आप वहां क्या कर रही हैं अरूंधती?

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-संजय द्विवेदी

मुझे पता था वे अपनी बात से मुकर जाएंगी। बीते 2 जून, 2010 को मुंबई में महान लेखिका अरूंधती राय ने जो कुछ कहा उससे वे मुकर गयी हैं। दैनिक भास्कर के 12 जून, 2010 के अंक में छपे अपने लेख में अरूधंती ने अपने कहे की नई व्याख्या दी है और ठीकरा मीडिया पर फोड़ दिया है। मीडिया के इस काम को उन्होंने मीडिया का ग्रीनहंट नाम दिया है। जाहिर तौर पर अरूंधती को जो करना था वे कर चुकी हैं। वे एक हिंसक अभियान से जुड़े लोगों को संदेश दे चुकी हैं। 2 जून के वक्तव्य की 12 जून को सफाई देना यानि चीजें अपना काम कर चुकी हैं। अरूधंती भी अपने लक्ष्य पा चुकी हैं। पहला लक्ष्य था वह प्रचार जो गुनहगारों के पक्ष में वातावरण बनाता है, दूसरा लक्ष्य खुद को चर्चा में लाना और तीसरा लक्ष्य एक भ्रम का निर्माण।

यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक महान लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। अब अरूधंती ने अपने ताजा लेख में लिखा हैः “मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।”

नक्सली हिंसा, हिंसा न भवतिः

ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों। ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता है। अरूंधती राय के आउटलुक में छपे लेख को पढ़िए और बताइए कि वे किसके साथ हैं। वे किसे गुमराह कर रही हैं।

अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाइएः

अब वे अपने बयान से उठ सकने वाले संकटों से आशंकित हैं। उन्हें अज्ञात भय ने सता रखा वे लिखती है-“क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए। या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप ‘हमारे’ साथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं। ” आखिर अरूंधती यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं। उन्हें किससे खतरा है। मुक्तिबोध ने भी लिखा है अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगें। महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवां रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार जिनके हाथ अफजल गुरू और कसाब को भी फांसी देते हुए कांप रहे हैं वो अरूंधती राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहां है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहां करेगा। हमारी अब तक की अर्जित व्यवस्था में निर्दोष ही शिकार होते रहे हैं।

अरूंधती इसी लेख में लिख रही हैं- “26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।” क्या भारत मे वास्तव में आपातकाल है, यदि आपातकाल के हालात हैं तो क्या अरूंधती राय आउटलुक जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में अपने इतने महान विचार लिखने के बाद मुंबई में हिंसा का समर्थन और गांधीवाद को खारिज कर पातीं। मीडिया को निशाना बनाना एक आसान शौक है क्योंकि मीडिया भी इस खेल में शामिल है। यह जाने बिना कि किस विचार को प्रकाशित करना, किसे नहीं, मीडिया उसे स्थान दे रहा है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतंत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं। मीडिया का विवेकहीनता और प्रचारप्रियता का इस्तेमाल करके ही अरूंधती राय जैसे लोग नायक बने हैं अब वही मीडिया उन्हें बुरा लग रहा है। अपने कहे पर संयम न हो तो मीडिया का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।

कारपोरेट की लेवी पर पलता नक्सलवादः

अरूंधती कह रही हैं कि “ मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को ‘माओवादी’ करार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके।” अरूंधती के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। अरूंधती जी पता कीजिए नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहां काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए- वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए चाहे जितना भी खाओ स्वाद से पचाओ के मंत्र पर काम कर रहे हैं। आदिवासियों के नाम पर लड़ी जा रही इस जंग में वे केवल मोहरा हैं। आप जैसे महान लेखकों की संवेदनाएं जाने कहां गुम हो जाती हैं जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर लाल आतंक के चलते सैकड़ों परिवार तबाह हो जाते हैं। राज्य की हिंसा का मंत्रजाप छोड़कर अपने मिलिंटेंट साथियो को समझाइए कि वे कुछ ऐसे काम भी करें जिससे जनता को राहत मिले। स्कूल में टीचर को पढ़ाने के लिए विवश करें न कि उसे दो हजार की लेवी लेकर मौज के लिए छोड़ दें। राशन दुकान की मानिटरिंग करें कि छत्तीसगढ में पहले पचीस पैसे किलो में अब फ्री में मिलने वाला नमक आदिवासियों को मिल रहा है या नहीं। वे इस बात की मानिटरिंग करें कि एक रूपए में मिलने वाला उनका चावल उन्हें मिल रहा है या उसे व्यापारी ब्लैक में बेच खा रहे हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करेंगें। आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब नक्सलियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी,बताई और छापी जाएगी। क्योंकि आप एक सेलिब्रिटी हैं। मीडिया आपके पीछे भागता है। पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। खुले दिल से, मुक्त मन से, उसी आदिवासी की तरह निर्दोष बनकर जाइएगा जो इस जंग में हर तरफ से पिट रहा है। सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं। किंतु लोकतंत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे संविधान, लोकतंत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं आप उनके साथ क्यों और कैसे खड़ी हैं अरूंधती। एक संवेदनशील लेखिका होने के नाते इतना तो आपको पता होगा साम्यवादी या माओवादी शासन में पहला शिकार कलम ही होती है। फिर आप वहां क्या रही हैं अरूंधती?

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  1. डा. मयंक आप सही कहते हैं. अरुंधती और इनके साथी विदेशी ताकतों के इशारे पर नाचने वाली कठपुतलियाँ हैं जो भारत में hinsa की jwaalaa bhadkaanaa chaahate हैं, desh ko todanaa chaahate हैं. deshdroh की agni bhadkaanaa chaahate हैं.इनके chehron पर pade parde uthaanaa bahut zaruri hai.

  2. में अरुंधती से नफरत करता हूँ उसके बारे में कोई टिप्पणी भी नहीं करना चाहता.

  3. इस देश में महिलाओ पर हाथ नहीं उठाया जाता कलम का जबाव कलम से देना ही विचारको की महानता है

  4. अरुंधती राय जैसे लेखक और बुद्धिजीवी केवल शब्दों के मायाजाल में फसाकर भारत की जनता को भ्रमित करने का प्रयास करते हैं ,
    लेकिन जनता सब जानती है/
    सच यही है की समाजवाद के नाम पर चलाया जा रहा यह आन्दोलन कोई जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष जो कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है,बिलकुल नहीं हैं /
    यह तो भारत को कमजोर करने के लिए विदेशी ताकतों की शह पर संचालित योजना का एक हिस्सा भर है /
    अरुंधती राय जैसे लोगों को पहले यह ताकते पुरस्कार देती हैं, फिर अपने हित में उपयोग करती हैं/
    डाक्टर संजय ने अपने इस लेख में अरुंधती राय से व्यवस्था सम्बन्धी जो प्रश्न उठायें हैं वह बिलकुल सही हैं,
    अच्छा हो सभी नक्सली और माओवादी इसे पद्गें और अपने देश बंधुओं को मारने के पहले विचार करें की निरीह और बेगुनागों की हत्याकर वह कौन सा समाजवाद लायेंगे ?

  5. प्रियवर ,
    न तो मैं अरुंधती के लेखन का समर्थक हूँ और न ही सरकार के तथा सरकारी भ्रष्ठाचार के विरुद्ध होने वाले आन्दोलनों का विरोधी !
    हाँ गरीव और निर्दोष लोगों के मारे जाने या उनके विरुद्ध किसी भी अतिवादी कार्यवाही का प्रवल विरोधी हूँ ………….
    ठीक वैसे ही विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका द्वारा देश के ९५ % लोगों के शोषण का भी प्रवल विरोधी हूँ !
    परन्तु एक बात सदा ही विचारणीय होनी चाहिए की यदि जनता द्वारा चुनी गयी जनाकल्यानकारी सरकारें अपना दायित्व भूलकर आकंठ जन-शोषण मैं लिप्त हो जाएँ और लगातार सुधरने से मुकरती चली जाय तो क्या किया जाना चाहिए ?///
    ये एक यक्ष प्रश्न है !
    प्रत्येक व्यक्ति की सोच निश्चित अलग -अलग होगी ही —————-
    ऐसे मैं /////////////
    यहाँ एक प्रश्न प्रासंगिक है !
    क्या वास्तव मैं आज़ादी केवल गाँधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन से ही मिली थी ??????
    क्या उग्र और सशत्र आन्दोलनवादी सुभाष , चंद्रशेखर , आजाद विस्मिल ,की कोई भूमिका नहीं थी ???????????

