आँसुओं में जब कोई मुझको लखा !

आँसुओं में जब कोई मुझको लखा,
दास्तानों का उदधि वरवश चखा;
दीनता की मम हदों को वह तका,
क्षुद्रता की शुष्कता को वह चखा !

अभीप्सा मन मेरे में जो भी रही,
शिक्षा दीक्षा जो हृदय मेरे रही;
जगत ने जो उपेक्षा मेरी करी,
भक्ति की जो भाव धारा मन भरी !

लख सका था क्या पथिक जीवन तरी,
स्वानुभूति के परे अंत: कड़ी;
सूक्ष्मता की सुलझती अंतस घड़ी,
तीक्ष्णता की तान की अंतिम लड़ी !

कहाँ जीवन यान ज्योति पा सका,
कहाँ बोधित धृति लिए मैं बढ़ सका;
घटाएँ घट की कहाँ घट ही सकीं,
विवशताएँ कहाँ वश में हो सकीं !

विश्व कौतूहल कहाँ आसान हुआ,
व्यूह का रथ चक्र कब धीमा हुआ;
ऊर्ध्व का स्वर कहाँ ‘मधु’ हृद था सुना,
बृहत् का आह्वान कब मन था मखा ! 

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’ 

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