डा. विनोद बब्बर

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बाल मन में राष्ट्रीय चेतना जागरण

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विनोद बब्बर  79वें स्वतंत्रता दिवस पर भारत की एकता, अखण्डता को अक्षुण रखने के लिए अपना  सर्वोच्च बलिदान देने वाले वीरों, पूरे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए दिन-रात एक करने वाले सभी वैज्ञानिकों, शिक्षकों, सांस्कृतिक राजदूत साहित्यकारों को श्रद्धा से नमन करना कर्मकांड नहीं अपितु हम सब का कर्तव्य है। स्वाभाविक रूप से संपूर्ण राष्ट्र अपने इस कर्तव्य का पालन करेगा। इस अवसर पर देश की भावी पीढ़ी के बाल मन में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के अभियान को गति देना आवश्यक है। प्रत्येक बालक को अपनी मातृभूमि और श्रेष्ठ सांस्कृतिक मूल्यों के बारे में जानकारी होनी चाहिए। दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक एक स्वर में बताते हैं कि श्रेष्ठ संस्कार प्रदान करने का ‘सही समय’ बचपन ही हो सकता है। केवल भारत ही नहीं, दुनिया का हर विवेकशील राष्ट्र अपने भावी कर्णधारों को स्कूली शिक्षा के साथ राष्ट्रभक्ति के गुणों से भी समृद्ध करने का प्रयास करता है। जापान का वह प्रसंग सर्वविदित है जब स्वामी रामतीर्थ वहां के एक विद्यालय में गए। स्वामी जी ने एक विद्याार्थी से पूछा, ‘बच्चे, तुम किस धर्म को मानते हो? छात्र का उत्तर था, ‘बौद्ध धर्म।’ स्वामी जी ने फिर पूछा, ‘बुद्ध के विषय में तुम्हारे क्या विचार हैं?’ विद्यार्थी ने उत्तर दिया, ‘हर रिश्ते नाते में प्रथम बुद्ध हमारे भगवान हैं।’ इतना कह कर उसने अपने देश की प्रथा के अनुसार भगवान बुद्ध को सम्मान के साथ प्रणाम किया। अनेक प्रश्नों के अंत में स्वामी जी ने पूछा, ‘बेटा, अगर किसी दूसरे देश से जापान को जीतने के लिए एक भारी सेना आए और उसके सेनापति बुद्ध हों तो उस समय तुम क्या करोगे?’ इतना सुनते ही छात्र का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। अपनी लाल-लाल आंखों से स्वामी रामतीर्थ को घूरते हुए उसने जोश से कहा, ‘तब मैं अपनी तलवार से बुद्ध का सिर काट दूंगा।’समाज और राष्ट्र के भावी स्वरूप की पृष्ठभूमि तैयार करने में श्रेष्ठ बाल साहित्य और शैक्षिक पाठ्यक्रम की महत्वपूर्ण भूमिका है। सरकार ने शिक्षा नीति में अनेक महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं लेकिन स्कूली पाठ्यक्रम में देश प्रेम और संस्कृतिके प्रति जागृत करने वाली सामग्री का अभाव दिखाई देता है। बदलते परिवेश में समाज- परिवार भी अपने बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार और विचार रूपी खाद प्रदान करने के प्रति बहुत सजग नहीं है। इसी कारण परिस्थितियां हमारे बच्चों को मोबाइल, इंटरनेट गेम आदि की ओर धकेल रही हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि परिवारों में साहित्य और संस्कृति से संबंधित साहित्य का पठन-पाठन लगभग बंद हो गया है। ऐसे में हमारे बच्चे भी बाल साहित्य की पत्रिकाओं से दूर गेम डाउनलोड करने अथवा यू-ट्यूब पर वह सब देख-सुन रहे हैं जो इस आयु में उनसे दूर होना चाहिए था। ऐसा नहीं है कि इन परिस्थितियों और उनके विस्फोटक परिणाम की जानकारी न हो। परंतु न जाने क्यों अभिभावक, शिक्षक, समाज, सरकार सब लगभग मौन हैं। कटु सत्य तो यह कि कुछ पत्रिकाओं  को छोड़ अधिकांश साहित्यकार भी  देश प्रेम और संस्कृति से संबंधित सरस रचनाएं लिखना भूल दिखावटी प्रेम और तथाकथित आधुनिकता के