16 संस्कार और भारत की चेतना भाग — 1

अब हम इस अध्याय में उन 16 संस्कारों का संक्षिप्त विवरण देंगे जो भारत की अथवा हिंदुत्व की चेतना के मूल स्वरों में सम्मिलित हैं । अध्ययन की सुविधा के लिए हमने इन 16 संस्कारों को दो भागों में विभक्त कर लिया है । पहले अध्याय में हम पहले 8 संस्कारों के बारे में तो दूसरे अध्याय में हम शेष 8 संस्कारों के बारे में चर्चा करेंगे।

गर्भाधान संस्कार

इन 16 संस्कारों में सबसे पहला संस्कार गर्भाधान का संस्कार है । हमारे देश में प्राचीन काल में गर्भाधान संस्कार से पूर्व स्वस्थ मन मस्तिष्क के पति – पत्नी इस संस्कार को संपन्न करने के लिए वैसे ही तैयारी करते थे जैसे कोई किसान अच्छी फसल लेने के लिए अपने खेत की अच्छी तैयारी जुताई आदि करके करता है । किसान जानता है कि यदि जुताई उत्तम न हो या खेत में बीज अच्छा न पड़े या ऋतु भी अनुकूल न हो तो फसल अच्छी नहीं हो सकती। इसलिए इन सब चीजों पर किसान ध्यान देता है। वैसे ही सुयोग्य माता – पिता सुयोग्य संतान की प्राप्ति के लिए अपने मनोभावों को इन तीनों चीजों से पहले तैयार करते हैं। मानो वह गर्भाधान की क्रिया के माध्यम से श्रेष्ठ गुण , कर्म , स्वभाव वाली आत्मा का आवाहन करते हैं और उनका यह आवाहन ही उनका याज्ञिक कार्य है अर्थात संतानोत्पत्ति भी यज्ञ की भावना से संपन्न की जाती है। यह आवाहन माता पिता के माध्यम से श्रेष्ठ समाज की संरचना के लिए किया जाता है । मानो वह कह रहे हैं कि देवत्वीकरण और समाजीकरण की प्रक्रिया को सुदृढ़ करने के लिए वह कह रहे हैं कि हे दयानिधे ! हमें आप श्रेष्ठ सुयोग्य , सुसन्तान प्रदान कीजिए ।
गर्भाधान की इस क्रिया के लिए आयुर्वेद के अनुसार पुरुष की न्यूनतम आयु 25 वर्ष तथा स्त्री की 16 वर्ष आवश्यक होती है। सबसे कम आयु में यदि विवाह किया जाता है तो वह अवस्था परिपक्व अवस्था होती है । जिसमें श्रेष्ठ संतान की अपेक्षा माता-पिता से नहीं की जा सकती । वैदिक संस्कृति की यह मान्यता है कि हम जैसी संतान चाहते हैं वैसी ही संतान प्राप्त कर सकते हैं । इसके लिए शर्त केवल एक ही है कि माता – पिता बनने की इच्छा रखने वाले पति – पत्नी स्वयं संयमी , विवेकी , वैराग्यवान , विद्यावान और त्यागी – तपस्वी विचारधारा के धनी हों। अल्पायु में किए गए विवाह संस्कार के कारण हमारे युवा व युवतियां इतने परिपक्व नहीं होते , जितने परिपक्व होने की उनसे अपेक्षा की जाती है। यही कारण रहा कि जब परिस्थितिवश हमारे देश में बाल विवाह की बीमारी ने प्रवेश किया तो अपरिपक्व अवस्था में बनने वाले माता-पिता के द्वारा जो संतानें देश को प्राप्त हुईं वे उतनी सुयोग्य नहीं थीं ,जितनी होनी चाहिए थीं । फलस्वरूप नैतिक , आध्यात्मिक व चारित्रिक बल से हीन इन संतानों के कारण देश , समाज और राष्ट्र भी दुर्बल हुए।
आयुर्वेद का कहना है कि गर्भाधान से पहले व गर्भाधान के समय जैसी शारीरिक व मानसिक स्थिति माता-पिता की होती है, उसी का प्रभाव आने वाली सन्तान पर पड़ता है। आयुर्वेद के इस चिंतन से स्पष्ट होता है कि गर्भाधान की यह क्रिया बहुत महत्वपूर्ण क्रिया है । उस क्रिया से हमारे देश , समाज व राष्ट्र का भूत , वर्तमान और भविष्य तीनों जुड़े होते हैं ।
जीव पुरुष के माध्यम से स्त्री में अभिसिंचित होता है। पुरुष में इसका प्रवेश औषध अर्थात् अनाज, वनस्पति अर्थात् फल और आपः अर्थात् प्रवहणशील तत्व जल और प्राण के माध्यम से होता है। जीव का अवतरण यम- वायु अर्थात योगसिद्ध वायु से होता है। आयुर्वेद ने पति और पत्नी दोनों को सचेत किया है कि प्रक्षेपण और धारण क्रिया अत्यंत सहज और सौम्य हो ।

