साक्षात्कार / हिन्दू विरोधी दुष्चक्र जारी है : फ्रांस्वा गोच्ची

फ्रांसीसी दैनिक “ल फिगेरो’ के दक्षिण एशियाई राजनीतिक संवाददाता फ्रांस्वा गोच्ची जो लिखते हैं, उसे गम्भीरता से पढ़ा जाता है। देश के बुद्धिजीवी वर्ग में उनके लेखों पर चर्चा होती है। पत्रकारिता जगत में उनका खासा सम्मान है। भारत आने के बाद आरम्भ में वे पांडिचेरी स्थित श्री अरविंद आश्रम में लम्बे समय तक एकान्त जीवन जीते हुए साधना में रत रहे। इससे उनके व्यक्तित्व और लेखन में आध्यात्मिकता और तथ्यपरकता का गहन प्रभाव पड़ा। 

हिन्दुत्व को वे हिन्दूपन कहते हैं। हिन्दू धर्म और हिन्दू उनके प्रिय विषय हैं। बनारस की गलियों से लेकर राजनीति के गलियारों तक उन्होंने विस्तृत भ्रमण करके भारत को पहचानने की कोशिश की है। 

श्री गोच्ची विदेश से आए थे पर भारत को अपना घर मान चुके हैं। इस समय वह फ्रांस के समाचार पत्र “ल फिगेरो’ के दक्षिण-एशिया के राजनीतिक संवाददाता अवश्य हैं, परन्तु उनका लेखन अन्य विदेशी पत्रकारों से नितांत भिन्न है। ईसाई मत के इतिहास का उन्होंने गहन अध्ययन किया है और इसीलिए उनका कहना है कि विदेशी पत्रकारों और भारत के तथाकथित अंग्रेजी पत्रकारों द्वारा हिन्दुत्ववादी संगठनों पर दोष मढ़ना उचित नहीं है। ईसाई मिशनरियां भारत में गरीबों को अन्न और धन के लालच में ईसाई बना रही हैं। दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि मतान्तरण के पीछे कुछ दोष हिन्दुओं का भी है। उन्हें अपने समाज के गरीब वर्ग की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी। 

सन् 2000 में पाञ्चजन्य के तत्‍कालीन संपादक श्री तरुण विजय ने श्री गोच्ची से दिल्ली में एक विस्तृत बातचीत की जिसमें उन्होंने उपरोक्त विषयों पर अपने विचार रखे। प्रस्तुत हैं श्री गोच्ची और “पाञ्चजन्य’ के बीच हुई उसी बातचीत के प्रमुख अंश- 

>>आप भारत कब आए? वह कौन सी बात थी जिसने आपको भारत आने और यहीं बस जाने के लिए प्रेरित किया?

>> 19 वर्ष की आयु में मैंने अपनी स्कूली पढ़ाई समाप्त की। मैं पश्चिम में अपने को संतुष्ट नहीं पा रहा था। तब मैंने सोचा कि क्यों न एक साल के लिए दुनिया के अन्य भागों में जाकर उन्हें देखूं, समझूं और तब निर्णय करूं कि मुझे जीवन में करना क्या है।

संयोग से मेरे एक मित्र के पिता, जो पांडिचेरी के अंतिम फ्रांसीसी राज्यपाल थे, हमारे परिवार के करीबी थे। (1962 में पांडिचेरी फ्रांस के उपनिवेशत्व से मुक्त हुआ था) उनसे बचपन से ही मैंने पांडिचेरी के बारे में सुना था। तब मैंने विचार किया कि भारत भी जाना चाहिए। उस समय तक मैं भारत के बारे में कुछ नहीं जानता था। 1969 में पाकिस्तान से होता हुआ मैं दिल्ली पहुंचा। दिल्ली आने के बाद सबसे पहले यहां मैं श्री अरविंद आश्रम गया। मैं वहां पहुंचा ही था कि शाम को सूर्यास्त होने को था। मेरे पास श्री अरविन्द की एक पुस्तक थी। उसकी कुछ पंक्तियां पढ़ते हुए जब मैंने वहां चारों ओर देखा तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे मैं अपने घर आ गया हूं, मेरे जीवन का लक्ष्य मुझे मिल गया हो। मैंने भारत में ही बस जाने का निर्णय ले लिया।

