पंडित सुरेश नीरव
विद्वानों का मानना है कि सोना जितना पिटता है उतना ही निखरता है। इससे एक बात तो तय हो ही गई कि कोई उसी को ही पीटता है जिसे वह सोना समझता है।
यह किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व या विचार का गैर-राजनैतिक जनमत संग्रह है। वो लोग बहुत दुखी रहते हैं जो कभी पिट नहीं पाते हैं। आहें भरते हैं कि हाय कितनी गहरी उपेक्षा है। कोई इस लायक भी नहीं समझ रहा कि हमें हल्का-सी ही सही मगर कोई पीट तो दे। पद्मश्री तो क्या एक अदद जूता मारने के भी काबिल नहीं समझ रहा ये समाज। कोई प्रायोजक नहीं मिल रहा। इस इवेंट के लिए। बेचारे पिटने का पूरा होमवर्क किए बैठे हैं कि कोई बैल आ मुझे मार। वे घिघियाते हैं कि अंधेरे में जो बैठे हैं,उनकी प्रतिभा को भी पहचानो। उसमें क्या खास है। तभी गहन-गंभीर आकाशवाणी होती है-पिटो तो जानो। स्वर घिघियाते हैं-जूता-थप्पड़ जो चाहे मारो पर ताना मत मारो। कैसा निर्मम है ये ताना- कि ये मुंह और घूंसे-लात। औकात देखी है अपनी। पिटने का नेशनल परमिट तो बड़े-बड़े नेता,समाजसेवी और टॉप के कवियों को भी बड़े पापड़ बेलने के बाद हासिल होता है। टुच्चे चले आए पिटने। पीटना तो क्या कोई थूकेगा भी नहीं इनके मुंह पर। पिटने का उत्सव अब लोग पूरे इंतजाम के साथ करते हैं। खाली पुलिस के भरोसे पर कोई नहीं पिटता। पुलिस तो बलात्कार की भी एफआईआर बिना कोर्ट के डंडे के नहीं लिखती। इसलिए समझदार लोग और पिटनशील नेता तो आजकल पहले से ही टीवीवालों को बुलाकर रखते हैं और फिर पिटते हैं ताकि सनद रहे और जनता भी इस लाइव शो का भरपेट लुत्फ उठा सके।
ध्यान रहे कि पिटनेवाला हमेशा शरीफ होता है। बल्कि समाज मानता ही उसे शरीफ है जो हर क्षण- हर पल पिटने को तैयार रहता है। भारत में तो बहुसंख्य शरीफ लोग बचपन में घर से पिटकर ही पिटने के लिए स्कूल जाते हैं। वहां मास्टरों से पिटते हैं। ज्यादा डिग्री के शरीफ बच्चे मास्टरों के साथ-साथ अपने दोस्तों से भी पिटते हैं। बड़े होकर ये प्रौढ़ शिशु शादी से पहले लैलाओं से और शादी के बाद नियमित और बड़ी विनम्रता के साथ दूसरों की के साथ-साथ अपनी निजी बीवी से भी पिटते रहते हैं। कई भाग्यशाली तो बुढ़ापे में अपने सपूतो से पिटकर उन्हें उदारतापूर्वक अनुगृहीत करते रहते हैं।
स्मार्ट डैडी। संतानों से जितना पिटते हैं उनका वात्सल्य उतना ही गाढ़ा होता जाता है। भद्र- कुलीन हिंदुओं में तो चिता पर लेटे बाप के सिर पर जबतक बेटा लट्ठ नहीं मारता बाप का मोक्ष ही नहीं होता। पिता क्या अंग्रेजों से पिट-पिटकर ही गांधीजी राष्ट्रपिता बन गए। पिटने-पिटाने का महत्वाकांक्षी शौक जिसे एक बार लग गया वो मरणोपरांत भी नहीं छूटता। मर गए तो भूत बनकर तांत्रिक से पिट-पिटकर अट्टहास करते रहते हैं। इस शौक के लिए ये बेचारे भूत वारदात, खामोश कोई है-जैसे नाना प्रकार के दारुण-दुखकारी टीवी सीरियलों में भी काम करने को तैयार हो जाते हैं। भाग्यशाली हैं वे लोग जिन्हें समाज पीटने लायक समझता है। बड़ी कठोर साधना के बाद पिटने की सिद्धि-प्रसिद्धि साधक को मिलती है। तुलसीदास फोकट में ही कोई नहीं बन जाता है। हर्ष और गौरव का विषय है कि नेल्सन मंडेला, जॉर्ज बुश, चिंदंबरम और बाबा रामदेव के बाद सम्मानित विभूतियों की सूची में अब हमारे प्रशांत भूषणजी का नाम भी जुड़ गया है। देशभक्तों ने उनका सम्मान कर हमारा और हमारे लोकतंत्र का ही सम्मान किया है। सिविल सोसायटी के भूषणजी को सोसायटी के एक सिविलियन ने अचानक सत्ताइस कैरेट का सोना बना दिया। अपुन को बड़ी जलन होती है ऐसे मुकद्दर के सिकंदर लोगों को देखकर। एक आह निकल पड़ती है-
‘जाने वो कैसे लोग हैं जिनको पब्लिक का प्यार मिला हमने जब जूते मांगे फूलों का हार मिला’ जैसे करम करेगा वैसे फल देगा भगवान। हमने ऐसे कर्म नहीं किये कि ऐसा हमारा भी करम हो जाता। जनम-जनम के करमफूट जो ठहरे। प्रभु कृपा से जो कहीं हम भी जूते खा लेते,पिट जाते तो अपन भी सेक्युलर हो जाते। बिना जुतयाये भी भला कोई सेक्युलर हुआ है इंडिया में। जूता सापेक्ष हुए बिना धर्मनिरपेक्ष होना उतना ही असंभव है जितना किसी किन्नर का गर्भवता होना।
वैसे व्यंग्य अच्छा है,पर प्रशांत भूषण की पिटाई का सेक्युलरिज्म से सम्बन्ध समझ में नहीं आया.