यु. एस. का हिंदू संगठन शिल्पी

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डॉ. मधुसूदन
(एक) डांग के वनवासी क्षेत्र में, बडोदे से, एक विश्व-विद्यालयीन छात्र पहुंचा; वनवासी बंधुओं के साथ रहकर, सह-जीवन का अनुभव लेने। युवा, एक कुटुम्ब में भेजा गया था। ऐसे अनेक युवा संघद्वारा भेजे जाते थे। पहुँचने पर, परिचय, और कुटुम्ब की वृद्धा माँ से, कुशल-क्षेम बातचीत चल रही थीं। बेटा काम पर गया था; और बहू अंदर काम कर रही थी; शायद रसोई। जब काफी समय बीता पर बहू बाहर नहीं आई। परिचय की औपचारिकता भी थी, और समरसता की परिपाटी भी, तो युवाने बहू से मिलाने का अनुरोध किया। तब माताजी अंदर गई और बहू बाहर आई पर उसे आने में अनपेक्षित देर हुई।
पाठकों, सच्चाई उपन्यासों की अपेक्षा अनोखी होती है। अगली पंक्ति पढने के लिए कुछ धैर्य धारण कर लीजिए।

जब बहू बाहर आई,युवा को एक करुण धक्का-सा लगा। हृदय की धडकन पल भर रुक-सी गयी। एक निःश्वास निकल गया। बहूने जो साडी पहनी थी, वो माताजी ने पहनी हुयी साडी से मेल खाती थी; नहीं, वही साडी थीं। उसे साडी कहना भी गलत है। एक झिरझिरा कपडा मात्र था। कभी वह वस्त्र साडी रहा होगा। आज झिरझिरा कपडा बन गया था। अब माता जी अंदर थी और बहू बाहर।ऐसी दारूण कंगालियत में जीनेवाले, इस हृदय विदारक भारत को, क्या आप नकार देंगे? या आँख हटा लेंगे,मन से ही झिडक कर निकाल देंगे?यह सच्चाई है। विवेकानन्द जी कहते हैं; *जब तक करोड़ों भारतवासी भूखे नंगे और अज्ञान में डूबे हैं, मैं प्रत्येक भारतवासी को कृतघ्न मानता हूँ, जो उनके त्याग की नींव पर शिक्षित होकर उन्हीं के हितों की अनदेखी करते हैं।*

ऐसी आँखो देखी दारूण कंगालियत स्वयं एक प्रबल प्रेरणा होती है। इस निजी अनुभव को सुनानेवाले सहृदय, कर्मठ व्यक्तित्व ने ही, सिंह-राशी का योगदान देकर कर यु.एस.ए. में अनेक हिन्दू संगठन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पनपाये है।

कौन है यह व्यक्ति? नाम देने में मुझे भी साहस नहीं, जब इस व्यक्ति ने सदैव पीछे रहकर ही काम किया है। मुझे भी बडी दुविधा ही है। पर जानने के लिए आगे पढें।
hindu sangathan in usa(दो) संगठन का रहस्य:
संगठन का रहस्य बडा सीधा है। पहले अपने अहंकार को शूली पर टांग दो, और फिर पूरी शक्ति और सामर्थ्य लगाकर कुआँ खोदो।

जिस व्यक्ति को निकट से जाना है, उस व्यक्ति पर लिखना कठिन होता है। पर जिस व्यक्ति नें अपने मान सम्मान की चिन्ता छोडकर, स्वयं को पीछे रखकर, संगठन खडा किया। उसके जीवन के कुछ पहलुओं पर लिखना चाहता हूँ, जो मेरी दृष्टि में विशेष हैं, जिनसे मैं प्रभावित था; शायद इसी कारण स्मृति में भी ये पहलू जगह बनाए हुए हैं।

व्यक्ति की स्मृति में, वही उभर आता है, जो उसकी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण होता है। जिन सिद्धान्तों को इस व्यक्ति ने व्यवहार में, उजागर किया, उन्हें जानने पर विशेषतः कार्यकर्ताओं की अगली पीढी अवश्य लाभान्वित होगी। शायद इसी लिए वैसा अनुरोध मुझे किया गया है।

