तमाम बीमारियों से जुदा है पश्चिम बंगाल का चुनाव

डॉ. सुनीलम्, पूर्व विधायक

कल पश्चिम बंगाल की पन्द्रहवीं विधानसभा हेतु चुनाव के प्रथम चरण में 74 फीसदी मतदान हुआ। यह मतदान उत्तर बंगाल की 54 सीटों के लिए हुआ है। राजनैतिक विश्‍लेषक लंबे समय से कहते रहे है कि चुनाव मात्र औपचारिकता है जनता फैसला कर चुकी है। परिवर्तन की हवा बह रही है। बंगाल, वाममोर्चे के 34 वर्ष के शासनकाल में पिछड़ गया। यह धारणा बनाने में ममता बनर्जी कामयाब हुई है। ऐसी परिस्थिति में जब चुनाव के पहले ही मीडिया नतीजे घोषित कर चुका हो आम समझ के खिलाफ लिखना बड़बोलापन कहलायेगा। हांलाकि मतदाताओ ने बार बार विश्‍लेषणकर्ताओं को धता बताने – नतीजों के माध्यम से उनका उपहास उड़ाने का काम किया है। 7 बार चुनाव लडने के बाद तथा दो दिन पहले उत्तर बंगाल का दौरा करने के बाद मेरी दिलचस्पी नतीजो का विष्लेषण करने की बजाय चुनाव जिस तरीके से पश्चिम बंगाल में लड़े जा रहे है उसमें ज्यादा है।

आमतौर पर पूरे देश में चुनाव जाति, पैसे, शराब और गुण्डागर्दी से अत्याधिक प्रभावित होते है या यूं कहा जाय कि चुनाव नतीजे का आधार यही चार होते है लेकिन पश्चिम बंगाल के चुनाव में इन चारों विकारों को उत्तर भारत तथा अन्य राज्यों के तरह नहीं देखा जा सकता। इसका मतलब यह नहीं कि वाममोर्चा जातिविहीन समाज की रचना करने में सफल रहा है। लेकिन जाति के आधार पर ही वोट पड़ जाये, चुनाव की गोलबंदी हो जाए यह आमतौर पर दिखलाई नहीं देता। जाति आधारित संगठन बने है लेकिन उनकी हैसियत चुनाव को प्रभावित करने की नहीं है। उत्तर भारत में तो जाति के आधार पर ही उम्मीदवार खड़ा करने का चलन है इसे सौफेस्टिकेटैड भाषा में सोशल इंजीनियरिंग कहा जाता है। इसी तरह पैसा बांटकर वोट लेने का चलन बंगाल में नहीं है। बंगाल में नियमित पंचायत चुनाव होते रहे है लेकिन कहीं भी प्रतिवोट या प्रतिपरिवार 100 से 1000 रूपए बांटकर चुनाव जीतने की शिकायत आमतौर पर सामने नही आती। जबकि मैंने लगातार चुनावों में पैसा बटता हुआ देखा है। मुलताई में नगर पालिका के चुनाव में तो बाकायदा 500 रूपए प्रति वोट बांटकर पार्षद का चुनाव जीतते हुए उम्मीदवार मैंने देखे है।

वोटरों को धमकाकर, चमकाकर यानी गुण्डागर्दी से वोट लेने की उत्तर भारत का चलन बंगाल में नहीं है इसका मतलब यह नहीं कि गुण्डागर्दी नहीं है। बाकायदा लाल आतंक यदि कायम है लेकिन उसकी तोड़ के तौर पर तृणमूल कांग्रेस के पास भी बलशालियों की कमी नहीं है। असल में तो पूरे बंगाल में वाममोर्चे का सूर्य अस्त होने के अंदेशे के चलते ताकतवर लोग तृणमूल कांग्रेस के साथ जुट गए है। इसके बावजूद भी मतदाताओं को डराकर बंगाल में किसी के लिए भी वोट लेना सम्भव नहीं है।

हालांकि चुनाव के बहुत पहले से ही हिंसक टकराव शुरू हो चुका है दोनो मोर्चो के सैकड़ो कार्यकर्ता हिंसक झड़पों में मारे जा चुके है लेकिन इसके बावजूद भी गुण्डागर्दी से वोट पाकर जीतना किसी भी विधानसभा क्षेत्र में किसी भी दबंग के लिए सम्भव नहीं है।

इसी तरह आमतौर पर शराब बाटने का प्रचलन बंगाल चुनाव में नहीं है। मैंने चुनाव में बाकायदा पार्टीयो की तरफ से शराब बटते देखी है। कम मात्रा में नहीं एक एक गांव में विशेष तौर पर आदिवासी गांव में 7-7 दिन तक का शराब का इंतजाम निशुल्क तौर पर पार्टियों द्वारा किया जाता है।

