शारीरिक अक्षमताओं की चुनौतियों पर खरा उतरते कृत्रिम हाथ-पैर और रोबोटिक अंग

डॉ. शुभ्रता मिश्रा

यूनिवर्सिटी ऑफ़ केम्ब्रिज में गणित और सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफ़ेसर रहे स्टीफ़न हॉकिंग सम्भवतः आईंस्टीन के बाद सबसे बड़े भौतकशास्त्रियों में से एक के रुप में विश्व विख्यात हुए हैं। मोटर न्यूरोन नामक लाइलाज बीमारी से ग्रस्त स्टीफ़न हॉकिंग की लगभग सभी मांसपेशियों से उनका नियंत्रण खो चुका है और अब अपने गाल की मांसपेशी के माध्यम से अपने चश्मे पर लगे सेंसर को कम्प्यूटर से जोड़कर और अन्य विभिन्न उपकरणों द्वारा अपने शब्दों को व्यक्त कर ही वे बातचीत करते हैं। महान वैज्ञानिक स्टीफ़न हॉकिंग ने अपनी शारीरिक अक्षमताओं की चुनौतियों का डटकर सामना करते हुए एक सशक्त विजेता की भांति यह साबित किया है कि मानव जीवन शारिरिक रुप से कितना ही चुनौतीपूर्ण क्यों न हो, परन्तु दृढ़ आत्मसंकल्पों से व्यक्ति अपने लक्ष्यों को पा ही लेता है। हमेशा व्हील चेयर पर रहने वाले हॉकिंग स्वयं को सबसे बेहतरीन वैज्ञानिक बनाने का श्रेय अपनी बीमारी को देते हैं। उनका कहना है कि अपनी अक्षमताओं के कारण ही वे ब्रह्माण्ड पर किए गए अपने विलक्षण शोधों का गहन अध्ययन कर पाए और भौतिकी पर किए गए उनके अध्ययनों ने यह साबित कर दिखाया कि दुनिया में कोई भी विकलांग नहीं होता है।

भारत में अब विकलांग शब्द के स्थान पर दिव्यांग नया नाम दिया गया है। पारिभाषिक रुप से दिव्यांगता मनुष्य की वह दशा है जो क्षति एवं अक्षमता के कारण उत्पन्न शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं से संबंधित भूमिकाओं को सामान्य व्यक्तियो की तुलना में करने में बाधक होती है। दिव्यांगता में तीन स्थितियां समाहित होती हैं, पहली स्थिति जिसमें अंगक्षति अर्थात् Impairment से तात्पर्य मानसिक, शारिरिक या दैहिक संरचना में किसी भी अंग का भंग और असामान्य होना शामिल होता है, जिसके कारण उसकी कार्य प्रक्रिया में कमी आती है। दूसरी स्थिति वह होती है जब यह अंग क्षति ऐसी अवस्था में पहुंच जाती है कि प्रभावित व्यक्ति किसी भी काम को सामान्य प्रक्रिया में सम्पन्न न कर सके, तब उसे अशक्तता अर्थात् Disability की श्रेणी में रखा जाता है। लेकिन इन दोनों स्थितियों के अलावा एक और स्थिति बनती है, जिसके कारण व्यक्ति समाज में अपनी भूमिका और दायित्वों का निर्वहन (आयु, लिंग, सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों के फलस्वरुप) कर पाने में असक्षम हो जाता है, तब उसे असक्षमता (दिव्यांगता) अर्थात् Handicap कहा जाने लगता है। दिव्यांग लोगों की चुनौतियों को समझना आसान नहीं है। विकास की मुख्यधारा में इन्हें शामिल करना इससे भी बड़ी चुनौती होती है। सामाजिक विकास परिषद (Council for Social Development) द्वारा प्रकाशित भारतीय सामाजिक विकास रिपोर्ट, 2016 के अनुसार भारत में 26.8 मिलियन व्यक्ति दिव्यांग हैं जो कि भारत की कुल जनसंख्या का 2.2 प्रतिशत है। जबकि विश्व बैंक के अनुसार, भारत में लगभग 4-8 प्रतिशत लोग दिव्यांग हैं। भारत में कुल दिव्यांगों में से 56 प्रतिशत पुरुष हैं। 