अमेरिका में नस्लीय हिंसा का विस्तार

प्रमोद भार्गव

प्रवासी मुक्त अमेरिका के मुद्दे पर चुनाव जीते डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से अवसरों की भूमि माने जाने वाले अमेरिका में नस्लीय भेद हिंसा का रूप लेने लगा है। इस हिंसा के पहले शिकार दो भारतीय युवा इंजीनियर हुए। फिर साउथ कैरोलिना में भारतीय कारोबारी हर्निश पटेल की हत्या कर दी गई। इसके बाद एक महिला पर नस्लीए टिप्पणी की गई और अब सिख समुदाय के व्यापारी दीप राय पर ‘अपने देश लौट जाओ‘ की धमकी देते हुए गोली दाग दी गई। दस दिन के भीतर घटी इन घटनाओं से तय है कि अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। बावजूद चिंता इस बात पर है कि अमेरिकी समाज और प्रशासन इन घटनाओं पर लगभग मौन है। ऐसा इसलिए है क्योंकि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों में अनिश्चितता और अस्थिरता हर स्तर पर दिखाई दे रही है। इसके चलते संभव है कि अमेरिका से भारतीय मूल के लोग बड़ी संख्या में वापस लौटने लग जाएं ? दूसरे अमेरिका में नौकरी के लिए जो प्रतिभाएं जाने को तत्पर हैं, वे इस रंगभेदी हिंसा के चलते जाएं ही नहीं ? इस स्थिति का निर्माण भारत में बेरोजगारी का बड़ा सबब बन सकता है।

ट्रंप ने भारतीय इंजीनियर श्रीनिवास कुचिवोतला की हत्या अपनी खामोशी तोड़ते हुए कहा था कि उनका देश योग्य पेशेवरों का स्वागत करता रहेगा। लेकिन इस भावना के विपरीत ट्रंप प्रशासन ने प्रीमियम एच-1 बीजा जारी करने पर अस्थाई रोग लगाई हुई है। मसलन ज्यादा फीस देकर भी यह बीजा 15 दिन के भीतर प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इस निर्णय का भारतीय आईटी कंपनियों पर बुरा असर दिखाई देने लगा है। हालांकि इस मुद्दे से रूबरू होने के बाद भारत सरकार ने विदेश और वाणिज्य सचिवों को अमेरिकी प्रशासन से बातचीत के लिए भेजा भी लेकिन आश्वासन के अलावा कोई हल नहीं निकला है। इसी तरह भारतीयों की सुरक्षा के संबंध में राष्ट्रपति कार्यालय से अब तक कोई संतोषजनक बयान नहीं आया है। इस कारण भारत ही नहीं वैश्विक समाज और सरकारें चिंतित है। इससे लगता है कि अमेरिका इस नस्लीय हिंसा से लगभग बेपरवाह है।

9/11 के हमलों के बाद अमेरिका में नस्लीय हिंसा आक्रामक हुई थी, जिसमें कई सिख और हिंदू मार दिए गए थे। तब अमेरिका ने यह धारणा स्थापित करने की कोशिश की थी कि हमलावरों ने उन्हें भूलवश अरब नागरिक मान लिया था। यही बात श्रीनिवास की हत्या के बाद दोहराई गई। किंतु अब स्पष्ट हो रहा है कि श्वेत वर्चस्ववादी भारतीय और एशियाई मूल के लोगों को जानबूझकर निशाना बना रहे हैं। तय है, इस हिंसा पर तत्काल अंकुश नहीं लगाया गया तो वहां नस्लीय और सामुदायिक घृणा और बढ़ेगी? क्योंकि अपने चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप कटु और कर्कश प्रचार करके  उन्मादी माहौल पहले ही रच चुके हैं। अब तो इसका असर दिखाई दे रहा है। नतीजतन समूचे अमेरिका में धार्मिक, नस्लीय और जातीय विभाजन की एक रेखा खिंच गई है। दरअसल ट्रंप ने चुनाव के दौरान अमेरिकी युवाओं और अभिभावकों से राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में जो वादे किए थे, उन पर पदग्रहण करने के साथ ही क्रियान्वयन शुरू कर दिया। इस वजह से भारतीय मूल के लोगों पर अमेरिकियों ने नफरत और हिंसा का कहर बरपाना शुरू कर दिया। असल में ट्रंप के वादों में एक यह भी था कि वे दूसरे देशों से आकर अमेरिका में काम करने वाले लोगों पर शिकंजा कसेगें। जिससे अमेरिका में उन्हें रोजगार मिलना आसान नहीं रह जाएगा। इसी के मद्देनजर बीजा नियमों को कड़ा किया गया। कुछ मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मैक्सिको और अमेरिकी सीमा पर दीवार खड़ी करने की बात कही गई। इससे अमेरिकी युवाओं की धारणा में इस बात की पुष्टि हुई है कि उनके रोजगार के अधिकार विदेशियों के कारण छिन रहे हैं। गोया ये लोग जितनी जल्दी अमेरिका से बाहर होंगे, उतनी जल्दी उनके लिए रोजगार के विकल्प तैयार होंगे। इन वजहों से अमेरिका की वैश्विक छवि नकारात्मक बन रही है और विश्वग्राम अर्थात भूमंडलीकरण की जो अवधरणा अमेरिका से दुनिया में फैली थी, वह तीन दशक के भीतर ही खंडित होने लगी है।

हालांकि अमेरिका में अश्वेतों और एशियाई लोगों के खिलाफ एक किस्म का दुराग्रह हमेशा रहा है। नतीजतन नस्लीय हमले भी होते रहे हैं। ये हमले बराक ओबामा के दूसरी बार राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से ही गैर अमेरिकियों पर जारी हैं। ओबामा जब अमेरिका के दूसरी बार राष्ट्रपति चुने गये थे तब यह बात उजागर हुई थी कि अमेरिका में नस्लीयता बढ़ रही है। क्योंकि 39 फीसदी गैर अमेरिकियों के वोट ओबामा को मिले थे। इनमें अफ्रीकी और एशियाई मुल्कों के लोग थे। मूल अमेरिकियों के केवल 20 फीसदी वोट ही ओबामा को मिले थे। यह इस बात की तसदीक है कि अमेरिका में नस्लीयता की खाई लगातार चौड़ी हो रही है और प्रशासन उसे नियंत्रित नही कर पा रहा है।

अमेरिका में शुरू हुए इन हमलों से जाहिर हो रहा है कि यहां अश्वेतों के लिए अब नही रहने लायक पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है। क्योंकि इन हमलों के बाद जिन तथ्यों का खुलासा हुआ वे हैरानी में डालने वाले हैं। एक अश्वेत बाराक ओबामा को राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर बिठाने वाले अमेरिका में बाकायदा श्वेतों को सर्वोच्च ठहराने का सांगठनिक आंदोलन चल रहा है। लिहाजा कंसास में इंजीनियरों पर हुआ हमला हो अथवा हर्निश पटेल और दीप राय पर हुए हमले हों, ये किन्हीं बौराए लोगों की विवेकहीन परिणाम की हरकत न होकर  नितांत सोची-समझी साजिशें हैं। दरअसल 9/11 के आतंकी हमले के बाद भारतीयों पर बड़े हमले की शुरूआत विकोन्सिस गुरुद्वारे पर हुए हमले से हुई थी। इसका हमलावर वेड माइकल पेज नामक सख्स था, यह कोई मामूली सिरफिरा व्यक्ति नहीं होकर, अमेरिकी सेना के मनोविज्ञान अभियान का विशेषज्ञ था और नस्लीय आधार पर गोरों को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले नव-नाजी गुट ‘एंड एपैथी’ से जुड़ा था। इसी सोच का श्रीनिवास का हमलावर नौसैनिक एडम पुरिनटोन बताया गया है। यह आंदोलन इसलिए भी परवान चढ़ रहा है, क्योंकि इसे दक्षिणपंथी बंदूक लाॅबी से भी समर्थन मिल रहा है। नतीजतन अमेरिका में उग्रवादी गोरों के निशाने पर हिंदू, सिख और मुस्लिम आ रहे हैं। इस तरह विदेशी लोगों को डरा धमकाकर  या फिर उन्हें मौत के घाट उतारकर अपने देश वापस चले जाने का माहौल बड़े पैमाने पर रचे जाने की तैयारी शुरू हो गई है। बावजूद राष्ट्रपति ट्रंप और स्थानीय प्रशासन हमलावरों के समक्ष कमजोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं। यह स्थिति अमेरिकी लोकतंत्र और मानवाधिकारों की पैरवी करने वाले देशों के लिए कतई उचित नहीं है।

 

 

आज लगभग पूरी दुनिया में बाजारवादी सोच को बढ़ावा मिल रहा है। इस विस्तारवादी सोच की आड़ में राजनीतिक चेतना, समावेशी उपाय और सांस्कृतिक बहुलता पिछड़ते दिखाई दे रहे हैं। परिणामस्वरूप सामाजिक सरोकार और प्रगतिशील चेतनाएं हाशिए पर धकेली जा रही हैं। उपेक्षापूर्ण कार्यशैली की यही परिणति प्रतिरोधी शंखनाद का ऐसा चेहरा है, जो मनुष्यताद्रोही है। गोया, बाजारवादी संस्कृति की यह क्रूरता और कुरूपता सांस्कृतिक बहुलतावाद को भी खतरा बन गई है। अमेरिका और अन्य यूरोपीय मूल के लोगों में ही नहीं, एशियाई और दक्षिण व मध्य एशियाई मूल के लोगों में भी प्रतिरोध की यही धारणा पनप रही है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन में हो रहे आतंकी हमलों की एक वजह सांस्कृतिक एकरूपता का विस्तार भी है। इन धरणाओं पर अंकुश कैसे लगे इस परिप्रेक्ष्य में संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी संस्थाओं को सोचने की जरूरत है।

 

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