(तीन)कार्यकर्ता के पद कर्तव्यों के पद हैं।
हमारे पद, त्याग और सेवा के हैं; अधिकार के नहीं। जो भी आज, पदपर हैं, इस सत्य को समझ ले। पश्चिम का अहंकार-पोषक, रुग्ण मानसिक सम्पर्क, कार्यकर्ता को, ऊपर उठाने में सक्षम नहीं है। यहाँ सस्ती महत्वाकांक्षाएँ,और प्रसिद्धि का बोलबाला है; छिछली स्पर्धा है। देखा-देखी कार्यकर्ता भी इस मोहजाल में फँस सकता है। इस से अपने कार्यकर्ता को बचके रहना होगा।

चहूं-ओर महत्वाकांक्षा की, और स्वयं को “प्रमोट” करने की होड है। आदर्श के सामने, ऐसी सस्ती प्रसिद्धि हलकी होती है। ऐसे पथ पर लुढकते लुढकते, कार्यकर्ता बुराई में फिसल जाता हैं। और अंत में अपने आप से घृणा करने लगता है। कार्य से जुडे थे, कुछ अच्छाई सीखने, निश्रेयस की ओर बढने, पर हाथ आती है विफलता।

अमरिका में, ऐसे अनेक सस्ते नेता हैं,जो समाचार में नाम या छवि देखने की,प्रसिद्धि की लालसा से काम करते हैं। गहराई से सोचने पर ध्यान में आता है, कि, वैसे नाम या छवि का भी विशेष अर्थ नहीं। समाचार में, छवि देखकर मानना कि सभी मेरी छवि देख रहे होंगे, यह वास्तविकता भी नहीं है। छवि कुटुम्ब के बाहर सामान्यतः विशेष कोई देखता नहीं। देखता भी है, तो, पल दो पल। ऐसी क्षुद्र प्रसिद्धि पर जीवन दाँव पर लगाना मूर्खों का काम है।

स्मरण है, कि, मेहता जी ने एक बार कहा था, कि, *कल यदि समाचार पत्र बंद हो जाए, तो, क्या हम जीना बंद कर देंगे?* इतनी छिछरी प्रेरणा सुदृढ संगठन खडा नहीं कर सकती।
(चार) इतिहास

हमें इतिहास पता है,
*अनगिनत, अज्ञात, वीरो नें, चढाई, आहुतियाँ-
आज उनकी, समाधि पर, दीप भी जलता नहीं।
अरे ! समाधि भी तो, है नहीं।
उन्हीं अज्ञात, वीरो ने, आ कर मुझसे,यूँ कहा,
कि छिछोरी, अखबारी, प्रसिद्धि के,चाहनेवाले,
न सस्ते, नाम पर, नीलाम कर, तू अपने जीवन को
पद्म-श्री, पद्म-विभूषण, रत्न-भारत, उन्हें मुबारक।
बस, हम माँ, भारती के, चरणों पडे, सुमन बनना, चाहते थे।
अहंकार गाडो, माँ के पुत्रों,
राष्ट्र सनातन ऊपर उठाओ,
और कंधे से, कंधा जोडो,
इतिहास का पन्ना, पलटाओ।

“बिना हिचक, कहता हूँ, कि, कार्यकर्ता सेवक हैं; कॉर्पोरेशन का अधिकारी नहीं। यदि सेवा की मानसिकता होगी, तो हम सफल होंगे।
ऐसा आदर्श जिसने व्यवहार से दर्शाया, उसपर लिखने लेखनी उठाई है।
(पाँच) तीन कार्यकर्ता शिकागो गए।
बात पुरानी है: तीन कार्यकर्ता शिकागो गए। परिषद की शाखा प्रारंभ कराने। तीनों ने प्रस्तुति की। एक श्रोता ने पूछा; आप तीनों तो गुजराती हो, और हिन्दू संगठन का प्रस्ताव क्यों ? वास्तविकता यह थी, कि, तीनों गुजरातियों को तब ध्यान में आया, कि,वे वास्तव में गुजरात से हैं। गुजरात से आये अवश्य थे, पर उन्होंने हिन्दुत्व की पहचान ही व्यवहार में घोली थी। उत्तर था, हम पहले हिन्दू हैं। उनके मानस में हिंदुत्व से नीचे अन्य पहचान थी ही नहीं।

