समृद्धि का अर्थ-तंत्र

2
664

डॉ. मधुसूदन

money
(एक)  आज की भारतीय समृद्धि-प्रक्रिया 
समृद्धि की प्रक्रिया  पर विचार प्रस्तुत है। आप भी विचार व्यक्त करें। मैं अपनी सीमा में कुछ विचार प्रस्तुत करता हूँ। जो आज (भारत) की परिस्थिति में (मुझे) सही लगते हैं, प्रस्तुत है।

(दो) अर्थ-शास्त्र के स्थूल निष्कर्ष।

अर्थशास्त्र के निष्कर्ष स्थूल होते हैं। क्यों कि, उसके प्रभावक (अंग) पहलू अनेक होते हैं।
विशेष देश, काल, परिस्थिति के अनुसार विवेक से इस शास्त्र के आधारपर निष्कर्ष निकालने  होते हैं। देश-देश की परिस्थिति अलग होने के कारण जो निष्कर्ष भारत के विषय में लागू  होंगे, और जिन कारक घटकों के कारण भारत लाभ ले सकता है; वैसा अन्य देशों के विषय में  (शायद) आज  कहा नहीं जा सकता।
इस शास्त्र के नियम भी,  रसायन, भौतिकी इत्यादि प्राकृतिक विज्ञान; या गणित जैसे नहीं होते, जिनके प्रयोग से आप सुस्पष्ट निष्कर्ष निकाल सकें।

(तीन) देश, काल, परिस्थिति का विवेक:

देश, काल और  परिस्थिति के साथ, प्रभावक पहलू वा कारक-घटक भी सापेक्षता के कारण मात्रा और संख्या(?) में बदलते रहते हैं। (इस लिए, अर्थ-शास्त्र का निष्कर्ष देश काल परिस्थिति निरपेक्ष नहीं मानता) फिर भी इस शास्त्र का उपयोग तो है ही। पर देश, काल, परिस्थिति का, विवेक करने पर ही ऐसा उपयोग संभव है।

अच्छा,  जो स्वयं अभियंता या विज्ञानवेत्ता हैं, उन्हें विशेषतः इस बिंदु का ध्यान रखना आवश्यक है। उसी प्रकार दूसरे छोरपर, यह संकेत उन लोगों की वैचारिक सोच के लिए भी आवाहन है, जो परतंत्रता में अपनाए गए आंदोलनों के (प्रारूप ) आधार पर आज की स्वातंत्र्योत्तर परिस्थिति में हल या समाधान खोजने का प्रयास करते हैं। इन दोनो छोरों पर उन विचारकों से, वैचारिक योगदान का अनुरोध है।उनकी  देशभक्ति पर प्रश्न चिह्न नहीं है।
काल का प्रभाव भी अलग होता है। स्वतंत्रता पूर्व जो लाभकारी था, आज  नहीं भी हो।  इस लिए किसी प्रस्थापित परम्परा या रूढि के अनुसार आज की समस्याएँ सुलझाना सही  होगा ही, ऐसा नहीं कहा जा सकता।  एक ही अटल सिद्धान्त अवश्य स्वीकार्य है; वो है -*भारत का हित*।

(चार) स्वदेशी, खादी इत्यादि विचार: 

स्वदेशी, खादी, सूत-कताई, नमक सत्याग्रह, वकीलों, डाक्टरों के विषय में भी उस समय गांधी जी ने जो पैंतरा लिया था, वैसे का वैसा पैंतरा  क्या आज लिया जा सकता है? निश्चित नहीं।
इसमें गांधी जी का अनादर नहीं है। वें तो प्रेरणास्रोत हैं। दीनदयाल जी के प्रति भी नितांत आदर ही है। अनुरोध, मुक्त विचार का है; रट्टामार विचार का नहीं। पर इसे समझना  कठिन भी नहीं है। प्रक्रिया जटिल है।
कलन (कॅल्क्युलस)गणित में, जिसे कॉम्पोझिट फ़ंक्षन कहा जाता है; हिन्दी में  *मिश्र-प्रक्रिया* या *जटिल प्रक्रिया* कहा जा सकता है। ऐसी ही यह जटिल प्रक्रिया है। जिसके प्रभावक पहलू भी अनेक हैं। प्रत्येक काल में ये प्रभावक पहलू अपना प्रभाव कम-अधिक करते रहते हैं।
इतनी बडी भूमिका देकर मैं अपनी बात रखना चाहता हूँ।

(पाँच) कुछ प्रश्न:

कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं।
(१) क्या, मितव्ययिता (कम-खर्ची )से, देश की समृद्धि संभव है?
(२) आज मितव्ययिता कितने लोगों को (रोटी-रोजी) दे सकेगी?
(३) क्या समाज में कोई  वर्ग मितव्ययी होना हितकारी  है?
(५) क्या आरक्षण से समृद्धि आ सकती है?
(६) हमारी (बिना रोजगार) बेकार  जनता को काम कैसे दिया जा सकता है?
(७) क्या आज स्वदेशी अनिवार्य और लाभकारी है?
(८)क्या आज स्वदेशी को प्रोत्साहित कर देश समृद्ध हो सकता है?
ऐसे कुछ जुडे हुए, प्रश्नों के उत्तर ढूँढने का यह प्रयास है।

(छ:) पैसा जब चलता है, समृद्धि लाता है।
कहते हैं; पैसे (चलन) को चलते रहना चाहिए। एक हाथ से दूसरे हाथ जब पैसा जाता है; कुछ वस्तु बिकती है; या, कोई सेवा दी जाती है। जिससे प्रजा का जीवन सुविधामय होता है; समाज सुखी  होता है।
पैसा  जितना अधिक हस्तांतरित (लेनदेन से) होता रहता  है; उतनी उसकी सुविधा देने की, जीवन को सुखी बनाने की क्षमता बढ जाती है।)
पर बिना सेवा, या वस्तु की बिक्री, पैसा हस्तांतरित (रिश्वत और आरक्षण ) होने पर अर्थतंत्र आगे नहीं बढता। आरक्षण या रिश्वत के हस्तांतरण से कोई मौलिक सुविधा का निर्माण या वस्तु का आदान-प्रदान नहीं होता। {अस्थाई आरक्षण ठीक है।)

उत्पादनशील  हस्तांतरण सुविधाओं को, और उत्पादों को प्रोत्साहित करता है।
जितना अधिक हस्तांतरण होगा, उतनी अधिक वस्तुएँ बिकेंगी, अधिक सुविधाएँ भी बढेंगी। प्रजा का जीवन सुखी होगा। समृद्धि आएगी। यदि पैसा एक व्यक्ति के पास रुक गया तो उत्पादन रुक जाएगा; सुविधाएँ भी ठप हो जाएगी।
पल भर मान लीजिए कि, सारा आर्थिक लेन-देन ही बंद हो गया तो क्या होगा?
न कोई वस्तु बिकेगी, न कोई सेवा प्रदान होगी। सारा अर्थतंत्र थम जाएगा। न रेलगाडी में कोई जाएगा। खाद्य-सामग्रियों के ढेर लगे रहेंगे। इत्यादि इत्यादि (आप सोच सकते हैं।)

(सात) क्या आज स्वदेशी अनिवार्य है?
इस प्रश्नका उत्तर हाँ या ना में नहीं दिया जा सकता।
पर, देशकी उन्नति और रक्षा के लिए आज केवल स्वदेशीपर निर्भर नहीं रहा जा सकता।
हमें खाद्यान्न में  ( अकाल इत्यादि अपवाद छोडकर ) स्वदेशी उत्पादों पर निर्भर रहना इच्छनीय  है। पर अकाल की परिस्थिति में हमें भी विदेशों से सहायता लेकर प्रजा की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी ही चाहिए। प्रत्येक परिस्थिति में उत्तर सोच समझकर विवेक से काम लेना आवश्यक है।

(आठ) क्या आज खादी अनिवार्य है?

मेरे विचार में, नहीं। खादी से और तकली या चरखें पर सूत कात कर आप निम्नतर जीवनचर्या शायद चला सकते हैं। पर अधिकाधिक रोटी-रोजी को प्रोत्साहन नहीं दे सकते।  न्यूनतम रोटी-रोजी का प्रबंध परमावश्यक है। प्रजा को पहले काम उपलब्ध कराना है। खादी स्वेच्छापर छोडी जाए।
(नौ) चलन के हस्तांतरण की गति पर समृद्धि निर्भर :

