कविता

इल्जाम

वो इस कदर गुनगुनाने लगे है,

के सुर भी शरमाने लगे है…

हम इस कदर मशरूफ है जिंदगी की राहों में,

के काटों पर से राह बनाने लगे है…

इस कदर खुशियाँ मानाने लगे है,

के बर्बादियों में भी मुस्कुराने लगे है…

नज्म एसी गाने लगे है,

की मुरझाए फूल खिलखिलाने लगे है…

चाँद ऐसा रोशन है घटाओ में,

की तारे भी जगमगाने लगे है,

कारवा बनाने लगे है…

लोग अपने हुस्न को इस कदर आजमाने लगे है,

के आईनों पे भी इल्जाम आने लगे है…

“हिमांशु डबराल”