एक तिहाई महिला आरक्षण की भारतीय समाज में महिला के इतिहास के किसी भी दौर की तुलना में वर्तमान जयादा प्रभावशाली मुद्रा में नजर आ रही है। नि:संदेश हम यह मानसिक रूप से महिला आरक्षण और उसकी नेतृत्व क्षमता को बेहतर मान कर जीवन यापन करने लगे है, लेकिन यह हमारी विडंबनाएं थी, है एवं रहेगी। स्वतंत्रता से पुर्व सावित्रीबाई फुले, छात्रपति शिवाजी महाराज, डाँं बाबा साहेब अंबेडकर, साहु महाराज को सामने रखकर राजनीति करने वाले महाराष्ट्र राज्य की सोच ऐसा लगता है कि किनारों को तोड़ने को राजी नहीं है। यहां महिला राजनेता तो हैं लेकिन कमान थमाने के मूड कोई अगुवा नहीं दिखाता।
भारतीय संविधान में पुरूषों और महिलाओं को समान स्थान प्रदान किया गया है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्तर की दृष्टि से महिलाओं को अभी भी पुरूषो पीछे है। यह कहना अशयोक्ति नहीं होगी कि महिलाएं अभी भी विकास व राजनीतिक सहभागिता से कोसों दूर है। भारतीय समाज में महिला आज भी कमजोर वर्गों में शामिल है। राजनीतिक सहभागिता कि क्षेत्र में पुरूष और महिलाओं की स्थिति में काफी अंतर दिखता है। इस अंतर को कम करने के लिए प्रति वर्ष 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूपमें मनाया जाता है। इस अवसर को वृहत रूप देने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2000 में विश्व महिला वर्ष की घोषणा की, किन्तु भारत ने इसे और अधिक महत्व देते हुए वर्ष 2001 को राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय किया। इस दरम्यान शासकीय एवं अशासकीय स्तर पर महिलाओं को मजबूत एवं अधिकार संपन्न बनाने के लिए अनेको योजनाएं बनाई है।
स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण : सर्व प्रथम 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में गठित समिति को श्रेय जाता है। पंचायती राज योजना से संबंधित मेहता समिति ने अपना प्रतिवेदन नवम्बर 1957 में प्रस्तुत किया। इस समिति ने महिलाओं व ब्रच्चो से संबंधित कार्यक्रमों कि्रयान्वयन को देखने के लिए जिला परिषद मे दो महिलाओं के समावेश की अनुशंसा की थी। “भारत में महिलाओं की स्थिति’’ विषय पर अध्ययन करने के लिए गठित समिति ने 1974 में अनुसंशा की थी कि ऐसे पंचायतें बनाई जाय, जिसमें केवल महिलाएं ही हो। 1978 में अशोक मेहता की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा अनुसंशा की गई कि जिन दो महिलाओं को सर्वाधिक मत प्राप्त हो उसे जिला परिषद का सदस्य बनाया जाए। कर्नाटक पंचायत अधिनियम में महिलाओं के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया था। वैसा ही हिमाचल प्रदेश के पंचायत अधिनियम में व्यवस्था थी। “नॅश्नल पर्सपेक्टिव प्लान फॉर द विमेन 1988’’ ने ग्राम पंचायत से लेकर जिला परिषद तक 30 प्रतिशत सीटों के आरक्षण की अनुशंसा की। मध्यप्रदेश में 1990 के पंचायत अधिनियम में ग्राम पंचायत में महिलाओं के लिए 20 प्रतिशत, जनपद व जिला पंचायत में 10 प्रतिशत का प्रावधान था। महाराष्ट पंचायत अधिनियम में 30 प्रतिशत एवं उड़ीसा पंचायत अधिनियम में 1/3 आरक्षण का प्रावधान 73 वां संविधान संशोधन से पूर्व ही था। यह 73 व 74 संविधान संशोधन 1993 में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रावधान किया गया लेकिन उच्च निकायों यानी विधान सभा एवं लोकसभा व राज्य सभा में महिलाएं आरक्षण अभी भी संघर्ष कर रहा है और न जाने यह संघर्ष कब तक चलेगा ? स्थानीय निकायों में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण की व्यवस्था के लिए संसद ने हरी झंडी दे दी है। इतना ही नहीं कुछ राज्य जैसे मध्यप्रदेश, छत्तीसग़, बिहार, उत्तराखंड एवं राजस्थान राज्य में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था कर चुका है। कुछ प्रदेशों में निर्वाचन प्रकि्रया भी पूरी की जा चुकी है।
उच्च निकायों में महिला आरक्षण : उच्च निकायों में महिला आरक्षण के लिए 1974 में सर्वप्रथम शिक्षा व समाज कल्याण मंत्रालय में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया। 12 सितम्बर 1996, 11 वीं लोकसभा में एच. डी. देवगौड़ा सरकार ने 81 वां संविधान संशोधन विधेयक संसद में रखा। 9 दिसम्बर 1996 में संयुक्त संसदीय समिति की अध्यक्षा गीता मुखर्जी ने लोक सभा मे “प्रस्तुत किया। 26 जून 1998 को 12 वीं लोक सभा में 84 वां संविधान संशोधन में भाजपा सरकारने भी प्रयास किया। 13 वीं लोकसभा 22 नवम्बर 1999 , मई 2004 में कुछ इसी प्रकार का प्रयास किया गया 6 मई 2008 को राज्यसभा में न्याय व कानून की स्थाई समिति में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया। 17 दिसम्बर 2009 में स्थाई समिति में यह विधेयक प्रस्तुत 22 फरवरी 2010 को राष्ट्रपमि प्रतिभा सिह पाटिल ने इस विधेयक को पारित करवाने का घोषणा की थी 25 फरवरी 2010 को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में महिला आरक्षण की स्वीकृति के लिए प्रस्तृत किया गया और पारित भी हुआ लेकिन 8 मार्च 2010 को राज्य सभा में लंबी बहस के बावजूद भी राज्य सभा में अटका पड़ा है न जाने यह कब पारित होगा।
स्थानीय निकायों एवं उच्च निकायों में महिला आरक्षण के संर्घष एवं बहस के आधार पर महाराष्ट्र के संदर्भ में देखा जाय तो इस प्रदेश में 48 विधान सभा की सींटे है जिसमें आधे दर्जन भी महिलाएं नहीं है। राज्य सभा की 19 सीटों में महिलाओं की संख्या शून्य हैं ठीक उसी प्रकार विधान सभा में भी स्थिति कुछ खास नहीं है। 288 सीटों में 11 सीटें महिलाओं के खाते में है। विधान परिषद की 78 स्थानों में इनकी संख्या 6 है।
महाराष्ट्र के गठन को लगभग 50 वर्ष पूरे हो चुके है लेकिन राजनीतिक संत्ता के गलियारे में महिलाओं की भागीदारी एवं सहभागिता की स्थिति उंगलियों में गिनी जा सकती है। इसके अलावा कुछ बाते स्वागत के योग्य भी हैं। महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों में अभी हाल ही में 2011 में स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत के सथान पर 50 प्रतिशत आरक्षण का विधेयक पारित किया जा चुका है। इस राज्य में इस घोषणा को सुनकर कुछ व्यक्तियों के पैर के नीचे की जमीन ही खिसक गई है और हायतोबा मची हुई है। ऐसा सोचने वालों को शायद इस बात का अनुमान नहीं है कि इस समय महाराष्ट्र राज्य में विधान सभा एवं संसद में महिलाओं की संख्या नगण्य है।
महाराष्ट्र राज्य के विदर्भ को उदाहणार्थ देखा जाय तो वर्ष 2009 में संपन्न विधान सभा निर्वाचन परिणाम की 62 सीटों में केवल 1 महिला ही विधायक बन पाई है और संसद की 10 सीटों में 1 ही महिला संसद मे पहुचीं हैं। पूरे महाराष्ट्र राज्य में 3 महिलाएं संसद के रूप में अपना पताखा फहराया है। उच्च निकायों के लिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल से पारित विधेयक यदि राज्य सभा से पारित होता है तो महाराष्ट्र राज्य में लोक सभा की 48 सीटों में लगभग 16 सीटें तथा विधान सभा में 288 सीटों में 95 सीटें निर्वाचन के लिए आरक्षित हो जाएगी। विदर्भ की 10 लोक सभा सीट में 3 एवं विधान सभा की 62 में से 20 सीटें आरक्षण के दायरे में आ जाएगी।
निष्कर्षतः यह काहा जा सकता है कि महिला आरक्षण एवं राजनीति में महिलाओं की शक्ति के संदर्भ में अध्ययन से ज्ञात होता है कि भारत में कोई भी दल महिलाओं को चुनाव में उतारने के लिए गंभीरता से नही लिया है और उच्च निकायों में महिलाओं को आरक्षण पारित करवाने का प्रयास नहीं किया है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल व राज्य सभा में महिला आरक्षण विधेयक को रखना पुरूष प्रधान राजनीति का ोंग है ताकि हमारी सरकार चलती रहे और झोली भरती रहे। कांग्रेस की सरकार प्रमुख सोनिया गांधी एवं राष्ट्रपति प्रतिभादेवी सिंह पाटिल के कार्य काल में यह विधेयक यदि पारित नहीं हो सका है तो शायद कभी ऐसा संभव होगा कि यह विधेयक पारित होगा जिससे महिलाओं को उच्च निकायों में 33 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त होगा।
इस आरक्षण विधेयक को पारित करवाने में केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार, स्वयं सेवी संगठनों, महिला संगठनों को सकि्रयता से प्रयास करने की आवश्यकता है अन्यथा यह विधेयक एक कहानी बनकार रह सकता है और महिलाओं के राजनैतिक समानता का सपना सपना ही रहेगा।
संदर्भ:-
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4ण्दैनिक भास्कर नागपुर संस्करण 1 मई 2011
5. Times of India20 Aug. 2009
6. Daily Dainiik Bhaskar Nagpur Publication
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