एक सरल और स्थूल उदाहरण लेते हैं।
मानिए कि आप  पच्चीस रुपए सोमवार को, खर्च करते हैं। सप्ताह के सात दिनों में, ये पच्चीस रुपए  सात लोगों के लेन देन में, हाथ बदलते बदलते फिरते हैं।
(यह बिलकुल स्थूल उदाहरण है।)
सोमवार: आपने रिक्षा में बैठकर पच्चीस रुपयों का किराया दिया।
मंगलवार:  रिक्षावाले ने उन्हीं पच्चीस रुपयों का दूध खरीदकर अपने घर पहुंचाया।
बुधवार: दूधवाले नें  उन पच्चीस रुपयों से किराना सामान खरीदा।
गुरुवार: किरानावाले नें जूते पालिश करवाए।
शुक्रवार: पालिशवाले ने उन्हीं पच्चीस रुपयों से चाय की पत्ती खरीदी।
ऐसे ही आगे भी वो पच्चीस रूपए सप्ताह भर में, कम से कम सात लोगों के हाथ में घूमते घूमते -चलते रहे। तो आपके पच्चीस रुपए रिक्षावालेसे–>दूधवालेसे—>किरानावालेसे—>पालिशवालेसे—->चायवाले तक जीविका देकर, सभीका जीवन सुखी बनाने में योगदान देते गये। मात्र पच्चीस रुपये सात परिवारों की रोटी-रोजी में अपना योगदान करते करते  ७x२५= १७५ रुपए की वस्तुएँ या सुविधा देकर समृद्धि में योगदान दे गये।
यदि ७ के बदले १४ लोगों के हाथ से जाते तो? तो १४x२५=३५० रुपयों का सुख-सुविधा का योगदान होता। और २१ कोगोंके हाथ बदलते तो? तो ५२५ रुपयों का सुख-सुविधा का योगदान होता।
जब आप किसी से भी कुछ सेवा, वस्तु, इत्यादि  खरीदते हैं। तो उसका जीवन चलता है।
ऐसे पैसा जब चलता है; तो  *चलन* बन जाता है, इस लिए पैसे को चलन कहते हैं।
कंजूस व्यक्ति इन्हीं २५ रुपयों को भूमि तले, गाड दे, तो चलन की कबर बन जाती है।  चलन मर जाता है। फिर वह किसे रोटी-रोजी  देगा?
मितव्ययिता भी समृद्धि की शत्रु है। पर, बडे उद्योजकों के बडे निवेश से हजारों -लाखों जनों की जीविका चलती है।

(दस) धनी व्यक्ति की मितव्ययिता समृद्धि नहीं लाती।
वो धन को रोककर  उत्पादन या सेवा  रोक देता है।
इस लिए, समर्थ और धनी व्यक्ति की मितव्ययिता (कम खर्च ) देश की समृद्धि नहीं ला सकती।
निश्चित ही नहीं। जिनके पास धन नहीं है, वे तो विवश हैं कम खर्च करने के लिए। पर जो लोग समर्थ होते हुए, मितव्ययिता को प्रोत्साहित करते हैं, उन्हें पैसा खर्च करना चाहिए। (पैसा और अर्थ-शास्त्र अंधे (निर्जीव)होते हैं।

(ग्यारह ) किसकी मितव्ययिता स्वीकार्य है?

पर साधु, संन्यासी, प्रचारक मितव्ययी हो, यह वांछनीय  है। क्योंकि उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति पराई उदारता पर निर्भर  होती हैं। और उन्हें राष्ट्र के हित में निर्भीक अभिव्यक्ति का कर्तव्य करना अनिवार्य होता है। जो कर्तव्य कडुवा भी हो सकता है। और  उनकी अतिव्ययिता उन्हॆं पराधीन बनाकर, समाज हितैषी सत्त्य वक्तव्य देने में बाधा बन सकती है। इसी लिए उन्हें मितव्ययी होना चाहिए।
शंकराचार्य, चाणक्य, रामदास, और हमारा  आजका संघ-प्रचारक भी ऐसे कुछ उदाहरण आपके सामने हैं। जो अपना स्वतंत्र निर्णय, राष्ट्र हित में दिया करते थे(हैं); वें बिकाऊ नहीं होने चहिए। निर्भीक अभिप्राय देने में मितव्ययिता गुण ही होगा।
(यही रूढि भी हमारे शास्त्रों और स्मृतियों ने भी प्रोत्साहित की थी}
और यह हमारी सनातनता का भी एक कारण प्रतीत होता है।
सूचना: लम्बे अवधि के लिए लिख नहीं पाऊंगा।
पर आप आपस में चर्चा  कर सकते हैं।

2 COMMENTS

  1. कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही। शायद –कठिन हो गया लगता है।
    कुछ अंग्रेज़ी वाले भी रोमन के उपयोगसे लजाते हैं।

    • लेख उत्तम है । ८ नवम्बर के बाद तो भारत मे काफी परिवर्तन हो रहे है इस दिशा में ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,843 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress