राजनीति

नक्सली और उनके बौद्धिक मददगार

-डॉ. मयंक चतुर्वेदी

देश में जिस तेजी से नक्सली मौत का ताण्डव कर रहे हैं, उतनी ही द्रुतगति से उनको भारत में रहने वाला एक बौद्धिक वर्ग जिन्हें मार्क्‍सवादी माना जाता है, अपना बडचडकर समर्थन दे रहा हैं। तर्क यह दिया जा रहा है कि ”गरीबी से बेहाल नक्सली अपने हक की लडाई लड रहे हैं, फिर लडाई तलवार से लडी जाये या बन्दूक से उनका उद्देश्य ऐनकेन-प्रकारेण सत्ता पर कब्जा करना है। तात्कालीन शासन व्यवस्था के खिलाफ आमजन में जहर भरना और हथियार थमाकर उन्हें सत्ता से संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना ही माओवादियों का मुख्य कार्य है।

आज देश में अरुन्धति राय, महाश्वेता देवी, राम पुनियानी, गौतम नवलखा जैसे मार्क्‍सवादियों की एक लम्बी शृंखला है जिन्होंने देश के मीडिया, कला, शिक्षा, एनजीओ जैसे जनता से सीधे जुडे क्षेत्रों में अपनी पैठ बना रखी है। नक्सली हिंसा को यही बुद्धिजीवी सही ठहराते हैं। उन्हें प्रोत्साहित करते हैं। इन्हें राज्य का आतंक तो दिखाई देता है लेकिन नक्सली हिंसा से जो निरीह और बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं। उनकी आह इन्हें सुनाई नहीं देती। यह बौद्धिक तबका नक्सलियों के हर उस कृत्य का समर्थन करता हैं जिसमें वह हत्या, अपहरण, हिंसा, देशद्रोह तथा जबरन वसूली जैसे कार्यों में संलिप्त हैं।

छत्तीसगढ के दंतेवाडा जिले में माओवाद प्रेरित नक्सलियों ने सीमा सुरक्षा बल व पुलिस के 76 जवानों को बेरहमी से मार डाला और बुकर पुरस्कार प्राप्त तथाकथित लेखिका अरुन्धति राय नक्सलियों के इस मानवता और संविधान विरोधी कार्य का सार्वजनिक वक्तव्य देकर समर्थन करती हैं। वे अपने बयान में कहती हैं कि ”उन्हें जेल में बंद कर दिया जाये, तब भी वह माओवादियों के सशस्त्र संघर्ष का समर्थन करती रहेंगी।” अरून्धती नक्सलवादियों की तुलना गाँधीवाद से करती हैं, उनके अनुसार खुद को गाँधीवादी बताने की तुलना में नक्सली अधिक गाँधीवादी हैं। सच! जीवनभर अहिंसा के सिद्धांत पर अडिग रहने वाले महात्मा गाँधी का नाम हिंसा से जोडने का काम सिर्फ माओवादी लेखक और बुद्धिजीवी ही कर सकते हैं। संसद पर हुए आतंकी हमले के वक्त जैसा अरुन्धति का लेख आया था उस लिहाज से तो वे नक्सलियों के समर्थन में इतना आगे तक जा सकती हैं, जहाँ भारत की लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था का कोई महत्व नहीं रह जाता। अरुन्धति राय क्यों भूल जाती हैं कि भारत में संवैधानिक-लोकतंत्रात्मक स्वतंत्रता प्राप्त होने का कतई यह मतलब नहीं कि लोग हिंसक गतिविधियों की खुलकर वकालत करें। अरूंधति देश की मुख्यधारा से नक्सलियों को जोडने की बात नहीं कहतीं, देश तोडने वाली गतिविधियों का समर्थन करती हैं, आखिर क्यों?

वस्तुत: माओवाद के समर्थक बुद्धिजीवी नक्सलियों से नहीं कहते कि वह अपनी शिकायतों-जिज्ञासाओं और शंकाओं का समाधान राज्य से अपनी आपसी बातचीत के माध्यम से करें। बल्कि ऐसे लेखक और बुद्धिजीवी अपने वक्तव्यों-लेखों व रपटों में नक्सलियों के लोकतंत्र विरोधी कार्यों पर भ्रमित करने वाले तथ्यों से पर्दा डालने का कार्य करते हैं।

अरून्धती, महाश्वेता, राम और गौतम नवलखा जैसे बुद्धिजीवी पूरे समय नक्सली गतिविधियों से तंग आकर आदिवासियों द्वारा ही छत्तीसगढ में खडे किए गये जनआंदोलन ‘सलमाजुडूम’ को गरियाते रहते हैं। अभी भी यह सिध्दा करने का कर रहे हैं कि माओवादी जो हिंसक गतिविधियाँ चला रहे हैं वह जायज हैं। लेकिन आज सच्चाई किसी से छुपी नहीं है। कोई भी छत्तीसगढ जाकर आम आदमी से पूछे,यथा स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।

इन माओवादियों ने जंगल के उस क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा रखा है जहाँ लोह अयस्क से लेकर चाँदी-सोने और हीरे की खाने हैं। जंगल के तेंदूपत्ता पर वसूली यह करते हैं। विकास के इतने विरोधी हैं कि प्रधानमंत्री सडक योजना के अंतर्गत जब दूरस्त ग्रामीण क्षेत्रों को मुख्य मार्ग से जोडने का कार्य प्रारंभ हुआ तो इन्होंने सडक न बन सके, इसके लिए क्षेत्र में अपनी नक्सली गतिविधियाँ बडा दीं। जनकल्याण की तमाम सरकारी योजनाएँ ग्रामीण इलाकों में असफल सिर्फ इसलिए हो गई हैं, क्योंकि यहाँ नक्सली नहीं चाहते किसी प्रकार का विकास संभव हो और स्थानीय लोग राज्य से सीधे जुडें।

पिछले 30 सालों में हजारों-हजार निर्दोष लोगों की जानें माओवादी ले चुके हैं। अरबों की सम्पत्ति का नुकसान अलग हुआ है। लेकिन गौतम जैसे बुद्धिजीवी, पत्र-पत्रिकाओं, विश्वविद्यालयों, अकादमियों तथा सरकारी आयोगों में बैठकर उनका दुरुपयोग करते हुए यह भ्रम फैला रहे हैं कि माओवादी विकास विरोधी नहीं हैं। इन माओवादियों ने सीमित संसाधनों के आधार पर वैकल्पिक विकास कर दिखाया है। जबकी सच्चाई इससे भिन्न है, यह वाक्याजाल तो नक्सली समर्थित बुद्धिजीवी सिर्फ इसलिए फैला रहे हैंजिससे कि इन नक्सलियों की जनता के बीच विकृत होती छबि को बचाया जा सके।

महाश्वेता देवी दन्तेवाडा की घटना के बाद उल्टे राज्य को सलाह देती हैं कि नक्सल विरोधी अभियान बंद करें। क्योंकि उनकी नजर में सुरक्षा बल के जवान जनजातियों पर कहर बरपा रहे हैं। जब संपूर्ण देश में नक्सलियों का हिंसा ताण्डव चल रहा है। उडीसा, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश इसकी पूरी गिरफ्त में है और देश के लगभग 30 प्रतिशत भाग पर इनका कब्जा है। तब भी यह रेडिकल बुद्धिजीवी इन्हें अपना समर्थन दे रहे हैं। पिछले 40 वर्षों में छत्तीसगढ, आंध्रप्रदेश, झारखंड, बिहार, बंगाल, उडीसा और मध्यप्रदेश में यह नक्सली 1 लाख से अधिक लोगों की हत्या कर चुके हैं। अकेले 2009 में माओवादियों ने 1 हजार से ज्यादा निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वाले आम नागरिक, किसान, बच्चे-महिलाएँ, पुलिस और सेना के जवान थे। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ-झारखण्ड से होते हुए आंध्रप्रदेश-बिहार से लगी नेपाल सीमा तक खूनी खेल में मस्त नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र से प्रतिवर्ष लगभग 25 से 30 अरब रुपये वसूल रहे हैं। यदि यह माओवाद पोषित नक्सलवाद आदिवासियों और गरीबों के हक में लडाई लड रहा है तो फिर यह वसूली किसके लिए और क्यों?

अरुन्धति राय, संदीप, मीरा नायर, आनंद पटवर्धन, सुमित सरकार, डीएन झा, प्रशान्त, हावर्ड जिन, महाश्वेता देवी, नोम चोक्स्की, सुभाष गताडे, राम पुनियानी जैसे अनेक लेखक और बुद्धिजीवी नक्सलियों की हिंसात्मक गतिविधियों का समर्थन कर रहे हैं यह कहकर कि वह अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए राज्य से संघर्षरत हैं। वस्तुत: यह ऊपरी दिखावाभर है। माओवादियों का उद्देश्य तो भारत को टुकडों-टुकडों में बाँटकर अपनी सत्ता स्थापित करना है। नक्सलियों का गरीबों से कोई वास्ता नहीं। यह रेडिकल बुद्धिजीवी आज नक्सलियों के हथियार हैं जो अपनी वाक्पटुता और शब्दजाल से इनके लिए जमीन तैयार करने का कार्य करते हैं। बदले में नक्सलियों से चंद रुपये और भारत को कमजोर करने वाली विदेशी शक्तियों से मिलकर पुरस्कार पाते हैं।