जन-जागरण

सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाला कानून

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प्रमोद भार्गव

केंद्र की यूपीए सरकार विशुद्ध रूप से वोट बैंक मजबूत करने की कुटिल राजनीति पर उतर आई है। सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र की रिपोर्टें इसी सबब का पर्याय थीं। अब ठंडे बस्ते में पडे़ सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक 2011 को इसी शीत सत्र में पेश करने की तैयारी है। यह अच्छा हुआ है कि नरेन्द्र मोदी की हुंकार और तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों के जबरदस्त विरोध के चलते इसके मसौदे में व्यापक फेरबदल कर दिया गया है। इस बदलाव में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदायों के बीच विभाजन की रेखा खींचने वाले शब्द विलोपित कर दिये गए हैं। वहीं केन्द्र सरकार अब इस कानून के परिप्रेक्ष्य में राज्य में सीधे दखल भी नहीं कर सकती है। इसके बावजूद इस कानून को लाने में केन्द्र की मंशा साफ है और न ही इस कानून के प्रावधानों से यह साबित हो रहा है कि सांप्रदायिक हिंसा रोकने में और आरोपियों को दंडित करने में मौजूदा कानून कमतर हैं।

इस कानून के मसौदे को तैयार सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् कर रही है। मसौदे में भागीदारी सैय्यद शहाबुद्दीन और तीस्ता सीतलवाड़ जैसे उन नुमाइंदों की है, जिनके धर्मनिरपेक्ष चरित्र को निर्विवाद नहीं माना जाता ? कानून की विडंबना है कि यह किन्हीं दो धार्मिक समुदाओं के बीच सद्भावना व सहानुभूति पैदा करने की बजाय कटुता व दूरी बढ़ाने का काम करेगा। इस कानून के मसौदे में अभी भी ऐसे प्रावधान हैं जो स्पष्ट तौर से परिभाषित नहीं किए गए हैं। मसलन नौकरशाही और राजनेताओं का गठजोड़ इन्हें मनमाने ढंग से इस्तेमाल कर सकता है। इसीलिए इसका विरोध भाजपा के भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी, अन्नाद्रमुक की जयललिता, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, वीजू जनता दल के नवीन पटनायक के साथ माक्र्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी भी कर रही है। इनका मानना है कि यह गैर जरूरी कानून राज्य के मामलों में केन्द्र का बेजा दखल बढायेगा। इस कानून को लोकसेवकों, पुलिस तथा सुरक्षा एजेंसियों को आपराधिक जिम्मेदार ठहराये जाने से कानून प्रर्वतन एजेंसियों की मनोदशा पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला भी माना जा रहा है।  इसमें वैमनस्यतापूर्ण माहौल की परिभाषा भी स्पष्ट नहीं है। इसी तरह धारा 3 (डी) सह पठित धारा 4 से सबाल उठता है कि क्या केन्द्र भारतीय न्यायशास्त्र के संदर्भ में सुविचारित अपराध की अवधारणा पेश कर रहा है। प्रस्तावित विधेयक की ये धारायें साक्ष्य कानून के आधार पर नहीं परखी गई हैं।

केन्द्र सरकार हर समस्या का निदान नये कानून में देख रही है, जबकि उसका कानूनों के अमल पर कोई ध्यान नहीं है। राष्ट्रीय एकता व संप्रभुता कायम रखने के नजरिये से होना तो यह चाहिए कि सोनिया गांधी और उनकी परिषद् समान नागरिक कानून बनाने की पहल करतीं और सरकार व संसद से कानूनी दर्जा दिलाती। लेकिन कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हो विपरीत रहा है, वह भी महज मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए। वैसे भी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् एक गैर संवैधानिक संस्था होने के साथ, केवल सोनिया गांधी के आभा मण्डल को महिमा मंडित बनाए रखने के लिए है न कि सुपर कैबिनेट की भूमिका में आकर अपनी राय थोपने के लिए ? इसीलिए प्रस्तावित कानून के मसौदे का जो मजमून बाहर निकलकर आया है, उससे साफ हो गया है कि परिषद् के नुमाईंदे पूर्वग्रही दुष्टि से काम ले रहे हैं। उन्होंने पहले से ही मान लिया है कि सांप्रदायिक हिंसा फैलाने के लिए केवल बहुसंख्यक समाज जिम्मेबार है। जबकि यह नजरिया भ्रामक है। हकीकत यह है कि देश में जब तक बहुसंख्यक समाज धर्मनिरपेक्ष व समावेशी भावना का अनुगामी है, तभी तक देश की धर्मनिरपेक्षता बहाल रह सकती है। इस विधेयक को कनूनी जामा पहना दिया जाता है तो स्वाभाविक है न केवल देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र खतरे में पड़ जाएगा, बल्कि सांप्रदायिक दुर्भावना को भी मजबूती मिलेगी।

जब संविधान और व्यवस्था हमें समान नजरिया देने के हिमायती हैं तो परिषद् या सरकार को क्या जरूरत है कि वह इसे बांट कर संकीर्णता के दायरे में तो लाए ही, भावनाओं को भड़काकर विस्फोटक हालात भी पैदा करे। क्योंकि मसौदे में जिस तरह से सांप्रदायिक व जातीय हिंसा को ‘समूह’ के आधार पर परिभाषित किया गया है, वह हालातों को तो दूषित करने वाला है ही, रोकथाम के उपायों को भी विरोधाभासी नजरिए से देखता है। ‘समूह’ की परिभाषा के मुताबिक इस दायरे में भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यक तो आएंगे ही अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां भी आएंगी। जबकि वर्तमान स्थितियों में ये जातियां अत्याचार निवारण कानून के दायरे में आती हैं। तय है, एक जाति के दुराचार से संबेधित दो तरह के कानून आशंकाएं पैदा करेंगे और एक ही चरित्र के समानांतर कानूनों का लाभ उठाकर वास्तविक आरोपी बच निकलेंगे।

दरअसल केन्द्र की सप्रंग सरकार द्वारा 2004 में इस कानून को अस्तित्व में लाने का वायदा किया था। 2005  में सरकार एक विधेयक भी ले आई, लेकिन विरोध के चलते पीछे हट गई। अपने दूसरे कार्यकाल में एक बार फिर 2011 में विधेयक को लाने की कवायद की गई, किंतु मुख्यमंत्रियों के विरोध के चलते इस कानून को फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। अब लोकसभा चुनाव के ठीक पहले केन्द्र सरकार अल्पसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण के लिए इसे इसी शीत सत्र में लाने की कवायद में लगी है, जो पूरी नहीं होगी।

मसौदे के संशोधन से पहले प्रावधान था कि सांप्रदायिक हिंसा के जो मामले सामने आएंगे, उनको अलग-अलग वर्गों में बांटकर देखा जाएगा। इन मामलों को केंद्र सरकार जांचेगी-परखेगी। जबकि हमारे संघीय ढांचे में यह जिम्मेबारी राज्य सरकारों की है। यह प्रस्ताव अथवा विचार इस बात का संकेत है कि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं, उनके कानूनी अधिकारों पर केंद्र सरकार अतिक्रमण करना चाहती थी। केंद्र सरकार के माध्यम से इस कानून का जो समिति अमलीकरण करेगी, उसमें सात सदस्य होंगे। यह समिति एक प्राधिकरण के रूप में वर्चस्व में आएगी। जिसे पर्याप्त स्वायत्तता दिए जाने का प्रावधान है। इसमें हैरानी में डालने वाली बात यह है कि इसके चार सदस्य अल्पसंख्यक समुदायों से होंगे। इसके उलट इस तरह के मामलों में जो लोग अपराध के दायरे में आएंगे, वे बहुसंख्यक समुदायों से होंगे। लिहाजा इस समिति के प्रति न्याय की कसौटी पर खरी उतरने की आशंका हमेशा बनी रहेगी।

इस प्रारूप से यह भी दृष्टि झलकती है कि सांप्रदायिक हिंसा के लिए दोषी केवल बहुसंख्यक समाज है। ऐसे मामलों में अल्पसंख्यकों को दोषी नहीं माना जाएगा। जबकि अपराध एक प्रवृत्ति होती है, और वह किसी भी समाज के व्यक्ति में हो सकती है। इस प्रवृत्ति का वर्गीकरण हम अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक दायरों में नहीं कर सकते। आपराधिक मामले चाहे वे किसी भी प्रकार के हों, उन्हें एकपक्षीय दृष्टि से नहीं देखा जा सकता । इस दृष्टि का दुष्परिणाम हम दहेज, बलात्कार और दलित उत्पीड़न से संबंधित मामलों मंे देख भी रहे हैं। वैसे भी एकांगी कानूनों ने अब तक सामाजिक समरसता बढ़ाने की बजाय सामाजिक कटुता बढ़ाने का काम किया है। इसलिए यह मसौदा कानून का रूप ले, इससे पहले इसे एकांगी पक्षधरता रखने वाले कानूनों की कसौटी पर भी परखना चाहिए।

इस कानून में यह भी साफ नहीं है कि जो सार्वजनिक समानता का भाव पैदा करने वाले मुद्दे हैं, उनके परिप्रेक्ष्य में इस कानून की क्या भूमिका परिलक्षित होगी। यदि कोई राजनीतिक दल धारा 370 हटाने, समान नागरिक संहिता को लागू करने और किस्तवाढ़ एवं मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के विरोध में प्रदर्शन करते हैं, तो क्या ये बहुसंख्यक समाज के आंदोलनकारी इस कानून के मातहत अभियुक्त के रूप में देखे जाएंगे ? हाल के मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर यही देखने में आया है। जबकि मुजफ्फरनगर में दंगा एक युवती के छेडछाड से जुड़े मामले में समुदाय विशेष के मनचलों को कानूनी संरक्षण देने के प्रतिरोध में भडका था और किस्तवाढ़ में दंगा स्वतंत्रता दिवस के दिन एक समुदाय द्वारा भारत विरोधी नारे लगाये जाने के कारण भडका था। यहां सवाल यह भी खडा होता है कि कश्मीर से जिन अल्पसंख्यक हिंदुओं को बेदखल कर दिया गया है, क्या उन्हें बेदखल करने वालों के विरूद्ध इस कानून के तहत मुकद्मे चलाए जाएंगे ? जम्मू-कश्मीर या केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार इतना जोखिम उठा पाएगी ? या विस्थापित कश्मीरी पंडितों की मांग करने वाले राष्ट्र प्रेमियों को जेलों में ठूंस दिया जाएगा ? विश्व प्रसिद्ध बंगला देश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन के विरोधियों को यह कानून किस नजरिये से देखेगा ? हालांकि इस कानून का अभी परिषद् द्वारा बनाए प्रारूप का ब्यौरा ही सामने आया है। राज्यसभा और लोकसभा में पेश होने से पहले इसे केंद्रीय मंत्रीमण्डल की समिति से भी गुजराना होगा। इस कारण यह इतना आसान भी नहीं है कि तमाम नए विवादों का जनक बनने जा रहे इस एकपक्षीय कानून को इकतरफा स्वीकार भी कर लिया जाए ?