नागरिकता कानून में संशोधन को लेकर हायतौबा…

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वीरेन्द्र सिंह परिहार
साल 2014 के संसदीय चुनाव के दौरान भाजपा ने 1955 के भारतीय नागरिकता कानून में संशोधन का वायदा किया था। बीते असम विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भी नागरिकता कानून में संशोधन की बात की थी। ऐसा माना जाता है कि संसद के शीत-सत्र में इसे पारित कराने की पूरी कोशिश मोदी सरकार द्वारा की जाएगी। इस संशोधन की महत्वपूर्ण पहलू यह है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी मुल्कों के धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता देने का प्रावधान। अगर इस संशोधन कानून को संसद की स्वीकृति मिल जाती है तो पड़ोस के कुछ मुल्कों से आकर पिछले से छह साल से भारत में रहने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन और बौद्ध समुदाय के लोग अधिकार के साथ भारतीय नागरिक बन सकेंगे। (ये सभी व्यापक अर्थों में हिंदू ही माने जाते हैं।) इतना ही नहीं भविष्य में भी पड़ोसी मुल्कों से आनेवाले ऐसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आसानी से भारतीय नागरिकता प्राप्त हो सकेगी।
उक्त प्रस्तावित संशोधित नागरिक कानून में मुसलमान क्यों नहीं हैं? इसे लेकर मोदी सरकार पर कुछ न्यायविदों, विपक्षी नेताओं और कुल मिलाकर तथाकथित धर्मनिरेपक्षतावादियों ने मोदी सरकार पर अंगुली उठाना शुरू कर दिया है। इनका कहना है कि इस तरह को संशोधन हमारे संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध तो है ही, हमारे विचार-दर्शन से भी मेल नहीं खाता। आपत्ति तो यहां तक की जा रही है कि जैसे इजरायल की तर्ज पर सर्जिकल स्ट्राइक की गई, वैसे ही यह कानून भी काफी हद तक इजरायल के नक्शे-कदम पर है। उल्लेखनीय है कि इजरायल पूरी दुनिया के यहूदियों को अपनी धरती पर सिर्फ शरण देने को ही नहीं, बल्कि स्थायी रूप से वहां आकर रहने और बसने को आमंत्रित करता रहता है। कहने का आशय यह कि पूरी दुनिया के यहूदियों के लिए इजरायल के दरवाजे सदैव खुले रहते हैं। इसके तहत दुनिया के कई हिस्सों से आकर यहूदी वहां बसे भी हैं। आलोचकों का कहना है कि इस तरह से बांग्लादेशी मुसलमानों या रोहिग्या मुसलमानों को भारत की नागरिकता पाने का कोई अधिकार नहीं रहेगा। इस तरह से भारत जब संवैधानिक तौर से धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश है, हिंदू राष्ट्र नहीं है। ऐसे में धार्मिक पृष्ठभूमि के आधार पर किसी को भारतीय नागरिकता का अधिकार कैसे दिया जा सकता है? कुल मिलाकर ऐसा बताने की कोशिश की जा रही है कि इस तरह से भारत अपने धर्मनिरपेक्षता के मार्ग से भटककर इजरायल की धार्मिक पृष्ठभूमि का मार्ग अनुसरण करने जा रहा है।