हिन्दुत्व का विशुद्ध संस्कार देश में संचारित कराने, सर्वाधिक प्रवास करनेवाला व्यक्ति इस आलेख का नायक है। कितने सप्ताहांत मैंने उनके घर दूरभाष जोडा और जाना कि परिषद के काम से डॉ. महेश मेहता बहारगाँव गए हैं। कभी गाडी या, विमान से, प्रायः अपना टिकट खर्च कर, किसी दूरस्थ नगर में परिषद के काम के लिए गए हैं।

मुझे कविता की पंक्तियाँ स्मरण हो रही है।
*छन्द ऐसा है हमारा, हरख चहुंकोर रैलाए।
रगडकर गाँठ का चन्दन महक चहुं ओर फैलाए।*
गाँठका चन्दन रगडकर महक फैलानेवाला सर्वाधिक प्रवास करनेवाला ,संगठक डॉ. महेश मेहता है।
(छः) प्रेरणा
कार्यकर्ता ३ प्रकारों से, प्रेरित होता है।
(क) विकिरणसे:(Radiation)
जैसे सूर्य गरमी फेंक कर बिखेरता है। ऐसी प्रेरणा भाषणों जैसे साधन से बिखेरी जाती है।
(ख)संवाहनसे (Convection)
जैसे पात्र में पानी गरम होता है, तो प्रत्येक बिंदू बारी बारी से, पात्र के तल तक जा कर, गरम हो कर ऊपर उठता है। इस प्रक्रिया को संवाहन कहा जाता है। शिविरों से, युवा ऐसी प्रेरणा ले कर जाता हैं।
(ग) संचारणसे (Conduction)
जब धातु का चम्मच अंगार पर धरा जाए, तो दूसरा छोर भी गरम होता है। यह गरमी चम्मच के अणुओं में संचार करती हुयी एक छोर से दूसरे छोर तक सारे चम्मच को गरम करती है। इसे गरमी का संचरण कहा जा सकता हैं।

तीनों प्रकारों से कार्यकर्ता प्रेरित होता है। हर संस्था में भी तीनों प्रकार होते हैं। मेरी दृष्टि में ३ रा प्रकार श्रेष्ठतम है। पर नेतृत्व में प्रेरणा का अंगार होना चाहिए। नेता की ऊर्जा, उत्साह और त्याग, प्रत्यक्ष कार्यकर्ता को भी ऊर्जा देता है। यह स्पर्श प्रत्यक्ष संपर्क के बिना संभव नहीं।

भारत में शाखा के दैनंदिन सम्पर्क द्वारा यही गहरा संस्कार तीनों विधाओं से, किया जाता है। यहाँ दैनंदिन शाखा की सुविधा ना होने के कारण प्रत्यक्ष सम्पर्क के लिए महेश जी अनेक बार प्रवास करते थे। वें तीनों प्रकार से प्रेरणा देते रहे हैं।

और अनुभव भी है, कि, बहुत सारी स्वयंसेवी संस्थाओं के नेतृत्व में श्रेय चुराने की ही विकृति होती है। जिसके कारण नया कार्यकर्ता उत्साह से काम नहीं करता। ऐसी संस्थाओं में कार्यकर्ता उदात्त ध्येय से प्रेरित होता नहीं है; तो उनका छिछला नेतृत्व उसका कारण है। उनका कार्यकर्ता टिकता नहीं है। और पदधारक ही काम करता है। परिषद में पद का विशेष मह्त्व नहीं है। यहाँ कार्यकर्ता ध्येय समर्पित है। जो भी महेशजी के सम्पर्क में आया, विशुद्ध व्यवहार देखकर ही प्रभावित हो गया।

