अश्लीलता और हिंसा के पक्ष में खड़े ये लोग

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गिरीश पंकज

hinsaइधर नए किस्म के भारतीय समाज में अश्लीलता और हिंसा के प्रति, एक वर्ग में स्वीकृति का भाव देखता हूँ तो हैरत होती है. हम जितने भी आधुनिक हो मगर अश्लीलता और हिंसा को महिमा मंडित नहीं कर सकते। लेकिन पिछले दिनों गांधी नगर के गुजरात केंद्रीय विश्व विद्यालय में हिंदी उपन्यास और सम सामायिक सन्दर्भ’ को लेकर हुई संगोष्ठी हुयी थी, जिसमे मुझे भी बुलाया गया था. वहाँ मैंने कुछ लेखिकाओं द्वारा लिखे गए उपन्यासों में परोसी गयी अश्लीलता की चर्चा की. इस दौरान वहाँ के कुछ शोधार्थी छात्रो के विचारो से रु-ब-रू होने का अवसर मिला, तो हैरत हुयी कि उनमे से कुछ लोग अश्लीलता को अश्लीलता नहीं मानते, इसे नारी मुक्ति का हिस्सा समझते है, कुछ छात्र नक्सली हिंसा को भी ‘ग्लोरीफाई’ कर रहे थे.

‘हिंदी उपन्यासों के स्त्री विमर्श पर मेरा कहना यही था कि हमें भारतीय परम्परा और संस्कृति का भी ख्याल रखना चाहिए। बांगला की महान लेखिका आशापूर्ण देवी के उपन्यास हिंदी में अनूदित हो चुके हैं. हम उन्हें देखे, महादेवी वर्मा भी स्त्री मुक्ति की बात करती थी , मगर वे भी भारतीय परम्परा के साथ चलना पसंद करती थी. क्या है वो गैर जरूरी सवाल? वो है स्त्री की यौन मुक्ति। स्त्री मुक्ति की बात हो तो भी बात समझ में आती है, मगर यहाँ तो स्त्री की यौन मुक्ति की चिंता ज्यादा नशर आती है। हिंदी की कुछ कथा लेखिकाओं ने अपने तथाकथित बोल्ड लेखन के नाम पर साहित्य को जिस पतनशील रास्ते पर ला छोड़ा है, वह दुखद है। इधर के अनेक उपन्यास यौन मुक्ति की वकालत करते नजर आते हैं। और सबसे अजीब बात यह है कि लेखिकाएँ यौन मुक्ति के लिए व्याकुल नजर आती हैं। उनकी देखा-देखी नयी कथा लेखिकाएँ भी उसी ढर्रे पर चल रही हैं। मृदुला गर्ग का ‘चितकोबरा’ और ‘कठगुलाब’ हो या कृष्णा सोबती का ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘यारों के यार’ और ‘मित्रो मरजानी’। पंजाबी कथाकार अमृता प्रीतम, उर्दू की इस्मत चुगताई और बांगलादेश की तसलीमा नसरीन की किताबों और चिंतन ने भी हिंदी के स्त्री लेखन को ‘मुक्ति की राह’ दिखा दी। ऐसा नहीं है कि हर दूसरी हिंदी लेखिका यौन मुक्ति का राग अलाप रही है, मगर धारा यही बह रही है। जबकि बांग्ला लेखिका आशापूर्णादेवी भी हुई हैं, जिन्होंने नैतिक मूल्यों के साथ स्त्री के संघर्ष को स्वर दिया। महादेवी वर्मा हैं, शिवानी हैं, मालती जोशी हैं जो मूल्यों के साथ खिलवाड़ न करते हुए स्त्री के कोमल मन को टटोलती हैं।

