अनशन पर अन्ना

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प्रमोद भार्गव

anna on hunger strikeसक्षम व जनहितैषी लोकपाल विधेयक पारित कराने के लिए गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे एक बार फिर अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ गए हैं। इस बार अन्ना ने आंदोलन का ठिकाना अपने पैतृक गांव रालेगण सिद्धी को बनाया है। अन्ना की मांग है कि चालू संसद सत्र में ही इसे पारित कराया जाए। पिछले तीन साल में ऐसा चौथी बार हुआ है कि अन्ना जनलोकपाल विधेयक के समर्थन में भूख हड़ताल पर हैं। हालांकि केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में मिली करारी शिकस्त के बावजूद विधेयक को पारित कराने के मूड में दिखाई नहीं देती। क्योंकि इस विधेयक को चालू सत्र के अजेंडा में शामिल ही नहीं किया गया है। यह अलग बात है कि अन्ना के अनशन पर बैठने के बाद सरकार विधेयक को लटकाने का ठीकरा विपक्ष पर फोड़ने पर आमदा है। लेकिन अब संप्रग सरकार को समझ लेना चाहिए कि वह झूठ बोलकर देश की जनता को गुमराह नहीं सकती।

शुचिता के जरिए राष्‍ट्र निर्माण की दिशा में अन्ना के आंदोलनों ने अहम् पहल की है। इसी आंदोलन से उपजे अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में दस्तक देकर साबित कर दिया है कि फिजूलखर्ची किए बिना, और मतदाताओं को शराब व नोट बांटे बिना भी सम्मानजनक जीत हासिल की जा सकती है। दिल्ली में 15 साल विकास का प्रतीक रहीं, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को राजनीति का नौसिखिया अरविंद केजरीवाल 25 हजार वोटों से हरा भी सकता है ? राजनीति में ईमानदारी की शुचिता की इस पहल ने चुनाव के इस मिथक को तोड़ दिया है कि चुनाव धन और बाहुबली ही लड़ सकते हैं ? चुनाव सुधार की दिशा में सजायाफ्ता राजनेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगने से भी अहम् सुधार हुआ है। धीरे-धीरे सजायाफ्ता सांसद, विधायक इन संवैधानिक सदनों से बाहर होते चले जाएंगे। निर्वाचन आयोग की सख्ती के चलते भी चुनावों में फिजूलखर्ची पर अंकुश की शुरुआत हो गई है। पेडन्यूज के आदर्श आचार संहिता के दायरे में ले आने से समाचार माध्यम भी शुचिता की दिशा में उन्मुख हुए हैं। जाहिर है, लोकतंत्र के दो बड़े स्तंभ विधायिका और खबरपालिका खुद के आचरण सुधार की दिशा में एक कदम आगे बढ़े हैं या बढ़ने को मजबूर किए गए हैं। तब इस परिप्रेक्ष्य में सवाल उठता है कि कार्यपालिका में शुद्धिकरण की दृष्टि से यदि प्रशासनिक सुधार नहीं होते हैं तो तालाब की यह गंदी मछली विधायिका और खबरपालिका को शुद्ध नहीं बने रहने देगी ? क्योंकि निरंकुश भ्रष्‍टाचार के नाले-परनाले प्रशासन से गर्भ से ही फूटते हैं ? गोया, लोकपाल या जनलोकपाल विधेयक लाया जाना अब लोक की अहम् जरुरत बन गई है। अन्यथा राजनीति और समाचार के स्तर पर सुधारों की जो षुरुआत हुई है, कालांतर भ्रष्‍ट प्रशासन उसे दूषित होने को विवश कर देगा।

लोकपाल विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित होना इसलिए जरुरी है, क्योंकि अगस्त 2011 में अन्ना हजारे जब दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे, तब देश की संसद ने सर्वसम्मति से लोकपाल लाने का वादा एक लिखित चिट्ठी में अन्ना से किया था। इस भरोसे के बाद ही अन्ना अनशन तोड़ने के लिए राजी हुए थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हस्ताक्षर से जारी यह चिट्ठी, कोई साधारण चिट्ठी नहीं थी, बल्कि यह ‘संसद की उस भावना’ का प्रतीक थी, जिसमें लोकपाल विधेयक में शामिल किए जाने वाले प्रस्तावों का उल्लेख था। जाहिर है, विधेयक पारित होता है, तो संसद के प्रति जनता का विश्‍वास भी कायम रहेगा और संसद की गरिमा भी बची रहेगी ?