    आज —–
    मुझे कोई गुरेज़ नहीं यदि आप अरुंधती को कोसते है या फिर नक्सलवाद को या किसी भी हिंसक आन्दोलन को !………..
    परन्तु हर सिक्के के निश्चित रूप से दो ही पहलू होते है ————
    दूसरे पहलू को देखे बिना सिक्के का मूल्याङ्कन नहीं किया जा सकता है …………….
    निश्चित ही आपको सिक्के का दूसरा पहलू यानि सरकार की काली करतूतें या तो दिखाई नहीं देती या फिर आप उनके सहयोगी और समर्थक हैं ++++++++++++

    मैं मानता हूँ की सिक्के के दोनों पहलू सामान्यतया एक साथ नहीं देखे जा सकते है ,,,
    परन्तु ………..
    यदि सिक्के को लेकर दर्पण के सामने खड़े हो जाएँ तो एक ही द्रष्टि पटल से दोनों पहलू का सम्यकाव्लोकन किया जा सकता है !
    अस्तु,
    हमें हर प्रबुद्ध लेखन से यह आशा करनी ही चाहिए की वे किसी एक पक्ष की आलोचना करने की अपेक्षा दोनों पक्षों की समालोचना करें जिससे लोग उस पक्ष को पहचान सकें जो वास्तव मै दोषी है और सारी समस्याओं की जड़ हैं

    मैं किसी भी अतिवादी कार्यवाही का प्रवल विरोधी हूँ
    ,परन्तु—-
    यदि पैर में कांटा लग जाय और गहरे तक जाकर टूट जाय तो-
    दो रास्ते हैं ——-
    (१) बाह्य औषधीय उपचार जैसे गुड और तम्बाकू का लेप करें या megsulf ointment की पट्टी करें !!! फिर लम्बी प्रतीक्षा करें ! इश्वर से प्रार्थना करें !! या,////////////////
    (२) एक कीटानुरहित सुई लेकर(या अन्य किसी शल्य चिकित्सा उपकरण से ) तत्काल कांटे को निकाल बाहर करें बाद मैं कोशिकाओं को हुई क्षति को औषधीय उपचार से ठीक करें !
    दोनों ही उपचार अपने आप मैं पूर्ण एवं प्रचलित एवं तर्कसंगत हैं!

    अब ये व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा देश-काल-परिस्थिति पर निर्भर करता हैं की कोनसा रास्ता स्वीकार करता है !
    इसलिए –
    मेरी दृष्टि मैं प्रथम-जिम्मेदार वो है जो परिस्थिति पैदा करता है !
    “यथा राजा तथा प्रजा ”

    आज आपको आतंकवाद नक्सलवाद ,पूंजीवाद ,रिश्वतखोरी ,दुराचार ,भ्रष्टाचार ,अनाचार आदि जितने भी दुष्कर्मों का महावृक्ष देश में दिखाई देता है!
    उसकी जड़ें कहाँ हैं ????????????
    सिर्फ और सिर्फ ———–
    संसद और विधान सभाओं मैं

    विधायिका / कार्यपालिका के आदेशों के अनुपालन मैं सबसे निचला पायदान –पुलिस या कलेक्ट्रेट या निम्न तम न्यायालय…..क्या होता है यहाँ आप सब जानते हैं ——-

    सिर्फ एक उदहारण ही देता हूँ ——-
    आपने देखा होगा पुलिस का आदर्शवाक्य क्या है ?