06-girlउत्तर आधुनिकता के इस दौर में यह चिंतन लोकव्यापी बनाया जा रहा है कि मनुष्य को उदारवादी होना चाहिए और यह जो बाजार-समय है, उसके साथ भी चलना चाहिए। साहित्य के इस बदलाववादी दर्शन का खामियाजा यह हुआ है कि अब गाँव-कस्बों में भी टॉप और जींस पहनने वाली लड़कियाँ नजर आ जाती हैं। आधुनिकता की परिभाषा पहरावे और खानपान से तय हो रही है। सलवार कुरता या साड़ी पुरातन पोशाक है और टॉप-जींस आधुनिक। शरीर पर जितने कम कपड़े होंगे, वो युवती उतनी आधुनिक कहलाएगी। यह केवल बॉलीवुड का कुपरिणाम नहीं हैं, वरन हिंदी साहित्य के तथाकथित उदारवादी लेखन का भयानक नतीजा है। आधुनिकता का मतलब यह नहीं होता कि कोई औरत अपनी देह को नीलाम कर दे। पर पुरुष से संबंध बना कर इसे अपना अधिकार बताए। हिंदी की कुछ लेखिकाओं के उपन्यास यही कु-पाठ पढ़ाते रहे हैं। किसी लेखिका का नाम ले कर उसकी निंदा करना ठीक नहीं कहा जा सकता, मगर यह शर्मनाक बात है कि हिंदी में पिछले दो-तीन दशकों में कुछ ऐसे उपन्यास प्रकाशित हुए और उसे हमारी आलोचना ने बोल्ड उपन्यास कह कर प्रचारित किया, जो विशुद्ध रूप से अश्लीलता को बढ़ावा देने वाले थे। उनकी भाषा अश्लील साहित्य की भाषा की तरह बिल्कुल खुली नहीं थी, मगर वर्णन इतना खुला था कि उस एक तरह से अश्लील साहित्य ही कहा जाएगा। लोंडिया, रंगरेलियां, उरोज, चुंबन-आलिंगन, मैथुन, शराब आदि यौन मुक्ति के उपादान बन गए हैं। मैं तो लिखने में भी संकोच करता हूँ मगर कुछ लेखिकाएँ इस बिंदास तरीके से लिखती हैं, गोया वे ईश्वर का नाम ले रही हों।

मेरा एक उपन्यास ‘पॉलीवुड की अप्सरा’ आया था किताबघर प्रकाशन से। इस उपन्यास में कथानक की मांग के अनुरूप घनघोर अश्लीलता मैं डाल सकता था। गांव की एक युवती फिल्मों में काम पाने के लिए निर्माता के साथ सकलकर्म करने के लिए तैयार है। यहाँ कास्टिंग काउच की जरूरत ही नहीं। उपन्यास में खलनायक युवती को ले कर होटल में आता है। कोई ‘अति यथार्तवादी’ लेखिका होती तो वह होटल के कमरे के भीतर के दृश्य का वर्णन करती और कहती यह कथानक की मांग है। इस अश्लीलता मत कहो। एक उपन्यास का नाम नहीं लेना चाहता, उसमें अनके जगह अश्लीलता भड़काने वाले दृश्य हैं। एक देखिए-उसने मेरे पैर दोनों हाथों में थाम कर मसल दिए….उन्हें चुंबनों से भिगो दिया…और उसे ऊपर खींच लिया। ..वह मेरे वक्ष को ओठों से संजोये लेटा था… इसके बाद का वर्णन इतना अश्लील है कि मैं उसे पूरा नहीं लिख सकता। ये अंश सत्यकथा और मनोहर कहानियों को भी मात देते हैं। एक और उपन्यास मैं पढ़ रहा था। एक लेखिका का। (नाम नहीं लेना चाहता क्योंकि किसी की मानहानि मेरा उद्देश्य नहीं) उसने एक जन जाति की औरतों के उनमुक्त जीवन का वर्णन किया है। और जब जीवन उन्मुक्त है तो क्रियाएँ भी उन्मुक्त होंगी इसलिए लेखिका ने कुछ जगह जी भर कर उन्मुक्त वर्णन कर डाला। इतना उन्मुक्त कि लिखते हुए मैं इस अपराधबोध से ग्रस्त हो जाऊँगा कि सभ्य सभा में घोर अश्लीलता फैला रहा हूँ। मैं एक लेखक हो कर संकोच कर रहा हूँ, मगर हिंदी के ये तथाकथित बोल्ड लेखिकाएँ खुल कर लिख रही है । क्या ऐसे अंतरंग वर्णन प्रतीकों के माध्यम से नहीं हो सक ते? क्या हम पाठक की कल्पनाशीलता पर भरोसा नहीं करते? क्या समझदार पाठक जीवन के यथार्थ व्यवहारों का अनुमान नहीं लगा सकता? उसे डिटेल में बताना क्या जरूरी है? बिल्कुल जरूरी नहीं है, लेकिन यह बताया जा रहा है? तभी तो लेखिका को बोल्ड लेखिका खिताब मिलेगा, वह पुरस्कृत होगी। स्त्री और पुरुष के भीतर की आग को दहका कर ये उपन्यास लेखिका आखिर किस तरह का साहित्य देना चाहती हैं? इन दिनों स्त्री लेखन की यह अराजकता अपने चरम पर है। और यह गंभीर चिंता का विषय भी है कि आखिर मर्यादा भी किसी चिडिय़ा का नाम है। क्या सब कुछ नष्ट कर देना ही उत्तर आधुनिक होना है? क्या यौन मुक्ति की राह दिखाना ही स्त्री मुक्ति की वकालत है? क्या यह संभव नहीं कि स्त्री लेखन मूल्यों को बचाते हुए स्त्री को मुक्ति के लिए तैयार करे। क्या पतन की स्वीकृति को ही मुक्ति का नाम दिया जाएगा?