(सात) साक्षात संस्कार:
ऐसा संस्कार आचार, विचार, और व्यवहार से होता है; जिसका जीवन एक खुली पुस्तक होगा, उसी के लिए यह संभव होगा।जिस व्यक्ति के विषय में लिख रहा हूँ, उसका जीवन ऐसी खुली पुस्तक है। ऐसी खुली पुस्तक, जो सांझ सबेरे, सातो दिन, वर्षानुवर्ष एक ही लक्ष्यसे प्रेरित है, न उसे कोई पद्मश्री दी जा सकती है, न ऐसा सम्मान उसके लिए अर्थ रखता है।
आर्थिक समृद्धि में जकडे गए मिलियॉनरों-बिलियोनैरों को भी देखा है। समृद्धि के ऐसे गुलाम मस्ती के जीवन से प्रायः अनभिज्ञ होते देखें हैं; कुछ अपवाद अवश्य होंगे।

(आठ) कृतज्ञता
इस लेखक को अपनी कृतज्ञता भी व्यक्त करनी है। यह लेखक का अधिकार है, और कर्तव्य भी।इसी लिए यह लेख अर्थ रखता है।साथ साथ नयी पीढी के युवा कार्यकर्ता को ऐसे आलेख से कुछ दिशादर्शन अवश्य होगा। इसी लिए मुझे लिखनेका अनुरोध भी किया गया है।

मुझे अंग्रेज़ी में लिखने के लिए बार बार कहा जाता है। और यह भी उन लोगों द्वारा जो सनातन धर्म की सेवा में निष्ठा पूर्वक समर्पित हैं। अब “धर्मो रक्षति रक्षितः॥” का न उच्चारण बच्चे कर सकते हैं, न अर्थ जान सकते हैं।

(नौ) चेतावनी:
कुछ युवा कार्यकर्ता ही बोले कि, हिन्दी या संस्कृत कौन समझता है? पर मैं हिन्दी और संस्कृत दोनों का पुरस्कर्ता हूँ। हिन्दी भारत की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा है, राष्ट्रभाषा का स्थान सुशोभित कर सकती है। संस्कृत सांस्कृतिक भाषा है। संस्कृत गयी तो संस्कृति गयी। और हिन्दी गई तो राष्ट्रीयता गई। *देवनगरी में रोमन कंकड* पढने पर आप भी सहमत होंगे। वैसे प्रवासी भारतियों में अंग्रेज़ी लिखनेवालों की भरमार है।

(दस) समरसता
समाज समरसता से ही संगठित होता है। बिना समरसता समता असंभव है। ऐसी समरसता मीठे रस में डूबे हुए, गुलाब जामुनो जैसी होती है।गुलाब जामुन जब मधुर रस में डूबे होते हैं, तो सारे एक ही रस से, समरस से, सराबोर होते हैं। शुद्ध बंधुत्व के प्रत्यक्ष व्यवहार बिना ऐसी समरसता संभव नहीं होती। भारत में ऐसी समरसता दैनंदिन शाखा के सम्पर्क द्वारा प्रस्थापित होती है। ऐसी समरसता के लिए दूसरा कोई झटपट मार्ग (शॉर्ट कट) नहीं है।

