-शोक “प्रवृद्ध”
अयोध्या, काशी, मथुरा और संभल की तरह राजस्थान स्थित अजमेर शरीफ दरगाह का मामला भी न्यायालय के द्वार पहुंच गया है। हिन्दू सेना की एक अर्जी में अजमेर शरीफ दरगाह को महादेव का मंदिर बताया गया है। अजमेर स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में संकट मोचन महादेव मंदिर होने के दावे को लेकर अजमेर दीवानी न्यायालय पश्चिमी में 18 दिसम्बर 2024 दिन बुधवार को दूसरी बार सुनवाई हुई। हिन्दू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता के द्वारा दायर इस याचिका पर दोनों पक्षों के वकीलों को सुनने के बाद इस पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने फैसले की अगली तारीख 24 जनवरी तय की है। इस मामले में अल्पसंख्यक मंत्रालय, दरगाह कमेटी अजमेर और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को नोटिस जारी किया गया था। 18 दिसम्बर को अंजुमन कमेटी, दरगाह दीवान और अन्य पक्षों ने खुद को पक्षकार बनाने के लिए अर्जियां दायर कीं। दरगाह कमेटी के वकील अशोक माथुर ने याचिका खारिज करने की मांग रखी। वहीं, याचिकाकर्ता विष्णु गुप्ता के वकील वरुण कुमार सिन्हा ने कहा कि सभी को अनावश्यक रूप से पक्षकार नहीं बनाया जाना चाहिए। वरुण कुमार सिन्हा ने सुनवाई के दौरान दी पृथ्वीराज विजय और दी अजमेर हिस्ट्रीकल डिस्क्रिप्टिव किताबों का हवाला देते हुए कोर्ट में दस्तावेज पेश करते हुए कहा कि दरगाह वर्शिप एक्ट के तहत नहीं आती। उन्होंने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से सर्वेक्षण की मांग करते हुए कहा कि सर्वेक्षण से इस मामले में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
इस प्रकरण को लेकर पहले भी ऐसी मांग उठ चुकी है। अजमेर की दरगाह से 500 मीटर से भी कम की दूरी पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित स्मारक अढ़ाई दिन का झोपड़ा मौजूद है। इस अढ़ाई दिन का झोपड़ा को लेकर अजमेर के डिप्टी मेयर नीरज जैन ने दावा किया है कि इसकी जगह पहले मंदिर और संस्कृत पाठशाला था। नालंदा और तक्षशिला विश्विद्यालय की तर्ज़ पर पुरानी धरोहर को नष्ट करके अढ़ाई दिन का झोपड़ा बनाया गया है। उस समय जो आक्रामणकारी भारत आए थे, उन्होंने इस धरोहर को तहस-नहस करने के बाद वर्तमान संरचना को बनाया है। इस बात के सबूत वहां पर मौजूद हैं। आज भी अढ़ाई दिन का झोपड़ा में लगे खंभों में जगह-जगह पर देवी-देवताओं की मूर्तियां लगी हुई हैं। वहां पर स्वास्तिक और कमल के चिन्ह हैं और संस्कृत की लिखावट में कई श्लोक वगैरह भी लिखे हुए हैं। इसलिए यहां धार्मिक गतिविधियों पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए और सर्वे कराई जाए।
नीरज जैन के दावे का आधार हरबिलास सारदा की किताब है। और अजमेर शरीफ़ दरगाह मामले में याचिकाकर्ता विष्णु गुप्ता ने भी इसी किताब को आधार बनाया है। एएसआई की वेबसाइट पर भी संदर्भ के तौर पर हरबिलास सारदा की किताब का इस्तेमाल किया गया है। वर्ष 1911 में हरबिलास सारदा ने अजमेर: हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव नाम से एक किताब लिखी थी। 