आद्याशक्ति दुर्गतिनाशिनी भगवती श्रीदुर्गा

mata durgaअशोक “प्रवृद्ध”

नारी देवताओं में सर्वोपरि, शाक्तमत की आधारशिला आद्याशक्ति दुर्गतिनाशिनी भगवती श्रीदुर्गा की उपासना बड़े व्यापक रूप में भारतवर्ष के समस्त अंचलों में विभिन्न रूपों में की जाती है तथा घर-घर में शक्तिरूपिणी ब्रह्म भगवती श्रीदुर्गा की उपासना के अनेक स्त्रोत,ध्यान के मन्त्र, सहस्त्रनाम, चालीसादि, जो कि संस्कृत वाङ्मय के अनेकानेक साहित्यों में उपलब्ध होते हैं, का पाठ होता है l त्रैलोक्यजननी, विश्वम्भरी, कृपासागरा, सच्चिदानन्दरूपिणी, भक्तवत्सला, अमृतरसदायिनी, कामदूहा,प्रकृतिरूपा श्रीदुर्गा एक ओर अपने संसार सागर में डूबता हुए पुत्रों (भक्तों) को अमोधवाणी से उत्साहित करती है तो दूसरी ओर वर प्रदान के लिए सर्वदा उन्मुक्तहस्त खड़ी रहती है lइसीलिए इसका नाम जगत्तारिणी है lसम्पूर्ण विश्व को सत्ता, स्फूर्ति और सरसता प्रदान करने वाली सच्चिदानन्दरूपा महाचित्ति भगवती श्रीदुर्गा अपने तेज से तीनों लोकों को परिपूर्ण करती हैं तथा जीवों पर दया करके स्वयं ही सगुण भाव को प्राप्त कर ब्रह्मा, विष्णु, महेश से उत्पति, पालन और संहार करती है l विश्वजननी, मूलप्रकृतिईश्वरी, आद्याशक्ति श्रीदुर्गा सर्वागी, समस्त प्रकार से मंगल करने वाली एवं सर्वमंगलों की भी मंगल है l
परमेश्वर के तीनों ही लिंगों में नाम हैं- ‘ब्रह्मचितीरीश्वरश्चेति’ l जब ईश्वर का विशेषण होगा तब ‘देव’ तथा जब ‘देवी’ का होगा तब ‘देवी’l इस परमेश्वर (देवी) का ही नाम ‘देवी’ है l ऐसा अनेक विद्वानों का कथन है lशक्ति शब्द की व्युत्पति करते हुए निरुक्ताचार्य का कथन है कि ‘शक्लृ शक्तौ’ इस धातु से ‘क्तिन’ प्रत्यय करने ए ‘शक्ति’शब्द निरूपण होता है l ‘यः सर्वजगत् कर्तुं सक्नोति सः शक्ति l’ जो सब जगत के बनाने में समर्थ है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’ है l अमरकोश में अमरकोशकार ने शक्ति के अनेक अर्थ बतलाये हैं- ‘कासूसामर्थ्ययोशक्तिः’, ‘शक्तिः पराक्रमः प्राणः’ , षड्गुणाश्शक्तयस्तिशत्रः lशक्ति, माया , प्रकृति सभी पर्यायवाची शब्द हैं lसृष्टि क्रम में आद्य एवं प्रधान (प्रकृष्टा) देवी होने के कारण इन्हें ‘प्रकृति’ कहा है l शास्त्रों में इन्हें त्रिगुणात्मिका कहा गया है – सत्वं रजस्तमस्त्रीणि विज्ञेया प्रकृतेर्गुणाः l प्रकृति शब्द में तीन अक्षर होते हैं- ‘प्र’, ‘कृ’ और ‘ति’ l प्र’, ‘कृ’ और ‘ति’- ये तीनों क्रमशः ‘सत्व’, ‘रज’ और ‘तम’ तीनों गुणों के द्योतक हैं l अतः ये परिणामस्वरूपा हैं l श्वेताश्वर उपनिषद में कहा है –
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानांस्वरूपाः l
जो जन्मरहित सत्व, रज, तमोगुण रूप्प्रकृति है, वही स्वरूपाकार से बाहर प्रजारूप हो जाती है, अर्थात प्रकृति परिणामिनी होने से वह अवस्थांतर हो जाती है और पुरुष अपरिणामी होने से वह अवस्थांतर होकर दूसरे रूप में कभी प्राप्त नहीं होता, सदा कूटस्थ होकर निर्विकार रहता है l दुर्ज्ञेया होने के कारण प्रकृति को ‘दुर्गा’ शब्द में ‘दु’ अक्षर दुःख, दुर्भिक्ष, दुर्व्यसन, दारिद्रय आदि दैत्यों का नाश्वाचक, ‘रेफ’ रोगघ्न तथा ‘गकार’ पापघ्न और ‘आकार’ अधर्म, अन्याय, अनैक्य, आलस्यादि अनेकानेक असुरों का नाशकर्ता है lसर्वसम्पतस्वरूपा प्रकृति लक्ष्मी कहलाती है l वाक्, बुद्धि, विद्या, ज्ञानरूपिणी प्रकृति सरस्वती कहलाती है l

