अडवाणीजी की रथयात्रा : बहुत देर कर दी मेहरबां आते-आते

5
170

वीरेन्द्र जैन

वैसे तो अडवाणीजी पार्टी संगठन या सदन में किसी पद पर नहीं हैं, पर अटलजी को भुला दिये जाने, व मुरली मनोहर जोशी को हाशिये पर कर दिये जाने के बाद वे भाजपा के सुप्रीमो बन गये हैं। अध्यक्ष कोई भी बना रहे पर उनकी उपेक्षा करके भाजपा में कुछ भी नहीं हो सकता। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की इस घोषणा के बाद कि अगले चुनाव में किसी को भी भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया जायेगा, उन्होंने एक बार फिर रथयात्रा निकालने का फैसला किया है और यह ‘रथ यात्रा’ भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर करेंगे। उल्लेखनीय है कि गत दिनों उज्जैन में आयोजित राष्ट्रीय सवयं सेवक संघ के शिखर मंडल की बैठक में भाजपा नेतृत्व से पूछा गया था कि भ्रष्टाचार के विरोध में जो राष्ट्रव्यापी हलचल अन्ना हजारे ने पैदा की वह भाजपा क्यों नहीं कर सकी। यह रथयात्रा उसी झिड़की का प्रतिफल प्रतीत होती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अन्ना हजारे द्वारा बनाये गये माहौल का राजनीतिक लाभ उठाने की एक और अवसरवादी कोशिश है।

भाजपा हमेशा ही दूसरों के अभियानों में घुसकर उसकी लोकप्रियता के सहारे अपना श्रंगार करने वाली पार्टी रही है क्योंकि वे जानते हैं कि उनके मूल चेहरे को देश का बहुमत पसन्द नहीं करता इसलिए वे कारवाँ में शामिल होकर उसे ही रास्ते में लूट लेने की नीति पर चलते हैं। स्मरणीय है वे अपने जनसंघ स्वरूप से ही संविद सरकारों के प्रमुख घटक रहे हैं और प्रत्येक संविद सरकार में सम्मलित होने के लिए सदैव आगे रहे हैं। इसी तरकीब से किसी समय के सक्रिय समाजवादी आन्दोलन को अब तक उन्होंने पूरी तरह पचा लिया है और बिना किसी राजनीतिक अभियान के देश में प्रमुख विपक्षी दल बन गये हैं। जनता पार्टी बनने पर उन्होंने झूठमूठ अपनी पार्टी का विलय कर दिया था और बाद में पहचान लिए जाने के बाद वैसे के वैसे समूचे बाहर आ गये थे। वह केन्द्र में देश की पहली गैरकांग्रेसवाद के आधार पर गठित सरकार थी जो इन्हीं की दुहरी सदस्यता के सवाल पर टूटी थी। बाद में 1989 में वीपी सिंह की लोकप्रियता से जुड़ कर इन्होंने उनकी सरकार में सम्मलित होने की भरपूर कोशिश की किंतु बामपंथ के विरोध के कारण इन्हें बाहर रहना पड़ा तो इन्होंने आरक्षण विरोधियों को पिछले रास्ते से मदद करके व रामजन्म भूमि के नाम साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा कर उनकी सरकार गिरवा दी क्योंकि वह सरकार बामपंथ और भाजपा दोनों के सहयोग के बिना नहीं चल सकती थी। दोनों ही स्थितियों में ये लाभ में रहे और लोकप्रिय व्यक्तियों से राजनीतिक सौदा व दलबदल को प्रोत्साहित करते करते सबसे बड़े विपक्षी दल बन गये, जिसके फलस्वरूप इन्हें छह साल केन्द्र में एक गठबन्धन सरकार चलाने का अवसर मिला।

