हो मुक्त बुद्धि से, हुआ अनुरक्त आत्मा चल रहा !

हो मुक्त बुद्धि से, हुआ अनुरक्त आत्मा चल रहा;

मैं युक्त हो संयुक्त पथ, परमात्म का रथ लख रहा !
मन को किए संयत नियत, नित प्रति नाता गढ़ रहा;

चैतन्य की भव भव्यता में, चिर रचयिता चख रहा !

देही नहीं स्वामी रही, मोही नहीं ममता रही;

चंचल कहाँ अब रति रही, गति अवाधित अद्भुत रही !
भोजन भवन भावन भगति, हो चित्त संस्थित ध्यान युत;

अब चहकता चिन्मय हृदय, बृह्माण्ड के हर पिण्ड प्रिय !

प्रस्तुत प्रकृति करती क्रियति, तिष्टित सुष्मना फुर रहा;

‘मधु’ सुन रहा सुर बुन रहा, संस्कृति मनोहर सुध रहा !

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