रंग में रंगा भ्रमित है। ऐसे में जापान जैसी भावना हमारे छात्र में भला कैसे संभव है? उसके लिए तो अपने स्कूली पाठ्यक्रम से बाल-साहित्य, लोक-व्यवहार, खेलों, गीतों, फिल्मों, टीवी चैनलों पर प्रसारित किये जा रहे कार्यक्रमों को राष्ट्रीय चेतना से समृद्ध करना होगा। राष्ट्रीय चेतना के विकास में बाधक उपसंस्कृति को हतोत्साहित करना होगा। ज्ञातव्य है कि महात्मा गांधी भी बच्चों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के प्रबल पक्षधर थे इसलिए उन्होंने बच्चों के लिए धार्मिक संदेशों व शिक्षा पर आधारित बाल पोथी और नीति धर्म नामक पुस्तकें तैयार की।  आश्चर्य है कि हम पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं लेकिन पश्चिम भारत के श्रेष्ठ गुणों को धारण करने की दिशा में अग्रसर है। एक विद्यार्थी के रूप में मुझे विश्व के अनेक देशों में जाने का अवसर मिला। लगभग हर देश में मुझे सम्मान से भारतीय (इण्डियन) के रूप में पहचान  ‘नमस्ते इण्डिया’ सुनने को मिला। विश्व फैशन नगरी मिलान (इटली) के अनुभव ने गौरवांवित होने का अवसर प्रदान किया। सात समुद्र पार, अपने देश की सीमाओं से हजारों मील दूर एक अनजान व्यक्ति के मुख से भारत का गौरव गान सुनना रोमांचित करने वाला क्षण था। वह हमारे भारत की माटी,  हमारे पूर्वज ऋषियों और उनके द्वारा विकसित संस्कृति का अभिषेक था। भारत की गुरुता के प्रमाण रूपी ऐसे एक नहीं, हजारों बल्कि लाखों- करोड़ों उदाहरण यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं।  तब हमारे युवा पीढ़ी को इस गौरव गाथा की जानकारी क्यों नहीं होनी चाहिए? एक घटना का उल्लेख करना आवश्यक समझता हूं जिसके स्मरण मात्र से  दशकों बाद आज भी मन-मस्तिष्क को असीमित उत्साह और ऊर्जा मिलती है। एक बार सर्वत्र मांसाहारी भोजन के कारण बहुत समस्या हो गई तो किसी ने लगभग 10 किमी दूर इण्डियन रेस्टोरेंट की राह दिखाई जहां भारतीय भोजन उपलब्ध था। हम प्रतिदिन शाम को वहां जाते। अपने प्रवास की समाप्ति पर रेस्टोरेंट के स्वामी के मिलने पर यह जानना आश्चर्य हुआ कि वह भारत नहीं, पाकिस्तान से था। ‘आपने अपने प्रतिष्ठान का नाम इण्डियन की बजाय पाकिस्तानी रेस्टोरेंट क्यों नहीं रखा?’ के जवाब में उसका कहना था, ‘तब यहां कौन आएगा!’ उसके ये चार शब्द मेरे देश, मेरी जन्मभूमि की यशोगाथा है। भारत से हजार युद्ध करने का उद्घोष करने वाले सर्वत्र प्रतिष्ठित भारत ब्रांड से अपनी रोजी-रोटी चल रहे हैं। परंतु यदा-कदा जब जब अपने ही देश में कुछ लोगों के मुख से इस महान धरा को काटने अथवा बांटने की बात सुनता हूं तो मन आक्रोश से भर उठता है। समाजशास्त्रियों की विवेचना के अनुसार ‘आत्मगौरव विहीन इन लोगों को यदि ‘सही समय’ अर्थात बाल्य काल में ही राष्ट्रीय चेतना से परिचित कराया जाता तो वेे भ्रामक प्रचार के शिकार नहीं होते।’ वर्तमान में नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और भारतीय भाषाओं को महत्व दिए जाने की बात तो सराहनीय है लेकिन यह भी देखना होगा कि भारी-भरकम बस्ते में क्या ऐसा कुछ है जो सहजता से बच्चों की सांसों में ‘सबसे पहले देश’ का भाव  जागृत करें। क्या स्कूली पाठ्यक्रम में देश की बलि बेदी पर अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों पर नाखून कटाकर शहीद होने वाले तो हावी नहीं हैं? काले पानी की सेल्यूलर जेल में दो दो उम्र कैद की सजा भुगतने वालों को महत्वहीन और महलों में ‘सजा’ बिताने वालों को देश का एकमात्र उद्धारक बताया जाने की प्रवृत्ति देश की