’’यदि हमारे गीत गाने से वैदिक धर्म का प्रचार न हो तो हमारा गीत व संगीत फेल है: प. सत्यपाल पथिक’’

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-मनमोहन कुमार आर्य,

वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून के शर्दुत्सव के चैथे दिन 6-10-2018 को रात्रि 8.00 बजे से 10.15 बजे तक संगीत सन्ध्या का आयोजन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इस आयोजन में पं. सत्यपाल पथिक जी, पं. नरेश दत्त आर्य जी तथा श्रीमती मीनाक्षी पंवार जी आदि ने अपने गीत व भजनों से उत्सव में श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर दिया। संगीत सन्ध्या का आयोजन आश्रम सोसायटी के सदस्य श्री विजय आर्य की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। पहली प्रस्तुति भजनोपदेशक श्री आजाद सिंह आर्य ने दी। उनके गीत के बोल थे ‘हमें याद आये ऋषि दयानन्द के काम’। दूसरी प्रस्तुति आर्य भजनोदपेशक श्री रमेश चन्द्र स्नेही जी, सहारनपुर की थी। उनके गाये भजन के बोल थे ‘देव दयानन्द तेरे अहसान हम उतारेंगे कैसे लेकर कितने जन्म, लुट रहे थे कौम के जो लाल बच गये वो तेरी कृपा व बलिदान से’। संगीत सन्ध्या में तीसरी प्रस्तुति श्री नरेन्द्र दत्त आर्य की थी। उनके भजन के बोल थे ‘मेरा बोलना गाना बजाना दयानन्द ऋषि थे, वेद के पथ पर चले हम सारे यह सन्देश ऋषि का प्यारे, सारे गायें ऋषि का तराना, दयानन्द ऋषि थे’ इसके बाद एक बालक श्री उत्कर्ष आर्य ने एक भजन ‘ऐ मालिक तेरे बन्दे हम नेकी पर चले बदी से बचे ताकि हंसते हुए निकले दम, ऐ मालिक तेरे बन्दे हम।’ को गाया व साथ ही गिट्टार बचाकर भी श्रोताओं को रोमांचित किया। यह प्रस्तुति बालक की कम आयु की दृष्टि से अत्यन्त सराहनीय थी।

प्रसिद्ध शास्त्रीय धुनों पर आधारित गीत व भजन गायिका श्रीमती मीनाक्षी पंवार के गीत भी संगीत-सन्ध्या में हुए। उनका पहला गीत था ‘बरस-बरस रस वारि मैया, बूंद-बूंद को तेरी जाऊं, बार-बार बलिहारी मैया। नदी सरोवर सागर बरसे लागी झड़िया भारी मैया, मेरे आंगन क्यों न बरसे मैं क्या बात बिगारी मैया। बरस बरस रस वारि मैया’। यह प्रसिद्ध भजन पं. बुद्ध देव विद्यालंकार जी का लिखा हुआ है। गायिका श्रीमती पंवार जी ने दूसरा भजन ‘तुझे मनवा जिसकी तलाश है उसका तेरे अतिनिकट वास है। काहे दरबदर तू भटक रहा वो वो तो तेरे दिल क पास है।’ बहिन मीनाक्षी पंवार जी ने तीसरा गीत गाया जिसके शब्द थे ‘परम पिता परमेश्वर तूने जग कैसे साकार रचा, स्वयं विधाता निराकार तूने किस भांति साकार रचा।’ इसके बाद संगीत-सन्ध्या का संचालन कर रहे श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने अकबर व तानसेन के संवाद को प्रस्तुत किया। अंकबर ने तानसेन को अपने गुरु का संगीत सुनवाने को कहा था। तानसेन अकबर को अपने गुरु की कुटिया पर ले गये। उन्होंने अकबर को अपने गुरु को दूर से दिखाया। अकबर की इच्छा पूरी करने के लिये तानसेन एक बेसुरा गीत गाने लगा। इससे ईश्वर की साधना में बैठे गुरु की आंखे खुल गई। उन्होंने तानसेन को कहा कि तुम यह बेसुरा गीत क्यों गा रहे हो? तुम्हें क्या हो गया है। तानसेन ने गुरु जी से उस गीत को सस्वर सुर व ताल में गाने का निवेदन किया। तानसेन ने गुरु का वाद्य यन्त्र बजाया। गुरु जी ने शिष्य की विनती स्वीकार की और गीता गाया। अकबर गुरु जी का गीत सुनकर सन्तुष्ट हुआ। उसने तानसेन को कहा कि तुम तो इतना अच्छा नहीं गाते। इसका उत्तर तानसेन ने यह कहकर दिया कि मैं आपके दरबार का गवैया हूं और मेरे गुरु तो सृष्टिकर्ता ईश्वर के दरबार के गवय्या हैं। इसके बाद पं. नरेश दत्त आर्य जी ने गीत व भजन प्रस्तुत किये।