मैं पांडिचेरी गया। वहां रहते हुए मैंने श्री अरविंद आश्रम में ही लिखना शुरू कर दिया था। यद्यपि भारत आने से पहले मैं फ्रांस में भी थोड़ा-बहुत लिखता था और “फोटोग्राफी’ भी करता था। लेकिन भारत में तब मैंने पत्रकारिता नहीं शुरू की थी, केवल अपनी व्यक्तिगत “डायरी’ लिखता था।

अपने पहले स्वतंत्र लेख में मैंने ग्रामीण भारत को जाना। उसका मेरे लेखन पर आगे बहुत प्रभाव भी पड़ा। मैंने केरल, तमिलनाडु के बारे में जाना। पता चला कि केरल की प्राचीन कलयारीपयट्टू कला का जापान और चीन की “मार्शल आर्ट’ पर बहुत प्रभाव है। भारत के गांवों में, चाहे वे केरल के हों या तमिलनाडु के अथवा कहीं और के, लोगों ने भारत की प्राचीन सम्पन्न सांस्कृतिक विरासत को संभाल कर रखा है। यहां की परम्पराएं, रीतियां, बोलियां, भाषाएं सभी कुछ अद्वितीय हैं। मेरी दृष्टि में असली भारत वही है, न कि दिल्ली। लेकिन दु:ख की बात है कि भारत का बुद्धिजीवी वर्ग, जो बड़े-बड़े नगरों में रहता है, उसने “अपनी संस्कृति’ को भुला दिया है। मैं स्वयं दिल्ली को पसन्द नहीं करता। भारत का बुद्धिजीवी वर्ग, विशेषकर पत्रकार, बिना भारत को जाने यहां के बारे में बड़े अधिकार के साथ लिखता है।

>>आपने श्री अरविन्द साहित्य पढ़ा और उससे बहुत प्रभावित हुए। इसके अतिरिक्त भारत की किन बातों से आप प्रभावित हुए?

दरअसल शुरूआत में श्री अरविन्द, श्रीमां और आश्रमवासियों के अलावा मेरा बाहरी दुनिया से कोई सम्पर्क नहीं था, न अखबार से, न रेडियो-टीवी से। आश्रम ही मेरी दुनिया था। उसके बाहर के भारत से मैं अनभिज्ञ ही था। एक तरह से मैं अपनी पश्चिमी जड़ों से भी कट गया था। केवल श्री अरविन्द साहित्य पढ़ना और “ध्यान’ करना, यही मेरे काम थे।

>>श्री रामजन्मभूमि मंदिर और अयोध्या के बारे में आपने बहुत भावनापूर्ण लेख लिखे। वह क्या था जिसने आपके भीतर ऐसी प्रखर भावना का संचार किया?

जब मैं भारत आया था तो मैं किसी पूर्वाग्रह से प्रभावित नहीं था। बहुत ही साधारण और प्राकृतिक रूप में मैंने भारत को समझा। मैं भारत के बारे में “पराए अनुभवों’ पर निर्भर नहीं रहना चाहता था। इसीलिए मैंने स्वयं भारत का अनुभव प्राप्त किया।

जब मैंने राजनीतिक संवाददाता के रूप में लिखना शुरू किया तो उस समय भारतीय और पश्चिमी पत्रकारों के बीच यह अवधारणा फैली हुई थी कि कांग्रेस ही भारत के लिए सर्वोत्तम राजनीतिक दल है। वास्तव में विचार निर्धारण के लिए दूसरे के ज्ञान पर आधारित होना खतरनाक है। मैंने देखा कि भारत के बारे में भारत और अन्य जगहों के लोग जो धारणा बनाते हैं वह पुस्तकों, समाचार पत्रों या अन्य माध्यमों से प्राप्त जानकारी पर आधारित होती है। लेकिन जब मैं यहां के लोगों से, यहां के रीति-रिवाजों से, ग्रामीण भारत और आध्यात्मिकता से परिचित हुआ तो मैंने भारत को बिल्कुल भिन्न पाया।

