पर्यावरण लेख

अरावली: जनता के दबाव में झुकी सरकार, लेकिन लड़ाई अभी बाकी है

धर्मेंद्र आजाद

कई समाचार पत्रों और मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों में अरावली पर्वतमाला को लेकर सरकार द्वारा जारी किए गए नए निर्देशों को “यू-टर्न” के रूप में दिखाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि सरकार पीछे हट गई है लेकिन सच्चाई यह है कि खतरा अभी पूरी तरह टला नहीं है, बस फिलहाल के लिए रोका गया है।

इस पूरे मामले को समझने के लिए हमें कुछ हफ्ते पहले लिए गए फैसलों को देखना होगा। 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय की ओर से रखे गए एक प्रस्ताव को स्वीकार किया। इस प्रस्ताव में अरावली पर्वतमाला की एक नई परिभाषा तय की गई थी। इसके अनुसार, अरावली वही क्षेत्र मानी जाएगी जिसकी ऊंचाई आसपास की जमीन से कम से कम 100 मीटर अधिक हो। इस फैसले के बाद यह डर पैदा हुआ कि अरावली का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा कानूनी संरक्षण से बाहर हो जाएगा। ऐसा होने पर वहां खनन और रियल-एस्टेट जैसी गतिविधियां करने, अरावली की हत्या करने के लिए रास्ता खुल जाएगा।

इस फैसले के तुरंत बाद राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर समेत कई इलाकों में विरोध शुरू हो गया। पर्यावरण संगठनों, स्थानीय ग्रामीणों, किसानों, युवाओं और बुद्धिजीवियों ने खुलकर सवाल उठाए। सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक यही बात गूंजने लगी कि क्या लाखों सदियों पुरानी पर्वतमाला को सिर्फ एक परिभाषा बदलकर मुनाफाखोर ताकतों के हवाले किया जा सकता है?

धीरे-धीरे लोगों को साफ समझ में आने लगा कि यह केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं है। यह पानी,  हवा,  जीवन और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का सवाल है।

इसी बढ़ते जन दबाव के कारण 21 दिसंबर 2025 को केंद्र सरकार को एक कदम पीछे हटना पड़ा। पर्यावरण मंत्रालय ने राज्यों को निर्देश दिया कि जब तक अरावली क्षेत्र के लिए कोई पूरी और टिकाऊ खनन प्रबंधन योजना तैयार नहीं हो जाती, तब तक कोई नया खनन पट्टा जारी न किया जाए। इसके बाद 24 दिसंबर 2025 को सरकार को यह और साफ कहना पड़ा कि गुजरात से लेकर दिल्ली तक अरावली क्षेत्र में नए खनन पट्टों पर फिलहाल पूरी तरह रोक रहेगी।

यही वह बिंदु है जिसे मीडिया “सरकार का यू-टर्न” कह रहा है। जिस प्रस्ताव को सरकार पहले आगे बढ़ा रही थी, उसी के खिलाफ जनता में इतना गुस्सा और विरोध पैदा हुआ कि अब सरकार को पीछे हटकर सफाई देनी पड़ी। यह बदलाव अपने आप नहीं आया। यह किसी पर्यावरण प्रेम का नतीजा नहीं  बल्कि जनता के दबाव का परिणाम है।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। सरकार ने न तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा मानी गई 100 मीटर वाली नई परिभाषा को वापस लिया है और न ही अरावली को स्थायी और मजबूत कानूनी सुरक्षा देने का कोई साफ फैसला किया है, यानी जो रोक लगी है, वह अस्थायी है। खतरा अब भी मौजूद है।

यह पूरा घटनाक्रम एक बार फिर दिखाता है कि जब लोग मिलकर अपने जीवन और साझा प्राकृतिक संसाधनों के सवाल पर खड़े होते हैं, तो सत्ता को झुकना पड़ता है लेकिन यह भी सच है कि सत्ता अक्सर केवल दिखावे के लिए पीछे हटती है, स्थायी समाधान नहीं देती।

इसलिए अरावली का सवाल अभी किसी अंतिम मुकाम पर नहीं पहुंचा है। जब तक अरावली को कानूनी रूप से एक साझा प्राकृतिक धरोहर घोषित कर सुरक्षित नहीं किया जाता, तब तक जन दबाव और आंदोलन को जारी रखना ही एकमात्र रास्ता है क्योंकि किसी भी व्यवस्था से ऊपर जनता की सामूहिक ताकत ही सबसे बड़ी शक्ति होती है।

अरावली को बचाने का यह आंदोलन अभी मंजिल से दूर है, और इसे अंजाम तक पहुंचाने की जिम्मेदारी अभी बाकी है।

धर्मेंद्र आजाद

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व चिंतक हैं)