2 – पुंसवन संस्कार

गर्भस्थ शिशु के भीतर पुरुषत्व उत्पन्न करने के लिए यह संस्कार गर्भावस्था के दूसरे या तीसरे माह में किया जाता है । बालक ह्रष्ट – पुष्ट एवं स्वस्थ हो इसके लिए हमारे ऋषियों के द्वारा इस संस्कार का विधान किया गया । आज के चिकित्सक लोग किसी भी गर्भवती महिला को अपना ग्राहक या मुवक्किल बना लेते हैं और उससे पूरे 9 महीने पैसे ऐंठते रहते हैं । इनके पास ऐसी कोई दवा या औषधि नहीं है , जिससे वह गर्भस्थ शिशु के भीतर पुरुषत्व की भावना उत्पन्न कर सकते हैं । गर्भावस्था के काल में गर्भवती स्त्री के लिए यह विधान किया गया कि उसे बहुत शांत चित्त रहना है और ऐसे भोजन को ग्रहण करना है जिससे उसके विचारों में सात्विकता बनी रहे। सात्विकता के बने रहने से ही संयमी , तपस्वी , धर्मशील और सर्वगुण संपन्न संतान के होने की अधिकतम संभावना होती है । तामसिक या राजसिक विचारों की उत्पत्ति न हो इसके लिए उसकी दिनचर्या को इस प्रकार ढाला जाता था कि वह प्रकृति के सान्निध्य में रहे और सात्विक विचारों की उत्पत्ति करने वाले साहित्य और भोजन पानी को ग्रहण करती रहे। ‘जैसा खाओ अन्न – वैसा होगा मन’ – यह बहुत ही गहरा रहस्य है । जिसे हमारे ऋषियों ने और चिकित्साशास्त्रियों ने खोजकर हमें प्रदान किया । उनके चिंतन की गंभीरता का पता इसी से चलता है कि गर्भावस्था में गर्भवती महिला के लिए हमारे पूर्वज किस प्रकार की उसकी जीवन चर्या और दिनचर्या बनाने का प्रयास करते थे ?
इसके लिए विधान किया गया कि गर्भवती स्त्री सदा प्रसन्न रहे, पवित्र आभूषणों को पहने, श्वेत वस्त्र को धारण करे, मन शान्त रखे, सेवाभावी और सबके प्रति सद्भाव रखने वाली सहृदयी बनी रहे । कामवासना को अपने निकट भी फ़टकने न दे और मन में कामुक विचार या कामुक चिंतन को आने न दे। जिससे चित्त विकृत हो ऐसे दृश्यों और साहित्य को न तो देखे और न पढ़े । जिससे मन में किसी के प्रति ईर्ष्या द्वेष का भाव उत्पन्न हो या क्रोध आदि आवेग उत्पन्न हों , ऐसी बेचैनी उत्पन्न करने वाली बातों से अपने आप को दूर रखे। रात के बासी भोजन को या सड़े गले भोजन को भूलकर भी ग्रहण न करे । किसी ऐसे स्थान पर न सोए न जाए जहां जाने से या सोने से भय उत्पन्न होता हो या कोई भी ऐसा विचार उत्पन्न हो जो गर्भस्थ शिशु पर विपरीत प्रभाव डालें। अपने विचारों में सात्विकता का भाव भरे रखने के लिए चिल्लाने या किसी पर क्रोध करने या किसी की चुगली आदि करने में समय नष्ट ना करे ।