इसी प्रकार जब मैंने अयोध्या के बारे में सुना तो मुझे लगा कि यह मिश्रित संस्कृति वाला शहर होगा जहां हिन्दू-मुसलमान रहते होंगे। लेकिन जब मैंने वहां जाकर देखा तो पाया कि यह तो पूरी तरह हिन्दू संस्कृति से सराबोर नगर है। यहां के घर, मन्दिर, संस्कृति, यहां का अतीत, सभी कुछ विशुद्ध रूप से हिन्दू है, यहां तक कि वाराणसी से भी गहन रूप में। अयोध्या में जो (बाबरी) ढांचा था उसके ऊपर बना गुम्बद स्पष्ट रूप से अटपटा दिखाई देता था। ऐसा लगता था कि जबरन उसे मन्दिर के ऊपर बनाया गया हो। वह भद्दा दिखाई देता था। यह सब खुद देखने के बाद भारत के बारे में मेरी धारणा पूरी तरह बदल गई।

मैंने सदैव भारत की श्रेष्ठता को महसूस किया, केवल हिन्दू धर्म के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि “हिन्दूपन’ के रूप में, जो यहां के लोगों में रची-बसी है। भारत का वैदिक साहित्य दुनिया का प्राचीनतम और श्रेष्ठतम साहित्य है। ऐसा साहित्य जो सम्पूर्णता की ओर ले जाता है। भारत के किसी भी कोने में जाइए, हर स्थान पर “हिन्दूपन’ का प्रभाव दिखाई देता है, चाहे वह कश्मीर हो या अयोध्या। इन्हीं सब बातों ने मेरा दृष्टिकोण बदल दिया। मेरा दृष्टिकोण आध्यात्मिक है। विदेशी पत्रकारों के बीच मुझे “रैडिकल’ माना जाता है।

>>क्या आपको नहीं लगता कि विभिन्न समाचार पत्रों में आपका लेखन अन्य विदेशी पत्रकारों से भिन्न है? केवल विदेशी पत्रकार ही नहीं बल्कि अंग्रेजी के तथाकथित पत्रकार व समाचार पत्र भी जो लिखते हैं,वह भारत के प्रति बिल्कुल ही अलग, अपमानजनक ही होता है। इसका क्या कारण है? 

भारत एक बहुत ही जटिल, विस्तृत देश है। यहां इतनी बहुलता है कि सरसरी तौर पर इसे नहीं समझा जा सकता। भारत की विशालता के कारण कहीं-कहीं विरोधाभास भी है।

दूसरी बड़ी समस्या है कि अधिकांश विदेशी पत्रकार, यहां बस चार-पांच साल ही कार्यरत रहते हैं। इतने कम समय में भारत की गहनता को समझ पाना कठिन है।

तीसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण है-दिल्ली का भारत के केन्द्र से दूर होना। दिल्ली उत्तर भारत, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के ज्यादा करीब है परन्तु भारत के केन्द्र से दूर है। यहां राजनीतिक, कूटनीतिक व अन्य कारणों से लोगों को वस्तुस्थिति से बहुत अलग जानकारी मिलती है, जो बहुत ही भ्रामक होती है।

चौथा बड़ा कारण है कि अब भी भारतीय विद्वानों और पत्रकारों पर ब्रिटिश और नेहरूवाद का प्रभाव है। विदेशी पत्रकारों को इन्हीं सूत्रों से जो जानकारी मिलती है, वह हिन्दू कट्टरवाद, सेकुलरवाद, अल्पसंख्यकों की तरफदारी इत्यादि के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। वे भारत को नहीं जान पाते। यही दुष्चक्र अनेक वर्षों से चल रहा है। पेरिस, न्यूयार्क अथवा लन्दन में बैठे सम्पादक भी अपने प्रतिनिधियों पर भारत की नकारात्मक छवि दिखाने वाले लेख लिखने के लिए दबाव डालते हैं। भारत की गरीबी, भ्रष्टाचार, अल्पसंख्यकों पर हमले, मानवाधिकार उनके प्रिय विषय होते हैं।

>>यह कैसे संभव होता है कि विदेशी मिशनरी भारत आते हैं और सैकड़ों-हजारों लोगों को मतान्तरित करके दुनियाभर में उसे महिमामण्डित करते हैं? इसके पीछे कौन सी मानसिकता काम करती है? 

