भूकंप से दहला अफगानिस्तान

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प्रमोद भार्गव

                अफगानिस्तान में आए शक्तिशाली भूकंप से 1000 से भी ज्यादा लोग काल के गाल में समा गए हैं। मृतकों की तादाद और भी अधिक हो सकती हैं। ड़ेढ़ हजार से ज्यादा लोग घायल हैं। यूएस भू-गर्भीय सर्वेक्षण संस्था के मुताबिक भूकंप का केंद्र दक्षिण-पूर्वी अफगानिस्तान के खोस्त शहर से 44 किमी दूर और 51 किमी जमीं के नीचे था। रिक्टर स्केल पर इसकी तीव्रता 6.1 मापी गई है। भूकंप का असर 500 किमी दूर भारत और पाकिस्तान में भी महसूस किया गया। यहां गांव के गांव जमींदोज हो गए हैं। इस भूकंप का क्षेत्र पाकिस्तान के दायरे में भी आता है। 2005 में आए भयंकर भूकंप में यहां 74,000 लोगों की मौत हो गई थी। अर्से तक अफगानिस्तान आतंकवाद से ग्रस्त देश रहा है। इसलिए यहां भूकंप की पूर्व जानकारी हासिल करने के वैज्ञानिक केंद्र ठप पड़े हैं। करीब एक साल पहले बनी तालिबानी सरकार भी ऐसे कोई उपाय करने में असमर्थ रही है, जिससे प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व में ही जानकारी मिल जाए और जान व माल को बचाने के व्यापक प्रबंध किए जा सकें। तालिबान सरकार ने जिस तरह से आधुनिक षिक्षा पर प्रतिबंध लगाए हुए हैं, उससे लगता भी नहीं है कि भविष्य में भी यहां कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण पनपेगा। स्त्री-षिक्षा पर तो यहां लगभग पूर्ण प्रतिबंध है।

      हालांकि भूकंप की चेतावनी संबंधी प्रणालियां अनेक देशों में  संचालित हैं लेकिन वह भू-गर्भ में हो रही दानवी हलचलों की सटीक जानकारी समय पूर्व देने में लगभग असमर्थ हैं। क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले देशों अमेरिका, जापान, भारत, नेपाल, चीन और अन्य देशों में भूकंप आते ही रहते हैं। इसलिए यहां लाख टके का सवाल उठता है कि चांद और मंगल जैसे ग्रहों पर मानव बस्तियां बसाने का सपना और पाताल की गहराइयों को नाप लेने का दावा करने वाले वैज्ञानिक आखिर पृथ्वी के नीचे उत्पात मचा रही हलचलों की जानकारी प्राप्त करने में क्यों नाकाम हैं ? जबकि वैज्ञानिक इस दिशा में लंबे समय से कार्यरत हैं। अमेरिका ने तो अंतरिक्ष में ऐसा उपग्रह भी तैनात कर दिया है, जो संभावित भूकंप आने की चेतावनी देने के लिए ही क्रियाशील है।                                                 

                दरअसल दुनिया के नामचीन विषेशज्ञों व पर्यावरणविदों की मानें तो सभी भूकंप प्राकृतिक नहीं होते, बल्कि उन्हें विकराल बनाने में मानवीय हस्तक्षेप शामिल है। प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से छोटे स्तर के भूकंपों की पृश्ठभूमि तैयार हो रही है। भविष्य में इन्हीं भूकंपों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकंपों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 सालों में एक बार भूकंप आने की आशंका बनी रहती थी, लेकिन अब यह घटकर 4 साल हो गई है। अमेरिका में 1973 से 2008 के बीच प्रति वर्श औसतन 21 भूकंप आए, वहीं 2009 से 2013 के बीच यह संख्या बढ़कर 99 प्रति वर्श हो गई। यही नहीं आए भूकंपों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकंपीय विस्फोट में जो ऊर्जा निकलती है, उसकी मात्रा भी पहले की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली हुई है। 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में जो भूकंप आया था, उनसे 20 थर्मोन्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहां हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशीमा-नागाशाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना ज्यादा ताकतवर था। जापान और फिर क्वोटो में आए सिलसिलेवार भूकंपों से पता चला है कि धरती के गर्भ में अंगड़ाई ले रही भूकंपीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी अंगड़ाई ले रही हैं। इसलिए इन देशों के महानगर भी भूकंप के मुहाने पर खड़े हैं।