भावी पीढ़ी कोसत्य से बहुत दूर ले जा सकती है। बिना किसी भेदभाव के अमर बलिदानियों के बारे में हर बच्चे को पता होना ही चाहिए। उनके द्वारा सहे अकल्पनीय कष्टों की जानकारी होनी चाहिए। तभी उनके हृदय में देश के लिए कुछ कर गुजरने का भाव जागृत और स्थापित होगा। प्राथमिक स्तर तक प्रत्येक बच्चे को अपने राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय चिन्ह आदि की जानकारी होनी चाहिए। उनके सम्मान का भाव होना चाहिए। प्रत्येक बालक को स्थानीय भाषा में लोकगीतों तथा कहानियों के माध्यम से अपने महान पूर्वजो की गौरव गाथा से परिचित कराय़ा जाना चाहिए। माध्यमिक स्तर पर उन्हें अनिवार्य रूप से ऐसीे गतिविधियों में शामिल किया जाये जिससे राष्ट्रीय चेतना विकसित हो। विश्वविद्यालय स्तर पर उत्तर के युवाओं के लिए पूर्व या दक्षिण, दक्षिण वालों को उत्तर या पश्चिम, पूर्व वालों को पश्चिम या दक्षिण, पश्चिम वालों कोउत्तर या पूर्व शिविर लगाये जाये जहां वे अपने देश और उसकी माटी की सुगंध को जाने। भारत को जानने के इस अभियान को अनिवार्य बनाया जाए। अध्ययन के साथ गोष्ठियां आयोजित कर छात्रों को प्रतिभागिता के लिए प्रोत्साहित किया जाये। प्रतिभाशाली छात्रों को विदेश बसने की ललक को अपने देश, अपनी माटी के लिए कुछ विशिष्ट करने की ओर मोड़ना है तो कागजी प्रोजेक्टों के स्थान पर कुछ विशिष्ट लेकिन वास्तविक करने की कार्यपद्धति विकसित करनी होगी। ‘यहां सब बेकार है’ का भाव तिरोहित कर ‘यही धरा सबसे न्यारी’ भाव जागरण बिन सकारात्मक बदलाव संभव नहीं। अनियंत्रित सोशल मीडिया पर भी सेंसर जैसा कुछ होना चाहिए ताकि हमारे किशोर और युवा पथभ्रष्ट न हो। पाश्चात् संस्कृति  के बढ़ते प्रभाव के कारण कामुक और देश की गौरवशाली परम्पराओं को कलुषित करने वाली फिल्मों तथा टीवी सीरियलों के प्रसारण की अनुमति नहीं होनी चाहिए। जबकि सामाजिक समरसता, एकता, सौहार्द को बढ़ावा देने वाले गीतों, लघु नाटिकाओं आदि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साहित्य अकादमियों को अपने प्रतिष्ठित पुरस्कारों का निर्णय करते समय समकालीन साहित्य  में एकता, समता, सौहार्द की प्रतिध्वनि को सुनना चाहिए। यह प्रसन्नता की बात है कि पिछले कुछ समय से समाज में राष्ट्रीयता के महत्व और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति जागरण बढ़ा है। भारत हमारा राष्ट्र है हम सबकी पहचान है। इसका भविष्य हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य है इसलिए बाल मन में राष्ट्रीय चेतना के अंकुर रोपित करने के इस महत्वपूर्ण यज्ञ में सरकार, समाज और  भारत के प्रत्येक जागरूक नागरिक को अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी चाहिए। विनोद बब्बर 

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मनोरंजन महत्वपूर्ण लेख समाज साक्षात्‍कार

सुनता नहीं कोई हमारी, क्या जमाना बहरा हो गया

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डा. विनोद बब्बर  गत दिवस देश की राजधानी से सटे नोएडा के एक ओल्डऐज होम में लोगों की दुर्दशा के समाचार ने मानवता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। वृद्धाश्रम पहुंची पुलिस और समाचार कल्याण विभाग की टीम हैरान थी। एक बुजुर्ग महिला को बांध के रखा गया था तो बेसमेंट के कमरों में जो वृद्ध पुरुष कैद थे, उनके वस्त्र मल मूत्र से सने हुए और दुर्गंध दे रहे थे। पूरा दृश्य किसी नर्क से बढ़कर था। विशेष यह कि इस ओल्ड होम में दयनीय हालत रहने वाले वृद्धों के परिजनों की ओर से मासिक शुल्क भी दिया जा रहा था।  