इस परिस्थिति को लगातार 34 वर्ष तक सत्ता में रहने के बाद बनाए रखना वाममोर्चा सरकार की एक बडी उपलब्धी है। यहां यह उल्लेख करना भी आवश्‍यक है कि बंगाल में किसी भी पार्टी द्वारा केवल जाति, पैसा, शराब और गुण्डागर्दी के आधार पर चुनाव जीतने का प्रयास नहीं किया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि बंगाल का मतदाता अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति अत्याधिक सजग एवं परिपक्व है।

बंगाल के चुनाव में दीवार लेखन तथा कार्टून के माध्यम से संदेश देने का चलन है, छोटे छोटे झण्डे भी बड़े पैमाने पर लगाए जाते है। पार्टियों के पोस्टर भी बड़े पैमाने पर लगाए जाते है। वाममोर्चे का संगठन जबरदस्त है हर वार्ड में कार्यालय खुला हुआ है। वार्ड कमेटी बनी हुई है हर कार्यालय में 25-50 कार्यकर्ता पूरे दिन मौजूद दिखलाई पड़ते है। उम्मीदवार की अपनी योजना बंगाल में काम नहीं करती पूरी योजना संगठन बनाता है योजना के मुताबिक केवल उम्मीदवार को तयशुदा कार्यक्रमों में उपस्थित होना पड़ता है। कोई विधायक रहा हो सांसद या मंत्री सभी को स्थानीय कमेटी की योजना के मुताबिक चलना पड़ता हैं उम्मीदवार अपनी ओर से खर्च करेगा यह उम्मीद भी वाममोर्चे के प्रत्याशियों से नहीं की जाती।

बंगाल में चुनाव ममता बनर्जी तथा वाममोर्चे के संगठन के बीच लड़ा जा रहा है जिस तरह का संगठन वाममोर्चे का है उसकी तुलना में तृणमूल कांग्रेस – कांग्रेस – भाजपा या अन्य किसी पार्टी का कोई संगठन नहीं है। यह बात दीगर है कि इस समय सबसे ज्यादा भीड़ ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस के पास है। लेकिन सभी जानते है कि भीड़ की कोई विचारधार नहीं होती लेकिन वाममोर्चे के कार्यकर्ता विधारधारा से लैस है।

तृणमूल कांग्रेस का पूरा चुनाव ममता बनर्जी के इर्द गिर्द लड़ा जा रहा है जबकि ऐसा कोई नेता वाममोर्चे का नहीं जिसके नाम पर चुनाव लडा जा रहा हो या वोट मांगे जा रहे हो। वर्तमान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य या स्व. मुख्यमंत्री ज्योतिबाबु के नाम पर भी वोट नहीं मांगे जा रहे है। यह भारतीय राजनीति में बड़ी बात है। पूरी राजनीति व्यक्तिवादी है व्यक्ति परिवार और जाति के इर्द गिर्द पूरी राजनीति घूमती है लेकिन वाममोर्चे इस व्यक्तिवाद और परिवारवाद और नेता की जाति का इस्तेमाल करने से अपने को अलग रखा है यह न केवल प्रशंसनीय है तथा अनुकरणीय है। वाममोर्चे के पोस्टरो में न तो नेताओं के फोटो दिखते है और न ही उम्मीदवार के। चुनाव चिन्ह तथा उम्मीदवार का नाम ही पोस्टर में दिखलाई पड़ता है। जबकि तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के पोस्टर और फ्लेक्स नेताओं के फोटो से अटे पडे है।

वाममोर्चे की एक बड़ी उपलब्धि साम्प्रदायिक शक्तियों पर अंकुश लगाने में सफलता भी है। पूरे देश में जब इंदिरा जी की हत्या के बाद सिक्खों का कत्लेआम हुआ तथा मंदिर, मस्जिद विवाद के बाद देशभर में मुसलमानों पर हमले हुए उनकी सम्पत्ति नष्ट की गई। गुजरात में मुलसमानों का नरसंहार किया गया लेकिन पश्चिम बंगाल साम्प्रदायिकता की आग से अछूता रहा। जबकि यह वही बंगाल है जहां विभाजन के बाद सबसे ज्यादा कत्लेआम हुआ था। इतना अधिक की महात्मा गांधी, डॉ. राममनोहर लोहिया को आजादी का जश्‍न मनाने की बजाय अधिकतर समय बंगाल में भड़के साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में लगाना पड़ा था।

