अशोक “प्रवृद्ध”
पुरातन भारतीय साहित्य में नाग शब्द का सर्प और हस्ती दोनों अर्थों में बहुतायत से प्रयोग हुआ है । नग पर्वत को कहा जाता है । लेकिन वेद में नाग या नग शब्द का उल्लेख नहीं मिलता । ब्राह्मण ग्रन्थों में भी नाग शब्द का प्रयोग एकाध स्थान पर ही उपलब्ध है । उपनिषदों में नाग को पांच उपप्राणों में से एक कहा गया है । वैदिक आधार पर नाग शब्द का अर्थ लगाने के लिए नाग शब्द को न + अघ, अर्थात् जिसमें अघ, पाप नहीं है, अथवा जो पापों का वर्जन करता है, के रूप में देखा जाता है । घ घनत्व अर्थात घनता को कहते हैं । जहां घनता नहीं है, विरलता है, वह अघ है । विकास का दूसरा स्तर न + अघ हो सकता है, जहां अघ का किसी प्रकार से वर्जन कर दिया गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि विकास का तीसरा स्तर गण या घण है जिससे गणेश या घणेश की कल्पना की गई है । गणेश को नाग या हस्ती का शिर प्रदान किया गया है । हस्ती की विशेषता यह है कि उसके भ्रूमध्य से शुण्ड निकल कर नीचे तक फैलती है । यह घ प्राप्त करने का एक उपाय हो सकता है । ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में घनः वृत्राणां ( ऋग्वेद 8.96.18), घनं वृत्राणां ( ऋग्वेद 3.49.1) आदि कथनों के माध्यम से घन शब्द का प्रयोग वृत्रों के हनने के लिए किया गया है । संस्कृत साहित्य में हाथी का घन पर्याय विरल ही मिलता है। घन धातु दीप्ति अर्थ में है। बृहदारण्यक उपनिषद 24. 12 व 43.13 में इस ब्रह्माण्ड को प्रज्ञानघन, विज्ञानघन, रसघन कहा गया है । कुछ विद्वानों के अनुसार पापकर्म के फल के नियन्ता के रूप में नाग शब्द की कल्पना की गई है । नल की कथा में यह उल्लेख मिलता है कि नल ने कर्कोटक नाग की अग्नि से रक्षा की, इसके प्रत्युपकार स्वरूप कर्कोटक ने नल से कहा कि वह दस तक गिनती गिने । जैसे ही नल ने दस कहा, कर्कोटक ने उसे डस लिया जिससे नल का वर्ण कृष्ण हो गया । इसका अर्थ यह हुआ कि पाप कर्मों के फलस्वरूप जो कार्य – कारण श्रृङ्खला विद्यमान है, जो इतिहास विद्यमान है, नाग उस शृङ्खला को अपने विष से कृष्ण बना सकता है । नागों को कद्रू के पुत्र कहा गया है । कद्रू को कर्द्द या कर्दम धातु के आधार पर समझने का प्रयास किये जाने पर कर्दम का अर्थ है – जो पाप या कार्य – कारण की शृङ्खला अग्नि द्वारा जला दी जाती है, वह कर्दम या कीचड बन जाती है । ऋग्वेद की ऋचाओं में नाक शब्द प्रकट हुआ है जिसे स्वर्गलोक का पर्यायवाची समझा जाता है । हमारे पास नाक शब्द ही उपलब्ध है । स्कन्द पुराण 2.4.30.23 का कथन है कि पुण्य कर्म के फल के रूप में नाक की प्राप्ति होती है जबकि पापकर्म के फल के रूप में नरक की । एक का अधिपति शतक्रतु है तो दूसरे का यम ।
