प्रह्लाद सबनानी

प्रह्लाद सबनानी

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सेवा निवृत उप-महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
ग्वालियर
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लेखक - प्रह्लाद सबनानी - के पोस्ट :

खान-पान लेख समाज

भारतीय युवाओं में बढ़ रही व्यसन की प्रवृति को रोकना जरूरी

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आज भारत के विभिन्न कस्बों, नगरों, विशेष रूप से महानगरों में, कम उम्र के नागरिकों के बीच व्यसन की समस्या विकराल रूप धारण करती हुई दिखाई दे रही है। देश के कुछ भागों में विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में विद्यार्थी भी नशे की लत का शिकार हो रहे हैं। भारत का युवा यदि गलत दिशा में जा रहा है तो यह भारत के भविष्य के लिए अत्यधिक चिन्ता का विषय है। देश के पंजाब राज्य में तो हालात बहुत खराब स्थिति में पहुंच गए है एवं वहां ग्रामीण इलाकों में भी युवा विभिन्न प्रकार के व्यसनों में लिप्त पाए जा रहे हैं। नशे के सेवन से न केवल स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है बल्कि मानसिक तौर पर भी युवा वर्ग विक्षिप्त अवस्था में पहुंच जाता है।      मेडिकल साइन्स के अनुसार, ड्रग्स के लंबे समय तक सेवन से लिवर, फेफड़े, हृदय और मस्तिष्क को नुकसान पहुंचता है। ड्रग्स का सेवन इम्यून सिस्टम को कमजोर करता है, जिससे व्यक्ति आसानी से बीमार पड़ सकता है। अत्यधिक मात्रा में ड्रग्स लेने से व्यक्ति कोमा में जा सकता है या मृत्यु भी हो सकती है। इसी प्रकार ड्रग्स के सेवन से डिप्रेशन, एंग्जायटी, और सिजोफ्रेनिया जैसी मानसिक बीमारियों को बढ़ावा मिलता है। ड्रग्स लेने वाले व्यक्ति को चूंकि इनकी लत लग जाती है अतः वह व्यक्ति मानसिक और भावनात्मक रूप से ड्रग्स पर निर्भर हो जाता है। ड्रग्स के आदी व्यक्ति का व्यवहार भी आक्रामक हो जाता है, जिसके कारण परिवार में तनाव और झगड़े बढ़ जाते हैं। ड्रग्स पर पैसा खर्च करने से व्यक्ति और उसके परिवार की आर्थिक स्थिति भी डावांडोल होने लगती है। ड्रग्स को खरीदने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है, यदि परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी हो और युवाओं को परिवार से धन की प्राप्ति नहीं होती है तो ड्रग्स की लत के कारण युवा चोरी, लूटपाट या अन्य अवैध गतिविधियों में संलिप्त हो जाते हैं। यह स्थिति भारत के लिए ठीक नहीं कही जा सकती है क्योंकि एक तो उस युवा का देश के विकास में योगदान लगभग शून्य हो जाता है, दूसरे, वह व्यक्ति अपने परिवार एवं समाज पर बोझ बन जाता है।  हम अक्सर मदिरापान और धूम्रपान की स्थिति में कैंसर का डर दिखाकर तम्बाकू निषेध को लक्षित करते हैं। जबकि व्यसनों के कई प्रकार हैं। ड्रग्स के विभिन्न प्रकार और उनके प्रभावों को समझना जरूरी है ताकि इसके दुरुपयोग से बचा जा सके। ड्रग्स से होने वाले शारीरिक, मानसिक और सामाजिक नुकसान के बारे में जागरूकता फैलाकर ही एक स्वस्थ और सुरक्षित समाज का निर्माण किया जा सकता है। आज देश में ड्रग्स की उपलब्धता बहुत आसान हो गई है। कई अंतरराष्ट्रीय गिरोह भारतीय युवाओं को अपनी गिरफ्त में लेकर कई प्रकार के ड्रग्स आसानी से उपलब्ध कराते हैं और उन्हें इनका आदी बना देते हैं। ड्रग्स के भी कई प्रकार हैं। जैसे,  (1) डिप्रेसेंट्स (Depressants): इस श्रेणी में अल्कोहल, बार्बिटुरेट्स, बेंजोडायजेपाइन आदि को शामिल किया जाता है। इस प्रकार के ड्रग्स मस्तिष्क की गतिविधि को धीमा कर देते हैं, जिससे व्यक्ति को शांति या सुकून महसूस होता है। लेकिन, अधिक मात्रा में लेने से यह सांस की तकलीफ, बेहोशी और मृत्यु का कारण बन सकते हैं। (2) स्टिमुलेंट्स (Stimulants): इस श्रेणी में कोकीन, मेथामफेटामिन, कैफीन आदि को शामिल किया जाता है। यह ड्रग्स मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र की गतिविधि को बढ़ाते हैं, जिससे चुस्ती और ऊर्जा बढ़ती है। इसके अधिक सेवन से दिल की धड़कन तेज होना, हाई ब्लड प्रेशर, और घबराहट जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। (3) ओपिओइड्स (Opioids): हेरोइन, मॉर्फिन, कोडीन आदि को इस श्रेणी में शामिल किया जाता है। इस प्रकार के ड्रग्स दर्द निवारक दवाएं हैं, लेकिन नशे के रूप में इनका दुरुपयोग किया जाता है। ओपिओइड्स का अधिक सेवन श्वसन तंत्र को धीमा कर देता है, जिससे व्यक्ति कोमा या मृत्यु का शिकार हो सकता है। (4) साइकेडेलिक्स (Psychedelics): एलएसडी, साइलोसाइबिन (मशरूम), डीएमटी आदि ड्रग्स इस श्रेणी में शामिल किए जाते हैं एवं इस प्रकार के ड्रग्स व्यक्ति की धारणा, विचार और मूड को बदल देते हैं। यह मतिभ्रम (hallucinations) पैदा कर सकते हैं। (5) इनहेलेंट्स (Inhalants): पेट्रोल, गोंद, स्प्रे पेंट आदि को इस श्रेणी में शामिल किया जाता है। इन पदार्थों को सूंघकर नशा किया जाता है। यह मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र को नुकसान पहुंचाते हैं। (6) कैनाबिनोइड्स (Cannabinoids): गांजा, भांग, हशीश आदि को इस श्रेणी के ड्रग्स में शामिल किया जाता है। इस प्रकार के ड्रग्स सुखद अनुभव कराते हैं, लेकिन अधिक मात्रा में लेने से मनोवैज्ञानिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। कुल मिलाकर देश में ड्रग्स की समस्या विकराल रूप धारण करती दिखाई दे रही है एवं इसने विशेष रूप से युवाओं को अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया है। दरअसल युवा, फिल्मों आदि को देखकर इसके सेवन को उचित मानने लगता है एवं इसके सेवन से समाज में उच्च स्थान प्राप्त करने का प्रयास करता है। उसे लगता है कि उच्च सोसायटी में नशे का सेवन करना जैसे आम बात है। परंतु, नशे से होने वाले नुक्सान से सर्वथा अनभिज्ञ रहता है। इसलिए विशेष रूप से युवाओं को नशे की लत से छुड़ाना अति आवश्यक है। हालांकि, हाल ही के समय में नशे की समस्याओं से युवा किस प्रकार परेशानी का सामना करता है जैसे विषयों को लेकर कई फिल्में भी बनाई गई हैं, इन्हें देखकर युवाओं में जागरूकता पैदा की जा सकती है। उड़ता पंजाब (2016), इस फिल्म में पंजाब में ड्रग्स की समस्या और उससे जूझते युवाओं की कहानी है। संजू (2018), इस फिल्म में युवाओं में ड्रग्स की लत और उससे बाहर निकलने की कहानी को दिखाया गया है। फैशन (2008), इस फिल्म में एक मॉडल को दिखाया गया है, जो शोहरत की दुनिया में ड्रग्स की लत का शिकार हो जाती है। डरना जरुरी है (2006), इस फिल्म की कहानी एक विशेष ड्रग एडिक्शन पर केंद्रित है। तमाशा (2015), इस फिल्म में नशे और आत्म-खोज की चुनौती को दर्शाया गया है। इसी प्रकार, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ फिल्मे बनाई गईं है। Requiem for a Dream (2000), इस फिल्म में ड्रग्स की लत और उसके विनाशकारी प्रभावों को बहुत ही गहराई से दिखाया गया है। Trainspotting (1996), इस फिल्म में हेरोइन की लत से जूझते युवाओं की कहानी दिखाई गई है और इसमें नशे की भयावहता को दिखाया गया है Beautiful Boy (2018), इस फिल्म में एक पिता और उसके बेटे की कहानी दिखाई गई है, जिसमें बेटा नशे की लत से जूझ रहा है। The Basketball Diaries (1995), इस फिल्म में एक किशोर की कहानी दिखाई गई है, जो नशे की लत में फंस जाता है और उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। A Star Is Born (2018), इस फिल्म में ड्रग्स और शराब की लत से जूझते युवा को दिखाया गया है, जिससे उसके करियर और रिश्तों पर असर पड़ता है। आज का युवा चूंकि फिल्मों की ओर अधिक आकर्षित होता है अतः व्यसनों से छुटकारा पाने के सम्बंध में बनाई गई फिल्मों का वर्णन किया गया है। परंतु, युवाओं को नशामुक्त करने की दृष्टि से विभिन्न संगठनों द्वारा जागरूकता अभियान चलाना आज आवश्यक हो गया है। सार्वजनिक स्थानों, स्कूलों, कॉलेजों और सामुदायिक केंद्रों पर व्यसन के दुष्प्रभावों पर आधारित जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। फिल्म फेस्टिवल, नुक्कड़ नाटक, सेमिनार, और सोशल मीडिया का उपयोग कर व्यसनों के नुकसान के बारे में युवाओं को जानकारी दी जा सकती है। स्कूलों और कॉलेजों में नशा विरोधी शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए जिससे छात्रों को छोटी उम्र से ही व्यसनों के खतरों के बारे में