206 पन्नों की इस किताब के सातवें चैप्टर में अढ़ाई दिन का झोपड़ा नामक एक चैप्टर भी शामिल हैं। इस किताब में हरबिलास शारदा लिखते हैं- जैन परंपरा के मुताबिक़, इस संरचना का निर्माण सेठ वीरमदेवा काला ने 660 ईस्वी में जैन त्योहार पंच कल्याणक मनाने के लिए एक जैन मंदिर के रूप में किया था। इसकी आधारशिला जैन भट्टारक श्री विश्वानंदजी ने रखी थी। हरबिलास सारदा के अनुसार इसके नाम से यह आम धारणा है कि इसे ढाई दिन में बनाया गया है, जबकि इस संरचना को मस्जिद में बदलने में कई साल लगे। यह मूल रूप से एक इमारत थी, जिसका इस्तेमाल एक कॉलेज के रूप में किया जाता था। इसे एक वर्ग के रूप में बनाया गया था और हर तरफ की लंबाई 259 फ़ीट थी। इसके पश्चिमी भाग में एक सरस्वती मंदिर (कॉलेज) था। इस कॉलेज का निर्माण लगभग साल 1153 में भारत के पहले चौहान सम्राट वीसलदेव द्वारा किया गया था। 1192 ईस्वी में ग़ौर (वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान का एक प्रांत) से आए अफ़ग़ानों ने मोहम्मद ग़ौरी के आदेश पर अजमेर पर हमला किया था और इस दौरान इस इमारत को भी क्षति पहुंचाई गई थी। इसके बाद इस संरचना को मस्जिद में बदलने की शुरुआत हुई थी। सफेद संगमरमर से बना इमामगाह या मेहराब 1199 ईस्वी और पारदर्शी दीवारें 1213 ईस्वी में सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के समय बनाई गई थीं। इस तरह से पुनर्निर्माण या रूपांतरण का कार्य 1199 ईस्वी से पहले से 1213 तक चला, यानी पंद्रह वर्षों से अधिक।
अजमेर के डिप्टी मेयर नीरज जैन के अनुसार वे पिछले कुछ सालों से लगातार इस मुद्दे को उठा रहे हैं और एएसआई से इसका सर्वे और सरंक्षण की मांग करते आए हैं। इस बार भी वे यही कर रहे हैं। अजमेर स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में संकट मोचन महादेव मंदिर होने के दावे को लेकर अजमेर दीवानी न्यायालय पश्चिमी में सुनवाई आरंभ होने से उन्हें अब उम्मीद जगी है कि इस मामले में अब सच्चाई सामने आ जाएगी। उनका कहना है- जो इतिहासकार ऐसा कह रहे हैं कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे बनवाया है, मेरा उनको कहना है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने उसे बनवाया नहीं था, बल्कि मंदिर और कॉलेज को तुड़वाया था। ये सब तोड़कर अढ़ाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद बनाई गई है।
एएसआई के मुताबिक़ यह वास्तव में दिल्ली के पहले सुल्तान क़ुतबुद्दीन ऐबक द्वारा 1199 में बनवाई गई एक मस्जिद है, जो दिल्ली के कुतुब-मीनार परिसर में बनी क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के समकालीन है। इसके बाद 1213 में सुल्तान इल्तुतमिश ने इसमें घुमावदार मेहराब और छेद वाली दीवार लगाई। भारत में ऐसा यह अपने तरीके का पहला उदाहरण है। हालांकि, परिसर के बरामदे के अंदर बड़ी संख्या में वास्तुशिल्प कलाकृतियां और मंदिरों की मूर्तियां हैं, जो लगभग 11वीं-12वीं शताब्दी के दौरान इसके आसपास एक हिंदू मंदिर के अस्तित्व को दर्शाती हैं। मंदिरों के खंडित अवशेषों से बनी इस मस्जिद को अढ़ाई दिन का झोपड़ा के नाम से जाना जाता है, संभवतः इसका कारण है कि यहां ढाई दिनों तक मेला लगता था।
