राजनीति

मोदी का महिमा मंडन -प्रमोद भार्गव

modi newलोकतंत्र में लोकप्रियता को कैसे भुनाया जाता है, यह सबक राजनेताओं को नरेंद्र मोदी से सीखना चाहिए। वाजपेयी के स्वास्थ्य कारणों के चलते मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य से बाहर हो जाने और आडवाणी के अतिरिक्त महत्वाकांक्षा की गिरफ्त में आ जाने जैसी वजहें रहीं कि मोदी ने पनजी ;गोवा के मंच से भाजपा चुनाव अभियान समिति की कमान संभालने की बाजी आसानी से मार ली। इस अध्यक्ष पद को हासिल करने की शतरंजी बिसात गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर ने ‘गोवा अधिवेषन’ के बहाने पहले ही बिछा दी थी। चुनांचे मोदी का महिमामंडन इस कुटिल चतुराई से अंजाम तक पहुंचाया गया कि अटल-आडवाणी के सुषमा,शिवराज,रमन सिंह, अरुण जेटली और वेंकैया नायडू जैसे प्रबल समर्थक बगलें झांकते रह गए। तय है, अटल-आडवाणी के युग का अवसान हो गया है। भाजपा राजग गठबंधन के बिखरने की चिंता से मुक्त है। अलबत्ता हिंदुत्व के प्रचार का राग अलाप कर पार्टी में मतदाताओं के ध्रुवकरण की कवायद तेज होगी। हालांकि गोवा में भाजपा का जो आंतरिक सत्ता संघर्ष मुखर हुआ है, उससे साफ है कि शीर्ष नेतृत्व की मुट्ठी से दल अनुशासन मुक्त हो गया है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय राजनीति में मोदी अपनी पीढ़ी के इकलौते ऐसे नेता हैं, जिन्होंने धारा के विपरीत बहते हुए जनमत को प्रभावित करने के साथ ध्रुवीकृत भी किया है। इसका श्रेय प्रिंट, इलेक्टोनिक और सोशल मीडिया को जाता है। हालांकि मीडिया ने गोधरा दंगों के परिप्रेक्ष्य में मोदी को कठघरे में खड़ा करते हुए उनकी नकारात्मक छवि को ही उभारा है। लेकिन बार-बार मामूली बात को बंतगड़ बना देने का परिणाम यह निकला कि मोदी के क्रिया-कलापों से आप सहमत हों अथवा असहमत, उनकी अनदेखी करना नामुमकिन हो गया है। समाचारों में बने रहने के इस मूल्य ने उन्हें, लेाकप्रियता कहलें अथवा अलोकप्रियता पहचान के शिखर पर पहुंचा दिया। नतीजतन भाजपा तो छोडि़ये देश की अवाम का एक बड़ा तबका मोदी का मुरीद हो गया। अब इसे मोदीमेनिया कह लीजिए या मोदी फोविया, मोदी नमो नमः जाप की एक लकीर तो खिंची ही है। इस मंत्र का लाभ आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिलना तय है। राजनीतिक विशलेशकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन लालकृष्ण आडवाणी को लोकसभा की 2 से 182 सीटें जीतने का श्रेय दिया जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में राम मंदिर निर्माण और हिंदुत्व जैसे ही लोकव्यापी मुद्दे अंगड़ाई ले रहे थे। और जब 2002 के गोधरा दंगों के के बाद वाजपेयी ने मोदी को ‘राजधर्म’ निभाने की जो हिदायत दी थी, इसी दौरान गुजरात में हुए विधानसभा चुनाव में मोदी को सबसे ज्यादा फायदा दंगा प्रभावित इलाकों से ही हुआ था। यहां गौरतलब है कि आडवाणी ने जिन्ना की मजार पर चादर चढ़ाने की जो उदारता दिखाई थी, उसी के परिणामस्वरुप उन्हें दल और जनता ने नकारना शुरु कर दिया था। जाहिर है, जनता नेता के बुनियादी चरित्र में आमूलचूल बदलाव पसंद नहीं करती।