’संसद की भावना’ नाम से जाने, जाने वाले इस प्रस्ताव में तीन बिंदु दर्ज थे। एक केंद्र की समस्त नौकरशाही के भ्रष्‍टाचार का निवारण लोकपाल करेगा। दो, सिटीजन चार्टर, मसलन शिकायत निवारण व्यवस्था भी लोकपाल के अधीन होगी और तीन, राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति अनिवार्य होगी। लेकिन लोकसभा में लोकपाल विधेयक का जो मसौदा पेश किया गया, उसकी संहिताओं की व्याख्या करने पर पता चला कि इसकी आत्मा में भ्रष्‍टाचार उन्मूलन की भावना ही अंतर्निहित नहीं है। संसद का यह झूठ तब सामने आया, जब सभी राजनीतिक दलों ने संसद में असकरकारी लोकपाल बनाने का भरोसा देश की जनता को जताया था। सरकार ने तीन में से दो मुद्दों की इबारत पूरी तरह बदल दी। नागरिक अधिकारों के लिए अलग से विधेयक संसद में पेश किया गया। कारण बताया गया कि शिकायतों की भरमार से लोकपाल को बचाने के किए ऐसा किया गया। जबकि विडंबना देखिए, लोकपाल के इसी मसौदे में व्यवस्था है कि षिकायत को निपटाने का अंतिम अधिकार लोकपाल को ही रहेगा। जब शिकायत निपटाने के लिए आखिर में लोकपाल से रुबरु होना ही है तो फिर अलग से विधेयक लाकर एक कानूनी ढांचा खड़ा करने की क्या जरुरत है ? शिकायत की पहली अपील से लेकर अंतिम अपील तक लोकपाल के दायरे में ही रखने की जरुरत थी ? इससे संस्थागत ढांचे में एकरुपता रहती और संहिताओं की इबारतों में भी विरोधाभास नहीं रहता। संहिताओं के विरोधाभासी विकल्न जहां अधिकारियों के अहं टकराव का कारण बनते हैं, वहीं इनकी इबारत में मौजूद विकल्प फैसले को आमूलचूल बदलने का आधार भी बन जाते हैं। हालांकि यह विधेयक भी पारित नही हो सका है।

इसी तरह शत-प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाने की बात सरकार ने नकार दी है। अन्ना की प्रमुख इच्छा केंद्रीय जांच ब्यूरो को संपूर्ण स्वायत्तता देते हुए सरकारी नियंत्रण से बाहर रखने की थी, लेकिन मसौदे में इसे नहीं स्वीकारा गया। ऐसे हालात से भ्रष्‍टाचार का निर्मूलन कैसे संभव है ? यह स्थिति सीबीआई और लोकपाल दोनों को ही कमजोर बनाती है। लोकपाल जैसी संस्था उन हालातों में कैसे अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकती है, जब उसके मातहत कोई स्वतंत्र जांच एजेंसी ही न हो ? लोकपाल को भ्रष्‍टाचार से जुड़े मुद्दे को स्वमेव संज्ञान में लेने का अधिकार भी नहीं है। जबकि यह अधिकार न्यायालयों और जिला कलेक्टर तक को है। तय है, सरकार की मंशा भ्रष्‍टाचार पर नकेल कसने की है ही नहीं ? वह तो सिर्फ लोकपाल इसलिए लाने का तमाशा कर रही हैं, जिससे संसद में दिया भरोसा देखने दिखाने को पूरा हो जाए। मसलन सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। लेकिन सरकार इस कमजोर व आधे-अधूरे लोकपाल को भी लाने की मंशा नहीं जता रही। यदि उसकी मंशा ठीक रही होती तो लोकसभा से पारित इस विधेयक को वह राज्यसभा के अजेंडे में शामिल करती। अब अन्ना के अनषन पर बैठने के बाद सरकार दुविधा में है। इस दुविधा से वह कैसे निपटती है, यह सरकार जाने, लेकिन इतना जरुर है, कि प्रशासन के भ्रष्‍टाचार मुक्त हुए बिना राजनीति में स्थायी शुचिता की उम्मीद नहीं की जा सकती है ? बहरहाल लोकपाल लाया जाना जरुरी है।

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  1. प्रमोद भार्गव जी,आज जब मैं आपका यह आलेख पढ़ रहाहूँ,जिसमे जिस सरकारी जोकपाल की धज्जियाँ उड़ाई गयी है, वही जोकपाल आज राज्य सभा में पारित हो चुका है और सम्भावना यह है कि कल वह लोकसभा में भी पारित हो जाएगा. पता नहीं अन्ना हजारे को कौन सी घुट्टी पिला दी गयी कि वे इसपर सहमत हो गए हैं, ,जिसके बारे पहले उन्होंने ही कहा था कि यह जोकपाल जनता के साथ धोखा है. रविवार के दैनिक जागरण में जेनरल वि.के.सिंह का वयान प्रकाशित हुआ था कि सूट न सही शरीर ढंकने के लिए एक चड्डी तो मिल रहा है. तब से मैंने इस मसौदे को चड्डी जोकपाल कहना आरम्भ कर दिया है. आम आदमी पार्टी ने तो इसे पहले ही अस्वीकार कर दिया है. अब देखना यह है कि आम आदमी पार्टीं असली जन लोकपाल लाने में कब सफल होती है? तब तक राष्ट्र को वर्त्तमान भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए इन्तजार करना पडेगा.

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