वर्ष 2024 के मई महीने में जैन मुनि सुनील सागर के नेतृत्व में जैन समुदाय के लोगों ने नंगे पैर अढ़ाई दिन का झोपड़ा तक मार्च किया था, और सागर अढ़ाई दिन का झोपड़ा पहुंचे थे। तब मीडिया से बातचीत में सुनील सागर ने कहा था, आज, मैंने अढ़ाई दिन का झोपड़ा देखा और पाया कि यह झोपड़ी नहीं, बल्कि एक महल है। इस दौरान मुझे हिन्दू आस्था की टूटी हुई मूर्तियां मिलीं फिर भी विडंबना है कि इसे मस्जिद कहा जाता है। वर्ष 2024 के जनवरी के महीने में जयपुर से तत्कालीन भाजपा सांसद रामचरण बोहरा ने पर्यटन एंव पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्री जी किशन रेड्डी को पत्र लिखकर कहा था कि अढ़ाई दिन का झोपड़ा संस्कृत शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है और इसे मूल स्वरूप में परिवर्तित किया जाए। 2023 में महाराणा प्रताप सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष राज्यवर्धन सिंह ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को एक पत्र लिखे एक पत्र में पुरातत्व विभाग से इसकी सर्वे कराने की मांग करते हुए दावा किया है कि अजमेर का चिश्ती दरगाह पहले मंदिर था। हजरत मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की दीवारों और खिड़कियों में हिंदू धर्म से संबंधित चिह्न है। इसलिए ज्ञानवापी की तरह अजमेर दरगाह की सर्वे कराई जाए।
उल्लेखनीय है कि ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती 536 हिजरी (1141 ईस्वी) में ख़ुरासान प्रांत के सन्जर नामक गाँव में पैदा हुए थे। सन्जर कन्धार से उत्तर की स्थित है। ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने ही भारत में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रचार-प्रसार अपने सद्गुरु ख़्वाजा उस्मान हारुनी के दिशा निर्देशानुसार किया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता के संरक्षण में हुई। जिस समय ख़्वाजा मुईनुद्दीन मात्र 15 वर्ष के थे, तभी इनके पिता का देहांत हो गया। उत्तराधिकार में प्राप्त मात्र एक फलों के बगीचे से प्राप्त आय से जीवन निर्वाह होता था। कहा जाता हैं बचपन में चिश्ती अन्य बच्चो से अलग थे। वे फकीरों की संगत प्रार्थना और ध्यान में अपने आप को व्यस्त रखते थे। बाद में हज़रत इब्राहिम कंदोजी के प्रभाव में आकर उन्होंने अपनी निजी सम्पत्ति बेच दी व उससे प्राप्त धन गरीबों में बाँट दिया सब कुछ त्याग कर वे ज्ञान की प्राप्ति में निकल पड़े। कुछ समय बाद मोईनुद्दीन उस्मान हरूनी के संपर्क में आये। समरकंद, बूखारा गए और गुरु के साथ रह कर धर्म व मुस्लिम रीति -रिवाज की शिक्षा ली। वे उस्मान हरूनी के अनुयायी बन गए। मध्य पूर्व में मक्का मदीना तक चिश्ती गए। ख़्वाजा मुईनुद्दीन ने अनेकों हज पैदल ही किए। ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती सन 1195 ईस्वी में मदीना से भारत आए थे। थोड़ा समय दिल्ली रुके। उसके बाद लाहौर चले गए। काफी समय लाहौर रहने के बाद मुइज्ज़ अल- दिन मुहम्मद के साथ अजमेर आए और वही बस गए। जब उनकी आयु 89 वर्ष की थी, तब उन्होंने प्रार्थना करने के लिए स्वयं को 6 दिन तक कमरे में बंद कर लिया था और अपने नश्वर शरीर को एकांत में छोड़ दिया था। बाद में उस स्थान पर उनके चाहने वालों ने मकबरा बना दिया, जिसे वर्तमान में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का मकबरा कहते हैं।
-अशोक प्रवृद्ध