वैदिक वाङ्मय से इस सत्य का सत्यापन होता है कि प्रकृति स्वधा है, पृश्नि है तथा पिशंगिला, पिलिप्पिला, अजा, अमृता, अदिति, उत्, अप, अवि, सिन्धु, ब्रह्म, त्रदत् , त्रिधातु आदि अनेक नाम वाली हैंl प्रकृति से जीव को विविध प्रकार की भोग सामग्री प्राप्त होती है, जिसे वह अपने कौशल द्वारा और भी उपयोगी बना लेता है l वैदिक संहिताओं में अदिति, शचि,ऊषा, पृथ्वी वाक्, सरस्वती, गायत्री, रात्रि, धिषणा, इला, सिनीवाली, मही, भारती, अरण्यानी, नित्रदति, मेघा, पृश्नि, सरण्यू, राका, सीता, श्री आदि देवियों के नाम मिलते हैं l ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषदों में अम्बिका, इन्द्राणी, रूद्राणी, शर्वाणी,भवानी, कात्यायनी, कन्याकुमारी, उमा, हैमवती आदि देवियों का उल्लेख मिलता है lवैदिक रूद्र का अम्बिका नामक एक स्त्री देवता के सम्बन्ध था ,लेकिन वैदिक साहित्य में अम्बिका रूद्र की बहन के रूप में अंकित है स्त्री रूप में नहींl अम्बिका शब्द का अर्थ है माता l सिन्धु घटी की देवी भी माता मानी जाती थी तथा दोनों का सम्बन्ध उर्वरता से था (है) lतैतिरीय संहिता १/८/६/१ में अम्बिका को शिव-सहोदरा कहा है तथा तैतिरीय आरण्यक १०/१८ में विश्व का, अम्बिका-उमा का पति रूप में वर्णन अंकित है lमहाभारत वनपर्व में दुर्गा को यशोदा-नन्द की पुत्री और वासुदेव-कृष्ण की बहन बतलाया गया है l अतिप्राचीन दस उपनिषदों में से एक केनोपनिषद में उमा-हैमवती नामक एक देवी का उल्लेख है lइसमें कहा गया हैकि देवताओं को ब्रह्म ज्ञान उमा हैमवती नामक एक स्त्री देवता ने कराया था l केनोपनिषद ३/१२ में अपर वैदिक कालीन देवता उमा का वैदिक कालीन सर्वश्रेष्ठ देवता इन्द्र से साक्षात एक अद्भुत घटना का वर्णन है l
दुर्गा की प्रतिमा समस्त शक्ति अर्थात राष्ट्र शक्ति का प्रत्तिरूप है, जो कि व्यक्ति और व्यक्तियों का सम्मिलित रूप राष्ट्र, शारीरिक रूप बल, सम्पति-बल एवं ज्ञान-बल से सिंह सदृश है, उस व्यक्ति में, उस राष्ट्र पर शक्ति (दुर्गा) प्रकट होती है l राष्ट्र को पशुबल (कार्तिकेय),सम्पति-बल (लक्ष्मी) एवं ज्ञान-बल (सरस्वती) चाहिए,किन्तु बुद्धिहीन के लिए बल, सम्पति एवं ज्ञान निरर्थक ही नहीं, प्रत्युत आत्म-संहार के लिए प्रबल अस्त्र सिद्ध होते हैं l इसीलिए मनुष्यता के आदिदेव बुद्धि के महाकाय (गणपति) वर्तमान हैं, जिनकी विशाल बुद्धि (शरीर) के भार के नीचे सभी विघ्न (चूहे)विवश रहते हैं l समस्त दिशाओं में फैली हुई राष्ट्रशक्ति ही राष्ट्र की दो, चार, आठ, दस, सहस्त्र और अनन्त तथा असंख्य भुजाएं हैं तथा समस्त प्रकार के उपलब्ध अस्त्र-शस्त्रादि ही दिक्पालों के अस्त्र-शस्त्रादि इनके आयुध हैं l कोई व्यक्ति और राष्ट्र ऐसा नहीं है, जिसका विरोध न हो l यही महिष है lदुर्गा के रूपमे यः भारतशक्ति की उपासना है l