शिक्षित किया जा सके। नशे से संबंधित गतिविधियों में संलिप्त लोगों पर इतनी सख्त कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए कि वह समाज के सामने उदाहरण बने। अवैध शराब और नशीले पदार्थों की बिक्री पर निगरानी बढ़ाई जानी चाहिए एवं दोषियों पर कठोर दंड लागू किया जाना चाहिए। विभिन्न कस्बों एवं नगरों में स्थानीय स्तर पर कार्य कर रहे NGO और समुदाय आधारित संगठनों को नशमुक्ति अभियान में शामिल किया जाना चाहिए। यह संगठन व्यसन पीड़ितों की पहचान कर उन्हें उचित सहायता और मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं। परिवारों को व्यसन से बचाव और इसके लक्षणों की पहचान करने के तरीकों पर शिक्षित किया जाना चाहिए। इसके लिए माता-पिता को उनके बच्चों के व्यवहार पर ध्यान देने और संवाद बनाए रखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।व्यसन मुक्त भारत बनाने के लिए युवाओं को खेल, संगीत, नृत्य, और अन्य सृजनात्मक गतिविधियों में शामिल किया जाना चाहिए। इससे वे सकारात्मक कार्यों में व्यस्त रहेंगे और व्यसन से दूर रहेंगे। युवाओं को कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम से रोजगार के अवसर दिए जाने चाहिए ताकि उन्हें सकारात्मक दिशा मिले और वे व्यसन से दूर रहें।  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के 100वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है एवं विजयादशमी 2025 को 100 वर्ष का महान पर्व सम्पन्न होगा। संघ के स्वयंसेवक समाज में अपने विभिन्न सेवा कार्यों को समाज को साथ लेकर ही सम्पन्न करते रहे हैं। अतः इस शुभ अवसर पर, भारत के प्रत्येक जिले को, अपने स्थानीय स्तर पर समाज को विपरीत रूप से प्रभावित करती, समस्या को चिन्हित कर उसका निदान विजयादशमी 2025 तक करने का संकल्प लेकर उस समस्या को अभी से हल करने के प्रयास प्रारम्भ किए जा सकते हैं। किसी भी बड़ी समस्या को हल करने में यदि पूरा समाज ही जुड़ जाता है तो समस्या कितनी भी बड़ी एवं गम्भीर क्यों न हो, उसका समय पर निदान सम्भव हो सकता है। अतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, एक सांस्कृतिक संगठन होने के नाते, समाज को साथ लेकर भारत को व्यसन मुक्त बनाने हेतु लगातार प्रयास कर रहा है। इसी प्रकार, अन्य धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठनों को भी आगे आकर विभिन्न नगरों में इस प्रकार के अभियान चलाना चाहिए।  प्रहलाद सबनानी

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आर्थिकी लेख सार्थक पहल

भारत में दान करने की प्रथा से गरीब वर्ग का होता है कल्याण

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भारत में हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों में दान दक्षिणा की प्रथा का अलग ही महत्व है। भारत में विभिन्न त्यौहारों एवं महापुरुषों के जन्म दिवस पर मठों मंदिरों, गुरुद्वारों एवं अन्य पूजा स्थलों पर समाज के सम्पन्न नागरिकों द्वारा दान करने की प्रथा अति प्राचीन एवं सामान्य प्रक्रिया है। गरीब वर्ग की मदद करना ईश्वर की सबसे बड़ी सेवा माना जाता है। समाज में आपस में मिल बांटकर खाने पीने की प्रथा भी भारत में ही पाई जाती है और यह प्रथा भारतीय समाज में बहुत आम है। परिवार में आई किसी भी खुशी की घटना को समाज में विभिन्न वर्गों के बीच आपस में बांटने की प्रथा भी भारत में ही पाई जाती है। इस उपलक्ष में कई बार तो बहुत बड़े स्तर पर सामाजिक एवं धार्मिक आयोजन भी किए जाते हैं। जैसे जन्म दिवस मनाना, परिवार में शादी के समारोह के पश्चात समाज में नाते रिश्तेदारों, दोस्तों एवं मिलने वालों को विशेष आयोजनों में आमंत्रित करना, आदि बहुत ही सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत के विभिन्न मठों, मंदिरों, गुरुद्वारों एवं अन्य पूजा स्थलों पर प्रतिदिन 10 करोड़ से अधिक नागरिकों को प्रसादी के रूप में भोजन वितरित किया जाता है।       