
आए कहाँ हैं आफ़ताब, रोशनी लिए;
रूहों की कोशिका के दिये, झिलमिले किए!
मेघों की मंजु माला, अभी गगन है गुथी;
दायरे दौर कितने अभी, आँधियाँ मखी!
मन मयूरों के नाच, लखे नियन्ता रहे;
वे वसन्ती लिवास लिए, कहाँ हैं चहे!
चाहे कहाँ हैं जीव अभी, अपनापन लिए;
अपनी किताब औ ख़िताब सिर्फ़ वे लखे!
आए हैं समझ अब भी कहाँ, असली माज़रे;
‘मधु’ सुने भी नमूने कहाँ, उनकी ग़ज़ल के!
गोपाल बघेल ‘मधु’