जबकि हकीकत में यह एक आधा-अधूरा सच है, जो झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है। भारतीय नागरिकता में उपरोक्त संशोधन किए जाने की मूल भावना यह है कि यदि हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन प्रताड़ित किए जाते हैं तो समुद्र में डूबने के सिवाय भारत के अलावा अन्यत्र कोई शरण-स्थली नहीं है। रहा सवाल मुसलमानों और ईसाईयों का तो दुनिया में बहुत सारे राष्ट्र जरूरत पड़ने पर मुसलमानों और ईसाईयों को संरक्षण देने की स्थिति में हैं। लेकिन यदि हिंदू कहीं प्रताड़ित हुआ तो भारत के सिवा उसे और कहीं भी ठौर नहीं है। उसको कुछ इस रूप से भी देखा जाना चाहिए कि नागरिकता कानून में उपरोक्त संशोधन पीड़ित और सताए हुए लोगों के लिए किया जा रहा है। यह बताने की जरूरत नहीं कि पाकिस्तान और एक हद तक अफगानिस्तान और बांग्लादेश में भी हिंदू किसी तरह से प्रताड़ित और पीड़ित किए जाते हैं। इन देशों में कमोबेश यह द्वितीय श्रेणी के नागरिक हैं, जो पूरी तरह से अपने धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करने के लिए भी स्वतंत्र नहीं हैं। आएदिन उनके जान-माल पर खतरा तो मड़राता ही रहता है। उनके बहू-बेटियों के अपहरण की खबरें आएदिन सुनायी पड़ती रहती हैं। यह भी सच है कि ये देश कभी अखण्ड भारत के हिस्से हुआ करते थे। ऐसी स्थिति में भारत सरकार का यह महती दायित्व बनता है कि ऐसे सताए हिंदुओं को पूरे नागरिक अधिकारों के साथ भारत में रहने का हक हो। यदि ऐसे किसी कदम को धार्मिक भेदभाव माना जाता है तो 1947 में देश के विभाजन के वक्त जो लाखों हिंदू लुट-पिटकर पाकिस्तान से भारत आए, तो फिर ऐसे लोगों के अनुसार ऐसे शरणार्थियों को भी भारतीय नागरिकता नहीं मिलनी चाहिए थी, क्योंकि यह धार्मिक भेदभाव पर आधारित थी।
इस तरह से धार्मिक भेदभाव का राग अलापने वालों को यह बात ध्यान में नहीं आती कि सरकार का यह कदम धार्मिक भेदभाव पर आधारित न होकर मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित है। कहने का तात्पर्य यह कि ऐसा प्रस्तावित कानून उनके लिए संशोधित किया जा रहा है जो बतौर शरणार्थी देश में आए हैं। निस्संदेह यदि हिंदुओं के अलावा कोई मुसलमान या ईसाई भी सच्चे अर्थों में अत्याचार और अन्याय के चलते देश में आता है, तो उसे भी यहां रहने का हक है। लेकिन प्रख्यात बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन जब भारत में शरण लेती हैं, तो इन्हीं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष तत्वों को यह भी बर्दाश्त नहीं हुआ था। ऐसे लोग शायद यह चाहते हैं कि भारत सरकार को कानून में ऐसा संशाधन करना चाहिए कि घुसपैठियों को भी भारतीय नागरिकता प्राप्त होने का हक होना चाहिए। तभी तो ऐसे तत्वों के संरक्षण के चलते ही पाॅच करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए देश में आकर रह रहे हैं और बहुत बड़ी संख्या में नागरिकता भी प्राप्त कर चुके हैं। इस व्यापक घुसपैठ को देश का सर्वोच्च न्यायालय देश के विरुद्ध युद्ध जैसी स्थिति बता चुका है, जिसके चलते देश की एकता, अखण्डता और सुरक्षा तक को खतरा उत्पन्न हो गया है। इसी घुसपैठ के चलते आसाम, बंगाल और बिहार के कई सीमावर्ती जिलों में हिंदू अल्पमत में आ गया है, जिसके चलते आएदिन उन पर तरह-तरह के अत्याचार होते रहते हैं। ऐसे लोगों को यह पता होगा कि आई.एस. से प्रताड़ित लाखों मुसलमानों को शरण देने वाले जर्मनी के नागरिकों के साथ मुस्लिम शरणार्थी हिंसात्मक वारदातों के चलते जर्मनी के लिए कैसी समस्या बने? फ्रांस में जहां मुस्लिम आबादी अच्छी-खासी संख्या में है, वह कैसे आतंकवाद से जूझ रहा है? यह भी उल्लेखनीय है कि देश में मुस्लिम आबादी जहां 5.2 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, वहीं हिंदू आबादी मात्र 2.1 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। शायद ये धर्मनिरपेक्ष कहने वाले तत्व यही चाहते हैं कि इस तरह से देश का राष्ट्रीय समाज हिंदू एक-न-एक दिन अल्पमत में आ जाए। दुर्भाग्य से यदि ऐसा हुआ तो यही तत्व जो धार्मिक भेदभाव को लेकर चिल्ल-पो मचा रहे हैं, उस स्थिति में फिर किन्हीं अधिकारों की बात करने लायक नहीं रह जाएंगे। फ्रेन्च दार्शनिक आगस्टस कोने ने 19वीं शताब्दी में ही कह दिया था कि जातियों की जनसंख्या राष्ट्रों की नियति होती है। ऐसे तत्व कश्मीर का ‘आॅखों देखी’ भी देखकर कुछ समझने को तैयार नहीं हैं। जहां तक मुसलमानों का सवाल है, उन्होंने अपने लिए अलग राष्ट्र पाकिस्तान का 1947 में निर्माण करा लिया था। फिर भी देश में वह पूरी बराबरी के साथ ही नहीं, निजी कानूनों के मामले में विशेषाधिकारों के साथ रह रहे हैं।
इजरायल के बारे में कुछ ऐसा प्रचारित किया जा रहा है, जैसे वह एक कट्टरवादी एवं धर्मांध देश हो। जबकि असलियत यह है कि विश्व में कई जगह यहूदियों पर भीषण एवं भयावह अत्याचार हुए, तब कहीं यहूदियों के लिए इजरायल राष्ट्र बनाया गया, जो चारों ओर मुस्लिम राष्ट्रों से घिरा है। ऐसे तत्व शायद यह चाहते हैं कि इजरायल अपनी सीमाएॅ सभी के लिए खोल दे ताकि दुनिया के नक्शे से उसका अस्तित्व ही मिट जाए। उन्हें शायद यह पता नहीं कि इजरायल बतौर देश पाने के लिए यहूदियों ने हजारों-हजार वर्ष तक दलदलों और जंगलों में रहकर सतत संघर्ष किया। यह वही इजरायल है जिसकी जनसंख्या अस्सी लाख मात्र है, पर उसे रिकार्ड नोबेल प्राइज मिल चके हैं। वह दुनिया का इकलौता देश है जो एंटी बैलास्टिक मिसाइल सिस्टम से लैस है, जिसके चलते मिसाइलों का कोई भी आक्रमण रास्ते में ही दम तोड़ देगा। वह अकेला ऐसा राष्ट्र है, कि आइ.एस.आई.एस. सीरिया में उसकी सीमा पर मौजूद होते हुए भी उसकी ओर आॅख उठाकर भी देखने की हिम्मत नहीं कर सकता। वह ऐसा देश है जहां के नागरिकों को निशाना बनाने वाले आतंकी दुनिया के किसी भी हिस्से में सुरक्षित नहीं रहते। बड़ी बात यह कि इजरायल भारत का शुभचिंतक एवं मित्र देश है, जिसने भारत को ‘अवाक्स’ जैसी मिसाइल प्रणाली दी है, जो चीन के पास भी नहीं है और जिसे चीन द्वारा मांगे जाने पर उसने नहीं दिया। इसलिए निस्संदेह सर्जिकल स्ट्राइक के मामले में ही नहीं बहुत सारे मामलों में हमारे देश के लिए इजरायल एक रोल-माॅडल हो सकता है। विडम्बना यह कि ऐसे लोगों को अरब देशों में व्याप्त कट्टरता और धर्मांधता से कोई समस्या नहीं है।
इसलिए नागरिकता कानून में सुधार सर्वथा उचित ही नहीं, मोदी सरकार का कर्तव्य भी है। इसके साथ जो गलत इतिहास अभी तक हमें पढ़ाया जाता रहा है उसमें भी सुधार कर सही इतिहास पढ़ाया जाना चाहिए। इतना ही नहीं निजी कानूनों के चलते जो भेदभाव की स्थिति है, उसे भी दूर किया जाना चाहिए। तभी लंदन टाइम्स की 22 मई 2014 को मोदी सरकार के लिए लिखी उपरोक्त बात पूरी तरह सार्थक हो सकेगी कि भारत अब सच्चे अर्थों में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ है। रहा सवाल हायतौबा मचाने वालों का तो ‘विधवा-विलाप’ से ज्यादा मायने नहीं रखता।

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