वायु प्रदूषण से स्मृति-लोप का बढ़ता खतरा

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 ललित गर्ग 

पर्यावरण की उपेक्षा एवं बढ़ता वायु प्रदूषण मनुष्य स्वास्थ्य के लिये न केवल घातक हो रहा है, बल्कि एक बीमार समाज के निर्माण का कारण भी बन रहा है। हाल ही में हुए एक मेटा-अध्ययन ने वायु प्रदूषण और बिगड़ती स्मृति के बीच एक खतरनाक संबंध का खुलासा किया है। हवा में मौजूद विषैले कण-खासकर महीन धूल और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसें, जो मुख्य रूप से वाहनों और औद्योगिक प्रक्रियाओं से निकलती हैं, हमारे मस्तिष्क को सीधे प्रभावित कर रही हैं। यह व्यापक शोध लगभग 3 करोड़ व्यक्तियों से जुड़े 51 अध्ययनों पर आधारित है। ये निष्कर्ष भारत जैसे देशों के लिए विशेष रूप से चिंताजनक हैं, जहाँ वायु प्रदूषण का स्तर दुनिया में सबसे अधिक है। अगर धनी और विकसित देश भी प्रदूषण के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों से जूझ रहे हैं, तो भारत लापरवाही बर्दाश्त नहीं कर सकता। वायु प्रदूषण से निपटना हमारी सर्वाेच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि प्रदूषित हवा के नियमित संपर्क में रहने से मनोभ्रंश एवं स्मृति-लोप का खतरा काफी बढ़ जाता है, यह एक ऐसी प्रगतिशील स्थिति है जो स्मृति और संज्ञानात्मक क्षमताओं को क्षीण कर देती है। दुनिया भर में, लगभग 5.74 करोड़ लोग पहले से ही मनोभ्रंश से प्रभावित हैं। वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए तत्काल कार्रवाई न किए जाने पर, यह संख्या 2050 तक तिगुनी होकर 15.28 करोड हो सकती है। मनोभ्रंश अर्थात डिमेंशिया या भूलने की बीमारी का दुनिया में बढ़ता खतरा इतना बड़ा है कि आगामी पच्चीस वर्ष में इस बीमारी से ग्रस्त लोगों की संख्या तीन गुना हो जाएगी। शोधकर्ताओं ने वायु प्रदूषण में खासकर कार से निकलने वाले धुएं या उत्सर्जन को गंभीर माना है। उल्लेखनीय है कि लंबे समय तक प्रदूषित वातावरण में रहने वाले लोगों के मस्तिष्क की कार्यक्षमता में एक दशक तक की गिरावट देखी जा सकती है, उदाहरण के लिए, लगातार जहरीली हवा में सांस लेने वाला 50 वर्षीय व्यक्ति 60 वर्षीय व्यक्ति के समान संज्ञानात्मक क्षमता प्रदर्शित कर सकता है। वायु प्रदूषण का सबसे पहला असर फेफड़ों और दिल पर पड़ता है, लेकिन यह वहीं तक सीमित नहीं रहता। हवा में मौजूद ये छोटे-छोटे कण हमारी सांस के जरिए खून में चले जाते हैं और फिर सीधे दिमाग तक पहुंच जाते हैं। इससे-याद रखने की क्षमता कमजोर होती है। ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो जाता है। सीखने और नई बातें याद रखने में दिक्कत होती है। कुछ मामलों में डिप्रेशन यानी अवसाद की संभावना बढ़ जाती है।
द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में पाया गया कि पीएम 2.5 (सूक्ष्म कण पदार्थ) में प्रति घन मीटर 10 माइक्रोग्राम की वृद्धि से स्मृति संबंधी बीमारियों का खतरा 17 प्रतिशत बढ़ जाता है। वाहनों के धुएँ और जलती हुई लकड़ी से निकलने वाले ब्लैक कार्बन में एक माइक्रोग्राम की भी वृद्धि से यह खतरा 13 प्रतिशत बढ़ जाता है। ये सूक्ष्म कण हमारे श्वसन और परिसंचरण तंत्र को दरकिनार कर मस्तिष्क तक पहुँच सकते हैं और सूजन व ऑक्सीडेटिव तनाव पैदा कर सकते हैं, जिससे अंततः न्यूरॉन्स को नुकसान पहुँचता है। इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। प्रदूषित हवा न केवल फेफड़ों और हृदय के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि याददाश्त, एकाग्रता, सीखने और भावनात्मक स्थिरता को भी कमज़ोर करती है। अध्ययनों से पता चला है कि उच्च प्रदूषण वाले क्षेत्रों में रहने वाले बच्चे स्वच्छ वातावरण में रहने वालों की तुलना में स्कूल की परीक्षाओं में खराब प्रदर्शन करते हैं। प्रदूषित हवा के संपर्क में आने वाले वयस्क अक्सर चिड़चिड़ापन, थकान और यहाँ तक कि अवसाद का अनुभव करते हैं। उनकी उत्पादकता और निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हो सकती है।