अपनी पिछली बहुचर्चित रथयात्रा अडवाणीजी ने किसी राजनीतिक मुद्दे पर नहीं निकाली थी अपितु ‘वहीं’ राम जन्मभूमि मन्दिर बनाने के नाम अयोध्या की ऎतिहासिक बाबरी मस्जिद ध्वंस करने के लिए निकाली थी। इस यात्रा से एक ओर तो लोगों की भावनाओं को उभारने की कोशिश थी तो दूसरी ओर साम्प्रदायिकता भड़का कर धार्मिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश थी। इनके समर्थक सोची समझी रणनीति के अंतर्गत मुसलमानों के खिलाफ उत्तेजित और अपमानजनक नारे लगाते हुए मुस्लिम बस्तियों से यात्रा निकालते थे जिससे टकराव बढता था और दंगे हो जाते थे। इन दंगों और उसके बाद की प्रतिक्रिया में दोनों ही समुदाय के सैकड़ों लोग मारे गये थे जिससे बने गैरराजनीतिक ध्रुवीकरण का इन्हें जबरदस्त लाभ मिला और संसद में इनकी संख्या दो से दोसौ तक पहुँच गयी।

प्रस्तावित रथयात्रा उसी मानक पर निकालने की भूल है जबकि तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है, बहुत से खुलासे हो चुके हैं, लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट आ चुकी है, और परिस्तिथियों में बहुत सारा बदलाव आ गया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि नई आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद राजनीतिक संरक्षण में प्रशासनिक भ्रष्टाचार बहुत बढ गया है और आम जनता उससे पीड़ित है। इस भ्रष्टाचार में बामपथियों के एक छोटे से हिस्से को छोड़, चुनावों में भरी राशि खर्च करने वाले भाजपा समेत सभी राजनीतिक दल लिप्त हैं। जहाँ जहाँ भाजपा की सरकारें हैं या जहाँ से उनके जनप्रतिनिधि चुने गये हैं वहाँ वहाँ ये भ्रष्टाचार में दूसरे किसी भी दल से पीछे नहीं है। ऐसी दशा में अडवाणीजी की यात्रा भ्रष्टाचार के विरोध में न होकर सीधे सीधे सत्तारूढ दल के खिलाफ एक राजनीतिक अभियान है। यह अभियान इसलिए निष्प्रभावी रहने वाला है क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ दुहरे मापदण्ड अपनाने से इनकी अपील का अन्ना हजारे की अपील से बेहतर असर नहीं होने वाला। इन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में भी स्विस बैंकों में जमा धन का मुद्दा उछाला था जिसे चुनाव के बाद बिल्कुल ही भुला दिया। अन्ना हजारे तो क्या ये तो बाबा रामदेव के आवाहन से भी पीछे रहे और अब जो कुछ भी करेंगे उसे नकल ही माना जायेगा। इस जनसम्पर्क यात्रा का नाम रथयात्रा रखना बिडम्बनापूर्ण है। जो यात्रा पैट्रोल या डीजल वाहन से की जा रही है उसे रथ नहीं कहा जा सकता क्योंकि रथ एक प्राचीन कालीन वाहन होता था जो पशुओं के सहारे चलता था। आखिर क्या कारण है कि वे वाहन शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहते, और उसे रथ कहते हैं। रथ पौराणिक ग्रंथों से निकला शब्द है और हमें उसी काल की याद दिला देता है जिस काल में वे ग्रन्थ रचे गये थे इस तरह रथ कहने से मामला कुछ कुछ धार्मिक सा भी हो जाता है। जब रामजन्म भूमि मन्दिर के लिए यात्रा निकाली थी तब रामलीला के मंच जैसे वाहन के लिए रथ शब्द का प्रयोग कुछ सामंजस्य भी बिठा लेता था पर एक राजनीतिक सामाजिक आन्दोलन के लिए प्रचलित भाषा और प्रतीकों का प्रयोग ही करना होता है। भाजपा का प्रयास देश के इतिहास से मुगलकाल और उस दौर में विकसित भाषा और संस्कृति को बिल्कुल मिटा देना रहा है। वे ताजमहल और कुतुबमीनार जैसी सैकड़ों इमारतों का इतिहास बदल देना चाहते हैं, वे लखनउ को लखनपुर और भोपाल को भोजपाल बना शहरों के नाम बदल देना चाहते हैं, यहाँ तक कि मुगलकाल के संज्ञा, सर्वनाम और क्रियाएं तक को नकारना चाहते हैं, ड्रैस उनके यहाँ गणवेश हो जाती है, और लाठी दंड बन जाती है, स्कूल शिशु मन्दिर बन जाते हैं ताकि उस मन्दिर में गैर हिन्दू झाँकने की भी कोशिश न करें। वे हिन्दी की जगह संस्कृत को जन भाषा बनाना चाहते हैं जो अपने समय में भी केवल पुरोहितों और अभिजात्य की ही भाषा रही है। डीजल/ पैट्रोल वाहन को रथ कहना भी उसी का हिस्सा है, जिसे अब उनके घेरे से बाहर की जनता स्वीकार करने को तैयार नहीं हो सकती।