साथ ही, पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जिसमें निवासरत नागरिक, चाहे वह कितना भी गरीब से गरीब क्यों न हो, अपनी कमाई में से कुछ राशि का दान तो जरूर करता है। भारतीय शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि हिंदू सनातन संस्कृति के अनुरूप, महर्षि दधीच ने तो, देवताओं को असुरों पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से, अपने शरीर को ही दान में दे दिया था, जिसे इतिहास में उच्चत्तम बलिदान की संज्ञा भी दी जाती है। आज के युग में जब अर्थ को अत्यधिक महत्व प्रदान किया जा रहा है, तब अधिक से अधिक धनराशि का दान करना ही शुभ कार्य माना जा रहा है। इस दृष्टि से वैश्विक स्तर पर नजर डालने पर ध्यान में आता है कि दुनिया में सबसे बड़े दानदाता के रूप में आज भारत के टाटा उद्योग समूह के श्री रतन टाटा का नाम सबसे ऊपर उभर कर सामने आता है। इस सूची में टाटा समूह के संस्थापक श्री जमशेदजी टाटा का नाम भी बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है, जिन्होंने अपने जीवन में शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में 8.29 लाख करोड़ रुपए की राशि का महादान किया था। इसी प्रकार, श्री रतन टाटा के नेतृत्व में टाटा समूह ने वर्ष 2021 तक 8.59 लाख करोड़ रुपए की राशि का महादान किया था। आप अपनी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा गरीब वर्ग की सहायतार्थ दान में दे देते थे। श्री रतन टाटा केवल भारत स्थित संस्थानों को ही दान नहीं देते थे बल्कि वैश्विक स्तर पर समाज की भलाई के लिए कार्य कर रहे संस्थानों को भी दान की राशि उपलब्ध कराते थे। आपने वर्ष 2008 के महामंदी के दौरान अमेरिका स्थित कार्नेल विश्वविद्यालय को 5 करोड़ अमेरिकी डॉलर का दान प्रदान किया था। श्री रतन टाटा ने आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे छात्रों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने के उद्देश्य से जे. एन. टाटा एंडाउमेंट, सर रतन टाटा स्कॉलर्शिप एवं टाटा स्कॉलर्शिप की स्थापना कर दी थी। श्री रतन टाटा चूंकि अपनी कमाई का बहुत बड़ा भाग दान में दे देते थे, अतः उनका नाम कभी भी अमीरों की सूची में बहुत ऊपर उठकर नहीं आ पाया। इस सूची में आप सदैव नीचे ही बने रहे। श्री रतन टाटा जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन काल में इतनी बड़ी राशि का दान किया था कि आज विश्व के 2766 अरबपतियों के पास इतनी सम्पत्ति भी नहीं है। यूं तो टाटा समूह ने भारत राष्ट्र के निर्माण में बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, परंतु कोरोना महामारी के खंडकाल में श्री रतन टाटा के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। जिस समय पूरा विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा था, उस समय श्री रतन टाटा ने न केवल भारत बल्कि विश्व के कई अन्य देशों को भी आर्थिक सहायता के साथ साथ वेंटिलेटर, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) किट, मास्क और दस्ताने आदि सामग्री उपलब्ध कराई। श्री रतन टाटा के निर्देशन में टाटा समूह ने इस खंडकाल में 1000 से अधिक वेंटिलेटर और रेस्पिरेटर, 4 लाख पीपीई किट, 35 लाख मास्क और दास्ताने और 3.50 लाख परीक्षण किट चीन, दक्षिणी कोरिया आदि देशों से भी आयात के भारत में उपलब्ध कराए थे।  श्री रतन टाटा के पूर्वज पारसी समुदाय से थे और ईरान से आकर भारत में रच बस गए थे। श्री रतन टाटा ने न केवल भारतीय हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों को अपने जीवन में उतारा, बल्कि इन संस्कारों का अपने पूरे जीवनकाल में अक्षरश: अनुपालन भी किया। इन्हीं संस्कारों के चलते श्री रतन टाटा को आज पूरे विश्व में सबसे बड़े दानदाता के रूप में जाना जा रहा है।     