70 प्रतिशत दिव्यांग ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं। रिपोर्ट के अनुसार चलन अशक्तता (Movement Disability) से ग्रसित दिव्यांगों की संख्या सबसे अधिक है। दिव्यांगता के कई कारण हो सकते हैं। व्यक्ति जन्म से अंधा हो सकता है अथवा उसका कोई अंग अप्रचालनीय हो सकता है। इस प्रकार की दिव्यांगता का प्रायः उपचार असम्भव होता है। फिर भी विज्ञान ने आज जिस सीमा तक उन्नति कर ली है, उससे इस तरह की शारीरिक दिव्यांगता का लगभग उपचार संभव होने लगा है और कुछ परिस्थितियों के यदि उपचार नहीं भी हैं तो उनके लिए अनेक विकल्प सामने आते जा रहे हैं। इन विकल्पों ने शारीरिक रूप से अशक्त व्यक्तियों को एक सामान्य जीवन जीने की दिशा देने का सफल प्रयास किया है। दिव्यांगों के लिए प्रोस्थेसिस अर्थात् कृत्रिम अंगों के प्रत्यारोपण की शल्यवैज्ञानिक व्यवस्था सदियों से चली आ रही है। वर्तमान समय में प्रोस्थेसिस में जिन आधुनिक कृत्रिम अंगों की बाढ़ सी आई है उससे अब दिव्यांग लोग अक्षमता का पर्याय नहीं रह गए हैं, वरन् वे कई क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति को अपरिहार्य बना रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान के सन्दर्भ में शरीर के किसी अंग की जन्मजात अनुपस्थिति या किसी दुर्घटना के कारण क्षत्रिग्रस्त हुए अंग के स्थान पर लगायी गयी कृत्रिम व्यवस्था को कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण प्रक्रिया अर्थात् प्रोस्थेसिस (prosthesis) कहते हैं। आम बोल-चाल की भाषा में प्रोस्थेटिस्ट को कृत्रिम अंग और ऑर्थोटिस्ट को बाह्य सहायक तंत्र (एक्सटर्नल सपोर्ट सिस्टम) के नाम से जाना जाता है। वास्तव में ये प्रोस्थेटिस्ट ऐसे बाह्य उपकरण होते हैं जो शरीर की विकृति या दिव्यांगता को सहारा देते हैं। प्रोस्थेसिस प्रक्रिया के माध्यम से उन लोगों की सहायता की जाती है जो किसी हादसे के कारण या जन्म से ही शारीरिक विकृति का शिकार होते हैं और उनके शरीर का ऑपरेशन करके कृत्रिम यंत्ररुपी अंग लगाए जाते हैं ताकि वो सामान्य जीवन जी सकें।

जब से विज्ञान ने प्रोस्थेटिस्ट और ऑर्थोटिस्ट को सामाजिक जीवन में सफल बना दिया है तब से इनकी मांग काफी बढ़ी है। वैसे भी पूरे विश्व में लगभग हर समय ही लोग तरह-तरह की प्राकृतिक आपदाओं या आपसी वैमनस्य, लड़ाई झगड़ों जैसी सामाजिक कुरीतियों अथवा आजकल अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर युद्धों, आतंकवादी घटनाओं आदि के शिकार होने से और कभी कभी मधुमेह या कैंसर जैसी बीमारियों के कारण अपने अंगों-प्रत्यंगों को खो देते हैं। अतः इन परिस्थितिजन्य अंग भंगता का एकमात्र इलाज प्रोस्थेसिस ही रह जाता है। हांलाकि किसी भी ऐसे दिव्यांग व्यक्ति का इलाज शुरु करने से पहले उससे संबंधित बहुत सी बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है, जैसे उनका भोगौलिक और सामाजिक वातावरण एवं पृष्ठभूमि, साथ ही सबसे महत्वपूर्ण तथ्य होता है उस व्यक्ति की सक्रियता या क्रियाशीलता का स्तर कितना प्रभावी है। प्रोस्थेटिक के लिए उपयुक्त सिद्ध हो जाने के पश्चात् फिर ऑर्थोटिस्ट प्रक्रिया के दौरान दिव्यांग के शरीर के उपचार किए जाने वाले भागों का माप लेकर उपयुक्त बाह्य अंग लगाए जाते हैं। उदाहरण के लिए जैसे किसी पोलियोग्रस्त व्यक्ति को कृत्रिम कैलिपर्स लगाना है, तो इस पूरी प्रक्रिया में मापन, फैब्रीकेशन और फिटिंग ये तीन बातें शामिल होती है। वर्तमान में विज्ञान ने प्रायः सभी तरह के मानवीय कृत्रिम अंगों को बनाने के सफल प्रयास कर लिए हैं। एक समय था जब लोग कृत्रिम मानवीय अंग के रुप में सिर्फ नकली दांतों के उपयोग के बारे में जानते थे। फिर धीरे धीरे कृत्रिम हाथ पैर के बारे में लोगों को मालूम होना शुरु हुआ। आम भाषा में कृत्रिम अंगों को लोग नकली अंग के नाम से ज्यादा जानते हैं। आजकल हर तरह के नकली अंगों को प्रत्यारोपित करवाने का प्रचलन पिछले कुछ दशकों से काफी बढ़ गया है। कृत्रिम पैरों और हाथों को भलीभांति प्रत्यारोपित करने के लिए अंग विशेष यानि कृत्रिम हाथ या पैर, इंटरफेस (या सॉकेट) जो कृत्रिम हाथ या पैर को शेष शरीर से जोड़ने के लिए होता है