अडवाणीजी ने जब पिछली रथयात्रा निकाली थी तब टीवी का केवल एक ही चैनल होता था जो सरकारी था इसलिए वही बात, अलग अलग जाकर कहना पड़ती थी किंतु अब कई सैकड़ा प्राइवेट चैनल अस्तित्व में हैं जो लाइव प्रसारण करके एक साथ पूरे देश तक सन्देश दे सकते हैं। रही सही कसर पाँच करोड़ की संख्या में छपने वाले समाचार पत्र और इंटरनेट पूरी कर सकते हैं, इसलिए रथयात्रा की सफलता के लिए बहुप्रचारित सभाएं भी भीड़ नहीं जुटा सकतीं।

यदि सचमुच भ्रष्टाचार का विरोध करना है तो उसकी शुरुआत अपने दल से करनी होगी और भ्रष्ट नेताओं को एक साथ निकालकर ही वे विश्वास पैदा कर सकते हैं पर दुर्भाग्य यह है कि उत्तराखण्ड के निशंक को हटाकर दुबारा से खण्डूरी को मुख्य मंत्री बना देने पर राजनाथ सिंह कहते हैं कि निशंक निष्कलंक हैं और उन्हें तो बिना किसी आरोप के बदला गया है। यदि मध्य प्रदेश में कार्यवाही करें तो आधा मंत्रिमण्डल पहले ही दिन बाहर हो जायेगा और संगठन में भी आधे नेता बचेंगे। इसलिए ऐसी कार्यवाही का दिन कभी नहीं आयेगा। हो सकता है कि यह यात्रा किसी बहाने से स्थगित भी हो जाये, क्योंकि ‘नोट फार वोट’ मामले में उन्होंने खुद ही जिम्मेवारी ले ली है और यात्रा की घोषणा पूरी पार्टी का ध्यान आकर्षित करने का तरीका भर हो, ताकि पूछ ताछ को टाला जा सके।

