पर्यावरण

गहराते जलवायु संकट के बीच पृथ्वी बचाए रखने की चुनौ‍ती

 डॉ. मयंक चतुर्वेदी

ब्रह्माण्ड का स्रजन और जीवन की उत्पत्ति यह लाखों वर्ष बीत जाने के बाद भी रहस्य बना हुआ है। इसे जानने के  जितने भी प्रयास किए जाते हैंखोजकर्ता उतने ही प्रकृति के रहस्य में समा जाते हैं। हर बार उनके मुख से यही शब्द निकलते हैं कि नेति नेति अर्थात न इति न इति, इस संस्कृत वाक्य का अर्थ है यह नहीं, यह नहींअथवा यही नहीं, वही नहींया कहना चाहिए जिसका अन्त नहीं है-अन्त नहीं है। ब्रह्म या ईश्वर के संबंध में यह वाक्य उपनिषदों में अनंतता जिसका अंत नहीं भाव को सूचित करने के लिए आया है। उपनिषद् के इस महावाक्य के अनुसार ब्रह्म शब्दों के परे है। यानि ब्रह्म से बना ब्रह्माण्ड भी बुद्धि के बाहर का विषय है।

आधुनिक विज्ञान के जरिए हम सभी ने देखा कि दुनिया के लिए अब तक रहस्य बने गॉड पार्टिकल या हिग्स बोसोन कणों को जेनेवा स्थित दुनिया की सबसे बड़ी, महंगी और तकनीकी दृष्टि से सबसे जटिल मशील वाली प्रयोगशाला में खोज लेने का दावा किया गया। लेकिन क्या वह अपने चरम को पा सका ? सारे दावे धरे रह गए। वैज्ञानिकों ने 11 मूल कण तो खोज लिए लेकिन 12वें कण को खोज नहीं पाए। वैज्ञानिकों का कहना है कि ब्रह्माण्ड के अस्तित्व में आने से पहले सब कुछ हवा में तैर रहा था। किसी का कोई आकार या वजन नहीं था। महाविस्फोट के बाद उत्पन्न कण प्रकाश की गति से इधर-उधर भाग रहे थे। तभी हिग्स बोसोन भारी ऊर्जा लेकर आया और इसके संपर्क में आने वाले कण आपस में जुड़ने लगे। यह 12 वां कण ही गॉड पार्टिकल है, जिसने सभी के बीच जुड़ाव पैदा किया। वैज्ञानिक इस कण को अनुभव तो कर रहे हैं लेकि‍न कह कुछ नहीं पा रहे और जो कह रहे हैं वे यही कि नेति-नेति। किंतु प्रकृति जिसमें हम रात-दिन व्यवहार करते हैं क्या वह भी हमारे ज्ञान या जानकारी से मुक्त कहलाएगी ? उत्तर होगा नहीं, बिल्कुल नहीं।

वास्तव में जीवन और मृत्यु के बीच का जो चक्र है, समष्टि में उसके क्रम को इस प्रकार व्यवस्थि‍त किया गया है कि प्रकृति बिना अवरोध के निरंतर उसी प्रकार संतुलन करते हुए चलती रहती है जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर और हमारी आकाश गंगा के सभी ग्रह-उपग्रह, तारे अपने-अपने केंद्र में गतिशील हैं। कहने का आशय इतनाभर है कि हमारे सामने जो चुनौतियां आज विद्यमान हैं वह प्रकृति जन्य नहीं, हमारी आकाश गंगा में प्रकृति ने जिसको सबसे श्रेष्ठ बनाया उसी मानव की प्रदत्त हैं। वस्तुत: इसके बावजूद धन्य है यह नेचर, जिसने उसी मानव के हाथ में स्वयं को सवांरने का अवसर भी दे दिया है, लेकिन हम हैं कि समस्यायें तो उत्पन्न कर लेते हैं और जब समाधान की बात आती है तो एक-दूसरे का मुंह पहल करने के लिए तांकतें हैं।