(ग्यारह) महेश जी से परामर्श
महेश जी से परामर्श के लिए सारे भारत-हितैषी सदा सम्पर्क किया करते रहें हैं। हर समस्या का हल भी वे निकाल देते हैं। इस सहायता के कारण भी, अमरिका में अनेक भारत हितैषी संस्थाएँ एवं आंदोलन खडे हुए। ऐसी अनेक संस्थाएँ और प्रकल्प हैं। आलेख की सीमामें मुझे उनके नाम लेना भी संभव नहीं लगता, न सभी की जानकारी है।
जो भी समस्या उनके सामने लाई जाती है, कुशलता से उसका हल आप देते हैं। सारी सांस्कृतिक समस्याओं का हल जहाँ गत ४० वर्षों से निकला है, उस व्यक्ति का नाम महेश मेहता है। हर समस्या का समाधान यहाँ निकलता था। आपात्काल से लेकर बडे बडे सम्मेलनों को दृढता से कार्यान्वित करने का दुर्दम्य आत्मविश्वास रखनेवाला और कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करनेवाला व्यक्तित्व है, महेश मेहता। यह अनुभव इस लेखक को बार बार आया है। देर रात्रि तक जगकर आप ने अनेक रात्रियाँ बिताई है। भारत से भी सतत सम्पर्क रखा है।
कितने अतिथि अभ्यागत स्वामी, संन्यासियों के लिए आपके द्वार और भण्डार सदैव खुले रहे हैं। कितने ऐसे भी आए जो, कठिनाई में महेश जी के घर आतिथ्य पाए, जब काम हो चुका तो फिर राम राम। न कभी संबंध रखें, न किसी काम में हाथ बटाए। पर सारे ऐसे ही थे, ऐसा भी नहीं है।

(बारह)अनेक भारत हितैषी संस्थाएं जो आज ठोस काम कर रही है, उनकी नींव में जिस व्यक्तिका कठोर परिश्रम है, उसका परिचय ही मैं ने कराया है।
यदि वह धन के पीछे ही पडा होता, तो मल्टाय मिलियोनर या बिलियोनैर हो जाता।पर इस व्यक्ति का हर सोता-जागता पल हिन्दू समाज, और भारतीय हितों के चिन्तन में बीता है। मेरा भाग्य रहा, कि, मैं ऐसे व्यक्तित्व को निकट सम्पर्क से जानता हूँ।

कितनों के सत्कार हुआ करते हैं। धन्य है भारत माता जो उसके ऐसे भी भक्त हैं, जो सत्कारों के भूखे नहीं। जिस संघ के संस्कार उसने पाए हैं, वो सत्कार में विश्वास नहीं करता। माँ की सेवा में कैसा सत्कार?
“तेरा वैभव अमर रहे माँ हम दिन चार रहे न रहें” गानेवाले हम माँ का पुजारी है।

अंत में, आप को सदैव साथ देनेवाली आप की धर्मपत्नी सु. श्री. रागिनी मेहता के सक्रिय साथ बिना यह कठोर काम असंभव मानता हूँ।
आप की व्यावसायिक योग्यता और अनेक भारत हितैषी संस्थाओं में आपके योगदान का एक अलग आलेख हो सकता है। मेरी जानकारी की मर्यादा में लिखने का प्रयास किया।
ऐसे भारत पुत्र को दीर्घायु की कामना करते हुए लेखनी को विराम देता हूँ।

7 COMMENTS

  1. डॉ. महेश मेहता जी इस जनवरी ९, २०१७ को बंगलुरू में प्रवासी भारतीय सम्मान से सम्मानित होंगे। वें ऐसे भारत माँ के सुपुत्र हैं, जिनके सम्पर्क में आना मेरा और अर्धांगिनी पल्लवी का परम सौभाग्य रहा।
    एक ऐसा व्यक्तित्व जिसका हमारे बीच बसना एक सकारात्मक उष्मा और ऊर्जा का अनुभव कराता है।

    संगठन में, कठिनातिकठिन परिस्थितियाँ आयी, जिनसे यह भारतपुत्र जूझता गया; कभी हार नहीं मानी।
    इन्दिरा का आपात्काल; फलस्वरूप भारतीय ऍम्बसी द्वारा कार्यकर्ताओं के पास्पोर्ट जप्त होना; ना ग गोरे, सुब्रह्मण्यम स्वामी, मकरन्द देसाई इत्यादि का प्रवास; ऐसी अनगिनत प्रसंगों-समस्याओं में अमरिका का हिन्दू संगठन मार्ग निकालते निकालते आगे बढा है।

    और जिस प्रेरणा से आज अनेक भारत हितैषी संस्थाएँ भी आज खडी हो चुकी हैं, उनका विवरण इस संक्षिप्त टिप्पणी में समाना असंभव है।