भगवती दुर्गा की प्रतिमा में हाथों की संख्या विभिन्न पुराणों में अलग-अलग अंकित है lवराह पुराण ९५/४१ में अंकित हि कि मा वाराही के बीस हाथों में अस्त्र-शस्त्र एवं धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों- शंख,चक्र, गदा, पद्म, शक्ति, महोल्का, हल,मूसल, खड्ग, परिधि, भृशुण्डि, मस्तक, खेमट, तोमर, परशु, पाश, कुन्त,त्रिशूल, सारंग, धनुषादि को धारण करती है lदेवी भागवतपुराण में इनके अठारह हाथों का उल्लेख है lहेमाद्री ग्रन्थ में इनके दस और आठ हाथों का उल्लेख है lमाँ की चतुर्भुजी प्रतिमा भी देखी जाती है,परन्तु देवी की ‘दसभुजा’और अष्टभुजा’ स्वरुप ही जनमानस में सर्वप्रचलित है lदेवी की दस भुजाएं दस दिशाओं की केन्द्रीय शक्ति होने तथा दस विभूतियों से मानव की रक्षा करने के भाव का प्रमुख रूप से द्योतक है lइसी प्रकार अष्टभुजा आठ दिशाओं में लोक के योग क्षेम के भाव का द्योतक है lइसी कारण देवी कि दस विद्या, नवदुर्गा अथव अष्ट मात्रिका रूप में नाम-स्मरण, पूजा-अर्चना की परिपाटी है l शताक्षी एवं शाकम्भरी भी इनका नाम है l
वेद एवं उपनिषदों में अंकित आद्याशक्ति के तत्वों का पौराणिक ग्रन्थों में विषद उल्लेख करते हुए देवी के स्वरुप, महिमा एवं उपासना प्रणाली के प्रदर्शंन के लिए अनेक प्रकार के कथा निरूपक आदि अंकित हैं l पौराणिक युग शक्ति की धारणा-upasnaaउपासना के बहुमुखी विकास का युग है, क्योंकि पुराणों के व्यप्क्प्रचार-प्रसार से शक्तिउपसना घर-घर में प्रचलित हो गई तथा माता के रूप में पूजी जाने लगीl देवी के लिए प्रयुक्त हुए जगन्माता तथा जगदम्बा आदि विशेषण उनके मातृरूप के ही द्योतक हैंl देवी के इस रूप का पुराणादि ग्रन्थों में व्यापक वर्णन हुआ हैl श्रीमद्देवीभागवत, मार्कंडेय पुराण, ब्रह्म पुराण, स्कन्द पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, कालिका पुराण, देवी पुराण आदि पुराणों-उपपुराणों में देवी के आविर्भाव की कथा,स्वरुप,उपना पद्धति, कथा निरोपक आदि विपुल साहित्य राशि उपन्यस्त हैl देवी भागवत पुराण में इन सबका एक साथ ही वर्णन हैlकलिका पुराण, त्रिपुरा रहस्य, आदि कथा ग्रन्थों में यह सर्वश्रेष्ठ माना गया हैlमार्कंडेय पुराण की देवी सप्तशती अथवा देवी महात्म्य, ब्रह्मपुराण के द्वितीय भाग के अंतर्गत ललितोपाख्यान (ललित रहस्य), ब्रह्म वैवर्तपुराण का प्रकृति खण्ड, शिवपुराण के अन्तर्गत उमा संहिता, उपपुराणों में कलिका एवं सूत-संहिता के यज्ञ वैभव खण्ड का सैंतालीसवाँ अध्याय का शक्ति स्त्रोत महत्वपूर्ण श्रेष्ठ वाङ्मय हैंlमार्कंडेय पुराण के अन्तर्गत सप्तशती चण्डी, देवी महात्म्य से सम्बंधित श्रेष्ठ एवं नित्य पठन-पाठन सेव सम्बंधित ग्रन्थ आज के हिन्दू समाज में घर-घर सर्वप्रचलित हैl

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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