अपने नेचर को नानाविध रूपों में मानव नुकसान पहुंचा रहा है और नेचर भी जवाब में अनेक नई-नई बीमारियों के जरिए हमारे अस्तित्व पर भी सवाल खड़े कर दे रहा है। स्वभाविक है कि जब हवा, पानी, भोजन जीवन का जो मूल आधार है वही विषाप्त हो जायेंगे, तो मानव जीवन कब तक अपनी कुशलक्षेम बनाए रख सकता है। इस पर और विचार करने के लिए हम अपने अतीत में चलते हैं। भारतीय ग्रंथ वेदों में संसार को ऊर्जा का पुंज कहा गया है। उपनिषदों और अन्य अरण्य ग्रंथों में इसकी बृहद् व्याख्या की गई है। कुल मूल सार यह है कि ऊर्जा निरंतर परिवर्तन के साथ सतत् प्रवाहमान है। इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि आप यदि किसी ऊर्जा पुंज को फिर वह भौतिक, प्रकृति जन्य या मानव निर्मित क्यों न हो यदि उसके बदलाव का कार्य मनुष्य विज्ञान की मदद से नहीं करेगा तो इस कार्य को स्वत: प्रकृति अपनी स्वभावगत व्यवस्था से करेगी। हमने आज हवा को विभि‍न्न जहरीली गैसों के कृत्त‍ि‍म उत्सर्जन से विषाप्त कर दिया। इसी प्रकार पानी को भौतिक सुख की सामग्र‍ियों के निर्माण के लिए उपयोग करते हुए उसके भण्डारण के स्त्रोतों में कचड़ा-कूड़ा और जो भी अपशि‍ष्ट हो सकता था उसमें डालकर गंदा करने के साथ मनुष्य ने इस सीमा तक खराब कर दिया कि जिसे जीवन का साक्षात अमृत माना जाता है आज वह नीर कई नई-नई बीमारियों का कारण बन रहा है। यही हाल हमने धरती का अधि‍क पैदावार के लालच में अधि‍कतम रसायनों का उपयोग कर उसका किया है। वस्तुत: वर्तमान में जो भी समस्यायें चारों और दिखाई दे रही हैं वह प्रकृति जनित कम मानव द्वारा पैदा की हुई अधि‍क हैं। जिनका कि निवारण किया जाना कहीं से भी प्रकृति के हाथ में नहीं स्वयं मानव के हाथों में है।

वैश्विक आंकड़ों को देखें तो चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला (करीब 23 प्रतिशत) कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने वाला देश है, यहां जैव ईंधन की सबसे ज्यादा खपत है। जबकि औद्योगिक देशों में प्रति व्यक्ति के हिसाब से अमरीका दूसरे नंबर पर (लगभग 18 फीसदी) सबसे अधिक प्रदूषण फैलाता है। ये दोनों देश मिल कर दुनिया के लगभग आधे प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार हैं और तीसरे पर भारत (करीब छह फीसदी) है। ये जैव ईंधन की सबसे ज्यादा खपत करते हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि चीन, अमेरिका और भारत दुनिया में सबसे अधि‍क प्रदूषण उत्पन्न करने वाले देश हैं। यहां तक कि पर्यावरण बचाने की वकालत करने और खुद को इसका झंडाबरदार बताने वाले देश जर्मनी और ब्रिटेन की बात है तो यह भी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले शीर्ष 10 देशों में शुमार हैं।