पं. नरेश दत्त आर्य ने पहला भजन ‘प्रकृति से लड़ाई इन्सान की ये कहानी है ऋषिवर महान की।’ उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने ईश्वर को जानने और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिये अपने पिता का घर छोड़ा था। उन्होंने इन दोनों प्रश्नों के सत्य उत्तर जाने थे जिसका प्रचार कर उन्होंने पूरी मानव जाति का कल्याण किया। श्री आर्य ने दूसरा भजन गाया जिसके बोल थे ‘चारों ओर अन्धेरा छाया है घनघोर देता नहीं दिखाई मैं जाऊं किस ओर।‘ श्री नरेशदत्त आर्य जी ने तीसरा भजन गाया जिसके बोल थे ‘तो कितना अच्छा होता, गहरे जख्मों को देखते ही रहे कोई मरहम चुना होता तो कितना अच्छा होता।’

आचार्य जी ने एक व्यगं भी सुनाया। उन्होंने कहा कि एक राजकुमारी ने अपने विवाह की शर्त रखी कि जिसमें सबसे कम बुराई होंगी उसी को वह पति के रूप में वरण करेंगी। सभी लोगों ने कहा कि उनके अन्दर कई बुराईयां हैं। एक व्यक्ति आया उसने कहा कि मेरे अन्दर केवल दो बुराईयां हंै। राजकुमारी ने उसे अपना पति चुन लिया। विवाह के बाद पत्नी ने पूछा कि तुम्हारें अन्दर कौन सी दो बुराईयां हैं। उसके पति ने कहा एक बुराई तो यह है कि मैं कुछ जानता नहीं। और दूसरी बुराई यह है कि मुझे कोई समझाये तो मैं मानता नहीं। पंडित जी ने स्वामी दयानन्द जी के जीवन की एक घटना का वर्णन किया जिसमें उन्होंने एक गरीब मां के बच्चे को बचाने के लिये उसकी जगह स्वयं को बलि के लिये प्रस्तुत किया था। इस घटना से सम्बन्धित एक गीत भी पण्डित जी ने श्रोताओं को सुनाया। इस गीत के बोल थे ‘ऐ मां तू इतना रुदन न कर तुझे कष्ट क्या है न डर। वो दुःख अपने दिल का सुनाने लगी, रो-रो के आंसू बहाने लगी। ये काल भैरव जी भर गायेगा मेरे कुल का दीपक बुझ जायेगा।’ पंडित नरेशदत्त जी ने चैथा भजन भी सुनाया जिसके बोल थे ‘ऋषि न अपनी मुसीबत पे रोये जो रोये तो भारत की हालत पे रोये।’ रात्रि 9.55 बजे पंडित सत्यपाल पथिक जी ने एक गीत प्रस्तुत किया। हमने पहले भी इस भजन को अनेक बार उनसे सुना है। पंडित पथिक जी इस गीत को पूरी तन्मयता से गाते हैं। पण्डित जी के गाये इस गीत के बोल थे ‘मैं पागल हूं, मैं पागल हूं दीवाना हूं, अलमस्त अलमस्त मस्ताना हूं, जो क्षमा जलायी ऋषिवर ने उस शमा का मैं परवाना हूं।’ यह संगीत-सन्ध्या कार्यक्रम की अन्तिम प्रस्तुति थी। भजन गाने से पूर्व पण्डित पथिक जी ने कहा कि संगीत एक बहुत बड़ी कला है। हम आर्यसमाज के प्रचारक हैं। यदि हमारे गीत गानें से वैदिक धर्म का प्रचार न हो तो हमारा गीत व संगीत फेल है। संगीत संन्ध्या के अध्यक्ष श्री विजय आर्य जी ने सभी प्रस्तुतियों को बहुत प्रभावशाली बताया और सबका धन्यवाद किया। शान्ति पाठ हुआ जिसके बाद यह आयोजन सम्पन्न हुआ।

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