दहशतगर्द से हमदर्दी

burhan
प्रमोद भार्गव

मजहबी कट्टरपंथ से प्रेरित होकर आतंकवाद के रास्ते पर निकले एक गुमराह युवक की मौत पर कश्मीर में मातम और समर्थन हैरानी में डालने वाला है। इससे साफ होता है कि पीडीपी और भाजपा गठबंधन की सरकार से कश्मीर में शांति बहाली की जो उम्मीद थी, उस पर पानी फिरता लग रहा है। इसके पूर्व सत्तारूढ़ रहे नेशनल कांप्रेस और कांग्रेस भी घाटी के युवाओं में फैल रही अलगाव की भावना को भांपने में असफल ही रहे हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक घाटी की 60 फीसदी आबादी 30 वर्ष से कम उम्र के युवाओं की है। यही वे युवा हैं, जो धार्मिक चरमपंथी संगठनों और जाकिर नाइक जैसे धर्मगुरूओं से प्रेरित होकर आतंक का रास्ता अपना रहे हैं। हिजबुल मुजाहिदीन के 22 वर्षीय आतंकी बुरहान वानी की एक मुठभेड़ में मौत के बाद घाटी में प्रदर्शन, हिंसा, आगजनी और पुलिस व सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी के जो दुष्कर हालात बने है, उससे साफ है, हमारा राजनैतिक नेतृत्व और प्रशासनिक अमला उन राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को समझने में नाकाम रहे हैं, जो कश्मीरी युवाओं की मानसिकता बदलने का काम कर रही हैं।
जम्मू-कश्मीर के मौजूदा हालात इसलिए चिंताजनक हैं,क्योंकि यही वह समय है,जब भारत-पाक नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन करती हुई प्रत्यक्ष युद्ध के हालात निर्माण करने में लगी है। सेना के वेश में आतंकवादी घुसपैठ बनाए हुए हैं। मारा गया कश्मीरी मूल का आतंकी बुरहान वानी सैन्य वेशभूषा में था। उसके पास घातक हथियार थे। अपनी इन तस्वीरों को इंटरनेट पर शेयर कर वह वीडियो संदेशों के जरिए भारत के खिलाफ लगातार जहर उगाल रहा था। अब सैन्य मुठभेड़ में मारे जाने के बाद आखिर ऐसा क्या हुआ कि घाटी के अलगाववादियों की एक पूरी जमात दहशतगर्द से हमदर्दी जताते हुए सड़कों पर उतरकर हिंसक हो गई ? घाटी के आठ जिलों में कफ्र्यू लगाना पड़ा। सुरक्षाबलों और प्रदर्शनकारियों की झड़पों में 22 लोग मारे गए। एक बख्तरबंद वाहन लोगों ने झेलम में फेंक दिया, जिसमें एक पुलिसकर्मी की मौत हो गई। रेल, मोबाइल और इंटरनेट सेवाएं बंद हैं। अमरनाथ यात्रा बीच में रोक दी गई। 40,000 श्रद्धालु पहलगाम तथा बालटाल के शिवरों में डेरा डाले हुए हैं। गुस्साए लोग अमरनाथ यात्रियों और कश्मीरी पंडितों समेत अन्य गैर मुस्लिमों को निशाना बना रहे हैं। ऐसे में सरकार घाटी में नियंत्रण के लिए सेना भी तैनात कर सकती है ? कश्मीर में ऐसे हालात कोई पहली बार नहीं हुए हैं। उमर अब्दुल्ला सरकार के दैरान किस्तवाड़ की मामूली घटना को लेकर हालात इतने बिगड़ गए थे कि आठ जिलों में हिंसा फैल गई थी। जो अब्दुल्ला बार-बार यह कहते थे कि कश्मीर में सेना की जरूरत नहीं है, उन मुख्यमंत्री अब्दुल्ला को उपद्रवियों पर नियंत्रण के लिए सेना बुलानी पड़ी थी। हाल की घटना से एक बार फिर तय है स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार के भरोसे कश्मीर को नहीं छोड़ा जा सकता है ? यहां यह भी हैरानी है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदुस्तान की बर्बादी का ऐलान करने वाले उमर खालिद ने भी अपनी फेसबुक पोस्ट पर आतंकी बुरहान वानी की मौत को गलत ठहराया था। साफ है, मजहबी कट्टरपंथ घाटी के लिए ही नहीं पूरे देश के लिए संकट बन रहा है। इस धटना से उन बुद्धिजीवियों को भी सबक लेने की जरूरत है,जो बेवजह मानवाधिकारों के हनन के बहाने सेना वापसी की पैरवी करने लग जाते हैं।
बीते डेढ़-दो साल के भीतर कश्मीर में एक गंभीर मसला यह भी देखने में आया है कि वहां पाक से आयातित साप्रंदायिक आतंकवाद की शक्ल स्थानीयता में तब्दील हो रही है। जुलाई 2012 में पत्तन में एक मुठभेड़ के बाद मारे गए आतंकवादियों की शिनाख्त हुई तो ये लाशें स्थानीय लड़कांे मोहम्मद इबा्रहिम जांवरी और निसार अहमद की निकलीं थीं। ये दोनों लड़के करीब 20 साल के थे। इस मुठभेड़ ने तय किया कि वादी में दहशतगर्दी की नई नस्ल तैयार की जा रही है। बुरहान भी इसी कड़ी का नया सिरा है। हालांकि राज्य पुलिस एवं खुफिया एजेंसियों को ऐसी आशंकाएं पहले से ही थीं। उन्हें ऐसे संकेत व सबूत लगातार मिल रहे है कि 1989 के बाद जन्मी पीढ़ी जो युवा है,उन्हें आतंकवादी संगठन उग्रवादी बनाने में लगे हैं। यह नस्ल उग्रवाद के गढ़ माने जाने वाले सोपोर,पुलनामा और त्राल में गढ़ी जा रही है। इसे गढ़ने में हिजबुल मुजाहिदीन और लष्करे तैयबा जैसे भारत विरोधी आतंकवादी संगठन लगे हैं। हिजबुल के कमांडर वानी के मारे जाने के बाद ये संकेत मिल सकते हैंं कि इन ताजा दंगों को अंजाम तक पहुंचाने का काम कश्मीर में वजूद में आई नई नस्ल ने किया है। जबकि नब्बे के दशक में कश्मीर के युवाओं ने पूरी तरह दहशतगर्दी को नकार दिया था। हालांकि इक्का-दुक्का युवा आतंकी समूहों को अप्रत्यक्ष सर्मथन देते रहे थे। लेकिन सीधे तौर से उन्होंने गोला-बारूद हाथ में लेकर कोई वारदात नहीं की। लेकिन 2008, 2010 और 2015-2016 के बीच कश्मीर में सेना के खिलाफ जन प्रर्दशनों के दौरान जो पत्थरबाजी हुई हैं, उनमें युवाओं की बड़ी भागीदारी रही है। इस स्थिति का लाभ कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी संगठनांे ने उठाया और उन्होंने मृतकों की किशोर संतानों को बरगला कर उग्रवाद की राह पर धकेल दिया। दरअसल आतंकवादी संगठनों की कश्मीर में लगातार बनी रही मौजदूगी इस ताजा सांप्रदायिक हिंसा की जड़ में है। पीडीपी भाजपा गठबंधन की सरकार बनने के बाद, ऐसे आसार लग रहे थे कि घाटी का बहुलतावादी सांस्कृतिक माहौल जीवंत हो जाएगा। हालांकि कुछ पंडितों की वापसी हुई भी है, लेकिन आतंक के समर्थन में जो माहौल बना है और भोले के भक्तों व पंडितों पर जिस तरह से निशाना साधा गया है, उससे लगता है, पंडित कहीं फिर से लौटने न लग जाएं ? इस समस्या को ज्यादातर कश्मीरी लोग हिंदुओं की सुरक्षा से जोड़कर देखते है,जबकि यहां संकट में डोगरे, सिख और लद्दाखी बौद्ध भी हैं।