और नियंत्रण प्रणाली, इन तीनों भागों के सामंजस्य पर पूरी प्रोस्थेसिस क्रिया की सफलता निर्भर करती है। इसके साथ ही प्रोस्थेसिस प्रक्रिया तभी सफल मानी जाती है, जबकि अवशिष्ट अंग के स्थान पर लगाए गए कृत्रिम अंग की अंतरंग फिटिंग सुनिश्चित हो जाती है। इसके लिए अवशिष्ट अंग का एक प्लास्टर कास्ट लिया जाता है और इसके चारों ओर एक सॉकेट लगाते हैं। हालांकि, समय के साथ साथ अवशिष्ट अंग का आकार और माप बदल सकते हैं, इसलिए सॉकेटों के बदलवाते रहने की भी सम्भावना बनी रहती है। प्रारम्भ में प्रोस्थेसिस काफी अल्पविकसित प्रक्रिया की तरह हुआ करती थी, लेकिन निरंतर विकसित आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकियों ने कृत्रिम अंगों व उपकरणों को भी काफी परिष्कृत कर दिया है।

जैसे पहले हाथ या पैर कट जाने पर उनके स्थान पर हुकनुमा यांत्रिक उपकरण जैसा लगा दिया जाता था, जो काम तो यंत्रवत करता था, परन्तु देखने में अच्छा नहीं लगता था। आजकल नकली हाथ/पैर/ कृत्रिम अंग बनाने के लिए चिकित्सा ग्रेड पर्यावरण सिलिकॉन रबर और पीवीसी आदि का उपयोग करके जीवंत दिखने वाले कृत्रिम अंग बनाए जाने लगे हैं, जिनको देखकर असली या नकली का पता करना बड़ा मुश्किल होता है। वास्तव में चिकित्सा ग्रेड पर्यावरण सिलिकॉन रबर कृत्रिम अंगों को अर्द्ध पारदर्शी, तरल, नरम व लोचदार बनाने वाली सामग्री है। सिलिकॉन रबर के बिजली और रासायनिक स्थिरता, गैर विषैले और बिना गंध जैसे उत्कृष्ट गुणों के कारण इसका शरीर के साथ सीधा संपर्क किया जा सकता है। इसके अलावा यह जल, ओजोन और अपक्षय प्रतिरोधी भी होती है। इसी तरह पीवीसी अर्थात् पॉली विनाइल क्लोराइड एक अक्रिस्टलीय तापसुघट्टय कठोर प्लास्टिक पदार्थ है, जिस पर ऊष्मा तथा रासायनिक पदार्थों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसमें सुघट्यकारी (प्लास्टिसाइजर) मिलाकर उसे नरम व लचीला बनाया जाता है, फिर कृत्रिम अंग बनाने में इसका उपयोग किया जाता है। आजकल जो नकली हाथपैर बनाए जा रहे हैं, उनमें असली की तरह ही बाल, नाखून और शिराएं दिखाई देती हैं। हाल ही में त्रिविमीय (3-डी) तकनीक के माध्यम से पांच अंगों क्रमशः यकृत, कान, धमनियां, स्किन ग्राफ्टिंग और हड्डियों को प्रिंट करने में सफलता पाई गई है।

अमेरिका के वेक फॉरेस्ट इंस्टीट्यूट ऑफ रिजनरेटिव मेडिसिन में 3-डी तकनीक से बायोप्रिंटेड किडनी निर्माण पर शोध चल रहा है। जबकि कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के बायोइंजीनियरों ने 3-डी कान सफलतापूर्वक डिजाइन ही कर लिया है। वहीं पेनसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी और एमआईटी के शोधकर्ताओं को ओपन सोर्स रेपरैप प्रिंटर और कस्टम सॉफ्टवेयर की सहायता से शिराएं और धमनियां बनाने में सफलता प्राप्त की है। इसी तरह वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी ने सिरामिक पावडर से बनी त्रिआयामी हड्डियां प्रिंट करने में सफलता पाई है। स्किन ग्राफ्टिंग भी अपनी तरह की एक लाभदायी प्रक्रिया साबित हो सकती है, जिसमें पहले बायोप्रिंटर स्कैन द्वारा मरीज के घाव को नापा जाता है। फिर एक वॉल्व थ्रॉम्बिन एंजाइम और कोलेजन और फाइब्रिनोजन वाली कोशिकाएं निकाली जाती हैं। इसके बाद उस पर मानवीय फाइब्रोब्लास्ट की परत और फिर केराटिनोसाइट्स यानि त्वचा की कोशिकाओं की परत लगाई जाती है। इसी प्रयोग के आधार पर शीघ्र ही भविष्य में सीधे घाव में नई त्वचा प्रिंट की जा सकने की उम्मीद की जा रही है। आधुनिक कृत्रिम अंगों की वास्तविक स्पर्श संवेदना को महसूस कर पाने के पीछे एक लम्बा इतिहास छिपा पड़ा है। उदाहरण के लिए सन् 1861 से 1865 के दौरान हुए अमेरिकी गृहयुद्ध के पश्चात् लगभग 35000 सैनिकों को कृत्रिम अंगों की आवश्यकता हुई थी। अतः अनेक कार्यात्मक अंग बनाने का बीड़ा उठाया गया। सैनिकों के अलावा लोगों को भी कृत्रिम अंग लगाए गए, जिनमें एक अठारह वर्षीय इंजीनियरिंग छात्र जेम्स एडवर्ड हेंगर वो पहला व्यक्ति था, जिसने सेना से कृत्रिम अंग प्राप्त किया था। हेंगर उसे पाकर संतुष्ट तो नहीं थे, अतः उन्होंने इस दिशा में कुछ परिष्कृत करने का संकल्प लिया और कृत्रिम अंग निर्माण की एक जे.ई. हैंगर कम्पनी स्थापित की। आज वही हैंगर कम्पनी कृत्रिम अंग बनाने वाली और अरबों डॉलरों में व्यापार करने वाली एक प्रतिष्ठित अमेरिकी कम्पनियों में से एक है। अमेरिका के प्रोफेसर चार्ल्स रैडक्लिफ को प्रोस्थेटिक्स बायोमैकेनिक्स का जनक माना जाता है। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में एक इंजीनियरिंग अधिकारी के रूप में अमेरिकी नौसेना में 1948 में आर्थोटिक्स और प्रोस्थेटिक्स क्षेत्र में अपना विशिष्ट कैरियर शुरू किया था।

कृत्रिम अंग निर्माण की आरम्भिक प्रक्रियाओं जैसे चतुर्भुजाकार सॉकेटों, पैटेलर-टेनडन-बियरिंग (पीटीबी) प्रोस्थेसिस, सॉलिड एंकल कुशन हील (एसएसीएच) फूट और फोर-बार प्रोस्थेटिक नी आदि को विकसित करने में सर रैडक्लिफ का अग्रणी योगदान रहा है। प्रोस्थेसिस के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण एवम् व्यापक योगदान के लिए रैडक्लिफ को 1997 में अमेरिकन एकेडमी ऑफ आर्थोटिस्ट्स एण्ड प्रोस्थेटिस्ट्स ने मानद सदस्यता पुरस्कार और 2006 में हैंगर एजुकेशनल फेयर में लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके द्वारा प्रतिपादित बायोमैकेनिक्स के मौलिक सिद्धांत 50 से अधिक साल बाद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। उनके महान सिद्धांतों के उपयोग द्वारा ही वर्तमान में दुनियाभऱ के प्रोस्थेटिस्ट और चिकित्सक नित नया कुछ कर पा रहे हैं। यह सच है कि वर्तमान में प्रयुक्त हो रहे कृत्रिम हाथ पैर प्रोस्थेसिस प्रक्रिया के डिजाइन और प्रौद्योगिकी के परिष्कृत व अद्यतयन के कारण अद्भुतरुप से विकसित हो पाए हैं। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि भारतीय ऋगवेद में वर्णित एक योद्धा रानी विषपाला के दैवीय लौह कृत्रिम पैर से लेकर प्राचीन पाश्चात्य विश्व धर्मों में उल्लिखित एज़्टेक ईश्वर के द्वारा प्राकृतिक ज्वालामुखी कांच से निर्मित एक कृत्रिम ओब्सीडियन पैर तक और पूर्व रोमन काल में यूरोप और एशिया में रहने वाले और कांस्य युग के उत्तरार्ध में विकसित संस्कृति वाले सेल्ट्ज़ लोगों की एक कृत्रिम रजत हाथ प्राप्त करने की किंवदंती से कृत्रिम अंगों के प्रचलन की अतिप्राचीन प्रमाणिकता सिद्ध होती है। इसी तरह प्राचीन मिस्र और प्राचीन रोम में हुई खुदाई से बरामद कलाकृतियों से पता चला है कि उस समय भी कृत्रिम अंगों का इस्तेमाल किया जाता था। ब्रिटेन के मैनचेस्टर विश्वविद्यालय द्वारा किए गए शोध इंगित करते हैं कि प्राचीन मिस्र के मकबरों से मिलीं कृत्रिम पैर की दो उंगलियां में दुनिया के सबसे पुराने कृत्रिम अंग हो सकती हैं। इन दोनों उंगलियों के नाम ग्रेवेली चेस्टर टो और ताबाकेतेनमत टो बताए जाते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि ग्रेवेली चेस्टर टो 600 ईसा पूर्व की है, जो कागज की लुगदी की तरह की किसी सामग्री की बनी हुई प्रतीत होती है। जबकि दूसरी उंगली ताबाकेतेनमत टो एक महिला ममी के पैर की है, जो लकड़ी और चमड़े से मिलकर बनी लगती है। उसके बाद से लगातार मौजूदा कृत्रिम अंग के निर्माण तक निरंतर अनेक किवदंतियां पूरे विश्व में चलती आ रही हैं। 16वीं सदी में एम्ब्रायसी पारे नामक एक सर्जन द्वारा निर्मित उत्कृष्ट कृत्रिम अंगों और आंखों के प्रत्यारोपण का उल्लेख मिलता है।