देखिए, मदर टेरेसा का ही उदाहरण लें तो मदर टेरेसा ने गरीब हिन्दुओं की मदद की और उन्हें मतान्तरित करने का प्रयास किया जबकि हिन्दुओं को स्वयं अपने समाज के गरीब बंधुओं की मदद के लिए आगे आना चाहिए था। वस्तुत: मदर टेरेसा जो काम कर रही थीं, वह सामथ्र्यवान हिन्दुओं को करना चाहिए था। इसी प्रकार वनवासी क्षेत्रों में भी मिशनरी आर्थिक मदद या अन्य प्रकार से सहायता करके उन्हें मतान्तरित करते हैं। हालांकि कुछ हिन्दू संगठन इस समय वनवासी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, पर यह काम बहुत पहले ही शुरू हो जाना चाहिए था। हिन्दुओं ने समाज के सबसे गरीब वर्ग से दूरी बना कर रखी है जो गलत है। यही वास्तविक समस्या है। असहाय स्थिति में रह रहे हिन्दू ईसाई मिशनरियों के लिए सबसे आसान लक्ष्य होते हैं।

>>एक पत्रकार होने के नाते आपने सुना होगा कि पिछले कुछ समय से ईसाई संगठन हिन्दू कट्टरवाद का रोना रो रहे हैं, जबकि कर्नाटक में चर्च विस्फोटों के पीछे “दीनदार अंजुमन’ का हाथ स्पष्ट हुआ था। लेकिन अंग्रेजी अखबार भी दुनियाभर में ऐसा क्यों प्रचारित कर रहे हैं कि भारत में ईसाई अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं? 

जहां तक वनवासियों का प्रश्न है तो मुझे लगता है कि मतान्तरित वनवासियों और गैर-मतान्तरित वनवासियों के बीच वैमनस्य है। झाबुआ प्रकरण में यह स्पष्ट हो गया था। साथ ही ईसाई मिशनरियों के कामों से वनवासियों के बीच आपसी दूरी बढ़ती जा रही है। इस पूरे संदर्भ में मुझे लगता है कि अधिकांश भारतीय और विदेशी पत्रकारों द्वारा घटना का विवरण देते समय उसकी पृष्ठभूमि की चर्चा नहीं की जाती कि आखिर पूर्व में ईसाइयों ने किस तरह का बर्ताव किया था। कोच्चि में पुर्तगालियों का स्वागत कर उन्हें खुलकर मतान्तरण करने की छूट दी गई थी। गोवा में तो ब्राह्मणों को सूली पर टांग दिया गया था, हिन्दुओं को मतान्तरित किया गया, चर्च बनाने के लिए मंदिरों को जला दिया गया था, हिन्दू महिलाओं से जबरदस्ती विवाह किए गए। ये सब तथ्य हैं। अपने काम के प्रति गंभीर पत्रकारों को इतिहास की पुस्तकों में यह पढ़ना चाहिए, तथ्यों की जानकारी करके लिखना चाहिए।