इस प्रकार गर्भवती महिला के लिए निश्चित की गई ऐसी दिनचर्या को देखने से पता चलता है कि संतानोत्पत्ति कोई खेल नहीं था , अपितु पूर्णतया एक साधना थी । इस साधना को गर्भवती महिला पूर्ण करती थी । कहने का अभिप्राय है कि मां बनने से पहले भी एक साधना से महिला को गुजरना पड़ता था । उस साधना में वह जितनी सफल होती थी उतनी ही सुंदर और सफल उसे संतान प्राप्त होती थी । जिससे देश , समाज व राष्ट्र का कल्याण होता था । क्योंकि संतानोत्पत्ति के माध्यम से दिव्य समाज की स्थापना करना हमारे पूर्वजों का उद्देश्य हुआ करता था । यही कारण रहा कि प्राचीन काल में हमारे देश में सपूत पर सारे समाज का अधिकार मानने की परंपरा विकसित हुई । उस समय भारतवर्ष में माना जाता था कि यह नवजात शिशु संसार में आया ही इसलिए है कि अपने संपूर्ण जीवन लोक कल्याण के कार्यों में लगा रहेगा । उस पर सारे समाज का समान अधिकार होता था । यह भाव भारत में आज भी देखा जा सकता है।
चरक संहिता के अध्ययन करने से पता चलता है कि उकडूं बैठने, ऊंचे-नीचे स्थानों में फिरने, कठिन आसन पर बैठने, वायु-मलमूत्रादि के वेग को रोकने, कठोर परिश्रम करने, गर्म तथा तेज वस्तुओं का सेवन करने एवं बहुत भूखा रहने से गर्भ सूख जाता है, मर जाता है या उसका स्राव हो जाता है। इसी प्रकार चोट लगने, गर्भ के किसी भांति दबने, गहरे गड्ढे , कुंआ ,पहाड़ आदि के विकट स्थानों को देखने से गर्भपात हो सकता है। सदैव सीधी उत्तान लेटी रहने से नाड़ी गर्भ के गले में लिपट सकती है , जिससे गर्भ मर सकता है।
इस अवस्था में गर्भवती अगर नग्न सोती है या इधर-उधर फिरती है तो सन्तान पागल हो सकती है। लड़ने-झगड़ने वाली गर्भवती की सन्तान को मृगी हो सकती है। यदि वो मैथुनरत रहेगी तो सन्तान कामी तथा निरन्तर शोकमग्ना की सन्तान भयभीत, कमजोर, न्यूनायु होगी। आयुर्वेदाचार्य और विद्वानों का मानना है कि परधन ग्रहण की इच्छुक महिला की सन्तान ईर्ष्यालु , चोर, आलसी, द्रोही, कुकर्मी, होगी। बहुत सोने महिला वाली की सन्तान आलसी, मूर्ख मन्दाग्नि वाली होगी। यदि गर्भवती शराब पीएगी तो सन्तान विकलचित्त, बहुत मीठा खानेवाली की प्रमेही, अधिक खट्टा खानेवाली की त्वचारोगयुक्त, अधिक नमक सेवन से सन्तान के बाल शीघ्र सफेद होना, चेहरे पर सलवटें एवं गंजापनयुक्त, अधिक चटपटे भोजन से सन्तान में दुर्बलता, अल्पवीर्यता, बांझ या नपुंसकता के लक्षण उत्पन्न होंगे एवं अति कड़वा खाने वाली महिला की सन्तान सूखे शरीर अर्थात् कृष होगी।
जब महिला गर्भ अवस्था काल में गर्भस्थ शिशु के दिव्य निर्माण के दृष्टिगत अपने लिए ऐसी साधना की रूपरेखा खींचती है तो सचमुच वह दिव्य संतति को उत्पन्न करती है , इसीलिए हमारे समाज में माता को निर्माता कहकर संतान के निर्माण में उसके महत्वपूर्ण योगदान को नमन किया गया है।