17 वीं शताब्दी में एक डच सर्जन, पीटर वर्दुइन द्वारा बनाए गए कृत्रिम निचले पैर के प्रमाण भी मिले हैं। हालांकि इन प्राचीन कृत्रिम अंगों को उनके मूलरुप में देख पाना सम्भव नहीं है, परन्तु क्रियाशील रुप में कृत्रिम अंगों को काम करते देखने का सौभाग्य अवश्य हमारी पीढ़ी को मिल रहा है। इसका सर्वश्रेष्ठ विश्वस्तरीय उदाहरण ब्लेड रनर के नाम से मशहूर दक्षिण अफ्रीका के पैरा-ओलंपिक खिलाड़ी ऑस्कर पिस्टोरियस हैं, जो अपने कार्बन फाइबर बहुलक निर्मित कृत्रिम पैरों के बल पर दौड़कर एक गैर विकलांग विश्व ट्रैक पदक जीतने वाले पहले धावक बने। इसी तरह 15 अप्रैल, 2013 को आयोजित हुई वार्षिक बोस्टन मैराथन के दौरान हुए जबर्दस्त बम विस्फोट से तीन लोगों की मौत हो गई थी और कई सौ अन्य घायल हो गए थे, जिनमें 16 लोगों को अपने हाथपैर गंवाने पड़े थे। इन्हीं में एक पेशेवर मशहूर बॉलरूम नर्तकी एडरिएन हेसलेट-डेविस भी शामिल थीं। परन्तु आश्चर्यजनक बात यह है कि सन् 2016 में हुई मैराथन में एडरिएन एक बार फिर दौड़ीं। लेकिन इस बार वे अपने हेसलेट-डेविस लैग नामक कृत्रिम पैर की सहायता से दौड़ी थीं। इतना ही नहीं वे पुनः मंच पर नृत्य भी कर पा रही हैं। भारत भी कृत्रिम अंगों के निर्माण कार्य में पीछे नहीं रहा है। भारत में शासकीय पुनर्वास चिकित्सा संस्थान, चेन्नई में कुछ साल पहले किए गए अध्ययनों में पाया गया था कि हमारे देश में ज्यादातर लोगों को सड़क दुर्घटनाओं के कारण अपने पैर खोने पड़ते हैं, जबकि इसके लिए दूसरा बड़ा कारण मधुमेह रोग है। सन् 1950 तक भारत में नागरिकों के लिए बहुत कम कृत्रिम अंग उपलब्ध थे, क्योंकि पुणे का कृत्रिम अंग केंद्र केवल सशस्त्र बलों के लिए ही मुख्य रूप से अपनी सेवाएं प्रदान करता था। हांलाकि भारत में पिछले कुछ वर्षों में स्थिति में तेजी से बदलाव आए हैं। 1968 में किसी प्रकार की दुर्घटना में पैर या उसका कोई हिस्सा गंवा चुके लोगों के लिए ऑर्थोपेडिक सजर्न पी.के. सेठी ने ‘जयपुर फुट’ का विकास किया था। घुटने से नीचे लगाये जाने वाले इस कृत्रिम अंग को जयपुर के भगवान महावीर विकलांग संस्थान ने डिजाइन और विकसित किया। भारत सहित दुनिया के कई अन्य देशों में लाखों लोगों को ‘जयपुर फुट’ का लाभ मिला है और उनका जीवन बेहतर बनाने में इसकी बड़ी भूमिका रही है। प्रख्यात भारतीय नृत्यांगना सुधा चंद्रन ‘जयपुर फुट’ से अपना नृत्य जीवन पुनः संवारने वाली जीती जागती हस्ताक्षर बन गई हैं। 1981 में सुधा चंद्रन को एक दुर्घटना में अपना पैर गंवाना पड़ा था, लेकिन जयपुर फुट ने इनके जज्बे को प्रोत्साहित किया और उसके बाद से वे लगातार सफलताओं की सीढ़ियां चढ़ती गईं। भगवान महावीर विकलांग संस्थान अपनी स्थापना से अब तक भारत और विश्व के अनेक देशों में अपने शिबिरों द्वारा निःशुल्क कृत्रिम अंग लगाकर विश्व स्तर पर दिव्यांगों की निःस्वार्थ सेवा करता आ रहा है। वर्ष 2009 में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों ने भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति के साथ मिलकर एक उत्कृष्ट चलायमान घुटने वाला पैर तैयार किया था, जिसे स्टैनफोर्ड-जयपुर घुटने वाले जयपुर फुट के नाम से जाना जाता है।