इस समय ईसाइयों के प्रति जो हो रहा है, उसके लिए इतना शोरगुल मचाना उचित नहीं है। हां, एकाध घटना में कुछ वास्तविकता हो सकती है। लेकिन ज्यादातर एकपक्षीय रपट दी जाती है। ईसाई मिशनरियों की सच्चाई जानने के बाद अनावश्यक रूप से, बिना तथ्यों के ही किसी संगठन पर आरोप नहीं लगाना चाहिए। ईसाइयों को भारत में पर्याप्त सम्मान मिला है। हम 21वीं शताब्दी में जी रहे हैं, मतान्तरण तो 19वीं शताब्दी की बात थी। वह सब अब नहीं करना चाहिए। किसी को भी अपने मत-पंथ को दूसरे से ऊंचा नहीं कहना चाहिए। ईसाइयत अब और लोगों का मतान्तरण जारी नहीं रख सकती। भारत की अपनी संस्कृति है, धर्म है। मुझे नहीं लगता कि कोई भारतीय फ्रांस जाकर ईसाइयों को हिन्दू धर्म में परिवर्तित कर सकता है। ऐसा वहां सहन ही नहीं किया जाएगा।

दुर्भाग्य से भारत के बुद्धिजीवी भारत को पश्चिमी ढर्रे से देखते हैं और भारत को उसी रूप में देखना पसंद करते हैं, जिस रूप में पश्चिम भारत को देखना चाहता है। यह बहुत दुखद है।

>>आप हिन्दुओं की मूल समस्या क्या मानते हैं? क्या उनमें आत्मवि·श्वास नहीं है या वे मिलकर काम नहीं करते अथवा वे उपनिवेशवाद के प्रभाव से मुक्त नहीं हुए हैं?

किसी भी राष्ट्र के शक्तिशाली होने में कई कारक महत्वपूर्ण होते हैं। सम्राट अशोक के बाद भारत पर विदेशी आक्रमण तेजी से हुए। सिकन्दर ने भारत पर विजय प्राप्त की। अहिंसा का पालन करना चाहिए, लेकिन यह सिद्धान्त तभी संभव है जब राष्ट्र बहुत शक्तिशाली हो और अपनी रक्षा स्वयं करने में सक्षम हो। इसके बाद मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण किया। उन्होंने शासन करने के लिए आतंक का सहारा लिया। हिन्दू संस्कृति को हर प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट किया गया। हिन्दुओं को मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में व्यापक रूप से सोचना चाहिए। मुस्लिम राज में भारत में क्या-क्या हुआ, इसका विश्लेषण करना चाहिए। मुझे लगता है कि हिन्दुओं में साहस की कमी है।

>>भारत की राजनीतिक व्यवस्था, यहां के राजनीतिक भविष्य के बारे में आपकी क्या राय है?

दुर्भाग्य से नेहरूवाद अर्थात् भौतिकवाद का प्रभाव आज भी भारत पर बना हुआ है। रूस के भौतिकवाद का प्रभाव भी भारत पर रहा है। भौतिकवाद को आधुनिक भारत के लिए सर्वोत्तम माना गया। कांग्रेस ने भाजपा सरकार के लिए जो विरासत छोड़ी है, उससे उबर पाना अत्यन्त कठिन है। भ्रष्टाचार, राजनीतिक व्यवस्था, नौकरशाही, इन सबको ठीक कर पाना दु:साध्य-सा लगता है। साथ ही नेहरू और बाद में कांग्रेस ने एक ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग खड़ा किया है जो हर क्षेत्र में अपनी जड़ें जमाए हुए है। भारत अगर एक शक्तिशाली राष्ट्र बनना चाहता है तो उसे प्राय: कड़े फैसले लेने होंगे। मुझे लगता था कि कई स्थानों पर भाजपा कुछ कड़े निर्णय ले सकती थी। लेकिन इसके लिए जनमत और प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होगी। भारत को चीन से बहुत कुछ सीखना चाहिए जो बातों में कम, काम करने में ज्यादा वि·श्वास रखता है। भारत में केवल भाषणबाजी होती है, योजनाओं पर अमल नहीं होता। व्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में व्यवहारिक दृष्टिकोण की कमी है। भारत के राजनीतिक परिदृश्य में लक्ष्य की कमी दिखती है।