पुराणों में गरुड द्वारा नागों के भक्षण , नागपाश खोलने, अग्नि द्वारा भी नागों अथवा सर्पों को जलाए जाने की कई कथाएं मिलती हैं । अग्नि द्वारा भी नागों अथवा सर्पों को जलाए जाने के आख्यान उपलब्ध हैं – जैसे जनमेजय के सर्प सत्र में । पौराणिक ग्रंथों के अनुसार नाग धीमी गति से साधना में प्रगति का मार्ग है, जबकि अग्नि या गरुड त्वरित गति से साधना में प्रगति का मार्ग है । एक पितृयान मार्ग है तो दूसरा देवयान मार्ग । उपनिषद में इसे प्राण और रयि नाम दिया गया है । रयि शब्द से पुराणों में रयिवत्, रैवत, रेवा, रेवती आदि शब्द बने हैं । यही कारण है कि गरुड या अग्नि की प्रवृत्ति नाग या सर्प का भक्षण करने की होती है । लेकिन धीमी प्रगति वाली क्रिया को नष्ट नहीं किया जा सकता । इसे ही जनमेजय के सर्पसत्र में आस्तीक द्वारा नागों की रक्षा के रूप में दिखाया गया है । धीमी प्रक्रिया वाली साधना का उपयोग ब्रह्म को सुब्रह्म बनाने में किया जा सकता है । इसका अर्थ है कि काम, क्रोध आदि जो सर्प हैं, वह हमारे शरीर में विष फैलाते हैं । क्रोध आने पर रक्त में कुछ विशेष प्रकार के रस मिल जाते हैं जिन्हें विष कहा जा सकता है । लेकिन पुराण कथाओं से संकेत मिलता है कि काम, क्रोध आदि को भी मिटाने की आवश्यकता नहीं है, अपितु उनका सदुपयोग करके सौभरि बनने की, आस्तीक बनने की, आस्तिक्य बुद्धि उत्पन्न करने की आवश्यकता है । पुराणों में गरुड द्वारा नागों का भक्षण करने, नागपाश खोलने आदि के सार्वत्रिक उल्लेख आते हैं । गरुड का पर्यायवाची नाम सुपर्ण है । वैदिक कर्मकाण्ड में सुपर्णचिति का निर्माण किया जाता है । चिति का अर्थ है चेतना को व्यवस्थित बनाना । जो कर्म अव्यवस्था उत्पन्न करते हैं, वह पाप कहलाते हैं । अतः यह स्वाभाविक है कि चेतना को सुपर्ण का रूप देकर नागों का नाश किया जा सकता है । भविष्य पुराण 1.34.23 तथा गरुड पुराण 1.19.7 में ग्रहों के नागों के साथ तादात्म्य का कथन है । इस कथन के अनुसार अनन्त नाग भास्कर का रूप है, वासुकि सोम का, तक्षक मंगल का, कर्कोटक बुध का, पद्म बृहस्पति का, महापद्म शुक्र का और कुलिक व शंखपाल शनि का । अन्यत्र ग्रहों को सुपर्ण कहा जाता है । अतः यह विचारणीय है कि किस स्थिति में ग्रह नाग रूप हैं, किस स्थिति में सुपर्ण रूप । हो सकता है कि ग्रहों की नीच स्थिति नाग रूप हो और उच्च स्थिति सुपर्ण रूप ।
उपनिषदों में सार्वत्रिक रूप से पांच उपप्राण के रूप में नाग,कृकल, कूर्म, देवदत्त व धनञ्जय का वर्णन आया है । नाग का कार्य उद्गारादि, कूर्म का कार्य अक्षि उन्मीलन – निमीलन, कृकर या कृकल का कार्य क्षुधा आदि, देवदत्त का कार्य तन्द्रा या विजृम्भण या निद्रादि और धनञ्जय का कार्य मृत गात्र की शोभादि कहा गया है ( त्रिशिख ब्राह्मणोपनिषद 2.85, योगचूडामणि उपनिषद 25, जाबालदर्शनोपनिषद 4.34 , शाण्डिल्योपनिषद 1.4 आदि )। शाण्डिल्योपनिषद में श्लेष्मा को धनञ्जय का कार्य कहा गया है । जाबालदर्शनोपनिषद 4.20 में नागादि वायुओं की स्थिति त्वक्, अस्थि आदि में कही गई है ।