    “परित्त्रानाय साधुनाम , विनाशाय च दुश्क्रताम”
    परन्तु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है —-
    “”परित्त्रनाय दुष्टानाम, विनाशाय च साधुनाम “”

    एक पुलिस ठाणे का द्रश्य देखें —
    एक गरीव अपनी बेटी की अस्मत लूटने की फरियाद लेकर पहुंचा ——–संतरी ने घुड़क कर भगा दिया —– कुछ है तो निकाल —रुपये ऐंठे —अन्दर धकेल दिया -मुन्सी ने पूछा क्या है रे— चले आते है कुछ काम धाम है नहीं आ गए रिपोर्ट लिखाने ——-ला निकाल —पैसे लिए —-चल बोल क्या हुआ ——पीड़ित ने बोला कुछ –मुन्सी ने लिखा कुछ , —-दरोगा जी ने क्लास लगा दी — स्साले तुमको कुछ काम धाम नई है, इज्जतदार आदमी के खिलाफ आरोप लगाता है तेरी लोंडिया ही उसके घर गई होगी—–रात को आऊंगा तफ्तीश करने —– चल भाग ——ज़बरदस्ती निकाल बाहर किया !
    दूसरा द्रश्य ———
    इलाके का जाना माना गुंडा / विधायक जी का गुर्गा /ब्लाक प्रमुख का साला ठाणे मै दाखिल हुआ– संतरी ने सेल्यूट मारा —हेड मोहर्रिर ने झुक कर स्वागत किया —-थानाध्यक्ष ने खड़े होकर हाथ मिलाया —पूछा कहिये नेताजी कैसे आना हुआ —-फोन कर दिया होता मैं खुद ही आ जाता ———नेताजी ने कान मै कुछ कहा ——-एक थेलेमैं कुछ सामान दिया —-दरोगा जी एक दम सतर्क हो गए —आप चिंता न करें आज ही स्साले का इंतजाम कर दूंगा !
    तीसरा द्रश्य –
    दो सिपाही उसी गरीव को पीटते हुए घसीटते हुए ला रहे हैं स्साला चोरी करता है वो भी नेता जी के घर मैं —–ऊपर से अपनी बदचलन लोंडिया के साथ बलात्कार की बात करता है ——–चल साले जिंदगी भर जेल मै चक्की पीसना —- उठा कर चोरी के इल्जाम मैं बंद कर दिया —-नेता जी के द्वारा दिया हतियार बरामद दिखा दिया —-नेता जी के द्वारा दिया गया अन्य सामान भी उसके पास से बरामद दिखा दिया ………………
    विद्वान् न्यायाधीश ने कानून की अंधी देवी की मूर्ति के सामने और गाँधी जी फोटो के नीचे सब कुछ जानने के बाद भी —-गवाह और सुबूतों की रोशनी मै १० वर्ष की कैदे-बा-मुशक्कत निर्धारित कर दी!
    —लडके के ऊपर आर्थिक संकट के साथ साथ नेता जी के गुर्गों का कहर टूटा ……..
    —लड़की ने आत्म हत्या करली ………..
    __लड़का बागी हो गया —ऐसे ही सताए हुए कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर —एक सिपाही को दारु पिलाकर उसी की बन्दूक से ठंडा कर दिया —नेताजी की लड़की के साथ दुष्कर्म किया ——तीन सदस्यों को मौत की नीद सुला दिया —–दरोगा जी के पैत्रक गाँव मैं जाकर बेटे सहित गोली से उड़ा दिया !
    —चम्बल के बागिओं ने हाथों हाथ लिया —और बना दिया — कुख्यात आतंकी, डकैत , —-फिरौती वसूलने वाला …………
    बाद मैं…………..
    तमाम लोगों के खून से रंगे हाथ ——— लेकिन वे सभी नेता गुंडे ,पुलिस वाले ,पैसे वाले, व्यापारी या शोषक वर्ग के लोग ही नहीं थे —उनमें कुछ उस वर्ग के लोग भी थे जिनका वह स्वयं प्रतिनिधित्व करता है —– उसके अनुसार सब कुछ जायज —-सबकुछ परिस्थिजन्य——