3 – सीमन्तोन्नयन संस्कार

इस संस्कार के माध्यम से गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क का विकास करने का विधान किया गया है । सीमन्त का अर्थ ही मस्तिष्क है और उन्नयन का अर्थ उसका विकास करना है । कहने का तात्पर्य है कि जिस संस्कार के माध्यम से बच्चे का मानसिक विकास किया जाए उसे सीमंतोन्नयन संस्कार कहते हैं । इस संस्कार को चौथे या छठे फिर आठवें माह में किए जाने का विधान है । सुश्रुत के अनुसार पांचवें महीने में मन अधिक जागृत होता है, छठे में बुद्धि जागृत होती है तो सातवें में अंग-प्रत्यंग अधिक व्यक्त होने लगते हैं। जबकि आठवें माह में ओज अधिक अस्थिर रहता है। आठवें महीने में गर्भस्थ शिशु के शरीर मन बुद्धि और हृदय सबका विकास हो जाता है। बच्चे के हृदय का विकास हो जाने के कारण इस अवस्था में आकर गर्भवती महिला दो हृदयों वाली कहीं जाने लगती है। इस अवस्था में गर्भवती महिला को कुछ ऐसी वस्तुओं के खाने का निर्देशन किया गया है जिससे गर्भस्थ शिशु के तन का अच्छा विकास हो सके। इस प्रकार हमारे निर्माण में सीमंतोन्नयन संस्कार का भी विशेष महत्व था । सीमन्तोन्नयन शब्द से ही पता चलता है कि हमारे ऋषि पूर्वजों को गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क के विकास संबंधी ज्ञान तो था ही साथ ही इसका विज्ञान भी उनके बौद्धिक विवेक में समाविष्ट था । तभी तो उन्होंने गर्भवती महिला के लिए साधना भरी जीवनचर्या और दिनचर्या का निर्माण किया था।

4 — जातकर्म संस्कार

जब शिशु जन्म लेता है तो उसका शरीर जेर में लिपटे हुआ आता है । जिसकी सफाई करनी आवश्यक होती है । उसकी त्वचा और गले की सफाई के लिए सेंधा नमक का प्रयोग किया जाता है । जिसे परम्परा से हमारे यहाँ पर दाई किया करती थी । बच्चे के जन्म के अवसर पर समाज के लोग उसका अभिनन्दन करते हैं । इस प्रकार हमारे यहाँ पर शिशु का आना और उससे पहले उसके किए जाने वाले संस्कार और संस्कारों से भी पहले उसके आने के लिए भूमिका तैयार करने के लिए माता-पिता के पाणिग्रहण संस्कार में समाज के लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । अनेकों जन मिलकर एक बच्चे के लिए तैयारी करा रहे होते हैं । पूरा समाज विवाह समारोह में नवदम्पति के अभिनन्दन के लिए कम और समाज के एक नए प्राणी के अभिनन्दन के लिए अधिक तैयार होता है । इसीलिए मनुष्य का बच्चा जन्मना सामाजिक होता है। ईसाई और इस्लामिक जगत विवाह संस्कार की पवित्रता और उत्कृष्टता को समझ नहीं पाया है कि यह संस्कार किसी आने वाले अतिथि के स्वागत व सत्कार के लिए की जा रही तैयारियों के रूप में कराया जाता था । जिसमें सारा समाज उपस्थित होता था और मानो उसके आने से पहले ही उसके माता-पिता को आशीर्वाद देता था कि तुम श्रेष्ठ और सुयोग्य संतान के स्वामी बनो । नवजात शिशु के लिए सामाजिक रूप से इतनी बड़ी तैयारियों को देखकर लगता है कि जैसे हम किसी देव के आगमन की प्रतीक्षा में खड़े हैं । सबके हाथों में फूल हैं और सब आने वाले पर पुष्पवर्षा कर यह बताना चाहते हैं कि तुम देवों की संतान हो , तुम बहुत गौरवमयी दिव्य पुरुषों की विरासत के उत्तराधिकारी हो । हम बहुत सौभाग्यशाली हैं कि तुम्हारा स्वागत कर रहे हैं और तुम भी बहुत सौभाग्यशाली हो कि हमारे द्वारा अपना अभिनंदन प्राप्त कर रहे हो । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है – यह संस्कार भारत का है और भारत ही इस संस्कार का मूल्य समझ सकता है ।
श्रुति का वचन है- दो शरीर, दो मन और बुद्धि, दो हृदय, दो प्राण व दो आत्माओं का समन्वय करके अगाध प्रेम के व्रत को पालन करने वाले दंपति उमा-महेश्वर के प्रेमादर्श को धारण करते हैं, यही विवाह का स्वरूप है। हिन्दू संस्कृति में विवाह कभी ना टूटने वाला एक परम पवित्र धार्मिक संस्कार है, यज्ञ है। विवाह में दो प्राणी (वर-वधू) अपने अलग अस्तित्वों को समाप्त कर, एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं और एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे दो पहियों की तरह प्रगति पथ पर बढते हैं। यानी विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है, जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रिय-सुखभोग नही, बल्कि पुत्रोत्पादन, संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना है।
बच्चे की त्वचा को साफ करने के लिए साबुन या बेसन और दही को मिलाकर उबटन के रूप में परिवार की वृद्ध महिला मल देती है। स्नान के लिए गुनगुने पानी का प्रयोग होता है। चरक के अनुसार कान को साफ करके वे शब्द सुन सकें इसलिए कान के पास पत्थरों को बजाना चाहिए।
शिशु के तन को कोमल वस्त्र या रुई से सावधानीपूर्वक साफ-सुथरा कर गोद में लेकर देवयज्ञ करके स्वर्ण शलाका को सममात्रा मिश्रित घी-शहद में डुबोकर उसकी जिह्वा पर ॐ नाम लिखा जाए । इस क्रिया के करने से उस बच्चे का वाक् देवता जागृत किया जाता है। उस शिशु के दाहिने तथा बाएं कान में ”वेदोऽसि“ भी कहा जाता है । जिसका अर्थ होता है – तू ज्ञानवान प्राणी है, अज्ञानी नहीं है। इस प्रकार ” मैं मूरख फ़लकामी ” – न कहकर मैं अमृत पुत्र हूं या तू अमृत पुत्र है , ऐसा कहने की भारत की परंपरा रही है। इतनी क्रिया प्रक्रियाओं के करने के पश्चात मां अपने स्थान से शिशु को दूध पिलाएगी तो वह बच्चा समझ जाएगा कि अब तू अमृत पान कर रहा है और तेरी तैयारी संसार में अमृतत्व को प्राप्त करने के लिए प्रारंभ हो गई है।