जहां तक भारत का सवाल है, यहां पर्यावरण के मामले निपटाने के लिए राष्ट्रीय ग्रीन ट्राइब्यूनल बना है। भारत ने पर्यावरण के लिए बहुत काम किया है और वह उन गिने चुने देशों में शामिल है, जिसने सबसे पहले हवा और पानी प्रदूषण से बचने के लिए कानून बनाए। लेकिन क्या चीन और अमेरिका को साथ लिए वगैर पर्यावरण सुधार की दिशा में कारगर सफलता हासिल की जा सकती है? उत्तर होगा बिल्कुल नहीं। इसीलिए ही आज दुनियाभर के देश अमरीका और चीन को किसी न किसी तरह से प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए तैयार करने की कोशिशें कर रहे हैं। 1997 में जापानी शहर क्योटो में हुए पर्यावरण समझौते को अभी दुनियाभर के देश मानक के तौर पर मानते जरूर हैं, लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक देश अमेरिका इसे नहीं मानता और जो देश किसी तरह इस अनुबंध को स्वीकार करते भी हैं वहां भी यह संकेतिक ही है। जबकि इस अनुबंध से जुड़ी सच्चाई यह है कि यदि दुनियाभर के देश इसे पूरी तरह स्वीकार कर लें तो गहराते जलवायु संकट से जुड़ी सत्तर प्रतिशत समस्यायें समाप्त हो सकती हैं। आज सिर्फ अमेरिका को ही नहीं सभी को यह समझना होगा कि पृथ्वी के स्वास्थ्य को सही सलामत रखने के लिए पर्यावरण प्रदूषण कम करने की जवाबदेही किसी एक देश की नहीं सभी की सामूहिक है। हवा, पानी और विभि‍न्न गैस बहते वक्त यह तय नहीं करती हैं कि हमें फलां देश में जाना है और फलां देश की सीमाओं में नहीं। क्योंकि सीमाएं प्रकृति जनित नहीं मानव की बनाई हुई हैं। नेचर के लिए संपूर्ण पृथ्वी समान है।

जलवायु परिवर्तन का वैज्ञानिक आकलन करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी के इस दिशा में किए गए अभी तक के सभी शोध इस ओर ही इशारा कर रहे हैं कि भारत, पाकिस्तान, चीन और लद्दाख की प्रलयंकारी बाढ़ें, लगातार बढ़ रही भीषणतम गर्मी, मध्योत्तर अफ़्रीका में वर्षों से पड़ रहा अकाल, उत्तरी ध्रुव से हिमखंडों का अलग होना, रूस में धुएँ के कारण कई क्षेत्रों में साँस लेने में आ रही परेशानी, गंगा, कोलोराडो और निजेर जैसी नदियों का जल प्रवाह साल-दर-साल कम होते जाना जैसे तमाम पर्यावरण से जुड़े नकारात्मक प्रभाव समय के साथ बढ़ते जायेंगे।

वस्तुत: सच यही है कि अभी भी यदि नहीं सुधरे हम तो इस सदी में वायुमंडल के तापमान में खासी बढ़ोत्तरी होने के साथ बाढ़, अकाल और तूफान जैसी प्राकृतिक विपदाओं की संख्या में अपार वृद्धि होना तय है। देखा जाए तो आधुनिक विकास के नाम पर हमने न केवल आज मानव जाति के सामने भविष्य में अपने अस्तित्व को बनाए रखने का संकट खड़ा कर दिया है वरन संपूर्ण जीव जगत के सामने भी स्वयं को सुरक्षि‍त बनाए रखने का संकट पैदा कर दिया है। ऐसे में सभी की समान जवाबदेही बनती है। अत: दुनिया के तमाम देशों को एक साथ परस्पर समझना होगा कि पर्यावरण किसी भी देश के लिए हित व लाभ से ज्यादा नैतिक मूल्यों का मसला है, इसे लेकर कितने भी कड़े से कड़े कानून बना लिए जायें बात नहीं बनने वाली, जबकि उन पर अमल करने के लिए सभी देश स्वत: से स्वयं में इच्छाशक्ति जाग्रत नहीं कर लेते हैं। गहराते जलवायु संकट के बीच पृथ्वी का अस्तित्व बचाए रखने की यह चुनौ‍ती तब तक समाप्त नहीं हो सकेगी, जब तक कि पूरी दुनिया इस दिशा में अपने लाभ के गणि‍त को छोड़कर एकजुट नहीं हो जाती है।