यह ठीक है कि कालांतर में भाजपा सत्ता में आने लायक सीटें जीत लेती है तो प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने का पहला दावा आडवाणी का बनता। लेकिन भाजपा के इस भीष्म पितामह ने कोप-भवन में बैठे रहकर न केवल मोदी और उनके समर्थकों की राह आसान की, बल्कि खुद को हाशिये पर डाल दिया। रुठे रहने का यह मिजाज कायम रहा तो कोई आश्यर्य नहीं कि आडवाणी लोकसभा चुनाव के राजनीतिक परिदृश्य से ही नदारद हो जाएं। गोवा में पोस्ट-बैनरों में तो उन्हें पहले ही बाहर कर दिया गया था। यही नहीं गोवा अधिवेशन के प्रमुख सूत्रधार एवं गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर ने तो बैठक के पहले ही दिन न केवल मोदी के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को उचित ठहराया, बल्कि आडवाणी को मुख्यधारा की राजनीति से संन्यास लेने तक की सलाह दे डाली थी। अधिवेशन का शायद यही मूल अजेंडा था, क्योंकि पार्रिकर के इसी प्रस्ताव का समर्थन राजनाथ सिंह ने यह कहकर किया कि आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता यदि पार्टी को मार्गदर्शन देने के लिए उपलब्ध नहीं हैं तो अब उनकी भावना का केवल सम्मान करना चाहिए। तय है कि भविष्य में आडवाणी भाजपा के राजनीतिक परिदृश्य से लुप्त होते चले जाएंगे।

अधिवेशन की समाप्ति के बाद साफ हो गया कि मोदी को महिमामंडित करना एक प्रयोजित मुहिम थी। राजनीति में ऐसी घटना कोई अनहोनी नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर षास्त्री की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी ने भी ऐसी ही प्रायोजित चतुराई से प्रधानमंत्री का पद हथियाया था। जबकि वास्तविक दावेदारी मोरारजी देसाई की बनती थी। इंदिरा की इसी कुटिल चाल का नतीजा था कि कांग्रेस दो फाड़ हुई। मोरारजी भाई, अतुल्य घोश, के.कामराज और चंद्रशेखर जैसे नाराज दिग्गजों ने सिंडीकेट कांग्रेस का निर्माण किया। लेकिन यह पार्टी इंदिरा गांधी के रास्ते का कांटा नहीं बन पाई। तमाम चुनौतियों से लड़तीं और समावेशी विकास को आगे बढ़ाती इंदिरा गांधी श्रेष्ठतम प्रधानमंत्री साबित हुईं।

राष्ट्रीय पटल पर अवतरित हुए मोदी की भी कमोबेष इंदिरा जैसी ही स्थिति है। उनके सामने एक ओर जहां दलगत आंतरिक फूट और पीढ़ीगत विरोधाभास जैसी चुनौतियां हैं, वहीं बाहरी परिदृश्य में संघ के अजेंडे में षामिल मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता और कष्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली धारा 370 को खत्म कर देने जैसी चुनौतियां हैं। पार्टी को एकसूत्र में बांधे रखने के साथ, उन्हें राजग गठबंधन के सहयोगी घटक दलों को भी एक सूत्र में बांधे रखने की जरुरत है। मंहगाई, भ्रष्ट्राचार और घपलों से पटी कांग्रेस के विरुद्ध अब ऐसा माहौल रचने की जवाबदेही प्रमुख रुप से मोदी की ही है कि भाजपा कांग्रेस का मजबूत विकल्प बनकर उभरे ? क्योंकि मोदी चुनाव प्रचार अभियान के ही प्रमुख बनाए गए हैं।

हालांकि लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा के लिए जरुरी है कि किसी भी दल की राजनीति व्यक्ति केंद्रित न हो जाए ? लेकिन हमारे देष में चाहे राष्ट्रीय दल हों अथवा क्षेत्रीय दल, सभी की भूमिका व्यक्ति केंद्रित होती जा रही है। भाजपा में मोदी तो कांग्रेस में राहुल को लेकर यही हो रहा है। क्षेत्रीय दलों में भी बसपा में मायावती, सपा में मुलायम सिंह, राजद में लालू यादव, नेषनल कांफ्रेस में फारुक अब्दुल्ला, तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी अद्रमुक में जयललिता, तेलेगुदेशम् में चंद्रबाबू नायडू जद सेकूलर के एच.डी देवगौड़ा ऐसी ही व्यक्ति केंद्रित राजनीति के प्रतीक हैं। यह राजनीति वंशवाद को भी बढ़ावा देती है। मुलायम, देवगौड़ा और फारुक अब्दुल्ला इसी राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं। इस एकतंत्रीय राजनीति के तानषाह हो जाने के भी खतरे हैं। इंदिरा गांधी द्वारा थोपा गया आपातकाल इसी तानाशाही प्रवृत्ति की परछाईं थी। यह स्थिति इसलिए भी मजबूत हो रही है, कयोंकि साम्यवादी दलों को छोड़ सभी में आतंरिक लोकतंत्र की पुनीत व्यवस्था खत्म हो चुकी है। मोदी की अब तक की जो कार्यषैली रही है, उसमें एकतंत्रीय हुकूमत को ऐन-केन-प्रकारेण कायम रखने के खतरे अंतर्निहित हैं। मोदी को इस कार्यप्रणाली से उबरने की जरुरत है ? तभी मोदी देश को स्वीकार होंगे।