                भूकंप आना कोई नई बात नहीं है। पूरी दुनिया इस अभिशाप को झेलने के लिए जब-तब विवश होती रही है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि विज्ञान की आष्चर्यजनक तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकंप की जानकारी आने से पहले मिल जाए। भूकंप के लिए जरूरी ऊर्जा के एकत्रित होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिद्धांत से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पांच करोड़ साल पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेषिया परत से जा टकराईं। इस टक्कर के फलस्वरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आई और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनीं। हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है, जहां पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें परस्पर टकराकर एक-दूसरे के भीतर घुस गई थीं। परतों के टकराव की इस प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकंप आते रहते हैं। इसी प्रायद्वीप में ज्यादातर एशियाई देश बसे हुए हैं।

                वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकंप आते हैं। भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकंप की विनाषकारी तरंगें जमीन से कम से कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगे जितनी कम गहराई से उठेगी, उतनी तबाही भी ज्यादा होगी और भूकंप का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है अब कम गहराई के भूकंपों का दौर चल पड़ा है। मैक्सिको में सितंबर 2017 में आया भूकंप धरती की सतह से महज 40 किमी नीचे से उठा था। इसलिए इसने भयंकर तबाही का ताडंव रचा था। 

                दरअसल सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने व कम दबाव के कारण कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब चट्टानें दरकती हैं तो भूकंप आता है। कुछ भूकंप धरती की सतह से 100 से 650 किमी के नीचे से भी आते हैं, लेकिन तीव्रता धरती की सतह पर आते-आते कम हो जाती है, इसलिए बड़े रूप में त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती। दरअसल इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्रव रूप में बदल जाती है। इसलिए इसके झटकों का असर धरती पर कम ही दिखाई देता है। बावजूद इन भूकंपों से ऊर्जा बड़ी मात्रा में निकलती है। धरती की इतनी गहराई से प्रगट हुआ सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलिविया में रिकाॅर्ड किया गया है। पृथ्वी की सतह से 600 किमी भीतर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। इसीलिए यह मान्यता बनी है कि इतनी गहराई से चले भूकंप धरती पर तबाही मचाने में कामयाब नहीं हो सकते हैं, क्योंकि चट्टानें तरल द्रव्य के रूप में बदल जाती हैं।

                प्राकृतिक आपदाएं अब व्यापक व विनाषकारी साबित हो रही हैं, क्योंकि धरती के बढ़ते तापमान के कारण वायुमंडल भी परिवर्तित हो रहा है। अमेरिका व ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो षताब्दियों के भीतर बेतहाशा अमीरी बढ़ी है। औद्योगिकीकरण और षहरीकरण इसी अमीरी की उपज है। यह कथित विकासवादी अवधारणा कुछ और नहीं, प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन कर, पृथ्वी को खोखला करने के ऐसे उपाय हैं, जो ब्रह्माण्ड में फैले अवयवों में असंतुलन बढ़ा रहे हैं। इस विकास के लिए पानी, गैस, खनिज, इस्पात, ईंधन और लकड़ी जरूरी हैं। नतीजतन जो काॅर्बन गैसें बेहद न्यूनतम मात्रा में बनती थीं, वे अब अधिकतम मात्रा में बनने लगी हैं। न्यूनतम मात्रा में बनी गैसों का शोषण और समायोजन भी प्राकृतिक रूप से हो जाता था, किंतु अब वनों का विनाष कर दिए जाने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है, जिसकी वजह से वायुमंडल में इकतरफा दबाव बढ़ रहा है। इस कारण धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय, धरती में ही समाने लगी है। गोया, धरती का तापमान बढ़ने लगा, जो जलवायु परिवर्तन का कारण तो बना ही, प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन रहा है। ऐसे में सिमेंट, लोहा और कंक्रीट के भवन जब गिरते हैं, तो मानव त्रासदी ज्यादा होती है।

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