5 COMMENTS

  1. बहुत सामयिक और लोकहितकारी आलेख है. वीरेन्द्रजी आप अच्छा लिखते हैं .आपको’लोकजतन’ और कभी कभार लोकलहर मैं भी पढ़ा है,आपकी द्रष्टि वहुत सही ,वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से प्रमाणित और प्रजातांत्रिक ,धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से सुसज्जित है.
    इस आलेख में यह भी जोड़ा जा सकता था कि आदरणीय आडवानी जी भले ही संघनिष्ठ रहे हों,भले ही पांचजन्य और आर्गेनायज़र का सम्पादक रहे हों,भले ही उन्होंने ६० साल के राजनैतिक जीवन मैं अल्प्संख्याकता के तथाकथित तुष्टिकरण का राग अलापा हो,भले ही श्री लालकृष्ण आडवाणी जी ने संघ और अटलबिहारी वाजपेई को कई बार रुसवा किया हो,भले ही वे लगातार वामपंथ को पानी पी पीकर कोसते रहे हों,भले ही जिन्ना कि मज़ार पर उन्होंने सिजदा किया हो ,भले ही वामपंथ के विरोध के कारण वे पी एम् वेटिंग ही रहे हों,भले ही उन्होंने अयोध्या में मंदिर मस्जिद विवाद पर राजनीती कि हो ,भले ही सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा के दरम्यान सेकड़ों हिन्दू -मुसलमानों के जान माल की हानि के लिए श्री आडवानी जी जिम्मेदार हों किन्तु फिर भी वे उतने अस्वीकार्य या वेशर्म कभी नहीं देखे गए जितने कि ‘नरेंद्र मोदी’ वीरेन्द्र जी मेरा मानना है कि अब सुधिजनो को चाहिए कि भाजपा के उस चेहरे को उजागर करें जो नाटक-नौटंकी,उपवास के नितात्न्त घृणित स्वार्थजन्य प्रयोजन,और साम्प्रदायिक विभीषिका के अलंबरदारों को महिमा मंडित कर देश को मोदी जैसे फासिस्टों के हाथों सौंपने के लिए उतावला है.श्री लालकृष्ण आडवानी,सुषमा स्वराज ,अरुण जेटली और मुरली मनोहर जैसे लोगों मैं कम से कम इतनी निर्लज्जता तो नहीं है कि अपने आप को अपने मात्र संगठन से बड़ा बताने कि कोशिश मैं अमर्यादित आचरण करते हुए फसिस्ज्म का ध्वजारोहन करें. देश और हिंदुत्व को आडवानी या अटलबिहारी से नहीं उनके कंधे पर बन्दुक रखकर धर्म और राजनीती को गडमड्ड करने वाले ,पूंजीवाद के खेरखुहों से देश के हितों को खतरा है.यदि आडवाणी जी एक बार प्रधानमंत्री बन भी जाते तो देश उतने रसातल मैं तो नहीं जाता जितना कि मनमोहन सिंह जी की एल पी जी की वंताधार नीतियों की बदौलत जा चूका है.
    जब तक भारत की जनता एक समता मूलक और समाजवादी क्रांति के लिए एकजुट संघर्ष नहीं करती तब तलक देश में धर्मनिरपेक्ष पैटी बुर्जुआ प्रजातांत्रिक छवियों को हमें सहेजना होगा ताकि कोई हिटलर कोई मुसोलनी कोई तोजो इस देश में परवान न चढ़ सके.

  2. “इनके समर्थक सोची समझी रणनीति के अंतर्गत मुसलमानों के खिलाफ उत्तेजित और अपमानजनक नारे लगाते हुए मुस्लिम बस्तियों से यात्रा निकालते थे जिससे टकराव बढता था और दंगे हो जाते थे।”
    वीरेंदर जी का यह लेख साम्प्रदायिकता से ओत प्रोत है देश की एक शांतिपूर्ण, मेहनती, ईमानदार और राष्ट्रवादी कौम के बारे में ऐसा लिखना निहायत ही गैर जिम्मेदाराना है, वीरेंदर जी कहना चाहते है कि केवल हिन्दुओं की नारेबाजी से मुसलमान हिंसा पर उतर जाते थे निहायत ही शर्मनाक है, उन्हें इसके लिए मुसलमानों से माफ़ी मांगनी चाहिए

  3. व्यंगकार को एक लाभ तो होता है वह अपने को मर्यादा के हर बंधन से ऊपर मानता है आपने भी अपना धर्म बखूभी निभाया.गलती से भी किसी में अच्छाई न देख लेना लगे रहो.

