
जगदीश यादव
कोलकाता। पन्द्रह अगस्त को भारतवासी आजादी की 70 वीं वर्षगांठ मानएगें। लेकिन शायद यह जानकर हैरत होगी कि देश की एक आबादी को यह नहीं पता है कि देश किस वर्ष में आजाद हुआ। एक सर्वेक्षण में सिर्फ दो ही सवाल पूछे गये। पहला सवाल था कि 15 अगस्त क्यों मनाया जाता है और दूसरा सवाल था कि देश कब आजाद हुआ। चौकाने वाले परिणाम सामने आए। 69% लोगों को यह नहीं पता था कि देश कब आजाद हुआ। जबकि जिन लोगों से सर्वेक्षण किया गया था उनमें नेता, छात्र, सरकारी, गैर सरकारी कर्मी, गृहणी, वाहन चालक, श्रमिक व अन्य लोग रहें। 55% लोगों को सटीक नहीं पता था कि 15 अगस्त क्यों मनाया जाता है। 15% लोगों ने कहा कि हमे उक्त जानकारी थी लेकिन भूल गये। ऐसे भी लोगों की संख्या व्यापक रही जिनका कहना था कि 15 अगस्त देश का दिन है। इस दिन तिरंगा झंडा फहराया जाता है और छुट्टी रहती है। ऐसे में खाना- पीना मौज मस्ती करते हैं। सर्वेक्षण में ऐसे भी लोग मिले जिनका कहना था कि हटाओ यार इन बातों को। इस दिन गाना बजता है मिठाई खाने को मिलता है। गाना बजाते हैं और घर में मांस- मछली व पकवान बनता है।
उक्त तत्थों से देश के हालत का पता चलता है कि हमने अपनी आजादी के दिवस को किस कदर भुला दिया है। जबकि हम पाकिस्तान को लताड़ने में कभी भी पिछे नहीं रहते हैं। इस देश का दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि इस देश में रहने वाले तमाम लोगों को यह पता नहीं होता है कि हम कब आजाद हुए है। इंटरनेट के युग में जी रहें लोगों का अगर यह हाल है तो आगे की बात क्या करें।
वैसे देखा जाय तो देश कब आजाद हुआ हुआ अगर उक्त जानकारी तमाम लोगों को नहीं पता है तो यह सिर्फ उनके लिये शर्म की बात नहीं है, बरन इसके पिछे कहीं ना कहीं व्यवस्था भी जिम्मेवार है। आजादी के बाद से आज तक देश के लोगों को कोई भी ऐसी सरकार नहीं मिली जो सिधे जनता से जूड़ कर व्यावस्था को अंजाम दे सके। वर्तमान मोदी सरकार के द्वारा थोड़ी उम्मीद दिख रही है। शायद ऐसा इस लिये मोदी सरकार के साथ सम्भव हो पा रहा है कि उक्त सरकार तकनीक का सहारा लेकर अपने से लोगों को जोड़ने की कोशिश कर रही है। उल्लेखनीय या पूण्यतया कामयाबी मिलेगी की नहीं यह तो समय के गर्भ में है। आजादी के बाद से आई गई तमाम सरकारों ने देश के लोगों के सामने जो मूलभूत समस्याएं थी उसके निराकरण में कामयाब नहीं हो सकी। यूं कहे कि सरकारे धरातल के करीब ही नहीं आ सकी। संसद से लेकर लाल किले से गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा को दूर करने के लिये देश के लोगों ने समय-समय पर देश के नीति निर्धारकों के भाषण तो सुने लेकिन उक्त भाषणों को सच्चाई में बदलने के लिये ठोस उपाय ही नहीं हुए। देहात और जंगल से लेकर शहरों में जीवन जिने वाले लोग भी गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा के शिकार हुए और आज भी हो रहे हैं। आज शायद देश में ऐसे ग्राम मिल जाएगें जहां बिजली नहीं है और जिन्दगी जिने के लिये वहां के लोगों को आजतक स्वच्छ पेयजल नसीब नहीं हो सका है।
अब सवाल है कि उक्त तमाम लोगों को अगर आजादी कब मिली यह नहीं पता है तो उनका भी क्या कसूर है? स्थिती तो उक्त कहावत पर सटीक बैठती है कि ‘भूखे भजन ना होय गोपाला, खोजन जाए पाय रस प्याला’। तमाम मूलभूत समस्याओं की बेड़ियों में जकड़ी देश की एक बड़ी आबादी को इतना फुर्सत ही नहीं मिला कि वह देश कब आजाद हुआ यह याद रख सके। तमाम समस्याओं से दो-चार हो रही देश की एक बड़ी आबादी की बात छोड़ दें तो देश चला चुके और चला रहें तमाम रहनुमा बस एक खास पार्टी के होकर रह गये। ऐसे लोग देश के कब होंगे शायद उन्हें भी यह नहीं पता होगा। कारण सबकी अपनी कथित मजबूरी है। हम शायद भूल गये या भूल जाना चाहते है कि दूध सी सफेदी वाले खद्दर के अंदर जो तन कर देश के नाम के सहारे खड़ा है वह नेता से पहले एक भारतवासी है। वैसे दुनिया में उल्लेखनीय व ऐतहासिक बदलाव के दौर का सिलसिला चल पड़ा है। जन के मन में बैचारिक क्रांति सोशल मीडिया के माध्यम से अपना झंडा गाड़ रही है। उक्त झंडे का असर तो आज नहीं तो कल विस्फोटक तौर पर दिखेगा ही। संविधान के द्वारा दिये गये अधिकारों की बदौलत सत्ता के सिंहासन में बैठनेवाले सत्ता के देवगण अगर नहीं बदले तो एक नई बदलाव उन्हें बदल दे तो हैरत की बात नहीं होगी।