यह इम्प्रेगनेटेड नायलॉन से बना होता है और ब्लॉकों सॉकेट और स्टील बोल्टों से बने होने के कारण व्यक्ति को सामान्य ढंग से चलने का अनुभव कराता है। टाइम पत्रिका (23 नवंबर, 2009) में इस कृत्रिम पैर को वर्ष 2009 के विश्व के पचास सर्वश्रेष्ठ आविष्कारों में से एक के रूप में चुना गया था। इसी तरह भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) बंगलौर और बायोमेडिकल इंजीनियरिंग संस्थान विभाग (आईबीएमई) ने मिलकर पूरक नाम से एक बायोनिक हाथ बनाया है, जो उचित मूल्य पर उपलब्ध होगा। जर्मनी की कृत्रिम अंग बनाने वाली प्रसिद्ध कंपनी आटोकाप और कानपुर की एल्किमो (आर्टिफिशियल लिंब्स मैन्युफैक्चरिंग कारपोरेशन) ने साथ मिलकर कृत्रिम पैर बनाने के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए हैं। इस अनुबंध के तहत जर्मन कंपनी जितने कृत्रिम पैर कानपुर में बनाती है, उसके तीस प्रतिशत कृत्रिम पैर दुनिया के अन्य देशों को बेचती है। इसके पूर्व आटोकाप कंपनी यह कृत्रिम पैर चीन से लेती थी। भारत की मेक इन इंडिया योजना को साकार करने के लिए केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय के अधीन काम करने वाले भारतीय कृत्रिम अंग निर्माण निगम (एल्मिको) और जर्मन कंपनी के बीच 2015 में एक समझौता हुआ है, जिसके तहत जर्मन कंपनी आटोकाप अपनी तकनीकें एल्मिको को हस्तांतरित करती है। 2015-16 में एल्मिको ने पूरे देश में 389 निःशुल्क दिव्यांग शिबिर लगाए थे, जिसमें एक लाख 11 हजार 52 दिव्यांगों को निःशुल्क उपकरण दिए गए थे। इन उपकरणों की कीमत करीब 80 करोड़ थी। इसी तरह सर्वशिक्षा अभियान के तहत छह से 14 साल के दिव्यांग बच्चों के लिए पिछले वर्ष 115 शिबिर लगाए गए थे, जिसमें 86 हजार 95 दिव्यांग बच्चों को 37 करोड़ रुपए के विभिन्न उपकरण दिए गए। वैश्विक स्तर पर कृत्रिम अंगों के निर्माण की विकास यात्रा पर दृष्टिपात करें तो एक बात सामने आती है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से लकड़ी और चमड़े से निर्मित कृत्रिम अंग भारी और बोझिल हुआ करते थे। धीरे धीरे इनको बनाने वाली सामग्रियों में बदलाव आते गए और कृत्रिम अंगों को बनाने में प्लास्टिक, पॉलीकार्बोनेट्स, रेजिन, और कार्बन फाइबर जैसी हल्की सामग्री प्रयोग की जाने लगी। अब तो सेंसर और माइक्रोप्रोसेसर वाले प्रोस्थेसिस अंग बाजार में आ गए हैं। परन्तु विडम्बना यह है कि ये अंग अपने जितने विकसित रुप में आते जा रहे हैं, उतने ही काफी अधिक मंहगे साबित हो रहे हैं। ये सामान्य दिव्यांगों की पहुंच से परे हैं। इस समय सबसे उन्नत कृत्रिम अंग मायोइलेक्टिक प्रोस्थेसिस है, जो एक नियंत्रित व बाह्य संचालित कृत्रिम अंग है। इसको मांसपेशियों द्वारा स्वाभाविक रूप से उत्पन्न विद्युत संकेतों का उपयोग कर नियंत्रित किया जाता है। यह हाथविहीन वाले दिव्यांगों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त हैं। इसमें कृत्रिम कोहनी, कृत्रिम कलाई कृत्रिम हाथ, कृत्रिम अंगूठा और कृत्रिम अंगुलियां मिलकर हाथों के स्वाभाविक संचालन का अनुभव कराते हैं।

त्वचा की तरह कवर से ढंके होने के कारण ये दिखने में भी वास्तविक लगते हैं। हाथ व पैर वाले अधिकांश कृत्रिम अंगों में अनुलग्नकों की आवश्यकता होती है। आजकल इसी पर आधारित ओसिओ-एकीकरण नामक अस्थि-संयोजन प्रक्रिया का काफी उपयोग किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में अस्थिमज्जा में कृत्रिम अंग को प्रत्यारोपित कर जैविक प्रतिक्रिया का संचालन कराया जाता है। इस तरह जैव संगत प्रत्यारोपण द्वारा बाहरी कृत्रिम अंग और भीतरी जीवित ऊतक के मध्य इंटरफेस जैव गतिविधि के माध्यम से एक सशक्त व दीर्घावधिक स्थायी संबंध जैव एकीकरण से स्थापित किया जाता है। इन दिनों दंत प्रत्यारोपण में ओसिओ-एकीकरण एक बड़ी भूमिका निभा रही है। इस समय शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क तरंगों या अवशिष्ट अंग की मांसपेशियों के माध्यम से एक और अतिमहत्वपूर्ण कृत्रिम अंग प्रणाली विकसित की है, जिसे टारगेटेड मसल री-इनरवेशन (टीएमआर) नाम दिया गया है। 