5 नामकरण संस्कार

बच्चे के नामकरण संस्कार के बारे में हमारे विद्वानों की मान्यता रही कि नाम सार्थक होने चाहिए। जिससे बच्चे में जीवन भर एक भाव बना रहे कि तुझे अपने नाम को सार्थक करना है । हमारे यहां पर विष्णु , महेश , ब्रहम , ब्रह्मदेव , ज्ञानानन्द , रामानन्द , शिवानन्द जैसे सार्थक नाम रखने की परम्परा रही है । ऐसे नामों पर जातक जब स्वयं अपने विषय में चिंतन करता है तो वह कुछ न कुछ बनने की अवश्य सोचता है । कभी न कभी उसके मन में ऐसा भाव अवश्य आता है कि जैसा तेरा नाम है वैसे ही तेरे कर्म भी होने चाहिए । इसीलिए चरक ने कहा है कि नाम साभिप्राय होनें चाहिएं। नाम से बच्चे का जीवन पथ और जीवन का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए।
नामकरण संस्कार सन्तान के जन्म के दिन से ग्यारहवें दिन या एक सौ एकवें दिन में या दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो किए जाने की परंपरा रही है । हमारे यहां पर यह भी परंपरा रही है कि बच्चों को प्यार करते समय उसका चुंबन नहीं लिया जाएगा। क्योंकि ऐसा करने से बच्चे को संक्रामक रोग लग सकते हैं । इसके स्थान पर बच्चे की नासिका द्वार को स्पर्श करने या बच्चे को सूंघने की परंपरा रही है।
यदि बालक ने जन्म लिया है तो समाक्षरी अर्थात 2 या 4 अक्षरों वाले नाम को रखना उत्तम समझा जाता है , और यदि बालिका ने जन्म लिया है तो विषम अक्षरी अर्थात 3 या 5 अक्षरों वाले नाम को रखना उचित माना जाता है।