    —जब कानून और कानून के रक्षक पीड़ित की पीड़ा को दूर नहीं करते वल्कि जानबूझ कर विपरीत-कर्मी बन जाते हैं , तो……….
    दो ही प्रतिक्रिया होती हैं …………
    (१)———- (कांटा निकालने के लिए-गुड-तम्बाकू या औषधि के लेप की तरह ) शोषक वर्ग के झूठे आश्वाशनों का मरहम लगाकर –इश्वाराधीन होकर भगवत्चिन्तन करे अपना अमूल्य समय , कठोर मेहनत से कमाया हुआ धन मुकदमे में खर्च करे और (भोपाल गैस पीड़ितों की तरह ) २५ साल बाद —बहुत हुआ तो —२५ महीनों का दंड ! —— संभवतः देश मै ९९.९९ % लोग इसे ही अपनाते है ! उनकी मजबूरी है
    (२)—-दूसरा वही जो ऊपर आप पढ़ चुके हैं
    .
    इस आदमी से अगर आप मिलेंगे और उसकी वास्तविक व्यथा कथा सुनेंगे तो क्या प्रतिक्रिया देंगे ???????????????
    मैं इस व्यक्ति की अतिवादी प्रतिक्रिया का व्यक्त रूप मैं न सही ह्रदय से समर्थन करता हूँ !
    –अब आप मुझे अरुंधती की तरह कोसेंगे !.
    — जरूर कोसिये………
    –लेकिन ………….
    –मुझे कोसने से पहले ……….
    –अरुंधती को कोसने से पहले ………..
    –अन्य ऐसे ही किसी लेखक को कोसने से पहले ………
    –प्रतिक्रियावादियों को कोसने से पहले……….
    –इन परिस्थितियों को पैदा करने वालों का समर्थन जरूर कीजिए !
    —संसद और विधायिकाओं मैं बैठे दुराचारी अत्याचारी बलात्कारी देश के गरीबों के लुटेरे (जिनकी संपत्ति स्विस बेंकों मैं जमा हैं ) नेता लोगों की जयजयकार ज़रूर कीजिये !

    मैं जानता हूँ …………नहीं कर पाएंगे आप !!
    इसलिए …………..
    अच्छा होगा यदि समय रहते जाग जाएँ !

    सादर
    आचार्य

  6. sir ji, kalam ka sipahi hone ka matlab he sachai sabke samne lana, jo aapne kiya. aapki kalam aur aapko salam. ab sochna to lekhika ji ko he, ki unki kalam kis raste ja rahi he

  7. ab ghar ko mere aag lagii to kuchh maal bachaa thaa jalane se
    aur vo bhii un ke haath lagaa jo aag bujhaane aaye the

    arundhati ko shayad lashon per khade soudagaron ki boli pahle sunai deti hai isi karan unhe gandhi aprasangik lagte hai. abhivyakti ki azadi ke nam par vo naxliyon ki tarafdar bhi khuleaam ban sakti hain. aisa vo isi desh me kar sakti hain. darasal loktantra ko lathitantra aur nottantra se hankne vale murda netao ki napunsakta ka bhi ye parinam hai ki dusre desho ke paison par bhonkne wale kutte aasani se hamare muh par mut ke chale jate hain aur ham tamashbeen khade rahte hai. yahi aalam raha to yakin jaaniye aane vali pidhi yahi kahegi ki-

    sunate hain ke apane hi the ghar luutane vaale
    achchhaa huaa mainne ye tamaashaa nahiin dekhaa

  8. Kaheen Videshee Puruskaron se samman ka sil sila us sajeesh ki shuruaat to naheen thi jiske dwara kissi ki mahimaa mandit kara ke uske vyaktavyon se vishwasneeyata or vajan bdhay jave aur phir baad me uss se bandar baant kara kar bharat Vighatan Kaaree vktavya dilaye javen.
    Ye Fifth Columnist aaj kayee mukhauton ke saath swatantrata se apna kaam kiye ja rahe hain brarat vightan ko ek millimeter aur badhane ke liye.
    Aundhatee cancer ke mareejon ki durdasha per kyon naheen bolatee yedi unhe ghareebon ki chintaa hai
    Arundhatee Population explosion dwar desh ke hote vighatan per kyon naheen bolti.
    Arundhatee Deepawli ke din karodon rupaye rakh hote dekh kyon naheen paseejtee. aur is prayavaran nashk pratha ki samaptee karati?
    Jaa ne deejiye derr ab bhut ho chuki hai.