    यह सहिष्णु हिन्दुत्व का आंदोलन अनेक समस्याओं से घिरता, मार्ग निकालता, आगे बढता रहा, जिस कर्णधार के कारण, वह कर्णधार है महेश मेहता।

    आपकी अर्धांगिनी श्रीमती रागिणी जी का भी पूरा पूरा समर्पित योगदान इस सम्मान का अंग है। इस सम्मान में आप दोनों का सम्मान है।

    गत चार दशकों में, अनगिनत अघोषित अनचाही कठिन समस्याएँ आती गयी। जिनका एक कुशल योद्धा की, चारों दिशाओं से आते प्रहारों का षटपदी की भाँति प्रतिकार करने, जिस व्यक्ति ने अपना सर्वस्व दाँव पर लगाया; उस व्यक्ति का यह सम्मान मेरी दृष्टि में वर्षॊ पहले अपेक्षित था। वें मात्र त्यागी ही नहीं पर सर्वथा कुशल और बुद्धिमान नेतृत्व हैं।
    देरसे ही सही, शासन ने एक सर्वथायोग्य व्यक्ति को सम्मानित कर हम सभी कार्यकर्ताओं का भी सम्मान किया है।
    डॉ. महेश मेहता और श्रीमती रागिणी मेहता दोनों का अभिनन्दन करता हूँ।

    प्रत्यक्षदर्शी मधुसूदन और पल्लवी

  2. बंधु श्री. अनिल गुप्ता जी, श्री. बी. एन. गोयलजी, श्री.योगी दीक्षित जी, सु. श्री. रेखा जी, और डॉ. प्रतिभा सक्सेना जी; आप सभी को धन्यवाद देता हूँ।
    कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है।
    ——————————————-
    मुझे युवा कार्यकर्ताओं की प्रेरणा के लिए, लिखने के लिए, सुझाया गया था।
    मेरे सामने निम्न पर्याय थे।
    (१) कोरी सैद्धान्तिक चर्चा करना।
    (२) युवा पीढी ने ना देखे हो, ऐसे आदर्शों के उदाहरण देकर, चर्चा करना।
    (३) कर्मयोग, वीरअगाथाएँ, इत्यादि को प्रस्तुत करना।
    (४) या प्रस्तुत विधा जो मैं ने अपनायी।

    मुझे यह ४थी विधा अधिक उपयुक्त उचित और परिणाम कारी प्रतीत हुयी। एक ग्रहस्थी यदि ऐसा काम कर पाया, तो, अन्य ग्रहस्थियों को यह प्रेरणादायी होगा।
    बहुरत्ना भारत माता है। जिसके रत्न अनेक हैं।
    उत्तर देना, नहीं, चाहता था; पर मुझे मेरा अभिगम स्पष्ट करना था।
    आप सभी का फिरसे धन्यवाद करते हुए. सादर —
    मधुसूदन