टाटा समूह का वर्णन तो यहां केवल उदाहरण के रूप में किया जा रहा है। अन्यथा, भारत में ऐसे कई औद्योगिक घराने हैं जिन्होंने अपनी पूरी संपत्ति को ही ट्रस्ट के माध्यम से समाज के उत्थान एवं समाज की भलाई के लिए दान में दे दिया है। प्राचीन भारत में यह कार्य राजा महाराजाओं द्वारा किया जाता रहा हैं। हिंदू सनातन संस्कृति के विभिन्न शास्त्रों में यह वर्णन मिलता है कि ईश्वर ने जिसको सम्पन्न बनाया है, उसे समाज में गरीब वर्ग की भलाई के लिए कार्य करना चाहिए। यह सहायता गरीब वर्ग को सीधे ही उपलब्ध कराई जा सकती है अथवा ट्रस्ट की स्थापना कर भी गरीब वर्ग की मदद की जा सकती है। वर्तमान में तो निगमित सामाजिक दायित्व (सी एस आर – कोरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी) के सम्बंध में कानून की बना दिया गया है। जिन कम्पनियों की सम्पत्ति 500 करोड़ रुपए से अधिक है अथवा जिन कम्पनियों का वार्षिक व्यापार 1000 करोड़ रुपए से अधिक है अथवा जिन कम्पनियों का वार्षिक शुद्ध लाभ 5 करोड़ से अधिक है, उन्हें इस कानून के अंतर्गत अपने वार्षिक शुद्ध लाभ के दो प्रतिशत की राशि का उपयोग समाज की भलाई के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं पर खर्च करना आवश्यक होता है। इन विभिन्न मदों पर खर्च की जाने वाली राशि का प्रतिवर्ष अंकेक्षण भी कराना होता है, ताकि यह जानकारी प्राप्त की जा सके राशि का सदुपयोग समाज की भलाई के लिए किया गया है एवं इस राशि का किसी भी प्रकार से दुरुपयोग नहीं हुआ है।  भारत में गरीब वर्ग/परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने में समाज में सम्पन्न वर्ग द्वारा किए जाने वाले दान आदि की राशि से भी बहुत मदद मिलती है। निगमित सामाजिक दायित्व (सी एस आर) योजना के अंतर्गत चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं का सीधा लाभ भी समाज के गरीब वर्ग को ही मिलता है। अतः विश्व में शायद भारत ही एक ऐसा देश है जहां सरकार एवं समाज मिलकर गरीब वर्ग की भलाई हेतु कार्य करते हुए दिखाई देते हैं। इसीलिए ही अब यह कहा जा रहा है कि हिंदू सनातन संस्कृति का विस्तार यदि वैश्विक स्तर पर होता है तो, इससे पूरे विश्व का ही कल्याण हो सकता है एवं बहुत सम्भव है कि वैश्विक स्तर पर गरीबी का नाश होकर चहुं ओर खुशहाली फैलती दिखाई दे।                 प्रहलाद सबनानी 

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आर्थिकी राजनीति

सांस्कृतिक संगठनों के नेतृत्व में स्वच्छता अभियान को दी जा सकती है गति

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आज पूरे देश के विभिन्न नगरों में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की स्थिति बहुत चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। इन नगरों में प्रतिदिन सैकड़ों/हजारों टन कचरा उत्पन्न होता है, जिसे इन नगरों की नगर पालिकाओं/नगर निगमों द्वारा एकत्र किया जाता है। कचरे की मुख्य श्रेणियों में जैविक अपशिष्ट, प्लास्टिक, कागज, धातु और कांच शामिल रहते हैं। कुछ नगरों में संग्रहण के पश्चात, कचरे को प्रसंस्करण संयंत्रों में भेजा जाता है, परंतु कुछ नगरों में नागरिकों की भागीदारी और कचरे के उचित निपटान की कमी एक प्रमुख चुनौती बनी हुई है। इस प्रकार देश के विभिन्न नगरों में कचरा प्रबंधन एक बड़ी समस्या के रूप में विद्यमान है। भारत में कचरे का मुख्य निपटान लैंडफिल साइटों पर किया जाता है, लेकिन यहां कचरे की सॉर्टिंग का अभाव है। अधिकांश कचरे को बिना छांटे सीधे लैंडफिल में डाला जाता है, जिससे पुनर्चक्रण की प्रक्रिया प्रभावित होती है। इसके अलावा, लैंडफिल साइट्स पर कचरे का उचित प्रबंधन नहीं किया जाता और इसका प्रदूषण मिट्टी और जल स्रोतों तक फैलता है। कुछ नगरों में कई कॉलोनियों में सीवेज का पानी खुले में बहाया जाता है। इससे जल स्रोतों का प्रदूषण होता है और जल जनित बीमारियों का खतरा बढ़ता है। खुले में सीवेज के निस्तारण से दुर्गंध और अस्वच्छ वातावरण भी उत्पन्न होता है, जिससे नागरिकों को स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कई नगरों में नागरिक अक्सर सड़कों, सार्वजनिक स्थानों, पार्कों और धार्मिक स्थलों पर कचरा फेंक देते हैं। यह शहर की स्वच्छता को प्रभावित करता है और प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाता है। खासकर धार्मिक आयोजनों और प्रसाद वितरण के बाद खुले में कचरा फैलाने की आदत अधिक देखी जाती है। इससे न केवल गंदगी फैलती है, बल्कि यह धार्मिक स्थलों की पवित्रता और स्थानीय पारिस्थितिकी को भी प्रभावित करता है। इसी प्रकार, कई नगरों में वायु प्रदूषण की समस्या तेजी से बढ़ रही है। एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) कई