विविधा

वास्तुशिल्प की अनुकृति ‘भोरमदेव’

-श्रीकान्त उपाध्याय

मानव सभ्यता विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुँच रहा है। वास्तुकला के अद्भुत नमूने, गगनचुम्बी भवनों, मनोरंजन की आधुनिकतम सुविधाएँ आज मानव ने तैयार कर लिए हैं, फिर भी हमें सुकून नहीं मिल रहा हैं। जीवन में कहीं न कहीं रिक्तता महसूस होती है।

हम पूर्वजों की परम्पराओं को, रीति-रिवाजों को पिछड़ापन, दकियानुसी और अवैज्ञानिक मान कर उनकी उपेक्षा करते हैं। पेंड़-पौधों को देवी देवता मानकर उनकी पूजा करने में शर्म महसूस करते हैं, जबकि आज पर्यावरण संरक्षण विश्व का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य बन गया है। हम भौतिकता की दौड़ को ही विकास का पैमाना मान रहे हैं और तनावग्रस्त हैं। शांति तथा सुकून की खोज में अपने शुष्क जीवन को सिंचित करने प्रकृति की गोद में पूर्वजों की परम्पराओं, पूर्वजों द्वारा निर्मित कलाकृतियों की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। ऐसी भीड़भाड़ एवं भौतिकता से दूर प्रकृति की ऑंचल में मैकल की मनोरम तराई में स्थित भोरमदेव हमें बरबस ही आकृष्ट करता है।

सात्विक प्रेम प्राय: चिरस्थाई एवं अमरत्व की ओर अग्रसर होता है। यथा भगवान राम का सीता के प्रति, श्री कृष्ण का राधा के प्रति प्रेम दृष्टव्य है। ऐसी ही एक प्रेमकथा जिसमें दक्षिण कोसल में एक राजवंश की श्रृंखला तैयार कर वास्तुशिल्प के इतिहास को चरम शिखर पर स्थापित कर इतिहास रच दिया, जिसे हम भोरमदेव के रूप में देख रहे हैं।

भोरमदेव राज्य में नागवंशी राजाओं के अहिराज से लेकर रामचंद्र देवराय तक पच्चीस राजा हुए। छठवें राजा गोपाल देव ने मुख्य मंदिर का एवं रामचंद्रराय ने मड़वा महल का निर्माण कराया। 10वीं-11वीं सदी में निर्मित मुख्य मंदिर की मूर्ति शिल्प कला को जानें। द्रविण और नागर शैली का मिश्रित रूप यह बलुआ पत्थरों से निर्मित हैं, जिसमें पत्थरों की जुड़ाई के लिए सीमेंट के स्थान पर गोंद, चूना, बेल का गुदा आदि का प्रयोग किया गया है।

मूर्ति शिल्प का विवरण – शिल्पी की कुशलता और पत्थर की सहनशीलता से मूर्तियाँ आकृति लेती हैं। जी हाँ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है भोरमदेव की मोहक मूर्तियाँ।

उमा महेश्वर :- पाषाण पर छैनियाँ चलती रही और प्रतिमाएं जीवन्त होती गई। निर्माण और संहार की प्रतिमूर्ति युगल प्रतिमा उमा महेश्वर दॉयी ओर शिव ललितासन में बैठे हुए प्रदर्शित हैं। अलंकृत प्रभामंडल के दोनों ओर एक-एक मालाधारी विषधर युगल उड़ते हुए प्रदर्शित हैं। चतुर्भुजी पार्वती का दाया हाथ वितर्क की मुद्रा में है। हाथ में बाजूबंद, पैरों में नुपूर, कानों में कुण्डल, गले में हार। इसी तरह महेश्वर के हाथ में त्रिशुल, गले में माला अधर थोड़ा खुला हुआ जटाधारी। रावणानुग्रह एक ही शिलाखण्ड में अठारह मूर्तियां शिल्पकार की कुशलता के प्रमाण हैं।

भैरव प्रतिमा- मुख्य मंदिर अहाते के प्रवेश द्वार पर स्थापित भैरव प्रतिमा में उनके उग्र रूप की शिल्प शास्त्रीय व्यंजना है। चतुर्भुजी भैरव का निचला बायां हाथ आसन पर दृढ़ता से रखे हुए हैं, ऊपरी दांये हाथ में घट तथा निचले दायें हाथ में कटार विस्तीर्ण है। मुख खुला हुआ विकराल एवं भयकारी प्रतीत होता है। गले मस्तक एवं बाजू में सर्पमाला है।

गरूड़ासिनी लक्ष्मी-नारायण – प्रस्तर शिल्प की चरम सीमा सौंदर्य की पराकाष्ठा रूप एवं शृंगार विन्यास का अद्भूत संयोजन गरूड़ासिनी लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा प्रदर्शित है। लक्ष्मी जी की प्रतिमा को ध्यानपूर्वक देखें अधरों पर रहस्यपूर्ण मुस्कान, कपोल का सौंदर्य, पलकों का सुमिलन दर्शनीय है।

गजान्तक शिवमूर्ति – गजासुर नामक दैत्य का वध करने के पश्चात् शिव नृत्यरत हैं। इनके मसाक पर जहाँ मुकुट, कानों में कुंडल गले में मुक्त माला, सर्वाहार तथा चतुरावली हार दृष्टव्य है। गले में विशाल मुण्डमाला तथा दोनों हाथों में गजासुर को उठाए हुए हैं।

मिथुन मूर्तियाँ – तंत्र साधना, यौन शिक्षा, जीवन दर्शन, भोग से योग, संभोग से समाधि इत्यादि अनेकों संयमजनित दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर मिथुन मूर्तियाँ बनाई गई हैं अभिसार करते युगल के ठीक मध्यम में मैथुनरत प्रतिमा, यौवन की प्रतिबद्धता बाह्य दीवारों विशेषकर उत्तर में अंकित हैं।

कथाकार भोरमदेव का मुख्य मंदिर तीन हिस्सों आकाश, पाताल और पृथ्वी में विभाजित है। बाह्य दीवारों का अलंकरण, जल निकास की यथोचित व्यवस्था, वास्तुविद एवं शिल्पकार की कुशलता और निर्माणकर्ता राजा गोपालदेव की गहरी सोंच को प्रदर्शित करता है। साथ ही प्रदर्शित करता है, उस समय की उन्नत मूर्तिकला को जिसमें मूर्तिकार ने प्रतिमाओं को जीवन्त बना दिया हैं। ऐसा लगता है कि अनुकृति बस अब बोल पड़ेंगी। विश्व की महानतम् रचनाओं में से एक भोरमदेव पवित्र प्रेम की परिणति हैं।