2014 में संयुक्त राज्य अमेरिका के जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय ने सौ सेंसरों युक्त एक मॉड्यूलर कृत्रिम हाथ बनाकर एक 59 वर्षीय व्यक्ति को लगाए, जो एक दुर्घटना में अपने दोनों हाथ खो चुका था। यह कृत्रिम हाथों को बनाने से लेकर सफल प्रत्यारोपण का अब तक का दुनिया का सबसे बड़ा परिष्कृत हाथ प्रत्यारोपण है। इस मॉड्यूलर कृत्रिम हाथ में कंपन, बल, चुभन, तापमान / गर्मी आदि को महसूस करने के लिए उंगलियों के छोरों पर अतिरिक्त सेंसर लगाए गए हैं। उस व्यक्ति की पुरानी भुजाओं वाली तंत्रिकाओं को कृत्रिम हाथों से पुनःसंयोजित किया गया है ताकि मॉड्यूलर कृत्रिम हाथ से निकलने वाली संवेदनाओं की जानकारी मस्तिष्क तक पहुंच सकें। कुछ आवश्यक प्रशिक्षणों के बाद से इन मॉडुलर हाथों से वह व्यक्ति अब अच्छी तरह काम कर पा रहा है। दुनिया भर में मेडिकल रोबोटिक्स का बाजार प्रतिवर्ष 50% की दर से बढ़ रहा है। ‘बायोनिक आर्म’ यानी कृत्रिम बाजू जिसे मोबाइल फोन ऐप से नियंत्रित किया जाता है, इसे आई-लिंब कहा जाता है। आई-लिंब दुनिया का सबसे दक्ष, बहुआयामी, मानवरूपी रोबोटिक हाथ है जिसे कई जरूरतमंद लोगों के शरीर में लगाया गया है। इसका विकास ब्रिटिश एसएमई टच बायोनिक्स द्वारा एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर किया गया है। इसे हाथ की कोहनी तक पहना जा सकता है। इसकी उंगलियां आम उंगलियों की तरह काम करती हैं। कंपनी का दावा है कि मेडिकल साइंस की दुनिया में यह अब तक का सबसे हाई-टेक आविष्कार है। इसी तरह के काम विश्व के अन्य संस्थानों जैसे कनाडा के रेयरसन विश्वविद्यालय में भी मस्तिष्क के संकेतों द्वारा नियंत्रित एक कृत्रिम स्नायु-संचालित (एएमओ) भुजा विकसित की है। इसमें किसी तरह की शल्यक्रिया की आवश्यकता नहीं होती है। इसको उपयोगकर्ता के मस्तिष्क के संकेतों द्वारा नियंत्रित किया जाता है और यह कृत्रिम मांसपेशियों की तरह काम करने वाले सरल वायवीय पंप और वाल्व द्वारा संचालित होता है। इसमें कलाइयों में लगे इलेक्ट्रोड मांसपेशियों से निकलने वाली इलेक्ट्रिकल इम्पल्स से काम करते हैं और हाथ में लगा माइक्रो कंप्यूटर मोटर को सक्रिय करता है। इसी तरह एक अन्य अविष्कार के तहत ब्रिटेन की एक कम्पनी ओपन बायोनिक्स और डिज्नी ने कम कीमत के अद्भुत बायोनिक हाथों की श्रृंखला तैयार की है। इनमें मार्वेल के आयरन मैन, फ्रोजेन स्नोफ्लेक और स्टार वार्स लाइटसेबर हाथ शामिल हैं।

डिज्नी ने इस परियोजना के लिए 1.20 लाख डॉलर (करीब 77.8 लाख रुपये) दान दिया है। ठीक कुछ इसी तरह वैज्ञानिकों ने हाथ के जैसा एक ऐसा रोबोट बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है, जो हू-ब-हू असली हाथ की तरह ही काम करता है। यह रोबोट हाथ भी व्यक्ति के मस्तिष्क से नियंत्रित होता है। यह रोबोट हाथ विशेषरुप से उन लोगों के लिए तैयार किया गया है जो लकवे, पार्किंसन जैसी बीमारियों से ग्रस्त होते हैं और हाथ से अपने काम नहीं कर पाते हैं। जिन लोगों के हाथ नहीं होते वे लोग भी इसका उपयोग कर सकते हैं। 