प्रश्न यह है कि जब परिजन हजारों रुपया प्रतिमा शुल्क देने की स्थिति में है तो वे अपने बुजुर्ग माता-पिता को अपने साथ क्यों नहीं रखते? जिन माता-पिता ने उन्हें पाला संभाला, शिशुपन में उनके मल मूत्र साफ किया और स्वयं कष्ट सहकर भी उनके सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखा, उन्हें अपने से अलग करते हुए क्या उन कलयुगी संतानों ने जरा भी नहीं सोचा? पाषाण हृदय संतानों को स्वतंत्रता पसंद है या वे अपने वृद्ध अभिभावकों को बोझ मानते हैं? दुखद आश्चर्य यह है कि जिस भारत में बुजुर्गो की सेवा-सम्मान की परम्परा रही है। जहां लगातार गाया, दोहराया जाता है- अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।। जो अपने बुजुर्गों की सेवा और सम्मान करते हैं उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल में वृद्धि होती है। वहाँ तेजी से वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है। इस नैतिक पतन के लिए कुछ लोग ऋषि संस्कृति की भूमि भारत में पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव को जिम्मेवार ठहराते हैं तो अधिकांश लोगों के मतानुसार विखण्डित होते संयुक्त परिवार, शहरीकरण, बेलगाम सोशल मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण स्थित बदली है। आश्चर्य है कि आज शहर से गांव तक प्रत्येक व्यक्ति दिन में कई कई घंटेअपने स्मार्टफोन को देता है लेकिन उनके पास अपने ही वृद्ध माता-पिता के पास बिताने के लिए कुछ मिनट भी नहीं है। शायद मान्यताओं में बदलाव के कारण बुजुर्गों को बोझ  बना दिया है। उन्हें न अच्छा खाना दिया जाता है न ही साफ-सुथरे कपड़े। यहां तक कि उनके उपचार को भी जरूरी नहीं समझा जाता। उचित देखभाल के अभाव में वृद्धों को शारीरिक व मानसिक कष्ट बढ़ जाता है। वे छोटे-छोटे कामों और जरूरतों के लिए दूसरों के मोहताज हो जाते हैं। हर कली अपने यौवन में फूल बनकर अपनी सुगंध बिखेरती है तो एक सीमा के बाद उसमें मुरझाहट दिखाई देने लगती है। मनुष्य जीवन भी प्रकृति के इस चक्र के अनुसार ही चलता है।  बचपन, जवानी के बाद वृद्धावस्था प्रकृति का सत्य है। वृद्धावस्था को जीवन का अभिशाप मानते हैं क्योंकि इस अवस्था के आते-आते शरीर के सारे अंग शिथिल पड़ जाते हैं और इंसान की जिंदगी दूसरों की दया-कृपा पर निर्भर करती है। दूसरों पर आश्रित जिंदा रहना उस बोझ महसूस लगने लगता है और वह चाहता है कि उसे जितनी जल्दी हो सके, ज़िंदगी से छुट्टी मिल जाए। प्रत्येक व्यक्ति जीवन भर कड़ी मेहनत कर जो कुछ भी बनाता है ताकि जीवन की सांझ सम्मान सहित कम से कम कठिनाई से बीते। लेकिन, जब हम अपने परिवेश में नजर दौड़ाते हैं तो इसके विपरीत दृश्य देखने को मिलते हैं। अनेक बुजुर्गों को बुढ़ापे में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। उन्हें न तो सिर छिपाने के लिए छत, खाने को दो जून की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ा भी उपलब्ध नहीं हो पाता। बुढ़ापा आते ही वह अकेला पड़ने लगता है जहां उसकी सुनने वाला कोई नहीं होता। यहाँ तक कि जिन बच्चों की खातिर वह अपना सब कुछ लुटाता है, वही उसे सिरदर्द समझने लगते हैं। उसकी उपेक्षा करते हं। यह दृश्य किसी एक घर, गाँव, या नगर की विेशेष समस्या नहीं है बल्कि हर तरफ ऐसा या लगभग ऐसा देखने, सुनने को मिलता है। वर्तमान की संस्कारविहीन शिक्षा के कारण अपनी संतान ही अपनी नन्हीं अंगुलियां थामने वाले बूढ़े माँ-बाप से छुटकारा पाने