डॉ. नीरज भारद्वाज
भारतीय सनातन संस्कृति में कुम्भ हमारी आस्था, भक्ति, शक्ति, ज्ञान, योग, दर्शन, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, जीवन ज्योति, समाज, शिक्षा, दीक्षा आदि सभी तथ्यों से जुड़ा हुआ है। कुम्भ को लेकर कितनी ही समाज जीवन में कहावतें भी हैं- जब कोई काम एक बार में सफल नहीं हो पता तो सामान्यतः लोग यह कहते हैं कि क्या कुम्भ का मेला है जो बारह वर्ष में आयेगा, फिर हो जायेगा काम। जब कभी पुरानी फिल्में देखते हैं तो उनमें कुम्भ के मेले में भाईयों का बिछड़ना दिखाया जाता था। कहने का भाव यह है कि कुम्भ पर्व में भारी भरकम भीड़ होती है और यह बारह वर्ष में आता है। कुम्भ में स्नान करना हर एक सनातनी संस्कृति का व्यक्ति चाहता है। ढोल, नगाड़े, बग्गी, रथ, हाथी, घोड़े, सजी हुई पालकियाँ, लम्बी चौड़ी निकलने वाली साधु-संतों-महात्माओं की यात्राएँ, उनकी शाही सवारियाँ आदि सभी का एक अद्भुत नजारा कुम्भ में देखने को मिलता है।
कुम्भ पर्व के विषय में जाने तो इस पर्व का वर्णन हमारे वेदों, पुराणों, शास्त्रों आदि में मिलता है। ऋग्वेद (10-89-7), शुक्लयजुर्वेद (19-87), अथर्ववेद (4-34-716-6-8 एवं 19-53-3) की ऋचाओं में कुम्भ पर्व के बारे में बताया गया है। स्कंद पुराण में वर्णन मिलता है कि – सहस्त्र कार्तिके स्नान माघे स्नानशतानि च। वैशाखे नर्मदा कोटि कुम्भस्नानेन तत्फलम्।। कहने का भाव यह है कि एक हजार बार कार्तिक मास में गंगा में स्नान करने से, सौ बार माघ में संगम-स्नान करने से, वैशाख में एक करोड़ बार नर्मदा-स्नान करने से जो पुण्यफल अर्जित होता है। कुम्भ में केवल एक बार स्नान करने से वह फल प्राप्त होता है।
हम सभी ने सागर मंथन की कथा को सुना-पढ़ा या सिनेमा के माध्यम से जरूर देखा-समझा होगा। कुम्भ पर्व क्षीरसागर के मंथनोपरान्त प्राप्त हुए अमृतकलश अर्थात अमृतकुम्भ के लिए हुए देवासुर संग्राम की कथा से जुड़ा है। सागर मंथन से प्राप्त 14 रत्नों के बाद आयुर्वेद के अधिष्ठाता भगवान धनवंतरि अमृतकुम्भ लेकर स्वयं प्रकट हुए। अमृतकुम्भ पाने की होड़ और अमृतपान के लिए देवताओं और दानवों के बीच युद्ध शुरू हो गया। देवताओं ने अमृतकुम्भ को दैत्यों से छिपाने के लिए देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत को अमृतकुम्भ की रक्षा का दायित्व सौंपा। इस दायित्व को पूरा करने में सूर्य, चन्द्र, गुरु और शनि भी सहयोगी बने।
दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेश पर दैत्यों ने अमृतकुम्भ को पाने के लिए तीनों लोकों में जयंत का पीछा किया। कहा जाता है कि यह युद्ध 12 दिनों तक चला। माना यह जाता है कि देवताओं का एक दिन मानवों के एक वर्ष के बराबर है। इस दृष्टि से अमृतकुम्भ की रक्षा के समय अमृत की बूंदे बारह स्थानों पर गिरी। इन बारह स्थलों में से आठ पवित्र स्थान देवलोक में है और चार इस धराधाम अर्थात पृथ्वी लोक पर हैं। वर्तमान में यह स्थान भारत के अलग-अलग राज्यों में स्थित हैं- उत्तर प्रदेश में तीरथराज प्रयाग यहाँ गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम है, इस स्थान को संगम भी कहा जाता है, देवभूमि उत्तराखंड में हरि हर द्वारा अर्थात हरिद्वार गंगा के किनारे, मध्यप्रदेश में उज्जैन क्षिप्रा नदी के तट पर और महाराष्ट्र में नासिक अर्थात गोदावरी के तट हैं। ये चार पवित्र स्थान अमृत की बूंदों के गिरने के कारण कुम्भ क्षेत्र बने हैं।
माना यह भी जाता है कि नवीं शताब्दी में आदि शकराचार्य द्वारा दसनामी अखाड़ों का गठन करके कुम्भ, अर्द्धकुम्भ पर्वो की नींव डाली गई। आज भी कुम्भ में अखाड़ों की मौजूदगी को विशिष्टता प्रदान की जाती है। यह अखाडे कुम्भ पर्व के सिरमौर माने जाते हैं। सही मायनों में कुम्भ जीवन जगत का सार है। कुम्भ में दिवसानुसार अलग-अलग स्नान होते हैं जिनमें शाही स्नानों का विशेष महत्व होता है।