं जलता है। आज भी राज्य की तकरीबन 92.3 प्रतिशत आदिवासी परिवार कच्चे घरों में रहते हैं। जनजातीय इलाकों में विकास की दर महज़ 5.5 प्रतिशत है। सर्वशिक्षा अभियान की लाख कोशिशों के बावजूद भी राज्य मे महिला शिक्षा दर 52.04 प्रतिशत से उपर नहीं जा सका। ऐसे में जिस घर में मां ही पढ़ी लिखी नहीं होगी तो हम बच्चों के उज्जवल भविष्यत की कामना कैसे कर सकते हैं। इसके अलावा 43.9 प्रतिशत लोग कभी स्कूल ही नहीं गए। 7 प्रतिशत लोगों को ही पाइप से पानी की सप्लाई मिल पाती है। चिकित्सा सुविधाओं की हालत भी खस्ताहाल ही है। इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में 3700 चिकित्सकों की कमी है। ऐसे में दूरदराज़ इलाकों से लोगों को इलाज के लिए शहर आना पडता है जिसमें वक्त और पैसा दोनों बर्बाद होते है। यह वह आंकड़े हैं जो पिछले 13 सालों में राज्य में बनी बिगड़ी सरकारों के ज़रिए किए गए विकास की कहानी की इबारत खुद ब खुद लिख रहे हैं। राजनीतिक अस्थिरता की वजह से केंद्र सरकार से आने वाले डेवलपमेंट फंड का इस्तेमाल भी राज्य सरकारें नहीं कर पाईं। पिछले नौ-दस वर्षों की बात करें तो केंद्र सरकार से विकास के नाम पर आने वाले फंड की एक बड़ी राशि राज्य सरकार के ज़रिए केंद्र सरकार को लौटा दी गई। वर्ष 2008-09 में 931.99 करोड़ रुपए, वर्ष 2009-10 में 1686.72 करोड़ रूप्ये और वर्ष 2010-11 में 8442.18 करोड़ रुपए केंद्र सरकार को वापिस कर दिया गया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि झारखंड को विषेश राज्य का दर्जा मिलने से राज्य सरकार के हाथ में ऐसा कौन सा रामबाण हाथ लग जाएगा जिससे वह विकास की गंगा बहा देगी। समझ से परे है क्योंकि विकास जो काम पिछले तेरह साल में नहीं हो पाया वह विशेष राज्य का दर्जा मिलने के बाद क्या एक दम हो पाएगा? इसके अलावा एक सवाल यह भी उठता है कि विशेष राज्य का दर्जा मिलने के बाद क्या झारखंड की राजनीति में व्यापक राजनीतिक अस्थिरता और प्रशासनिक अक्षमता दूर हो जाएगी? क्या राज्य की मुख्य समस्या राजनीतिक अस्थिरता का समाधान हो पाएगा ?

यह वे सवाल है जिनको लेकर शायद झारखंड का हर एक व्यक्ति सोचने को मजबूर है। अतीत से उठकर झारखंड के लोगों को अपनी सोच बदलकर एक ऐसी सरकार को चुनना होगा जो विकास को पहले तरजीह दे। अगर हम पिछले तेरह सालों से सीख न लेकर उसी रास्ते पर चलते रहेंगे तो झारखंड भी विकास से दूर होता जाएगा। हमें सोच समझकर ऐसी स्थिर सरकार चुननी है जो विकास करने के लिए स्वतंत्र हो न कि सरकार बचाने के लिए छोटे छोटे राजनीतिक दलों पर निर्भर हो। (चरखा फीचर्स)

 

2 COMMENTS

  1. झारखण्ड जब बिहार से अलग हुआ था ,तो लोग यह सोच रहे थे कि अपार प्राकृतिक सम्पदा तो झारखंड के पास चला जाएगा .नतीजा यह होगा कि झारखंड एक संपन्न राज्य हो जाएगा और बिहार और अधिक पिछड़ा हो जाएगा.अगर बिहार के बारे में न सोच कर केवल झारखण्ड के बारे में सोचा जाए तो सचमुच वैसा ही होता.मरांडी के शासन काल में झारखंड के एक मंत्री से रांची में ही बात हो रही थी,तो मैंने कहा था कि आप लोग सोने के खान पर बैठे हुए हैं,पर आप लोगों को यह पता नहीं चल रहा है कि इसका समुचित दोहन और उपयोग कैसे किया जाए? मैंने यह भी कहा था कि आपलोग चाहें तो झारखंड भारत का सबसे संपन्न राज्य बन सकता है. मैं आज भी इस विचार पर कायम हूँ.झारखंड के पासअपार प्राकृतिक सम्पदा है. नदियों का बहाव इस तरह का है कि छोटे छोटे बांधों द्वारा जल विद्युत् का पर्याप्त उत्पादन सम्भव है. पर्यटको के लिए लुभावने क्षेत्र हैं .सबसे बड़ी बात है कि आबादी की सघनता भी कम है. इन सब अनुकूल परिस्थितियों की होते हुए भी झारखंड आज सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है,तो दोष किसका है?

  2. पिछड़ा राज्य घोषित करना, करवाना भी एक राजनितिक शगूफा है जो जनता को बरगालने के लिए पक्ष ,विपक्ष द्वारा प्रयोग किया जाता रहा है, व किया जाता है.केंद्र ने इस हेतु कुछ मापदंड तय कर रखे हैं, जिनकी कसौटी पर पिछड़ा घोषित करना न करना निर्भर करता है,और वह एक जटिल प्रक्रिया है.केंद्र भी इसे एक राजनितिक हथियार के रूप में प्रयोग करता रहता है, जैसे अभी नितीश को बिहार के आश्वासन दे कर अपने पक्ष में उलझा रखा है.पहले भी केंद्र में पदासीन सरकारें यह करती रही हैं.लेकिन जनता को इससे कभी कुछ हासिल नहीं हुआ.राज्य सरकारें वोट मांगने के लिए इसका प्रयोग करती जरूर हैं बाकी उनकी ऐसी सामर्थ्य नहीं. यहाँ तक कि केंद्र में सतारूढ़ दल के शासित राज्य भी सिरपतक कर रह जाते हैं. जैसे राजस्थान में गहलोत पांच साल से जनता को बेवकूफ बनाने में लगे हैं.

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