2016 में इसका परीक्षण स्पेन में कुछ मरीजों पर किया गया था। इसमें वस्तुओं को उसी तरह से पकड़ा जा सकता है जैसे अंगुलियों से पकड़ते हैं। इसका उपयोग करने के लिए रोबोट को हाथ में पहनना पड़ता है। इसके बाद एक कैप, जो इससे जुड़ी होती है, वह भी पहननी पड़ती है और उस कैप के माध्यम से ही मस्तिष्क इस तक अपने संकेत भेजता है। इस रोबोट को जर्मनी के एक न्यूरो सर्जन ने तैयार किया है। हाथों की तरह ही अत्याधुनिक व अतिपरिष्कृत कृत्रिम पैरों को भी बनाने में सफलता मिलती जा रही है। ऑस्ट्रिया में वैज्ञानिकों ने ऐसा कृत्रिम पैर बनाया है जो उसे पहनने वाले व्यक्ति को असली पैर जैसे अहसास दिलाता है। लिंज विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हुबर्ट एग्गर के अनुसार व्यक्ति को सेंसर युक्त कृत्रिम पैर लगाया गया है जो इसके ऊपरी हिस्से से रुधिर धमनियों तक संवेदनाएं पहुंचाते हैं। ये सेंसर ही उस पैर को बताते हैं कि वहां एक पैर मौजूद है और इसे पहनने वाला जब चलता है तो उसे लगता है कि ज़मीन पर पैर रख रहा है। आइसलैंड की ओसुर कम्पनी ने भी ऐसा प्रोप्रिओ फूट नामक बायोनिक पैर तैयार किया है जो व्यक्ति की सोच से नियंत्रित होता है। इस तकनीकी के तहत सर्जरी के माध्यम से मायोइलेक्ट्रिक सेंसर को व्यक्ति के मांसपेशियों के ऊतकों में लगाया जाता है, जिससे यह तंत्रिकाओं और मस्तिष्क के बीच संकेत को समझने में सहायता करता है। पैर की गति एक रिसीवर से जुड़ी होती है और पूरी प्रक्रिया इस तरह से सुव्यवस्थित होती है कि यह रोगी को अवचेतन रूप से गति करने में मदद करती है। प्रत्यारोपित किए गए सेंसर कृत्रिम पैर में लगे कम्प्यूटर को बेतार संकेत भेजते हैं, जिससे वह अवचेतन अवस्था में आता है और इससे वह पैरों की गति, प्रतिक्रिया के साथ नियंत्रण भी रखता है। वास्तव में इस प्रोप्रिओ फूट से प्रयोगकर्ता को सहज और एकीकृत अनुभव होता है।

पैरों में कृत्रिम घुटने प्रत्यारोपित करने से भी लोगों को चलने के लिए सामान्य जीवन मिल सका है। मनुष्य के घुटने की संरचना एवं कार्यप्रणाली अत्यंत ही जटिल होती है। अमेरिका के मैक्स मेडिकल संस्थान के वैज्ञानिकों ने जियोमेट्री की एनयूआरबीएस विधि की सहायता से फ्रीडम नी नामक प्राकृतिक घुटने के सदृश एवं उसकी तरह काम करने वाले कृत्रिम घुटने का विकास किया है। गठिया, ऑस्टियो आर्थराइटिस अथवा दुर्घटना के कारण चलने-फिरने में लाचार हो चुके मरीजों को कई बार घुटना बदलवाने की जरूरत पड़ जाती है लेकिन आजकल एनयूआरबीएस विधि से ऐसे कृत्रिम घुटने का निर्माण होने लगा है कि जो आकार-प्रकार में प्राकृतिक घुटनों के समान होने के अलावा प्राकृतिक घुटनों की तरह काम भी करते हैं। एनयूआरबीएस (नॉन यूनिफार्म रैशनल सपलाइन सरफेसस) तकनीक भी त्रिविमीय (3-डी) जियोमेट्री पर आधारित ऐसी विधि है जिसके द्वारा किसी भी तरह के जटिल से जटिल त्रिआयामी स्वरूप बनाए जा सकते हैं। इन कृत्रिम घुटनों के प्रत्यारोपण के बाद लोगों को चलने में किसी भी तरह की परेशानी नहीं होती है। इतनी वैज्ञानिक प्रोस्थेसिस उपलब्धियों के बावजूद भी विश्व में बड़ी संख्या में ऐसे दिव्यांगजन हैं जो इन सभी नवीन प्रौद्योगिकियों और अनुप्रयोगों से प्राप्त होने वाले लाभों से वंचित रह जाते हैं, क्योंकि वे उनकी कीमत भर पाने में असमर्थ होते हैं। हालांकि भारत सहित बहुत से ऐसे देश हैं जहां बहुत सी ऐसी संस्थाएं हैं जो निःशुल्क रुप से शारीरिक दृष्टि से बाधित व्यक्तियों को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और व्यावसायिक प्रशिक्षण सेवाएं प्रदान कर रही हैं। कुछ संस्थानों द्वारा ऑर्थोटिक और अन्य पुनर्वास उपकरण न्यूनतम लागत पर प्रदान किए जाते हैं। प्रोस्थेसिस प्रक्रिया के कारण दिव्यांगजनों के जीवन में सुधार और उसकी गुणवत्ता में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है। इससे दिव्यांगजनों को विश्वास जाग्रत होता है कि वे अपने जीवन की दैनिक चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना कर सकते हैं।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

16,981 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress