स्त्री आर्यसमाज धामावाला देहरादून की पूर्व प्रधाना माता सुशीला सेठ जी की श्रद्धांजलि सभा श्रद्धापूर्ण वातावरण में सम्पन्न

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आज 14 सितम्बर 2017 को अपरान्ह 2 से 3 बजे तक आर्यसमाज धामावाला देहरादून में 87 वर्षीय माता सुशीला सेठ जी की श्रद्धांजलि सभा सम्पन्न हुई। तीन वर्ष की लम्बी बीमारी के बाद दिनांक 11 सितम्बर, 2017 को उनकी मृत्यु हो गई थी। श्रद्धांजलि सभा का आरम्भ आर्यसमाज के विद्वान पुरोहित पं. विद्यापति शास्त्री के भजनों से हुआ। उनका एक भजन था-

 

“तेरी शरण में आये हैं संसार के पिता। बंधन से मुक्त कर हमें दुःख दर्द से बचा।।

 

आये हैं तेरे द्वार पर झोली पसार कर। नैय्या हमारी पाप की भव सागर से पार कर।।

 

कुमार्ग से हटा हमें सन्मार्ग पर चला। हृदय हमारा शुद्ध निर्मल हो आत्मा।।

 

दर्शन करें हम आपके परमात्मा मिलकर। आवागमन के चक्र से प्रभु हमको बचा।।

 

तेरी शरण में आये हैं संसार के पिता। बन्धन से मुक्ति कर हमें दुःख दर्द से बचा।।”

 

भजन की समाप्ती के बाद पुरोहित जी ने कहा कि इंसान एक मुसाफिर है जो संसार में आता जाता है। उन्होंने कहा कि मोक्ष से जुड़ने पर आत्मा का संबंध अमृतमय परमात्मा से जुड़ जाता है। पंडित जी ने श्रोताओं को ईश्वर और जीवात्मा का स्वरूप बताया और प्रभावशाली ढंग से उस पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आत्मा और शरीर के संयोग का नाम जन्म है। शरीर और आत्मा के वियोग को उन्होंने मृत्यु बताया। विद्वान पण्डित जी ने कहा कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य परमात्मा व मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष की प्राप्ति होने तक सभी मनुष्यों व जीवात्माओं का जन्म व मरण चलता रहेगा। उन्होंने कहा कि कि प्रभु का नाम जप लो, संसार में वही सबका आसरा है। इसके बाद उन्होंने एक और भजन सुनाया जिसकी कुछ पंक्तियां निम्न हैं:

 

सांसो का क्या भरोसा रूक जाये कब कहां पर।

प्रभु का नाम जप ले, वही आसरा यहां पर।।

 

मत हंस कभी किसी पे, न सता कभी किसी को।

न जाने कल को तेरा, क्या हाल हो यहां पर।।

 

सांसो का क्या भरोसा रूक जाये कब कहां पर ………

 

जो हंस जैसा जीवन चाहता है तू बशर तो।

चुन ले गुणों के मोती, बिखरे जहां जहां पर।।

 

सांसो का क्या भरोसा रूक जाये कब कहां पर ………

 

कर कार्य इतना ऊंचा कि बुलन्दियों को झू ले।

इज्जत से नाम तेरा, आ जाये हर जुबां पर।।

 

सांसो का क्या भरोसा रूक जाये कब कहां पर ………

 

संसार में रह कर भोगों में क्यों फंसा है।

 

कितना भी भोग कर ले, सब छूट जायेया यहीं पर।।

 

सांसो का क्या भरोसा रूक जाये कब कहां पर।

प्रभु का नाम जप ले, वही आसरा यहां पर।।

 

पं. विद्यापति जी ने कहा कि माता सुशीला सेठ जी का जीवन महान रहा है। वह प्रातः 4 बजे उठ जातीं थीं। शरीर शुद्धि कर ईश चिन्तन करती थीं। समय पर सन्ध्या और हवन करती थीं। आर्यसमाज में समय पर आती थीं और अन्यों को प्रेरणा करती थीं कि समय से पूर्व आयें और सन्ध्या यज्ञ में भी भाग लें। पंडित जी ने बताया बीमारी के दिनों में भी जब जब उन्होंने उनका हाल चाल पूछा तो उन्होंने कहा कि सब ठीक है। प्रभु की कृपा है। उनके जीवन में कभी निराशा नहीं आई। आर्यसमाज आती थीं तो पंडित जी के बेटे से भी मिलती और उससे बातें करती थीं। पंडित जी भी समय समय पर उनके घर यज्ञ आदि कराने जाया करते थे। पंडित जी ने कहा कि जो क्षण क्षण परिवर्तनशील है, उसका नाम संसार है। उन्होंने कहा कि संसार में आकर हम जीवन के उद्देश्य को भुला बैठते हैं। पंडित जी ने जीवात्मा की जन्म से पूर्व माता के गर्भ में स्थिति का वर्णन करते हुए कहा कि वहां उलटा लटका हुआ जीवात्मा ईश्वर से प्रार्थना करता है कि मुझे बाहर निकाल दो, मैं सारा जीवन तुम्हारी भक्ति व उपासना करुगां। उन्होंने कहा कि ईश्वर से जन्म पाकर यह अपनी गर्भ में की गई प्रार्थना को भुला बैठता है।

 

पंडित जी ने मनुष्य शरीर को वस्त्र के समान बताया और कहा कि पुराना व जीर्ण हो जाने पर ईश्वर उस पुराने वस्त्र को बदल कर जीवात्मा को नया शरीर देता है। पंडित जी ने ऋषि दयानन्द के उन शब्दों को भी स्मरण कराया जिसमें उन्होंने कहा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य और असत्य को जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। विद्यापति शास्त्री जी ने कहा कि चोर जानता है कि चोरी बुरी बात है परन्तु वह मोह वश ईश्वर की आत्मा में प्रेरणा व ध्वनि को दृष्टि से ओझल व अनसुना कर देता है। उन्होंने कहा कि ईश्वर की भक्ति करने से सुख की प्राप्ति होती है। उन्होंने सिकन्दर की भी चर्चा की। विस्तार से उन्होंने पूरी कथा बताई जिसका निष्कर्ष है कि संसार को लूटने निकला सिकन्दर जब मरा तो खाली आथ गया। संसार से कुछ लेकर नहीं गया। अनेक संस्थाओं ने माता सुशीला सेठ जी की मृत्यु पर शोक जताया और उनको श्रद्धांजलि दी। उनके परिवार जनों ने अनेक संस्थाओं को इस अवसर पर दान दिया। पारिवारिक पगड़ी की रस्म को भी किया गया। इसी के साथ श्रद्धांजलि सभा विसर्जित हो गई।

 

आज भी यहां एक बात ने हमारा ध्यान आकर्षित किया। आर्यसमाज धामावाला जिसकी वह सदस्या थी, उस समाज का कोई सदस्य व अधिकारी हमें उनकी श्रद्धांजलि सभा में दिखाई नहीं दिया हमारा अनुभव है कि यदि कोई आर्यसमाज का प्रभावशाली व्यक्ति हो, वहीं लोग जाना पसन्द करते हैं। दूसरा कारण यह भी है कि आर्यसमाज समाज में अधिक सदस्य अधिक आयु के होते हैं जिनके लिए शायद श्मशान व ऐसी सभाओं में जाना आसान नहीं होता है।

 

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