के बहाने तलाशने लगी है। उन्हें यह स्मरण नहीं रहता कि वह उन्हीं माँ-बाप की कड़ी मेहनत, त्याग, समर्पण के कारण ही किसी मुकाम तक पहुंचे हैं। जिन्होंने अपनी संतान को सुखी, समृद्ध, सम्मानपूर्वक जीवन जीने के योग्य बनाने का सपना साकार करने के लिए अपना जीवन होम किया हो, यदि वे जीवन की संध्या में असहाय, अभावग्रस्त है तो लानत है उस संतान पर। वास्तव में वे संताने अधम हो धरती पर बोझ हैं। वृक्ष जब तक छायादार और फलदार रहता है, अपनी सेवाएं देता है। सूखने और जर्जर होने पर भी वह जाते जाते लकड़ी देकर जाता है। वृद्धावस्था जीवन का अखिरी चरण है, जब परिवार को उन्हें ऐसा वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए जिससे उन्हें अपनी संतति पर गर्व हो। उनके पास अनुभवों, संस्मरणों, स्मृतियों की अमूल्य धरोहर हैं जिसे प्रापत कर सुरक्षित, संरक्षित करना उनके बाद की पीढ़ी का कर्तव्य है। ऐसा भी नहीं है कि समाज से वृद्धों के सम्मान की भावना लृप्त हो चुकी है। आज भी अनेकानेक ऐसे परिवार है जहां अपने बुजुर्गों का बहुत सम्मान होता है। लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। आज विवाह के पश्चात ‘पति-पत्नी ही संसार है, शेष सब बेकार है’ की अवधारणा बलवती हो रही है। वृद्धों के सम्मान की श्रेष्ठ मानवीय गुणों को प्रसारित करने वाली भारतीय संस्कृति से विचलित होने के दुष्परिणाम समाज को उस रहे हैं। श्रवण कुमार के देश में आत्मकेन्द्रित होती पीढ़ी संयुक्त परिवार के तमाम गुणों और लाभों को समझने को तैयार ही नहीं है। एकाकी परिवार भी लगता है पीछे छूट रहा है। हर व्यक्ति एकाकी हो रहा है। क्योंकि उन्हें स्वतंत्रता नहीं, ‘स्वच्छन्दता’ चाहिए। सुविधाएं तो सारी चाहिए लेकिन जिम्मेवारी एक भी नहीं। ऐसे में वृद्धावस्था उपेक्षित हो रही है। यह स्थिति केवल वृद्धों के लिए ही कष्टकारी नहीं है बल्कि भावी पीढ़ी के साथ भी बहुत बढ़ा अन्याय और अत्याचार है। आज जब माता-पिता दोनो कामकाजी हैं ऐसे में बच्चे क्रैच में या नौकरों के हवाले। उन्हें लाड़ और संस्कार कौन दें? यदि हम दादा-दादी को पाते-पोतियों से जोड़ दें तो ‘विवशता’ और ‘आवश्यकता’ मिलकर समाज की ‘कर्कशता’ को काफी हद तक दूर कर सकते हैं।  शहरों की इस नई आधुनिक शैली में लोग अपने-आपको इतना व्यस्त पाते है कि उनके पास परिवार में एक-दूसरे से बात करने का समय तक नहीं है या वे एक- दूसरे के साथ बैठकर बातचीत करने की जरूरत ही नहीं समझते। बूढ़ों से बातचीत करना तो आज के युवक समय की बर्बादी ही समझते हैं तो क्या वृद्धों की समाज में उपयोगिता नहीं? पूरे जीवन में अनगिनत कष्ट उठाकर अर्जित किया गया अनुभव क्या समाज के किसी काम का नहीं? यह सही है कि आज के जीवन में मनुष्य की व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई हैं। लेकिन सोशल मीडिया और टीवी में डूबे रहने वाले समय की कमी का बहाना नहीं बना सकते। आज बुजुर्गों की स्थिति उस कैलेण्डर जैसी हो गई है जिसे नये वर्ष का केलेण्डर आते ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है या फिर कापी किताबों पर जिल्द चढ़ाने के काम में लिया जाता है। इसे ‘पीढ़ियों का अंतर’ कहकर अनदेखा करना मानव होने पर प्रश्नचिन्ह है। तेजी से स्मार्ट (?) हो रहे दौर में परिवार के मुखिया रहे व्यक्ति की दुर्दशा स्मार्टनेस का नहीं, शेमलेस होने का प्रमाण है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह किसी एक परिवार, एक नगर, प्रदेश अथवा देश की कहानी नहीं है।