क्या स्त्री लेखन के नाम पर केवल यौन मुक्ति ही नजर आती है? क्या स्त्री के दूसरे सवाल मर गए हैं? प्रताडऩा, अंधविश्वास, अंधश्रद्धा, टोनही प्रथा जैसी अनेक कुरीतियाँ हैं, जिन पर उपन्यास लिखे जाने चाहिए। जैसे आदिवासियों पर महाश्वेता देवी लिखती हैं। महुआ माजी ने बांगलादेश के मुक्ति आंदोलन पर केंद्रित उपन्यास लिखा-मैं बोरिशाइल्ला। भाषिक और शिल्प के स्तर पर कमजोर होने के बावजूद यह उपन्यास एक देश के निर्माण के इतिहास को प्रामाणिकता के साथ पेश करने की कोशिश करता है। रजनी गुप्त का उपन्यास ‘कुल जमा बीस’ किशोर मन को समझने-समझाने वाला उपन्यास है, जो अराजक नहीं होता। आज के समय का उपन्यास है यह मगर लेखिका ने मर्यादा का ध्यान भी रखा है। मन्नू भंडारी का उपन्यास आपका बंटी भी किशोर मन के इर्द-गिर्द घूमता है। मन्नू ने उपन्यास में नाजुक दृश्यों की बारीक एवं मर्यादित बुनावट का पूरा ख्याल रखा है। मैत्रेयी पुष्पा के अनेक उपन्यास अपनी संरचना के कारण विवादास्पद रहे हैं, मगर उनका उपन्यास ‘गुनाह-बेगुनाह’ उनकी पुरानी हल्की छवि को तोड़ता है। यह उपन्यास पुलिस अत्याचार पर केंद्रित है। लेखिकाएँ ऐेसे विषय भी उठा सकती हैं। भ्रूण हत्या एक ज्वलंत मद्दा है। वैसे प्रभा खेतान, मृणाल पांडे, नासिरा शर्मा, मृदुला सिन्हा, मणिका मोहिनी, उषा प्रियंवदा, राजी सेठ, चित्रा मुदगल, कमलकुमार, कुसुमकुमार, चंद्रकांता, सूर्यबाला, मेहरुन्निसा परवेज, मंजुल भगत आदि के उपन्यासों में स्त्री मुक्ति की छटपाहट तो दीखती है मगर उनमें कहीं न कहीं मूल्यों के प्रति तड़प भी हैं।

