साधुओं ने गंगाजी के लिए क्या किया ? : स्वामी सानंद

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धार

अरुण तिवारी
प्रो जी डी अग्रवाल जी से स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी का नामकरण हासिल गंगापुत्र की एक पहचान आई आई टी, कानपुर के सेवानिवृत प्रोफेसर, राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के पूर्व सलाहकार, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सचिव, चित्रकूट स्थित ग्रामोदय विश्वविद्यालय में अध्यापन और पानी-पर्यावरण इंजीनियरिंग के नामी सलाहकार के रूप में है, तो दूसरी पहचान गंगा के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा देने वाले सन्यासी की है। जानने वाले, गंगापुत्र स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को ज्ञान, विज्ञान और संकल्प के एक संगम की तरह जानते हैं।
पानी, प्रकृति, ग्रामीण विकास एवम् लोकतांत्रिक मसलों पर लेखक व पत्रकार श्री अरुण तिवारी जी द्वारा स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी से की लंबी बातचीत के हर अगले कथन को हम प्रत्येक शुक्रवार को आपको उपलब्ध कराते रहेंगे यह हमारा निश्चय है।
आपके समर्थ पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिए फिलहाल प्रस्तुत है :

स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद – 19वां कथन
मैं मानता हूं कि मैं कङा हूं। मतभेद रखने में कतराता नहीं हूं। स्पष्टवादिता, मेरा स्वभाव है। इसके कारण कई नाराज हुए, तो लंबे समय तक कई से प्यार भी मिला।
दिखावे के विरुद्ध
मैं दिखावे के समर्थन के भी विरुद्ध हूं। जो ऐसे लोग मेरे संपर्क में आते हैं; उन्हे कङा कहता हूं। मेरा उनसे विवाद हो जाता है। मैं कहता हूं कि नहीं करना हो, तो मत करो; लेकिन दिखावा न करो। ’मार्च ऑन द स्पॉट’ यानी एक जगह पैर पीटते रहना। यह भी मुझे पसंद नहीं है।
अवधि नहीं, उपलब्धि महत्वपूर्ण
जो संगठन गंगा के लिए काम कर रहे हैं, उनमें से अक्सर आकर बताते हैं कि हम इतने वर्षों से काम कर रहे हैं। मैं उनसे कहता हूं कि यह न बतायें कि कितने वर्षों से काम कर रहे हैं; यह बतायें कि उनकी उपलब्धि क्या रही। बी. डी. त्रिपाठी जी, एनजीबीआरए (राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण) के सदस्य हैं। त्रिपाठी जी कहते हैं कि 25 साल से काम कर रहे हैं। डॉ. वीरभद्र मिश्र जी से मेरा परिचय इमरजेन्सी के वक्त हुआ। 1982 में जब मैं केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का मेम्बर सेक्रेटरी था, वह मिलने आये थे। उन्होने पुरानी यादें ताजा कीं। उन्होने गंगा की बात उठाई।

मैने उनसे कहा – ’’ सीधे-सीधे काम बताइये कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थितियों में मैं क्या कर सकता हूं ?’’

महंत जी ने कहा – ’’ बताओ, हमें बनारस में क्या करना चाहिए ?’’

मैंने कहा – ’’ अगले पर्व पर एक समूह दशाश्वमेध घाट पर लेट जाये; आने वालों से कहे कि आप हमारे ऊपर से चलकर जाइये।’’

इस पर मंहत जी बोले – ’’गंगा स्नान तो अधिकार है। मां बीमार है, तो क्या हम छोङ देंगे ?’’

मैने समझाया कि मेरे कहने का मकसद स्नान रोकना नहीं है। मेरा मकसद तो सरकार पर दबाव बनाना है। आप करोगे, तो मैं सबसे पहले लेटुंगा।’’