  4. सदैव की भांति इस बार भी श्री वीरेंदर जैन जी ने भाजपा के खिलाफ अपनी भावनाएं व्यक्त करने में कोई कंजूसी नहीं बरती है. विद्वानों ने कहा है की “निंदक नियरे राखिए”.श्री विरेंद्रजी भाजपा को उसकी सही या काल्पनिक कमियां बताने का काम कर रहे हैं जिससे भाजपा का भला ही होगा ऐसा विश्वास है.लेकिन कुछ बिन्दुओं पर मै भी अपना नजरिया रखना चाहूँगा. लाठी को दंड देश के अनेक भागों में कहा जाता है. स्कूल शब्द भारतीय नहीं है. विद्यालयों को शिक्षा का मंदिर या विद्या का मंदिर इस देश में प्राचीन काल से ही माना जाता है.काले धन के खिलाफ आवाज २००९ के चुनावी अभियान में अडवाणी जी ने उठाई थी लेकिन देश की जनता ने इसे अनसुना करके तथाकथित सेकुलर मीडिया के प्रभाव में यु पी ऐ को वोट दिया तो इसमें किसे दोष दें. रामदेवजी ने कालेधन के खिलाफ अभियान छेड़ा तो सिविल सोसायटी लोकपाल का मुद्दा लेकर मैदान में आ गयी. हालाँकि काले धन का मुद्दा अधिक व्यापक था और उसी से सत्ताधीशों की नींद उडी और स्विस गुप्त दौरे से वहां से धन खिसकाना शुरू कर दिया गया. टाईम्स ऑफ़ इंडिया के ७ सितम्बर के अंक में रिपोर्ट छपी की स्विस अधिकारी अमरीकी नागरिकों के उसके यहाँ खातों की पूरी जानकारी अमरीका को देगा. लेकिन हमारे यहाँ क्या हो रहा है इसका उत्तर टाईम्स ऑफ़ इंडिया के ही ५ सितम्बर के अंक में छपी इस रिपोर्ट से मिल जाता है जिसमे सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ डायरेक्ट टेक्सेस ने कहा है की भारत स्विस के साथ ऐसी कोई संधि नहीं कर सकता जिसमे भर्त्यों द्वारा वहां जमा धन पर कर लगाया जा सके. क्योंकि उनको(यूरोपियन देशों को) अपनी ख़राब आर्थिक हालत के चलते अधिक राजस्व की आवश्यकता है(मानों हमारे यहाँ करों की आवश्यकता ही न हो). ताजमहल व अन्य ऐतिहासिक इमारतों के बारे में पी.एन ओक़ जैसे विद्वान् लगातार अभियान छेड़े हैं की इन इमारतों की ऐतिहासिकता के विषय में पुनर्शोध की आवश्यकता है. लेकिन भाजपा ने इसे कभी एंडोर्स नहीं किया. संस्कृत को जनभाषा बनाने के लिए भाजपा ने कभी मांग नहीं राखी लेकिनं संस्कृत की वैज्ञानिकता और पूर्ण व्याकरण के कारन अनेक कंप्यूटर वैज्ञानिकों का ये मन्ना है की कंप्यूटर के लिए संस्कृत सबसे उपयुक्त भाषा है. तथा श्री वीरेंदर जी की जानकारी के लिए बता दूँ की डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में संस्कृत को देश की राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था. सेंकडों चेनल और करोड़ों की संख्या में छपने वाले अख़बार वाही छापते या प्रसारित करते हैं जो उनकी मर्जी हो या जो उन्हें कहा जाये. उदाहरन के लिए फरवरी में रामदेवजी व अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने काले धन के विरुद्ध दिल्ली के रामलीला मदन में विशाल रेल्ली की जिसका खूब प्रचार हुआ लेकिन उसी कड़ी में दूसरी रेली हरयाणा के झज्जर में हुई तो उसका पूरा ब्लेक आउट किया गया. वैसे भी यात्राओं से नेताओं को जनता से सीधे संवाद का अवसर तो मिलता ही है. राजनीतिक दल अगर राजनीतिक लाभ के लिए काम नहीं करेंगे तो क्या धार्मिक पुण्यलाभ के लिए काम करेंगे?

Leave a Reply to shailendra kumar Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here