बार 200 से 300 के बीच रहता है, जो “अस्वस्थ” श्रेणी में आता है। इसके कारणों में प्रमुख हैं: (1) औद्योगिक प्रदूषण – विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले वेस्ट पदार्थों का उचित निपटान नहीं होने के चलते विभिन्न उद्योग नगरों में प्रदूषण फैलाते हैं। (2) वाहनों से प्रदूषण – बढ़ते वाहनों की संख्या और पुराने वाहनों से निकलने वाले धुएं के कारण प्रदूषण में वृद्धि हो रही है। (3) धूल – सड़क निर्माण और निर्माण कार्यों से निकलने वाली धूल भी वायु प्रदूषण को बढ़ाती है, जो सांस के रोगों को जन्म देती है। आज भारत में विभिन्न नगरों में स्वच्छता की समस्याओं के हल में नागरिकों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गई है। नागरिकों द्वारा खुले में कचरा फेंकने, जानवरों को खुले में खाना देने और धार्मिक आयोजनों में प्रदूषण फैलाने जैसी आदतें स्वच्छता की स्थिति को और अधिक खराब करती हैं। (1) सार्वजनिक स्थानों पर कचरा फेंकना – लोग अक्सर सड़कों, पार्कों और धार्मिक स्थलों पर कचरा छोड़ देते हैं। (2) जानवरों को खाना देना – नागरिकों द्वारा सड़क पर गायों और कुत्तों को खाना देना एक सामान्य प्रथा है, लेकिन इसके बाद कचरे का सही निपटान नहीं किया जाता। पन्नियां भी यदा-कदा फेंक दी जाती हैं। (3) धार्मिक आयोजनों में प्रदूषण – धार्मिक स्थानों पर पूजा सामग्री और प्रसाद के पैकेट खुले में फेंके जाते हैं, जिससे स्वच्छता की स्थिति बिगड़ती है।इसमें भंडारे वाले स्थान प्रमुखता से हैं।  हालांकि भारत सरकार द्वारा स्वच्छता के लिए पूरे देश में ही अभियान चलाया जा रहा है, परंतु इस कार्य में विभिन्न सरकारी विभागों के अतिरिक्त समाज को भी अपनी भूमिका का निर्वहन गम्भीरता से करना होगा। यदि समाज और सरकार इस क्षेत्र में मिलकर कार्य करते हैं तो सफलता निश्चित ही मिलने जा रही है। केंद्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्वच्छ भारत अभियान के तहत विभिन्न नगरों में कई प्रयास किए गए हैं। घर-घर शौचालय का निर्माण कराया गया है एवं कचरा संग्रहण की व्यवस्था की गई है इससे कुछ हद्द तक स्वच्छता जागरूकता कार्यक्रम सफल रहे हैं, लेकिन कचरे का निपटान और सार्वजनिक स्थलों की सफाई में अभी भी सुधार की बहुत अधिक गुंजाइश है। कुछ नगरों को तो स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत भी कई अतिरिक्त योजनाएं मिली हैं। इन योजनाओं में स्मार्ट कचरा प्रबंधन, स्मार्ट पार्किंग, और डिजिटल स्वच्छता निगरानी जैसी परियोजनाएं शामिल हैं। इन कदमों से कचरे के प्रबंधन में सुधार और स्वच्छता बनाए रखने में मदद मिली है। कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में विभिन्न नगरों के सामने आ रही विभिन्न समस्याओं के हल हेतु समाज द्वारा दिए गए कई सुझावों पर अमल किया जाकर भी अपने अपने नगर में स्वच्छता के अभियान को सफल बनाया जा सकता है। विभिन्न नगरों को आज स्वच्छता के लिए 3R (Reduce, Reuse, Recycle) के सिद्धांत को अपनाने की महती आवश्यकता है। प्लास्टिक कचरे से सड़कें बनाना (Plastic Waste Roads) का कार्य बड़े स्तर पर हाथ में लिया जा सकता है। कचरे से ऊर्जा उत्पन्न करने (Waste-to-Energy Projects) के सम्बंध में विभिन्न प्राजेक्ट्स हाथ में लिए जा सकते हैं।  इको-फ्रेंडली शौचालयों (Eco-Friendly Toilets) का निर्माण भारी मात्रा में होना चाहिए। कचरे से धन उत्पन्न करने (Waste-to-Wealth) सम्बंधी योजनाओं को गति दी जा सकती है, इससे न केवल कचरा प्रबंधन में मदद मिलेगी बल्कि इन क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को भी गति मिलेगी। त्यौहारों के समय भारी मात्रा में बनाई जा रही भगवान की मूर्तियों का विसर्जन करते समय नगर स्तर पर स्वयसेवकों की टोलीयां बनाई जानी चाहिए जो विसर्जन सम्बंधित गतिविधियों पर अपनी पारखी नजर बनाए रखें ताकि भगवान की मूर्तियों का विसर्जन न केवल पूरे विधि विधान से सम्पन्न हो बल्कि इन मूर्तियों के अवशेष किसी भी प्रकार से कचरे का रूप न ले पायें, इसका ध्यान भी रखा जाना चाहिए।  