इधर के उपन्यासों में स्त्री मुक्ति के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है, वह भारतीय स्त्री की छवि को धूमिल करने वाला है। भारत भारत है, वह पश्चिम का कोई देश नहीं है। इसकी अपनी सांस्कृतिक परम्परा है। गरिमा है। यहाँ स्त्री को देवी की तरह पूजा जाता है। वह देवी बाजारू नहीं हो सकती। वह आधुनिक हो कर चरित्रहीन नहीं हो सकती। मगर इन दिनों जो चरित्र सामने आ रहा है, उसे देख कर यही लगता है कि स्त्री को अपने स्त्री होने का भयानक दुख है। इसलिए वह बगावत करके अभद्र हो जाना चाहती है। और यही है उसकी मुक्ति। स्त्री केवल देह नहीं है, वह एक दर्शन भी है। वह माँ है। वह बहन है। पत्नी है. वह वेश्या नहीं है, कालगर्ल नहीं है। वह संघर्ष करे और खुद को बचा कर निकाल ले जाए। कमाल तो तब है। अगर साहित्य भी ऐसे संस्कार न दे, और वह स्त्री को मुक्ति के नाम पर अश्लील बना दे तो ऐसे साहित्य का क्या मतलब? घर की ओर लौटने के लिए प्रेरित करने वाले उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं, घर को तोडऩे वाले उपन्यासों की बहुलता होती जा रही है। हिंदी साहित्य के सामने अभी सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह प्रेमचंद समेत उनके बाद के अनेक उपन्यासकारों की परम्परा का निर्वाह कर ले तो बहुत है। स्त्री मुक्ति, यौन मुक्ति, सेक्स आदि से हट कर भी और गम है समाज में। विकलांगों की समस्याएँ हैं। नष्ट होते गाँव, खेत-खलिहान है। गायों की दुर्दशा पर लिखा जा सकता है। मेरा उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ को मैं उदाहरण के रूप में रखना चाहता हूँ।

पिछले दिनों एक साक्षात्कार में मैत्रेयी पुष्पा ने एक तरह से सफाई देते हुए कहा कि ‘मेरे उपन्यासों की स्त्री सेक्स की तलाश में नहीं रहती। उनका यह बयान स्वागतेय है और भरोसा भी दिलाता है कि स्त्री मुक्ति देह मुक्ति नहीं है’। वे साक्षात्कार में एक जगह कहती हैं कि ”कहीं-कहीं कहानी की मांग के अनुसार लिखना पड़ता है”। यह कहानी की मांग बड़ी खतरनाक चीज है। हिंदी फिल्मों में सेक्स का तड़का कहानी की मांग की आड़ में लगाया जाता है। कहानी की मांग के अनुरूप सब कुछ खोल कर रखना भी गलत है। प्रतीकों में, संकेतो में बाद की जा सकती है। उम्मीद है कि हमारे नये उपन्यासकार अनेक छूटे हुए मुद्दों पर भी लिखेंगे। यौनवादी लेखन बहुत हो गया, अव जीवनवादी उपन्यासों की जरूरत है क्योंकि और भी गम हैं जमाने में। अनेक लेखिकाएं हैं, जो मूल्यों का ध्यान रखती रही हैं मगर इधर कुछ लेखिकाओं ने स्त्री मुक्ति को सीधे-सीधे देह मुक्ति से जोड़ दिया यही कारण है कि नयी लेखिकाओं में भी उसी राह पर चलने की मानसिकता नज़र आती है. समाज साहित्य से प्रभावित भी होता है. मैंने बहुत कुछ कहा उसका सार यही था कि साहित्य मतलब हित को साथ ले कर चलने वाला का हित सकारात्मकता में है, अराजकता में नहीं। मैंने यह भी कहा कि स्त्री को कमजोर करने वाली हर रूढ़ि को नकारना चाहिए। लेकिन जीवन मूल्य बने रहे, मेरी बातों के विरोध में भी कुछ स्वर मुखरित हुए तो कुछ समर्थन में भी सामने आये. यह देख कर अच्छा लगा कि हर कोई आधुनिकता के नाम पर देह-विमर्श को राजी नहीं था.

