स्मित नयन विस्मृत बदन, हैं तरंगित जसुमति-सुवन; हिय स्फुरण हलकी चुभन, हैं गोपियां गति में गहन । हुलसित हृदय मन स्मरत, राधा रहति प्रिय विस्मरित; आकुल अमित झंकृत सतत, वन वेणुका खोजत रहत । सुर पाति संवित गति लभति, हर पुष्प केशव कूँ लखति; हर लता तन्तुन बात करि, पूछत कुशल हर पल रहति । गोपाल लखि हर गति रमति, सीमा समय की ना रहति; ना वियोगी मन में लखति, हर देश पात्रन संस्फुरति । राधा- रमण गोपी सुमन, हर प्राण के मन रचि भुवन; त्रिभुवन फिरत 'मधु' लखि नयन, वरि वराभय हर स्मरण ! रचयिता: गोपाल बघेल 'मधु'