कश्मीर का चरित्र अलगाववादी बनाए रखने में एक प्रमुख कारण केंद्र्र सरकार द्वारा की जा रही बेतहाशा आर्थिक मदद भी है। कश्मीर घाटी में जब 2014 में बाढ़ आई थी, उससे खराब हुए हालातों से निपटने के लिए भी अतिरिक्त आर्थिक पैकेज दिया गया था। इसका कितना सदुपयोग हुआ यह जानकारी नहीं है। यहां गौर करने की बात है कि जब कश्मीर की धरती पर खेती व अन्य उद्योग धंधे चैपट हैं, तब भी वहां की आर्थिक स्थिति मजबूत क्यांे है ? पूरी तरह केंद्र्र पर अश्रित अर्थव्यस्था होने के बावजूद इस्लाम धर्मावलंबी कश्मीरी खुषहल क्यों हैं ? जाहिर है, केंद्र्र सरकार इस राज्य में बेतहाशा धन बहा रही है। इसके बावजूद न यहां अलगाववाद की आग ठंडी हुई,न प्रगति हुई और न ही शांति का वातावरण बना। 2010 तक यहां 43,350 करोड़ रूपये खर्च किए गए। सीएजी ने जब इसके खर्च की समीक्षा की तो पाया कि 71088 करोड़ रूपये का कोई हिसाब ही नहीं है। तय है, कश्मीर को दिए जा रहे आर्थिक पैकेज सूबे की सत्ता पर काबिज होने वाले दो परिवारों के निजी हित साध रहे हैं।
यहां एक चैंकाने वाला एक तथ्य यह भी है कि यहां प्रति व्यक्ति खर्च 9661 रूपये है,जो रष्ट्रीय औसत 3,969 रूपये से तीन गुना अधिक है। राज्य सरकार के कर्मचारियों की संख्या 4.5 लाख है। पूर्व मुख्यमंत्री गुलामनवी आजाद ने कहा था कि राज्य सरकार को वास्तव में आधे कर्मचारियों की जरूरत है। सार्वजनिक क्षेत्र के यहां 23 उद्योग हैं,जिनमें से केवल 4 लाभ में हैं। बाकी केंद्र के अनुदान पर टिके हैं। यह एक अनूठा ऐसा राज्य है,जो अपने कुल खर्च का महज 25 फीसदी ही करों से कमा पाता है,शेष धन की आपूर्ति केन्द्रीय मदद से होती है। पाक से निर्यात जाली मुद्रा भी यहां की अर्थव्यस्था को सुढृढ़ बनाए रखने का एक आधार है,जो कश्मीर के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को चैपट करने का काम कर रही है। खासतौर से मुस्लिम हितों को साधने के लिए तैयार की गई रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है कि कश्मीर में मुस्लिम हिंदु,सिख,डोगरे और बौद्धों की तुलना में न केवल आर्थिक,बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी मजबूत हैं। जाहिर है,केंद्र की आर्थिक मदद कश्मीरी मुस्लिमों को निठल्ला बनाने का काम कर रही है। इस निठल्लेपन को बरगलाकर पाकिस्तान आतंकवादी नस्ल में ढालने में लगा है। अब आईएस और जाकिर नाइक जैसे चरमपंथियों से भी युवा प्रेरित हो रहे हैं। बुरहान वानी और बांग्लादेश में आतंकी घटना को अंजाम देने वाले इसके ताजा उदाहरण हैं। यदि कश्मीर में अतिरिक्त आर्थिक मदद पर अंकुष लगाया जाता है तो यह स्थिति भी आतंकवाद और बढ़ती हिंसा को नियंत्रित करने का काम करेगी। भाजपा को केंद्र के साथ जम्मू-कश्मीर सरकार में भी भागीदारी करने का अवसर मिला है। गोया, उसका दायित्व बनता है कि वह उन समस्याओं को गंभीरता से ले जो अतीत से उलझी चली आ रही हैं। क्योंकि उसे देश की जनता ने ऐतिहासिक जनादेश दिया है।

प्रमोद भार्गव

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