पूरे विश्व में बुजुर्गों के समक्ष न केवल अपने आपको बचाने बल्कि शारीरिक सक्रियता, आर्थिक विपन्नता की बढ़ी चुनौती है। यूरोप के विकसित देशों में वृद्धों को सरकार की ओर से अनेक प्रकार की सुविधा दी जाती है लेकिन हमारे अपने देश में रेल यातायात में मिलने वाली छूट को हटाने की ताक में बैठे नौकरशाहों को कोरोना ने अवसर उपलब्ध करा दिया। आज देश भर में बुजुर्गों को यातायात के नाम पर कोई छूट नहीं है। गुजरात सहित कुछ राज्यों में तो राज्य परिवहन की बसों में महिलाओं के लिए तो कुछ सीटे आरक्षित है परंतु वृद्धों के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं है। भारत जैसे देश में जहां वृद्धों की संख्या तेजी से बढ़ रही है परंतु उनकी समस्याओं की ओर समाज और सरकार का ध्यान बहुत कम है।  पश्चिम के समृद्ध देशों की छोड़िये, भारतीय मूल के छोटे देश मॉरीशस में भी वृद्धों के कल्याण के लिए अनेक कार्यक्रम है। वहां प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक को आकर्षक पेंशन, आजीवन निःशुल्क यातायात और स्वास्थ्य सेवाएं सहित अनेक सुविधाएं प्रदान की जाती है जबकि दूसरी ओर हमारे यहां  बुजुर्ग महिलाओं तथा ग्रामीण क्षेत्र में रहनेवाले बुजुर्गो आर्थिक संकटों से जूझने को विवश है। यदि कही पेंशन योजना है भी तो नाममात्र की राशि के साथ बहुत सीमित लोगों को ही उपलब्ध है। ऐसे में वे किसी तरह जीवन को घसीट रहे हैं। अकेले रहने को विवश बुजुर्गों को नित्य प्रति बढ़ रहे अपराधों से हर समय खतरा बना रहता है। इधर सर्वत्र ऑनलाइन लेन-देन के कारण उनके विरूद्ध साइबर क्राइम भी बढ़ रहे है। यह संतोष की बात है मोदी सरकार ने 70 से अधिक आयु वाले सभी नागरिकों के उपचार की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए आयुष्मान योजना लागू की है। इस योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार की ओर से पांच लाख रुपए तक के वार्षिक उपचार निजी अस्पताल में करने का प्रावधान है। दिल्ली सहित कुछ राज्यों ने इस योजना में अपना अंशदान देते हुए उपचार की राशि को 5 से बढ़कर 10 लख रुपए कर दिया है  लेकिन सरकार स्वयं 60 वर्ष के व्यक्ति को सेवानिवृत्ति कर देती है तो असंगठित क्षेत्र की स्थिति को समझा जा सकता है। अच्छा हो यदि इस  योजना का लाभ सभी वरिष्ठ नागरिकों को दिया जाए। इस योजना के अंतर्गत अस्पताल में दाखिल होने पर ही उपचार के प्रावधान को बदल जाना चाहिए ताकि जीवन भर परिवार समाज को अपना श्रेष्ठ देने वाले वरिष्ठ नागरिकों की नियमित जांच सुनिश्चित हो सके। कुछ राज्य सरकारें कुछ वरिष्ठ नागरिकों को बुढ़ापा पेंशन देती है जबकि आवश्यकता है कि प्रत्येक वृद्ध व्यक्ति को बुढ़ापा पेंशन के साथ-साथ, अकेले वृद्धों का पुनर्वास सुनिश्चित करना चाहिए। वृद्धाश्रम (ओल्डहोम) में रहने वालों के लिए देहदान का नियम हो ताकि माता-पिता की उपेक्षा करने वालों को उनकी मृत्यु के बाद नाटक करने और नकली टस्सुए बहाने का मौका ही न मिलें। जीते जी माँ-बाप को न पूछने वालों द्वारा आयोजित दिखावे के श्राद्ध का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए।   वरिष्ठ नागरिकों को भी अपनी सक्रियता और वाणी में मधुरता बरकरार रखनी चाहिए। यदि वे समाज ‘उपयोगी’ बने रहेंगे तो उनकी स्थिति निश्चित रूप से बेहतर होगी। अपने पास यदि कुछ धन, सम्पत्ति है तो उसकी वसीयत जरूर करें लेकिन सब सौंपने से पूर्व भावना के बहाव में बहने से बचते हुए गंभीर होकर निर्णय करें।  डा. विनोद बब्बर 

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