सारी चर्चाओं को देख-सुन कर मुझे एक बात बहुत अच्छी लगी कि आज की पीढ़ी इस समय को देख-समझ रही है, और अपनी शिक्षा के अनुरूप चीजों को समझ रही है और अपनी राय भी बना रही है,. यह समझ समाज को उत्थान की और ले जाये, यही चाहता हूँ

दूसरे दिन कुछ छात्र मुझसे नक्सल समस्या पर बात करना चाहते थे। मैने उन तमाम छात्रो से यही कहा कि नक्सल समस्या का समाधान गांधीवादी तरीके से ही हो सकता है. जेपी के प्रयास से मध्य प्रदेश के दस्युओं ने आत्म समर्पण किया था । मैंने अपने उपन्यास ‘टाउनहाल में नक्सली’ का ज़िक्र किया, जिसमे नक्सली जनता के समझने पर आत्म समर्पण करते हैं। अनेक नक्सली आत्म समर्पण कर चुके हैं, करते रहते हैं। चालीस साल पहले नक्सली आंदोलन वैचारिक आंदोलन था। नक्सली आदिवासियो को शोषण से मुक्त करना चाहते थे, मगर अब वे दिशाहीन हो चुके हैं। लक्ष्य से भटक गए हैं। आदिवासी लोग सत्ता और नक्सलियों के बीच पिस रहे हैं। मैंने यह भी कहा कि वर्त्तमान में जारी वन कानून और पुलिस व्यवस्था को बदलने की ज़रुरत है। मेरी बात सुन कर भी कुछ छात्र नक्सलियों के पक्ष में ही नज़र आये, मैं अंत तक यही कहता रहा कि रास्ता गांधीवादी होगा। एक युवक जो वि वि में गांधी चिंतन पढ़ाता है, वो नक्सली हिंसा का घोर समर्थक था। विद्याचरण शुक्ल की हत्या को वो जायज करार दे रहा था, उसने तर्क दिया कि ”विद्याचरण शुक्ल ने आपातकाल में किशोरकुमार के गाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।” मैं यह सुन कर हैरत में था. क्या इसी आधार पर किसी व्यक्ति की ह्त्या की जा सकती है? और यह बात वो कह रहा है जो गांधी दर्शन का अध्यापक हो? आश्चर्य। बाद में यह भी पता चला कि अध्यापक महोदय ‘जे एन यू’ से पढ़ कर निकले हैं. मुझे यह देख कर दुःख हो रहा था कि अनेक लोग हिंसा के पक्ष में खड़े थे लेकिन संतोष भी था कि वहाँ कुछ छात्र मेरी भावनाओं से सहमत थे और उन्होंने खुल कर प्रतिवाद किया। मैंने बहस में शामिल छात्रो का स्वागत किया और कहा कि ज़िंदा लोग ही बहस करते हैं, मगर ध्यान रहे कि हमारा रास्ता सकारात्मक हो, खून खराबे वाला न रहे। समाज प्रगति करे, लेकिन संस्कार से परे हो कर कोई भी विकास अंततः विनाश के रस्ते पर ले जाता है. हिंसा से किसी का भला नहीं हो सकता, और अश्लीलता से समाज का बेडा ही गर्क होगा। कुछ विश्व विद्यालयो के अनेक ‘किस्से’ हमारे सामने हैं,अति बुद्धिजीवी

होने का मतलब यह नहीं होता कि हम निर्वस्त्र हो कर घूमे और इसे आज़ादी का नाम दें इसी तरह नक्सली हिंसा को वैचारिक आंदोलन के नाम पर सराहते रहे, लेकिन खेद की बात यही है कि अब ऐसे ही लोगों की सख्या बढ़ रही है। ऐसे ‘अराजक’ ताकतों से निबटने के लिए एक व्यापक तैयारी की भी ज़रुरत है काम चुनौतीपूर्ण है मगर करना ही होगा।