  3. लेख मे जिस असाधारण व्यक्तित्व की चर्चा की गई है , सौभाग्य से उनका स्नेह प्रेम और आशीर्वाद मुझे एवं मेरे समस्त परिवार को प्राप्त है । यह महज एक संयोग ही कहे और मेरे सुकर्मों का फल भी हो सकता है । जब मेरे पति 1990 में University of MA, Dartmouth ( It was SMU Then ) में प्रोफेसर बनकर आये तब उनकी मुलाक़ात एक ऐसे व्यकि प्रोफेसर से हुई जिसके अंदर संघ के संस्कार , भारतीयता कूट कूट कर भरी थी और उन्होने अपने अनुभव , स्नेह वश बलराम को एक नेक सलाह दी की कैसे एक सफल प्रोफेसर बन सकते है और कालान्तर मे वह बात सत्ये साबित हुई और बलराम को वह सब कुछ आज भी याद है । अब यदि मै यह कहूँ कि “बलिहारी गुरु आपकी , जिन गोविंद दियो बताय ” तो अतिश्योक्ति नही होगी । यह असाधारण वयक्तित्व वाला शिकागो जाने वाला दूसरा गुजराती उन तीनो गुजरातियो मे से एक था । हम सब समझ सकते है की हम , हमारे बच्चे कितनी भाग्यशाली है इन सबका सानिध्य पाकर । प्रोफेसर मधु सूदन जी के द्वारा विश्व हिंदू परिषद और डा. महेश मेहता जी से पहचान हुई । हम स्नेह और आदर स्वरुप दोनों लोगो को मधु भाई और महेश भाई ही कहते है और हमारे दिल मे भी इनके लिए असीम स्नेह और आदर है । हमारे बड़े , बुजुर्ग और श्रेष्ठ मार्ग दर्शक है ऐ लोग । अब मै गुरु और गोविन्द को भी बता दू । गुरु मधु भाई ने गोविन्द महेश भाई से मिलवा दिया ।
    मधु भाई और उनकी सह धर्मिणी पत्नी पल्लवी जी ,महेश भाई और उनकी सह धर्मिणी पत्नी रागिनी बहन एवं मधु भाई की माता जी का भी सानिध्य और आशीर्वाद मिला ।
    २००० के आस पास महेश जी के घर मे, जब एकल विद्यालय की शुरूआत के बारे मे चर्चा हो रही थी तभी से मै एकल विद्यालय से जुडी हूँ । जब मै पहली बार मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के हरई गाँव मे 3 एकल विद्यालय विजिट करने गई आज के करीब 10 साल पहले । उसकी चर्चा फिर कभी करुँगी ।

  4. आपके लेख के लिए साधुवाद. ऐसे अनेक कार्यकर्ता हैं जिन्होंने अपने यौवन, जीवन को तिल-तिल जलाकर संघ का कार्य भारत ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में पहुँचाया. आज भी यश और प्रसिद्धि की कामना से दूर अनेक कार्यकर्ता विदेशों में संघ-कार्य का प्रसार कर रहे हैं. लक्ष्मण श्री कृष्ण भिड़े जी, शंकर राव तत्ववादी जी, राम वैद्य जी, रवि अय्यर जी सरीखे स्वयमसेवकों की लंबी श्रंखला है. दिल्ली के स्वर्गीय चमन लाल जी का अपूर्व योगदान भी भुलाया नहीं जा सकता. आज भी श्याम परांडे जी, अनिल वर्तक सरीखे कार्यकर्ता विदेशों में संघ की अलख जगा रहे हैं.

  5. डॉ महेश मेहता जी जैसे समाज समर्पित व्यक्ति को नमन – लेखक श्री मधुसूदन तो साधुवाद के पात्र है ही जिन्हों ने ऐसे व्यक्तित्व से परिचय कराया ।

  6. बनवासी परिवार की जिस गरीबी की दशा का उल्लेख आपने किया है उस प्रसंग को स्वर्गीय गिरिराज किशोर जी, विश्व हिन्दू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय मंत्री, ( जो तत्समय अ.भा.विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रिय संगठन मंत्री थे) ने १९६९-७० में देहरादून में सुनाया था. उनके अनुसार वो स्वयं ‘स्टूडेंट्स एक्सपीरियंस इन इंटरस्टेट लिविंग’ के नाम से लिए गए अभियान में शामिल थे.ऐसे प्रत्यक्ष अनुभवों के द्वारा ही संघ अपने युवा कार्यकर्ताओं के दिलों में देश और देशवासियों के प्रति अपनत्व का भाव उत्पन्न करता हैं और यही भावात्मक लगाव हज़ारों युवाओं को अपना पूरा जीवन देश और समाज को जोड़ने और बनाने के लिए अर्पण करने का आधार बन जाता है.आज देश विदेश में हज़ारों की संख्या में संघ के विभिन्न आयामों के माध्यम से हिन्दू समाज की सेवा में लगे पूर्णकालिक समर्पित उच्च शिक्षित कार्यकर्त्ता संघ द्वारा विकसित संस्कार पद्धति की सफलता की चलती फिरती कहानी बन चुके हैं.आत्म प्रशंसा से दूर ध्येय के प्रति समर्पित और अहर्निश देश और हिन्दू समाज की चिंता में लगे!

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