6 COMMENTS

  1. श्री विरेंद्रजी को संघ का फोबिया है. ईसाई मतान्तरण का विरोध शुरू से ही हो रहा है. सेंत जेवियर ने चार सौ साल पहले पुर्तगाल के रजा को भेजे अपने पत्र में ये उल्लेख किया था की किस प्रकार जबरन हिन्दुओं को ईसाई बनाने का अभियान चल रहा था. एक हाथ में बाईबल और एक हाथ में तलवार लेकर कोंकण के इलाके में लाखों हिन्दुओं को जबरन ईसाई बनाया गया था. महात्मा गाँधी तक ने मतान्तरण का विरोध किया था. कांग्रेस सर्कार ने ही नियोगी कमीशन बनाया था जिसने १९५६ में अपनी रिपोर्ट में मतान्तरण पर प्रतिबन्ध की सिफारिश की थी.

  2. इस साक्षात्कार के अंतिम पेरा की अंतिम तीन पंक्तियों से में सहमत हूँ.

  3. इसी लेख् के अन्श—–
    १-मुझे लगता है कि हिन्दुओं में साहस की कमी है।

    २-भ्रष्टाचार, राजनीतिक व्यवस्था, नौकरशाही, इन सबको ठीक कर पाना दु:साध्य-सा लगता है।

    ३- भारत को चीन से बहुत कुछ सीखना चाहिए जो बातों में कम, काम करने में ज्यादा वि·श्वास रखता है। भारत में केवल भाषणबाजी होती है, योजनाओं पर अमल नहीं होता। व्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में व्यवहारिक दृष्टिकोण की कमी है। भारत के राजनीतिक परिदृश्य में लक्ष्य की कमी दिखती है।

  4. 1- बारह साल बाद इसे किसने और क्यों खोद निकाला है यह स्पष्ट नहीं है, उनका नाम और परिचय सामने आना चाहिए उससे बहुत कुछ साफ हो सकेगा, वैसे भी यह तरुण विजय द्वारा पाँच्यजन्य के लिए लिया गया है साक्षात्कार है
    2- जिस समय यह सब बयान किया गया तब केन्द्र में अटलजी का शासन था और उसके बाद उनके जीवन के बारे में कोई टिप्पणी दी जानी चाहिए थी।
    3- बाबरी मस्ज़िद के गुम्बद के बारे में उनके आब्जर्वेशन और कथन से ही उनके इरादे और समझ का खुलासा हो जाता है। जब पूरी मस्ज़िद, विशेष रूप से गुम्बद तो बाद ही में बना होगा और वह तो पूरी तरह से तत्कालीन मुगल कल्चर का ही था, तब उनका कथन एक चापलूसी से ज्यादा कुछ नहीं है।
    4- शेष भारतीय संस्कृति का गुणगान ऐसा ही है जैसा कि भारतीय सरकार आदिवासियों को नंगे बदन गणतंत्र दिवस की परेड में नचा कर करती है
    5- विदेशों में लगातार हरे राम हरे कृष्ण आन्दोलन से लेकर हिन्दू शब्द के नीचे आने वाले शैव, शाक्त, वैष्णव आदि का आदान प्रदान चल रहा है वहाँ तो कहीं विहिप की तरह की हरकतें नहीं हुयी। भारत में भी सोनिया गान्धी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन पर राजनीतिक हमला करने की दृष्टि से केवल संघियों ने मतांतरण का मुद्दा खड़ा किया है जिनका कुल समर्थन दस प्रतिशत भी नहीं है। आज इस्लामिक देशों को छोड़ कर भारत या यूरोप के किसी भी देश में धार्मिक परतंत्रता शेष नहीं है और जिसे जो धर्म मानना हो वह मान सकता है उसके पीछे चाहे जो भी कारण हों।
    6- फ्रांस या दूसरे देशों के बहुत सारे विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है सो उनके विदेशी होने भर से वे अपने कथन के लिए प्रशसा के पात्र नहीं हो जाते। उन्होंने केवल मदर टेरेसा जैसे सेवा भाव को मतांतरण का जो कारण बताया है वो ही ठीक है, पर उसके लिए मतांतरण के रुदाले कुछ भी नहीं कर रहे हैं ।

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