6 — निष्क्रमण संस्कार

जब शिशु 2 या 3 माह का हो जाए तो उसे बाहर की शुद्ध वायु की आवश्यकता होती है । इसे ही निष्क्रमण संस्कार कहा जाता है , अर्थात जब बालक या बालिका अपने जन्म के पश्चात पहली बार घर से बाहर निकले तो उसका निष्क्रमण होता है । इसी को एक संस्कार के रूप में माना और मनाया जाता है ।निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकलना।
गृह्यसूत्रों में यह स्पष्ट किया गया है कि जन्म के बाद तीसरे शुक्ल पक्ष की तृतीया अर्थात् चान्द्रमास की दृष्टि से जन्म के दो माह तीन दिन बाद अथवा जन्म के चौथे माह में इस संस्कार को संपन्न कराया जाना उचित होता है। इस अवसर पर बाहर के लोग नव शिशु का स्वागत और सत्कार करते हैं । आज भी पहली बार घर से बाहर निकले ऐसे शिशु को लोग बहुत लाड – प्यार करते हैं और उसके चिरायु होने की कामना करते हैं । इस प्रकार के भाव और भावना सामाजिक संस्कारों को और समाज के देवत्वीकरण की प्रक्रिया को बलवती करने में बहुत सहायक सिद्ध होते हैं । पहली बार घर से बाहर निकलने के इस पवित्र अवसर पर विधान किया गया है कि माता-पिता को उस दिन यज्ञ करना चाहिए और प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारा बालक या बालिका सदा अनघ अर्थात पापरहित जीवन जिए। क्योंकि आज उसका समाज में पहली बार परिचय या गमन हो रहा है , इसलिए संसार के किसी भी प्राणि के प्रति उसके हृदय में पाप भावना न हो और आजीवन वह पुण्यमयी जीवन जीने का प्रयास करे । ऐसी पवित्र और उत्कृष्ट दिव्य भावनाओं के साथ बालक के माता-पिता को चाहिए कि वह उसे यज्ञ के उपरान्त सूर्य के प्रकाश के दर्शन कराएं। फिर रात्रि में उसे चंद्रमा की भी दर्शन कराएं । इस प्रकार निष्क्रमण संस्कार के समय बालक का परिचय सूर्य , चंद्रमा , सितारे ,नक्षत्र आदि से कराया जाना शास्त्रविहित कर्म है ।
आयुर्वेद के ग्रन्थों में कुमारागार, बालकों के वस्त्र, उसके खिलौने, उसकी रक्षा एवं पालनादि विषयों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है।

7 — अन्नप्राशन संस्कार

जब बालक 6 माह का हो जाए तो उसे पहली बार अन्न ग्रहण कराया जाना चाहिए । शास्त्रों की व्यवस्था है कि इस अवसर पर भी यज्ञ करना चाहिए । जिससे पहली बार अन्न ग्रहण करने वाले बालक के हृदय और मस्तिष्क में यज्ञ की परोपकारी भावना विकसित हो। उसका एक संस्कार उसके भीतर अंकित हो।
पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार छठे माह में अन्नप्राशन संस्कार होना चाहिए। जिस बालक का पाचन दुर्बल हो उसका अन्नप्राशन संस्कार सातवें माह में जन्म दिवस पर कराएं। इस अवसर पर माता – पिता बच्चे में शक्तिकरण की भावना स्थापित करने के भाव के साथ यज्ञ पर बैठें । ऐसी भावना रखनी चाहिए कि बच्चे का श्वसन तंत्र और पांचों इंद्रियां परिशुद्ध हों और वह सदैव स्वस्थ रहे।
यदि माता अपना दूध छुड़ाना चाहती है तो उसे शिशु को धीरे – धीरे अपने दूध के स्थान पर गाय का दूध पिलाने का क्रम आरंभ करना चाहिए । प्रारंभ में गाय के 150 ग्राम दूध में 50 या 60 ग्राम उबला हुआ पानी और एक चम्मच मीठा डालकर बच्चे को पिलाना चाहिए । दूध की मात्रा को धीरे – धीरे बढ़ा सकते हैं और फिर जब भी बच्चे को भूख लगे तो उसे मां अपने दूध के स्थान पर गाय का दूध दे सकती है। चौथे सप्ताह से बच्चे को फलों का रस व सब्जी का रसा भी दिया जा सकता है। उसके पश्चात दही शहद सब्जी के माध्यम से धीरे-धीरे बच्चे को भोजन पर लाया जा सकता है । इस प्रक्रिया को अपनाने से बच्चे को कभी भी किसी प्रकार का कोई शिशु रोग नहीं सताता।
वास्तव में बच्चे को धीरे – धीरे भोजन पर लाने की इस प्रक्रिया से संयम और धैर्य का संस्कार बच्चे के भीतर विकसित होता है । माता जितना संयम और धैर्य बरतते हुए अपने शिशु को ठोस आहार पर ला सकती है , उतने ही अनुपात में उस बच्चे के अंदर भी यह संस्कार प्रबल होता है कि उसे जीवन में हितभुक , ऋतभुक और मितभुक बने रहकर अपने स्वास्थ्य की रक्षा करनी है ।
वास्तव में यह संस्कार बहुत महत्वपूर्ण है , क्योंकि आजकल लोगों में अधिक बीमारियां पाए जाने का एकमात्र कारण यही है कि लोग हितभुक , मितभुक और ऋतभुक नहीं रह पाए हैं। जबकि हमारे ऋषि लोग प्राचीन काल से ही इस प्रकार के संस्कार को कराकर समाज में निरोगिता का संदेश दिया करते थे । निरोगिता को आज 80 वर्ष का वृद्ध भी उतना नहीं अपना पाता , जितना हमारे यहां पर बच्चे को 8 माह की अवस्था में बता व समझा दिया जाता था । इस प्रकार बच्चे की शिक्षा हमारे यहां पर 5 वर्ष के पश्चात नहीं ,अपितु उसके जन्म की प्रक्रिया अर्थात गर्भाधान संस्कार से ही प्रारंभ हो जाती थी , जिसे आज भी समझने की आवश्यकता है।