अन्ना के अनशन के बाद इस समय देष में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बना हुआ है। लेकिन बंगाल के चुनाव में भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार का मुद्दा सरकार के खिलाफ बनता है। 34 वर्ष लंबे शासनकाल में कोई बडा घोटाला विपक्ष उजागर करने में असफल रहा है। साथ ही ममता खुद ईमानदार नेता की छबि रखती है। चुनावी चर्चा यह है कि दिल्ली की सरकार का कोई भी एक घोटाले की तुलना पूरे 34 वर्षो के कार्यकाल में हुए कुल मिलाकर सभी छोटे मोटे घोटालो से नही की जा सकती। जमीनी स्तर पर तृणमूल कांग्रेस के नेताओं द्वारा पंचायतो और नगर पालिका के चुनाव जीते जाने के बाद किए गए भ्रष्टाचार की चर्चा चुनाव प्रचार के दौरान सुनाई पड़ रही है। उसी तरह सीपीएम के स्थानीय नेताओं द्वारा सम्पत्ति इकट्ठा करने के आरोप भी ममता समर्थक लगाते सुनाई पड़ रहे है।

पूरे चुनाव में तृणमूल कांग्रेस एक ही आरोप लगा रही कि वाममोर्चे की सरकार के चलते बंगाल पूरे देष की तुलना में पिछड गया। ममताजी कहती है कि उन्होंने रेलवे के 21 कारखाने अपने संक्षिप्त कार्यकाल में लगवा दिये हैे जबकि वाममोर्चे के 34 वर्ष के कार्यकाल में हजारो कारखाने बंद हो गए है। अर्थात, ममता औद्योगिकरण के माध्यम से बंगाल का विकास करने का दावा कर रही है। हांलाकि वह अच्छी तरह से जानती भी है कि एक नैनो के कारखानो ने वाममोर्चे की सरकार की हवा बिगाड दी तो जब पूरे बंगाल में कारखाने लगाए जायेंगे तब जमीन कहां से आएगी? जो भी हो ममताजी की बात मतदाताओं की जबान पर चढ़ गई दिखलाई पडती है तथा उसका चुनाव नतीजो पर असर पड़ना तय है। यह बात अलग है कि दिल्ली की यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों के चलते देषभर में परम्परागत कारखानो का खात्मा हुआ है। वैष्वीकरण, उदारीकरण तथा नीजिकरण के चलते बंगाल सहित देषभर में लाखो कारखाने बंद पडे है। उसी यूपीए के साथ मिलकर वे औद्योगिकरण के माध्यम से विकास करने तथा बेरोजगारो को रोजगार देने का राग अलाप रही है।

यदि मतदाता देखेने को तैयार हो तो वाममोर्चे के पास दिखाने के लिए 34 वर्षो के ठोस कार्यक्रम हैं उन्होंने 34 वर्षो में 45 लाख भूमिहीनो को 25 लाख हेक्टेयर जमीन बांटी है 20 लाख बेघर व्यक्तियों को मकान बनाकर दिए है। बंगाल के भूमि सुधार के कार्यक्रम देषभर के लिए आदर्ष बने हुए है। 2 लाख बेघर लोगो को 20 साल की लीज पर 1.00 रूपऐ में जमीन, बंगाल सरकार ने दी है। 2 रूपये किलो के दाम पर 2 करोड 64 लाख गरीबो को चावल तथा 5 रूपए किलो पर आटा तथा साढे तेरह रूपए किलो पर शक्कर उपलब्ध कराई जा रही है। 17 लाख छात्र छात्राऐ हा0से0 की परीक्षा दे रहे है 10 लाख महाविद्यालयो में पढ़ रहे है।

पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार ने अल्पसंख्यक वर्गों के लिए पढ़ाई का विशेष इंतजाम किया है रंगनाथ मिश्रा कमीशन की सिफारिश के अनुसार आर्थिक रूप से 2 करोड़ 20 लाख मुस्लिम आबादी में से 1 करोड 72 लाख लोगों को इस आरक्षण के तहत सुविधाओं की पात्रता मिली है।

प्रदेश में 14 लाख स्वसहायता समूह कार्य कर रहे हैं जिसकी सदस्य संख्या 1 करोड 40 लाख है। इन समूहों को साढे बारह हजार करोड़ 4 प्रतिशत की दर पर कर्जा दिया गया है। वाममोर्चा द्वारा जारी किए गए घोषणा पत्र के अनुसार यदि वे आठवी बार सरकार बनाने में सफल होते है तो वे गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों को जीवन स्तर को सुधरेंगे उन्हें रोजगार उपलब्ध करायेंगे। पश्चिम बंगाल का मानव विकास सूचकांक, क्रय शक्ति तथा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता के आधार पर देश में पहले नम्बर पर ले जायेंगे। उन्होंने यह भी घोषणा की है कि 10 हजार से कम प्रतिमाह आय वाले परिवारो को 2 रूपए किलो पर चावल उपलब्ध करायेगे तथा दाल, खाने का तेल, शक्कर, कपड़ा, बिस्कुट आदि की व्यवस्था करेंगे। 11 और 12 वी के छात्रो को शासकीय और निजी बसो में निशुल्क मात्रा करने की व्यवस्था की जायेगी। हर घर में बिजली पहुंचाने तथा हर खेत में पम्प सेट के लिए 4 हॅजार मेगावाट अतिरिक्त बिजली का उत्पादन किया जायेगा। अगले 5 वर्ष में तथा एक पृथक मिशन बनाकर साफ पीने का पानी की व्यवस्था हर परिवार के लिए की जायेगी साथ-साथ पंचायत स्तर पर 10 बिस्तरों का अस्पताल बनाया जायेगा। वाममोर्चे के नेता घुमघुमकर मतदाताओं के बीच 34 साल के शासनकाल की गलतियां भी स्वीकार कर रहे है तथा उन्हें सुधारने का दावा भी। कृषि, उद्योग, शांति लोकतंत्र और प्रगति के लिए वाममोर्चा आठवी बार सरकार बनाने के लिए वोट मांग रहा है। दूसरी ओर ममता बनर्जी वाममोर्चे का कुशासन समाप्त करने के लिए मां, माटी और मानुष के नारे पर वोट मांग रही है।