  9. अरुंधती जी जो चाहती थी उन्हें मिल गया. नक्सली का खुले आम समर्थन राष्ट्र द्रोह है. क्या भरोषा, देश द्रोह की जगह इनका नाम भारत रत्न के लिए भी नामांकित हो सकता है.

  10. संजय जी जी बिलकुल ठीक कह रहे है. अरुंधती जी जो चाहती थी उन्हें मिल गया. नक्सली का खुले आम समर्थन राष्ट्र द्रोह है. क्या भरोषा, देश द्रोह की जगह इनका नाम भारत रत्न के लिए भी नामांकित हो सकता है.

  11. कब तक लिखते रहेंगे बेबस हो हम और बिलखता रहेगा लोकतंत्र समझ में नहीं आ रहा है. इस लोकतंत्र की एक नाजायज़ औलाद इतना क़यामत ढा देगी समझ से पड़े हैं. जब बड़े-बड़े बुद्धिजीवी,अरुंधती का दोष मानते हुए भी इस चिंता में कारवाई नहीं करने की बात कहते हैं कि इससे उसको शोहरत मिल जायेगी, जिस प्रचार की वो भूखी रहती है वह सहज ही उसको प्राप्त हो जाएगा तो हमें विवश हो मुट्ठी भेंच लेना पड़ता है. आखिर दो टके की इस लड़की के लिए कैसे हम सवा अरब के भारत को गरियाना बर्दास्त करते रहेंगे? हम फिर दोहरा रहे हैं कि परिणाम चाहे जो हो इस नागिन के विष दन्त को तोड़ना ही होगा…..सादर.

  12. bhai,
    log kahte hain ki jhooot ke pawn nahi hote ,lrkin aapko padh jar lagta he ki goibals aise hi jhoot ko sabit karta hoga.sirf arundhti ne hi nahi balki aayojko ne bhi PTI ko likhkar bheja tha ki unke dwra faili gaya samachar jhoot ka pulanda tha,fir bhi aap log apni tai ko hui bat kahe ja rahe hain.
    abhi girish pankaj ji ne bhi yahi likha ki isse koi fark nahi padta ki unhone yah nahi kaha,yah artical to unhone pahle se hi kikha tha.
    bhai, jab aapko yahi likhana he to arundhti ke likhe ka intjar kiyo karte hain.abhi 3 june ko jansatta me chapa ki naxliyo ne teen mahilao ko mar diya unke shav baramad kar liyr gaye,uske theek ek din bad nai duniya ne chapa ki teeno mahilao ko naxliyo ne chod diya,nam vahi ghtna vahi.mediya jo na kare vo kam hi he.
    mujhe to laga tha ki srundhti ke is safai ke bad aap virodh me hamesha likhne wale lpg shrminda honge,lekin aap mahan hain galti manne ke jagah dubara apni bat kah rahe hain,aisa hi goibals karte honge ki ek jhoot ko 100 bar kaho to vah sach ho hi jayega.

  13. अरुंधती का अपने बयानों से पलटना और मीडिया पर गुस्सा उतारना जायज नहीं है अरुंधती शायद संजय के सवालों का उत्तर न दे सकें अक महिला होने के नाते उनमे नक्सली हिंसा के खिलाफ करुना क्यों नहीं होती है अधिकारों के लिए हमारे संविधान में काफी जगह है फिर हथियारों की जरुरत क्यों नक्सली हिंसा को रोकने के लिए अरुंधती कौन सा काम कर सकती है उन्हें अपनी बात जनता के सामने रखना चाहिए संजय की टिप से कई खुलासे होते है सर्कार को भी अपनी बातें खुलकर रखनी चाहिए