8 — चूड़ाकर्म संस्कार

जब सृष्टि की रचना हुई तो वैज्ञानिकों का कहना है कि उस समय बहुत देर तक वर्षा होती रही । बहुत लंबे काल के पश्चात वर्षा के शांत होने पर वनस्पति पेड़ पौधे आदि उगे । धीरे – धीरे ऋतुएं बनीं और प्राणी जगत की रचना का क्रम आरंभ हुआ । कहने का अभिप्राय है कि नयी रचना सृजना से पहले या उसके होते समय कुछ विशेष कष्ट उठाना ही पड़ता है । मां को भी नये सृजन के समय अर्थात बच्चे के प्रसव के समय कष्ट भोगना पड़ता है । इसी प्रकार जब शिशु के दांत निकलते हैं तो उसकी इस नई सृजना के लिए भी उसे कुछ कष्ट होता है । उस समय इस कष्ट के कारण बच्चा चिड़चिड़ा भी हो जाता है । यह प्रक्रिया एक वर्ष से आरंभ होकर 3 वर्ष की अवस्था तक पूर्ण हो जाती है।
इस अवस्था में बच्चे का सिर भारी हो जाता है । सिर में गर्मी बढ़ जाती है । मसूड़े फूल जाते हैं । आंखें आ जाती हैं । जिससे उसके मुंह में लार अधिक बनती है । यही कारण रहा कि इस अवस्था में हमारे ऋषि पूर्वजों ने मुंडन संस्कार कराने का प्रावधान किया । जिससे सिर में कुछ ठंडक अनुभव हो और बच्चे की चिड़चिड़ाहट में कमी आए।
आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक इन त्रिताप से रहित करके बच्चे को समृद्धमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करना या उसे ऐसी कला सिखाना इस संस्कार का विशेष उद्देश्य है। सत , रज , तम इन तीनों से यह संसार चक्र चल रहा है । जिसे समझना बहुत आवश्यक है । त्रिदोष , त्रिगुण आदि कई त्रिक हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में ऐसा स्थान पाए हुए हैं जिन्हें समझने की बहुत आवश्यकता है। इसी को समझने के लिए हमारे सिर का ठंडा रहना बहुत आवश्यक है। यदि सिर गर्म है तो पढ़ाई लिखाई का कोई भी कार्य नहीं हो सकता । जब पढ़ाई लिखाई नहीं होगी तो किसी भी प्रकार का अनुसंधान या आविष्कार भी नहीं हो सकेगा। ऐसी स्थिति में तीन गुणों को समझना भी संभव नहीं है। इसलिए संस्कार रूप में बच्चे को मुंडन संस्कार के माध्यम से यह संकेत दिया जाता है अथवा उसके भीतर यह संस्कार प्रबल किया जाता है कि तुझे बड़ा होकर ज्ञान की गहराई को नापना है ।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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