वाममोर्चे द्वारा की गई गलतियो को मतदाता माफ करने को तैयार होता है या नहीं वाममोर्चे को ममता की अपील पर उखाड़ फेंकने का काम करता है। यह तो चुनाव नतीजा बतालाएगा लेकिन यह तय है कि चुनाव एकतरफा नहीं है। चुनाव प्रचार के दौरान वाममोर्चे के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा हुआ दिखलाई नहीं पडता। हां, मीडिया पूरी तरह से ममता का साथ दे रहा है। जो भी हो अब तक वाममोर्चे ने पश्चिम बंगाल के चुनाव को तमाम बीमारियों से बचाकर रखा है। उसके लिए साधुवाद दिया जाना चाहिए। आमतौर पर देश में मतदाता नकारात्मक वोट देने के आदी है। लाने के लिए नहीं हटाने के लिए वोट देते है। पहली बार पश्चिम बंगाल के मतदाताओं को विचार के तौर पर न सही व्यक्ति के तौर पर ममता बनर्जी के अन्दर सशक्त विकल्प दिखलाई पड़ा है। फिर 34 साल राज करने के लिए काफी होते है। हर मतदाता एक ही बात कहता है कि परिवर्तन हो भी जायेगा तो दीदी को पश्चिम बंगाल में राज चलाना आसान नहीं होगा।

4 COMMENTS

  1. डॉ सुनीलम को प्रस्तुत आलेख में बंगाल सम्बन्धी तात्कालिक -समाजिक,राजनैतिक,और आर्थिक विन्दुओं को संयोजित कर ,प्रवक्ता .कॉम पर बेहतरीन प्रस्तुती के लिए साधुवाद!
    चूँकि बंगाल ,केरल,त्रिपुरा का चुनाव विचारधारा के आधार पर लड़ा जाता है अतएव शेष भारत की पूंजीवादी-घृणित प्रवृतियां अभी तक वहां नहीं पहुँचीं,किन्तु यदि जैसा की इस आलेख की अंतिम पंक्ति में लिखा गया है ,वैसा हुआ तो निश्चय ही बंगाल में फिर वही खूनी मंजर आयाद होगा जो सिद्धार्थ शंकर रे ने १९७१-७२ में दिखाया था.

  2. ॐ कम से कम आप जैसे विधायक को लिखना तो आता है चाहे झूठा ही सही वर्ना वहुत से विधायक तो ऐसे है उस देश मे जिनको दस्तकत करना तक नहीं आता , एवं अंगूठा तो कोइ पकड़कर लगवा देता है|ॐरेखा सिंह usa

  3. डॉ. सुनीलम्, पूर्व विधायक जी।
    जिस बंगालके लिए स्वतंत्रता प्राप्ति के समय अनेक महानुभावों ने बंगालके देशभक्त, दृष्टा, और महान वैज्ञानिक जिनके नाम लेने में पूरा पृष्ठ भी कम पड सकता है, ऐसे लोगोंको ध्यान में रख कर, भविष्य वाणी की थी, कि देखिए अब बंगाल भारत में सभी प्रांतों से कैसे आगे निकल जाएगा।
    गुजरात को जिसकी ईर्षा होती थी, वह बनियों की बडी संख्या वाला गुजरात भी आपके आगे निकल गया!
    तो, महाराज उस भविष्य वाणी को जुठलाने वाले बंगाल के कंगाल शासन को आप बडा पारदर्शी असत्य और चतुराई से लिखा शीर्षक लेकर, किस कारण यह ढपोसला लेख लिखने के लिए सिद्ध हुए?

  4. ३४ साल के निरंतर शासन के पश्चात अन्य राज्यों की तुलना में बंगाल की स्थिति क्या है, और जो वो पिछले ३४ साल में नहीं कर सके अगले ५ वर्षों में क्या कर लेंगे

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