  14. संजय का यह लेख एकबार फिर अरुंधती जैसी लेखिकाओ के सामाजिक चरित्र को बेनकाब करता है. बार-बार लिखा जाये, कितना लिखा जाए, लेकिन यह तय है की इस देश में अब इतने भयंकर बुद्धिजीवी हो गए है, जो नकली है. शातिर है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ये नंगेपन को कला कहते है, हिंसा को क्रांति बताते है. इनका बड़ा व्यापक समूह है. बड़े खतरनाक लोग है ये. संगठित गिरोह है इनका. इनके विरुद्ध मैंने ”माफिया’ उपन्यास भी लिखा है. फिर भी इनके विरुद्ध्ह लिखा जाना चाहिए. होती रहे बहस. ऐसे शातिरो के पक्ष में जब लोग सामने आते है तो हंसी आती है,(उन लोगों क गुस्सा आता है) ये लोग कुछ इस अंदाज़ में सामने आते है की लगता है, ये असली लोकतांत्रिक है, और हम लोग नकली है. हर दौर मे ऐसा होता है. विचारो की जंग चलती रहती है. यह तो काल ही तय करता है की कौन सही है, है कौन गलत. बहरहाल लेख सोचने पर विवश करता है, बशर्ते वे लोग सोचे, जिनके लिए लिखा गया है.

  15. रामकृष्ण परमहंस कहते हैं–>” सत्‌ से सत्‌ जगता है,और तमस्‌ से तमस्‌ ।”<–(अच्छाई का सूक्ष्म उल्लेखभी अच्छाई जगा जाता है।) और तमस्‌ जगाकर सामने वालेका सत्‌ जगेगा यह अपेक्षा अपरिपक्व चिंतनका लक्षण है।क्या अरूंधती इस घोर भ्रममें जी रही है?
    हर देशभक्त व्यक्तिका, हर राजनैतिक पार्टीका और हर स्वयंसेवी संस्थाका, विशेष योगदान तो,समस्या समाधान की दिशा में, या संभवतः सकारात्मक क्रियान्वयन की दिशा में, ठोस कार्यवाही ही होता है; जिसके कारण हमारी आनेवाली कल सुधर जानेकी संभावना बढ जाती है।(विवेकानंदजी इसी निकषसे विकास को नापते हैं)
    अरुंधती समस्या सुलझानेके बजाय उसे और उलझाने में क्यों लगी है?
    भारतका सामान्य नागरिक अरुंधतीसे यह प्रश्न पूछता है। उत्तर दे।

  16. अरुंधती राय को हिंदुस्तानिओं के दर्द का अहसास नहीं है. विदेशी भाषा में उपन्यास लिखती हैं विदेशी पुरूस्कार से सम्मानित होती हैं. देश नक्सल वादियों से कैसे कैसे जख्म खा रहा है. इसका कष्ट केवेल भारतीय आत्मा को ही हो सकता है.

  17. संजय जी,
    संवेदनशील लेखिका का मुखौटा लगाकर अपनी कलम में माओवादियो की श्याही भरकर लिखने वाली अरुंधती ने लेखक जगत को बदनाम किया है.आपने सच ही लिखा है नक्सलवाद के नाम पर इन असामाजिक तत्वों ने लूट मचा रखी है तथा ये लोग व्यापारी,ठेकेदार,यहाँ तक सरकारी अधिकारियो तक से महिना वसूलते है.इनकी ये वसूली कुछ वैसी ही है जिसे बिहार एवं झारखण्ड में रंगदारी टैक्स कहा जाता है.नक्सलियों को आदिवासियों के विकास से कोई लेना देना नहीं है.जंगलो में आयरन ओर,बोक्साइड,की खदाने तथा साल बीज,तेंदुपत्ता का अवैध कारोबार इनकी शह पर ही चल रहा है. आदिवासियों के शोषणकर्ताओं एवं भ्रष्टाचारियो से चंदा वसूली करते है.सचमुच आपकी दी गई जानकारी महत्वपूर्ण है.आशा है अरुंधती को भगवान् सदबुद्धि देगा.- नारायण भूषणिया रायपुर

  18. संजय जी,

    माओवादी अरुन्धति का ये बौद्धिक ऎम्बुश है. देश को उलझाने, भरमाने और अपमानित करने के लिये.

  19. aruandhati ray is not Indian, she is follwed by abroad, I don’t know why she directed by Chine or any other Maoist country, If she is Indian so SHE have to think about her and her comments, as You wrote she is great writer but I am not agree with you Media men
    Media makes her HERO WHY????? what she did for Country and Society ? she is only follwer of Communit countries.

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