शिव पुराण 2.1.12.34 में नागों द्वारा शिव के प्रवाल – निर्मित लिङ्ग की पूजा का उल्लेख है । स्कन्द पुराण में शतरुद्रिय के संदर्भ में नागों द्वारा विद्रुम – निर्मित शिवलिङ्ग की पूजा का उल्लेख आता है । पुराणों में सार्वत्रिक रूप से सर्पों का जन्म ब्रह्मा के बालों से कहा गया है । ब्रह्माण्ड पुराण 1.2.8.35 में उल्लेख आता है कि तप के अन्त में ब्रह्मा ने देखा कि उनके तप के फलस्वरूप राक्षस, गुह्यक आदि क्षुधाविष्ट प्रजा की सृष्टि हुई है जो जलों का भक्षण करने को आतुर है। इससे ब्रह्मा को क्रोध उत्पन्न हुआ । इससे उनके केश शीर्ण हो गए । यह शीर्ण हुए बाल बार -बार ऊपर उठने का प्रयास करते थे । शिर के बालों के कारण उनका व्याल नाम पडा, अपसर्पण के कारण सर्प, हीनत्व से अहि, पन्नत्व से पन्नग इत्यादि । जो उनका अग्निगर्भ क्रोध था, वह सर्पों के मुख का विष बन गया । इस आख्यान में बाल या वाल शब्द महत्त्वपूर्ण है । सर्पों से सम्बन्धित बहुत सी पौराणिक कथाओं में किसी न किसी प्रकार से बाल का समावेश किया गया है ।
महाभारत का केन्द्रबिन्दु हस्तिनापुर है जिसका दूसरा नाम नाग अथवा नागसाह्वया है । कुछ विद्वानों के अनुसार उपनिषदों में पांच उपप्राणों यथा, नाग, कृकल, कूर्म, देवदत्त व धनञ्जय आदि का जो व्याख्या किया गया है, उसे ही व्याख्या करने का ग्रन्थ महाभारत हो सकता है । गरुड पुराण 1.19.14 में सर्प विष हरण हेतु मन्त्र ॐ कुरु कुले स्वाहा कहा गया है । कुरु का न्यास गले में किया जाता है जबकि कुल का न्यास गुल्फ (लोकभाषा में एडी या घुट्टी) में। स्वाहा का पादयुगल में । ऐसा प्रतीत होता है कि यह मन्त्र महाभारत ग्रन्थ का मूल है । कुरुकुल को उपनिषदों का कृकल कहा जा सकता है । कृकल शब्द की व्याख्या इस प्रकार से की जा सकती है। कृक का अर्थ होता है ध्वनि की पुनरावृत्ति करना । कृकवाकु मयूर को कहते हैं । वह ध्वनि सुनकर तुरन्त उसकी पुनरावृत्ति करता है । पुराणों में इसे केका शब्द कहा गया है जो मुनियों के आश्रम में मन्त्रों की ध्वनि सुनकर उसकी पुनरावृत्ति करता है । पुराणों की अन्य कथाओं में कृकल के पुनरावृत्ति अर्थ की व्याख्या इस प्रकार की गई है कि राजा नृग ने किसी गौ का एक ब्राह्मण को दान किया । किसी कारण से उसी गौ का दूसरी बार दूसरे ब्राह्मण को भी दान हो गया । इससे राजा नृग को ब्राह्मण के शापवश कूप में कृकलास या छिपकली बनकर रहना पडा जिसका कृष्ण ने उद्धार किया । महाभारत में कुरु कुल का वर्णन है । राजा कुरु अष्टाङ्ग धर्म की कृषि करते हैं । कुरु का दूसरा रूप कुरुक्षेत्र है जो गीता का मूल है। आज के चिकित्सा विज्ञान में इतना तो ज्ञात है कि हमारे शरीर में जिन नयी कोशिकाओं का जन्म होता है, उनका मूल अस्थियों के अन्दर स्थित मज्जा है । लेकिन मन्त्र कुरु कुले स्वाहा के न्यास से संकेत मिलता है कि और अधिक प्रतथ रूप में कोशिकाओं का जन्म स्थान गुल्फ के अन्दर स्थित मज्जा है जिसे कुल कहा गया है ।