दरिंदों की फांसी रुकवाने की कोशिश

प्रमोद भार्गव

निर्भया दुष्कर्म से जुड़े दरिंदों की फांसी 22 जनवरी को दी जानी तो तय हो गई है, लेकिन दो आरोपियों ने फांसी से बचने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में दया याचिका दाखिल की है। इनकी पुनर्विचार याचिकाएं पहले ही खारिज हो चुकी हैं। अब न्यायालय में यही अंतिम कानूनी विकल्प है। इसके बाद राष्ट्रपति के पास भी दया याचिका प्रस्तुत की जा सकती है। फिलहाल मुजरिम मुकेश, अक्षय, पवन और विनय को फांसी पर लटकाने का फरमान जारी हो चुका है। किंतु विनय की ओर से वकील एपी सिंह और मुकेश की तरफ से वृंदा ग्रोवर ने दया याचिकाएं दाखिल की हैं। इन्होंने कम उम्र, आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक परिस्थितियां एवं परिवार की जिम्मेदारी का हवाला देते हुए फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने की मांग की है। हालांकि वर्तमान में दुष्कर्म के दरिंदों को लेकर देश में जो माहौल है और संसद में महिला सांसदों ने जो आक्रोश जताया है, उस परिप्रेक्ष्य में लगता है कि दोषियों को कोई रियायत मिलेगी? इसके साथ ही हैदराबाद की पशु चिकित्सक के साथ हुए दुष्कर्म की घटना को लेकर राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति सजा में देरी को लेकर चिंता जता चुके हैं। अलबत्ता यह सही है कि भारत की न्याय व्यवस्था अंतिम समय तक मृत्युदंड पाए दोषी को अपने बचाव का विकल्प देती है। लेकिन इसका अर्थ कतई नहीं है कि मृत्युदंड को लंबे समय तक टाला जा सके।कानून तो सख्त बन गया लेकिन परिणाममूलक नहीं निकला। जबकि बलात्कार और फिर हत्या के मामलों को जल्द निपटाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर त्वरित न्यायालय भी अस्तित्व में आ गए हैं। कई न्यायालयों ने ऐसे जघन्य अपराधों में निर्णय दो से चार माह के भीतर सुना भी दिए। लेकिन अपील के प्रावधानों के चलते, उच्च व उच्चतम न्यायालयों और फिर राज्यपाल व राष्ट्रपति के यहां दया याचिका दाखिल करने की सुविधा के कारण इन मामलों का वही हश्र हुआ, जैसा अमूमन सामान्य प्रकरण में होता है। शायद इसी परिप्रेक्ष्य में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा था कि ‘जो व्यक्ति जघन्य दुष्कृत्य कर सकता है, उसका उम्र से क्या लेना-देना? फास्ट ट्रैक के बाद भी अपील पर अपील की इतनी लंबी प्रक्रिया है कि मामले के निराकरण की उम्मीद समाप्त जैसी हो जाती है। क्या ऐसे लोगों पर दया करनी चाहिए? अदालत से सजा मिलने के बाद राज्य सरकार, केंद्रीय गृह मंत्रालय और फिर राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने की सुविधा क्यों है?‘इसके बाद हैदराबाद की कथित मुठभेड़ के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को कहना पड़ा था कि ‘पाॅक्सो कानून के तहत दुष्कर्म के दोषियों को दया याचिका दाखिल करने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। संसद को दया याचिका के प्रावधान पर पुनर्विचार की जरूरत है।‘ लिहाजा संसद का दायित्व बनता है कि वह इस प्रश्न पर विधेयक लाए और विचार-विमर्श के बाद दया याचिका की सुविधा का रोड़ा खत्म करे। इस सुविधा का सबसे ज्यादा लाभ फांसी की सजा पाए आतंकवादी और बलात्कारी उठा रहे हैं। याद रहे देश में पहली बार 29 जुलाई 2015 को रात्रि 3.20 बजे मुंबई बम धमाकों के दोषी याकूब मेमन की फांसी पर रोक लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायलय के दरवाजे खोले गए थे।दरअसल जघन्य से जघन्यतम अपराधों में त्वरित न्याय की तो जरूरत है ही, दया याचिका पर जल्द से जल्द निर्णय लेने की जरूरत भी है। शीर्ष न्यायलय ने यह तो कहा है कि दया याचिका पर तुरंत फैसला हो लेकिन राष्ट्रपति व राज्यपाल के लिए क्या समय सीमा होनी चाहिए,यह सुनिश्चित नहीं किया। क्योंकि अकसर राष्ट्रपति दया याचिकाओं पर निर्णय को या तो टालते हैं या फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलते हैं। हालांकि महामहिम प्रणब मुखर्जी इस दृष्टि से अपवाद रहे हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद अफजल गुरू और अजमल कसाब की दया याचिकाएं उन्होंने ही खारिज करते हुए इन्हें फांसी के फंदे पर लटकाने का रास्ता साफ किया था। जबकि पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभादेवी सिंह पाटिल ने या तो दया याचिकाएं टालीं या मौत की सजा को उम्रकैद में बदला। दरअसल दया याचिका के चलते विलंब होता है तो मौत की प्रतीक्षा कर रहे कैदी मानसिक रोगी हो सकते हैं। इस आधार पर मानसिक रूप से विक्षिप्त कैदी को फांसी की सजा देना उचित नहीं माना जाता।हालांकि किसी भी देश के उदारवादी लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था आंख के बदले आंख या हाथ के बदले हाथ जैसी प्रतिशोधात्मक मानसिकता से नहीं चलाई जा सकती। लेकिन जिन देशों में मृत्युदंड का प्रावधान है, वहां यह मुद्दा हमेशा ही विवादित रहता है कि आखिर मृत्युदंड सुनने का तार्किक आधार क्या हो? इसीलिए भारतीय न्याय व्यवस्था में लचीला रुख अपनाते हुए गंभीर अपराधों में उम्रकैद एक नियम और मृत्युदंड अपवाद है। इसीलिए देश की शीर्ष अदालतें इस सिद्धांत को महत्व देती हैं कि अपराध की स्थिति किस मानसिक परिस्थितियों में उत्पन्न हुई? अपराधी की सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक स्थितियों व मजबूरियों का भी ख्याल रखा जाता है। क्योंकि एक सामान्य नागरिक सामाजिक संबंधों की जिम्मेदारियों से भी जुड़ा होता है। ऐसे में जब वह अपनी बहन, बेटी या पत्नी को बलात्कार जैसे दुष्कर्म का शिकार होते देखता है तो आवेश में हत्या तक कर डालता है। भूख, गरीबी और कर्ज की असहाय पीड़ा भोग रहे व्यक्ति भी अपने परिजनों को इस जलालत की जिदंगी से मुक्ति का उपाय हत्या में तलाशते हैं। जाहिर है, ऐसी स्थिति में मौत की सजा के बजाय सुधार और पुनर्वास के अवसर मिलने चाहिए। क्योंकि जटिल होते जा रहे समय में दंड के प्रावधानों को तात्कालिक परिस्थिति और दोषी की मनोवैज्ञानिक स्थिति को आंकना भी जरूरी है। परंतु बलात्कार और फिर महिला की हत्या भिन्न प्रकृति के अपराध हैं।देश में न्याय को अपराध के विभिन्न धरातलों की कसौटियों पर कसना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हमारे यहां पुलिस व्यक्ति की सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक व आर्थिक हैसियत के हिसाब से भी दोषी ठहराने में भेद बरतती है। इसीलिए देश में सामाजिक आधार पर विश्लेषण करें तो उच्च वर्ग की तुलना में निचली जातियों से जुड़े लोगों को ज्यादा फांसी दी गई हैं। यही स्थिति अमेरिका में है। वहां श्वेतों की अपेक्षा अश्वेतों को ज्यादा फांसी दी गई है। इस समय पश्चिमी एशियायी देशों में भी फांसी की सजा में तेजी आई है। इनमें ईरान, इराक, सउदी अरब और यमन ऐसे देश हैं, जहां सबसे ज्यादा मृत्युदंड दिए जा रहे हैं।दया याचिका पर सुनवाई के लिए यह मांग हमारे यहां उठ रही है कि इसकी सुनवाई का अधिकार अकेले राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में न हो। इसके लिए बहुसदस्यीय जूरी का गठन हो। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश, उप राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता और कुछ अन्य विशेषाधिकार संपन्न लोग भी शामिल हों। यदि इस जूरी में भी सहमति न बने तो इसे दोबारा शीर्ष अदालत के पास प्रेसिडेंशियल रेंफरेंस के लिए भेज देना चाहिए। इससे गलती की गुंजाइश न्यूनतम हो सकती है। इसके उलट एक विचार यह भी है कि राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने का प्रावधान खत्म करके सुप्रीम्र कोर्ट के फैसले को ही अंतिम फैसला माना जाए। यह विचार ज्यादा तार्किक है क्योंकि न्यायालय अपराध की प्रकृति, अपराधी की प्रवृति और परिस्थिति के विश्लेषण के तर्कों से सीधे रूबरू होती है। फरियादी का पक्ष भी अदालत के समक्ष रखा जाता है। जबकि राष्ट्रपति के पास दया याचिका पर विचार का एकांगी पहलू होता है। जाहिर है कि न्यायालय के पास अपराध और उससे जुड़े दंड को देखने के कहीं ज्यादा साक्ष्यजन्य पहलू होते हैं।

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