उन्होने कहा कि यह नहीं हो सकता।
अब देखिए, भले ही उनके-मेरे विचार नहीं मिले, लेकिन जब मैने सीपीसीबी छोङा, तो उन्होने मुझसे संपर्क किया और मैं उनके प्रयोग से जुङा।
(स्वभाव पर साफ-सफाई के बाद मैंने गंगा पर हुए कार्यों पर उनकी राय पूछी – प्रस्तोता )
गंगा कार्य
ग्ांगा कार्यों की बात करुं तो इसे कई खण्ड में बांटा जा सकता है। 1840 से 1916 का कालखण्ड – इसमें गंगा पर जो कुछ हुआ, उसमें 1914 से 1916 तक हरिद्वार में आंदोलन हुआ। दो साल के बाद अंग्रेज सरकार और राजाओं व हिंदू संत समाज के बीच एक एग्रीमेंट हुआ।
1916 से 1947 के कालखण्ड में गंगा प्रदूषित होनी शुरु हो गई थी। इस कालखण्ड में अंग्रेज सरकार व विदेशी साइन्टिस्टों ने गंगा पर कुछ काम किया, लेकिन भारत के लोगों ने कोई काम नहीं किया।
सिद्दिकी की समझ पर भरोसा
1947 से 1960 के दौरान कई कॉलेज व यूनिवर्सिटीज ने गंगा प्रदूषण पर अध्ययन किया था। रुङकी इनमें सबसे पीछे थी। मुजफ्फरनगर डी ए वी कॉलेज ने काफी अध्ययन किया था। बॉटनी विभाग के 3-4 लोग थे। अलीगढ़ में काफी अध्ययन हुए। राशिद हयात सिद्दिकी साहब ने नरोरा से गढ़मुक्तेश्वर व काली नदी में आने वाले इंडस्ट्रियल व सीवेज पॉल्युशन पर अध्ययन किया था। 1965 में वह आई. आई. टी., कानपुर गये। उन्होने काफी ठोस काम किया है। गंगाजी की जितनी समझ मुझे है, उतनी सिद्दिकी जी को भी है। इस नाते भी वह मेरे अनन्य मित्र हैं। बाद में वह ’नीरी’ चले गये। उनके द्वारा टें्रड किए लोगों ने ही बाद में नीरी की अच्छी रिपोर्ट बनाई। उन्होने समर्पण सिखाया।
अध्ययनों से गंगाजी को क्या लाभ ?
कानपुर में काम हुआ। इलाहाबाद में खास काम हुआ। डॉ. आई. सी. अग्रवाल आई आई टी (कानपुर) से बी.टेक., एम. टेक, पी एच डी. थे। मोतीलाल नेहरु रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज, इलाहाबाद में रहते हुए गंगा पर काफी काम किया। बनारस में सबसे ज्यादा काम महंत जी था और फिर यू. के. चौधरी और एस. एन. उपाध्याय का। पटना में आर. के. सिन्हा डॉल्फिन पर काम कर रहे हैं। बंगाल में भी काम हुआ। किंतु ये सारा काम तो साइन्टिफिक काम हुआ न। मेरा प्रश्न है कि इससे गंगाजी को क्या लाभ हुआ ? बहुत सारे शोध छप गये। विद्यार्थिंयों ने पढे़। ज्ञान व डाटा बढ़ा, लेकिन और कुछ कहां हुआ ? इनके पास अधिकार भी नहीं था कि कुछ और करें।
(सच है कि यदि किसी वैज्ञानिक या अध्ययनकर्ता के पास उसके शोध या अध्ययन को लागू करने का अधिकार ही न हो, तो वह अध्ययन और उसके प्रचार से ज्यादा क्या कर सकता है ? सोचना चाहिए – प्रस्तोता)
सबसे अधिक जिम्मेदारी किसकी ?
जिस दौर में यह सब घट रहा था, उस दौर में साधु समाज खङा देख रहा था या एक ही जगह पर कदम ताल कर रहा था। बचपन में मेरे परिवार में एक सन्यासी आते थे। सच्चे सन्यासी थे। बचपन से ही मेरा उनसे संपर्क रहा। उन्होने ही मेरा नाम रखा था। 1953-54 तक आते रहे। उन्होने एक किस्सा सुनाया था। बोले कि अमृतसर के एक पण्डित जी थी। सुबह लोटा उठाकर शौच करने गये। उन्हे वहीं बस्ती में बैठ जाने को कहा। वह बैठ गये। दूसरे ने देखा तो कहा कि बताने वाले को अक्ल नहीं है, लेकिन पण्डित जी तो कर्मकाण्ड करते-कराते हैं; उन्हे तो जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए था। मतलब यह कि समाज से ज्यादा ज़िम्मेदारी उनकी हैं, जिन्होने गंगाजी को नाम दिया; जो गंगाजी की जय बुलाते रहे हैं। गंगा-केदार के हिस्से में जिम्मेदारी पीठों की है। ज्योतिष्पीठ की जिम्मेदारी ज्यादा मानता हूं। वे जानते हुए भी देखते रहे। गंगा को दुरावस्था में होने का सबसे बङा दोष तो देखकर भी अनदेखा करने वाले उन अखाङों और आश्रमों का है, जो उद्गम से संगम तक गंगाजी के सबसे पास हैं। आखिर इन्हे इनके अपराध का दण्ड मिलना चाहिए कि नहीं ?
शिवानंद व शिष्यों का काम वास्तविक
सुंदरलाल बहुगुणा जी ने टिहरी का विरोध किया था। रास्ता गलत था या सही था; प्रश्न यह नहीं है। उन्होने विरोध तो किया। साधुओं ने क्या किया ? मानो, मैने आज संकल्प लिया है। मुझसे पहले साधु-सन्यासी क्या कर रहे थे ? अभी वे क्या कर रहे हैं। गंगाजी के लिए यदि मैने वास्तव में किसी साधु को करते देखा है, तो स्वामी शिवानंद जी और उनके शिष्यों को। बाकी सब कदमताल कर रहे हैं। गंगा जी की ज़मीन पर महल बना लिए हैं। यह अपराध है। ऐसे अपराध के लिए उन्हे दण्ड मिलना चाहिए कि नहीं ? प्लास्टिक बोतल सजाई। सेमिनार कर लिया। फोटो खिंचवा ली। इससे गंगाजी का क्या होगा ?

1 COMMENT

  1. वास्तव में गंगा को बचाने की जिम्मेदारी साधु संतो की ज्यादा है , लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया , इसका कारण भी रहा कि संन्यास का भाव उन में रहा नहीं , और न उनमें त्याग व कल्याण की भावना कभी आई , आज सभी गंगा किनारे स्थित शहरों व तीर्थ स्थलों में इन्होने केवल जमीन कब्ज़ा कर केवल बड़े आश्रम ही बनाए हैं व वहां अय्याशी भी देखने को मिलेगी , लेकिन जन चेतना लाने व गंदे नलों को रोकने उसे प्रदूषित करने वाले लोगों,सरकारों के विरुद्ध वे खड़े हो जाते तो आज यह हालत होती ही नहीं , आज संन्यास निठले , अपराधी, कामचोर लोगों का पनाह स्थल बन गया है , वे यदि आज भी ऐसा बीड़ा उठा लें तो यह काम बहुत सहजता से संपन्न किया जा सकता है

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