प्रदूषण से प्रेरित स्मृति हानि का प्रभाव केवल व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है, यह शैक्षिक परिणामों, कार्यस्थल की दक्षता और सामाजिक निर्णय लेने को भी प्रभावित करता है। आँकड़े दर्शाते हैं कि उच्च-पीएम क्षेत्रों में लोग मौखिक प्रवाह, तर्क, सीखने और स्मृति परीक्षणों में कम अंक प्राप्त करते हैं, जो शिक्षा का एक पूरा वर्ष गँवाने के समान है। एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि कैसे किराने की खरीदारी जैसे नियमित कार्यों में संज्ञानात्मक विकर्षण प्रदूषण के संपर्क में आने से बढ़ जाता है। वृद्ध और कम शिक्षित व्यक्ति विशेष रूप से असुरक्षित होते हैं, अक्सर रोज़मर्रा के कार्य करने की क्षमता खो देते हैं और दूसरों पर अधिक निर्भर हो जाते हैं।
बढ़ते खतरे के बावजूद, चिकित्सा विज्ञान वर्तमान में मनोभ्रंश का कोई निश्चित इलाज नहीं देता है। मौजूदा उपचार सीमित और अक्सर अप्रभावी होते हैं, जिससे मरीज धीरे-धीरे अपनी याददाश्त और स्वतंत्रता खो देते हैं। अध्ययन के सह-प्रमुख लेखक, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के डॉ. क्रिस्टियन ब्रेडल इस बात पर ज़ोर देते हैं कि मनोभ्रंश की रोकथाम केवल स्वास्थ्य सेवा की ज़िम्मेदारी नहीं है। शहरी नियोजन, परिवहन नीतियां और पर्यावरणीय नियम, सभी इस संकट से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वायु प्रदूषण न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि सामूहिक सोच, जीवनशैली विकल्पों और पर्यावरणीय निर्णयों को भी विकृत करता है। बड़े पैमाने पर, यह शैक्षिक उपलब्धि में कमी, उत्पादकता में कमी, स्वास्थ्य सेवा के बढ़ते बोझ और गहरी होती आर्थिक असमानताओं में योगदान देता है। वाशिंगटन में 12 लाख लोगों पर किए गए एक अलग अध्ययन से पता चला है कि जंगल की आग के धुएँ के संपर्क में आने से, जो पीएम 2.5 के स्तर को बढ़ाता है, मनोभ्रंश का खतरा 18-21 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा की गई एक और व्यापक समीक्षा (51 अध्ययनों में 2.9 करोड़ लोगों पर) ने पुष्टि की कि पीएम 2.5 के संपर्क में आने से मनोभ्रंश का खतरा 13-17 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। विज्ञान स्पष्ट है कि ये सूक्ष्म कण श्वसन तंत्र और मस्तिष्क में गहराई तक प्रवेश करते हैं, मस्तिष्क के कार्य को बाधित करते हैं और मानसिक गिरावट को तेज़ करते हैं।
हाल ही में चीन में हुए एक शोध में भी पीएम और नाइट्रोजन ऑक्साइड के संपर्क को मध्यम आयु वर्ग और वृद्ध लोगों में संज्ञानात्मक क्षमता में कमी, विशेष रूप से कार्यशील स्मृति में कमी से जोड़ा गया है। यह एक बढ़ता हुआ संकट है जिसके प्रभाव न केवल व्यक्तियों पर बल्कि पूरे समाज पर पड़ रहे हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि वायु प्रदूषण अब केवल खांसी या सांस की बीमारी तक सीमित नहीं है, यह चुपचाप हमारी स्मृति, संज्ञानात्मक कार्यों और मानसिक स्वास्थ्य पर हमला कर रहा है। लोग मानसिक थकान, अवसाद या चिड़चिड़ापन महसूस कर सकते हैं। सामूहिक स्तर पर, शिक्षा और उत्पादकता में गिरावट, स्वास्थ्य पर बढ़ता बोझ और आर्थिक असमानता बढ़ती है। अगर तत्काल और निर्णायक कदम नहीं उठाए गए, तो स्थिति और बिगड़ेगी। वायु प्रदूषण शरीर में हानिकारक रासायनिक प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है जो कोशिकाओं, प्रोटीन और डीएनए को नुकसान पहुँचाती हैं, जिससे मनोभ्रंश जैसी तंत्रिका संबंधी बीमारियों का मार्ग प्रशस्त होता है। उत्साहजनक रूप से, शोध बताता है कि वायु प्रदूषण को कम करने से स्वास्थ्य, आर्थिक, सामाजिक और जलवायु क्षेत्रों में दीर्घकालिक लाभ मिल सकते हैं। इससे मरीजों, परिवारों और देखभाल करने वालों पर बोझ भी कम होगा। अब हमें खुद से यह सवाल पूछना होगा कि हम न केवल अपने फेफड़ों, बल्कि अपने दिमाग की भी रक्षा के लिए कितनी दूर तक जाने को तैयार हैं? 

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