कविता

अभिषेक पुरोहित की कविता

क्या जीवन! यंत्रवत चलते रहना ???

भौतिकी में दिन भर खपना, रात्रि में करना उसका चिंतन !!

नश्वर-नष्ट होने वाली वस्तु के पीछे घूमते जाना यूं ही उम्र भर |

अंत समय में कहना, गर्व से छोड़ा मैंने पीछे अपने, बंगा पुत्र-परिवार ||

जीवंत-चैतन्य खोजता जड़ को, महामाया के चक्र, पिसना है जीवन ?

या शांति पाने जाना मंदिर बाबा का, लौटकर लगाना फिर काम यंत्रणा का ??

 

शुचिता,सात्विकता, विनम्रता नहीं |

आडम्बर भ्रष्टता विकृति जीवन ||

 

नवीनता के लिए छोड़े जो संस्कृत |

समाज जीवन हो कैसे सुसंस्कृत ||

 

धन धन धन पाना जहा हैं सुख |

आए चाहे कहीं से धन हो तो काहे का दुःख ||

 

धन लेन की जुगत में, चिंतन को कुंद किया

सत्य का दम तोड़, असत्य आचरण किया ||

 

नैतिक मूल्यों से पतित पूरा राष्ट्र जा रहा रसातल,

कह रहा इसको देखो हमारा Developments

professionalism कर रहा दूषित मन जीवन भाषा,

तौल रहा अपना, उन्नत हुआ जीवन स्तर ||

 

वस्तुएं करती सभ्यता को उन्नत, तो भगवान राम नहीं रावण होता |

जय श्री कृष्ण नहीं कंस जय गान होता ||

 

जीवन नहीं मादकता में डूबना |

जीवन नहीं कामोपभोग मापना ||

जीवन नहीं संगृह करना धन को|

जीवन नहीं बढाना मात्र परिवार को अपने ||

 

जीवन तो चलना संवित पथ पर, जीवन चलना संघ मार्ग पर,

जीवन तो जीना ध्येय अनुसार, ज्ञान के मार्ग पर ||

प्रकाश के आंगन पर चेतन्य्वत निरंतर

 

भा” में “रत” भारत……………….. “