4 COMMENTS

  1. डा० मधुसूदन जी ने निम्न लेख में बहुत अच्छी टिपण्णी की है..
    https://www.pravakta.com/porn-is-the-end-of-relationship

    उनके अनुसार”
    …”चतुर्वेदीजी, आपसे १०० % सहमति प्रकट करता हूं। पोर्न इसी भांति सहजतासे उपलब्ध होता रहा, तो आबालवृद्ध सहित सारा समाज अनीतिकी गर्तमें गिरेगा, मूल्योंका अवमूल्यन होगा, कुटुंब संस्था छिन्न भिन्न होगी।सुना है, युनान और रुमा की संस्कृतिका पतन, सस्ती कामोत्तेजक उपलब्धियोंके कारणहि हुआ था।कुटुंब संस्था पहले समाप्त हुयी थी।– यहां अमरिकामें छात्रभी इसी वासनासे पीडित है, कुछ इसी कारण संयमित, भारतीय छात्र, स्पर्धामें आगे बढ जाते हैं। आज अमरिकामें केवल २१ % विवाहित जोडे है, जो अपने स्वयंके बालकोंके साथ रहते हैं।५० % महिलाएं, और ५४% पुरूष जीवनमें एक बारभी विवाह नहीं करते। कामसुख जब बिना विवाह प्राप्त हो, तो कौन (पुरूष) मूरख कुटुंब पोषणका, उत्तरदायित्व स्वीकार करेगा? थोडा विषयांतर हुआ है, पर असंबद्ध नहीं है।भारतभक्त सावधान यह बडी चुनौति है। मेरी दृष्टिमे आर एस एस, सेवा दल, इत्यादि संगठनोंमे आप बच्चोंको भेजे, जिससे इस दिशामें संस्कार द्वारा कुछ किया जा सकता है। धन्यवाद।””

    उनकी यह टिपण्णी पश्चिम सभ्यता के ऊपर जो कतई सही है … साथ ही चतुर्वेदीजी के जिस लेख पर टिपण्णी कि है… वह भी बहुत अच्छा लिखा गया है…

  2. क्या बात है!! … मुझे इन टिपाणियों पर हंसी और क्षोभ दोनों होते हैं…….एैसा लगता है … कि आने वाले समय में हमारा समाज पश्चिममई हो जायेगा.. और लोग बिना वस्त्र समुद्री बीचों पर सड़को पर मिलेंगे… और पोर्नो मूवीज का निर्माण भी हमारे देश में मान्य होगा… और तब यह सब कुछ, कुछ समय बाद संतुलित और मान्य लगेगा.. …(हमारे देश कि पूँजी जो कपड़ों पर खर्च होती है.. वो बचेगी, लोग सबको निर्वस्त्र देख्नेगे तो काम-वासना और बलात्कार जैसी घटनाये भी नहीं होंगी…. कम से कम मैं तो ऐसा ही चाहता हूँ)… मतलब हमें सब कुछ सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना चाहिये… और सांस्कृतिक हमले को हम पर होने देना चाहिए…

    वाह रे हिंदुस्तान… तेरा अपना कुछ बचा-खुचा वजूद हैं के नहीं ?? ..या सब कुछ लूटने के लिए छोड़ दिया ????

  3. अश्लीलता को परिभाषित कौन करेगा कल जो अश्लील लगता था आज समाज को मान्य है। जो मुझे अश्लील लगे शायद आपको नहीं। मैने कोई उपन्यास इनमे से नहीं पढ़े हैं पर पुराने लेखकों मे से मुझे कुछ याद आरहा कमलेश्वर जी की की एक कहानी मे अभद्र शब्दों का प्रयोग लगा था, पर अब पढूं तो शायद अभद्र न लगे। मेरे पिताजी को नर्गिस राजकपूर के रोमांटिक गाने अश्लील लगते थे। आज वो क्लासिक हैं। साडी मे भी बहुत खुलापन हो सकता हैऔर जीन्स टाप मे भी शालीनता हो सकती है।मेरा मानना तो है कि न पश्चिम बुरा है न पूरब अच्छा है… संतुलन ही सही है।

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