अफ्रीकी देश रवांडा में, प्रत्येक माह के अंतिम शनिवार को एक घंटे के लिए पूरा देश अपने सभी कार्य रोककर सामूहिक सफाई में हिस्सा लेता है। इसे उमुगांडा कहा जाता है, और यह एक सामाजिक पहल है जिसका उद्देश्य न केवल स्वच्छता को बढ़ावा देना है, बल्कि समुदाय में एकजुटता और जिम्मेदारी की भावना को भी प्रोत्साहित करना है। इस एक घंटे के दौरान, नागरिक सार्वजनिक स्थानों, सड़कों और अन्य सामुदायिक क्षेत्रों को साफ करते हैं। यह पहल सरकार से लेकर स्कूलों के बच्चों तक सभी को शामिल करती है, और यह सामूहिक सफाई का एक बड़ा अभियान बन जाता है। उमुगांडा केवल स्वच्छता तक सीमित नहीं है; यह सामाजिक एकता और सामूहिक प्रयास को बढ़ावा देने का एक तरीका है। भारत के विभिन्न नगरों में भी इस प्रकार की गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सकता है।  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के 100वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है एवं विजयादशमी 2025 को 100 वर्ष का महान पर्व सम्पन्न होगा। संघ के स्वयंसेवक समाज में अपने विभिन्न सेवा कार्यों को समाज को साथ लेकर ही सम्पन्न करते रहे हैं। अतः इस शुभ अवसर पर, भारत के प्रत्येक जिले को, अपने स्थानीय स्तर पर समाज को विपरीत रूप से प्रभावित करती, समस्या को चिन्हित कर उसका निदान विजयादशमी 2025 तक करने का संकल्प लेकर उस समस्या को अभी से हल करने के प्रयास प्रारम्भ किए जा सकते हैं। किसी भी बड़ी समस्या को हल करने में यदि पूरा समाज ही जुड़ जाता है तो समस्या कितनी भी बड़ी एवं गम्भीर क्यों न हो, उसका समय पर निदान सम्भव हो सकता है। अतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, एक सांस्कृतिक संगठन होने के नाते, समाज को साथ लेकर पर्यावरण में सुधार हेतु विभिन्न नगरों में स्वच्च्ता अभियान को चलाने का लगातार प्रयास कर रहा है। इसी प्रकार, अन्य धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठनों को भी आगे आकर विभिन्न नगरों में इस प्रकार के अभियान चलाना चाहिए।  प्रहलाद सबनानी 

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कला-संस्कृति शख्सियत साक्षात्‍कार

श्रीदेवरसजी अस्पृश्यता प्रथा के घोर विरोधी थे

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11 दिसम्बर 2024 श्रीबालासाहेब देवरस की जयंती पर विशेष लेख  परम पूज्य श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक थे। आपका जन्म 11 दिसम्बर 1915 को श्री दत्तात्रेय कृष्णराव देवरस जी और श्रीमती पार्वती बाई जी के परिवार में हुआ था। आपने वर्ष 1938 में नागपुर के मॉरिस कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के उपरांत कॉलेज आफ लॉ, नागपुर विश्व विद्यालय से एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। वर्ष 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉक्टर हेडगेवार जी द्वारा की गई थी एवं आप वर्ष 1927 में अपनी 12 वर्ष की अल्पायु में ही संघ के स्वयंसेवक बन गए थे एवं नागपुर में संघ की एक शाखा में नियमित रूप से जाने लगे तथा इस प्रकार अपना सम्पूर्ण जीवन ही मां भारती की सेवा हेतु संघ को समर्पित कर दिया था। आप अपने बाल्यकाल में कई बार दलित स्वयंसेवकों को अपने घर ले जाते थे और अपनी माता से उनका परिचय कराते हुए उन्हें अपने घर की रसोई में अपने साथ भोजन कराते थे। आपकी माता भी उनके इस कार्य में उनका उत्साह वर्धन करती थीं। कुशाग्र बुद्धि के कारण आपने शाखा की कार्य प्रणाली को बहुत शीघ्रता से आत्मसात कर लिया था। अल्पायु में ही आप क्रमशः गटनायक, गणशिक्षक, शाखा के मुख्य शिक्षक एवं कार्यवाह आदि के अनुभव प्राप्त करते गए। नागपुर की इतवारी शाखा उन दिनों सबसे कमजोर शाखा मानी जाती थी, किंतु जैसे ही आप उक्त शाखा के कार्यवाह बने, आपने एक वर्ष के अपने कार्यकाल में ही उक्त शाखा को नागपुर की सबसे अग्रणी शाखाओं में शामिल कर लिया था। शाखा में आप स्वयंसेवकों के बीच अनुशासन का पालन बहुत कड़ाई से करवाते थे। दण्ड योग अथवा संचलन में किसी स्वयंसेवक से थोड़ी सी भी गलती होने जाने पर उसे तुरंत पैरों में चपाटा लगता था। परंतु, साथ ही, आपका स्वभाव उतना ही स्नेहमयी भी था, जिसके कारण कोई भी स्वयंसेवक आपसे कभी भी रूष्ट नहीं होता था।  श्री देवरस जी द्वारा वसंत व्याख्यानमाला में दिए गए एक उद्भोधन को उनके सबसे प्रभावशाली उद्बोधनों में से एक माना जाता है, मई 1974 में पुणे में दिए गए इस उद्बोधन में आपने अस्पृश्यता प्रथा की घोर निंदा की थी और संघ के स्वयंसेवकों से इस प्रथा को समाप्त करने की अपील भी की थी। संघ ने हिंदू समाज के साथ मिलकर अनुसूचित जाति के सदस्यों के उत्थान के लिए समर्पित संगठन “सेवा भारती” के माध्यम से कई कार्य किए। इस सम्बंध में संघ के स्वयंसेवकों ने स्कूल भी प्रारम्भ किए जिनमें झुग्गीवासियों, दलितों, समाज के छोटे तबके के नागरिकों एवं गरीब वर्ग को हिंदू धर्म के गुण सिखाते हुए व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाए जाते रहे। आपने 9 नवम्बर 1985 को अपने एक उदबोधन में कहा था कि संघ का मुख्य उद्देश्य हिंदू एकता है और संगठन का मानना है कि भारत के सभी नागरिकों में हिंदू संस्कृति होनी चाहिए। श्री देवरस जी ने इस संदर्भ में श्री सावरकर जी की बात को दोहराते हुए कहा था कि हम एक संस्कृति और एक राष्ट्र (हिंदू राष्ट्र) में विश्वास करते हैं लेकिन हिंदू की हमारी परिभाषा किसी विशेष प्रकार के विश्वास तक सीमित नहीं है। हिंदू की हमारी परिभाषा में वे लोग शामिल हैं जो एक संस्कृति में विश्वास करते हैं और इस देश को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं। इस प्रकार, वे समस्त हिंदू इस महान राष्ट्र का हिस्सा माने जाने चाहिए। इसलिए, हिंदू से हमारा आशय किसी विशेष प्रकार की आस्था से नहीं है। हम हिंदू शब्द का उपयोग व्यापक अर्थ में करते हैं।   वर्ष 1973 में श्री देवरस जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बने। आपने अपने कार्यकाल के दौरान संघ को समाज के साथ जोड़ने में विशेष रूचि दिखाई थी और इसमें सफलता भी प्राप्त की थी। आपने श्री जयप्रकाश नारायण जी के साथ मिलकर भारत में लगाए गए आपातकाल एवं देश से भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए चलाए गए आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। आपातकाल के दौरान देश के कई राजनैतिक नेताओं के साथ ही संघ के कई स्वयंसेवकों को भी तत्कालीन केंद्र सरकार ने जेल में डाल दिया था। श्री देवरस जी को भी पुणे की जेल में डाला गया था। लम्बे समय तक चले संघर्ष के बाद, जब श्री देवरस जी को जेल से छोड़ा गया तो आपका पूरे देश में अभूतपूर्व स्वागत हुआ था। आपातकाल के दौरान अपने ऊपर एवं अन्य विभिन्न नेताओं पर हुए अन्याय एवं अत्याचार को लेकर देश के नागरिकों एवं स्वयंसेवकों के बीच किसी भी प्रकार की कटुता नहीं फैले इस दृष्टि से आपने उस समय पर समस्त स्वयंसेवकों को आग्रह किया था कि हमें इस सम्बंध में सब कुछ भूल जाना चाहिए और भूल करने वालों को क्षमा कर देना चाहिए। आपातकाल के दौरान संघ कार्य के सम्बंध में लिखते हुए द इंडियन रिव्यू पत्रिका के सम्पादक श्री एम सी सुब्रमण्यम ने लिखा है कि “आपातकाल के विरोध में जिन्होंने संघर्ष किया, उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख है। इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि सत्याग्रह की योजना बनाना, सम्पूर्ण भारत में सम्पर्क बनाए रखना, चुपचाप आंदोलन के लिए धन एकत्रित करना, व्यवस्थित रीति से आदोलन के पत्रक सब दूर पहुंचाना, और बिना दलीय या धार्मिक भेदभाव के कारागृह में बंद लोगों के परिवारों की आर्थिक मदद करना, इस सम्बंध में संघ ने स्वामी विवेकानंद के उदगार सत्य कर दिखाए। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि देश में सामाजिक और राजनैतिक कार्य करने के लिए सर्वसंग परित्यागि सन्यासियों की आवश्यकता होती है।” आपातकाल के दौरान संघ के कार्यकर्ताओं के साथ कार्य करने वाले विभिन्न दलों के सहयोगियों ने ही नहीं बल्कि संघ से शत्रुता रखने वाले नेताओं ने भी संघ के स्वयंसेवकों के प्रति गौरव और आदर के उद्गार व्यक्त किए हैं। भारत को राजनैतिक स्वतंत्रता वर्ष 1947 में प्राप्त हो गई थी, परंतु, दादरा नगर हवेली एवं गोवा आदि कुछ हिस्से अभी भी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे क्योंकि यहां पुर्तगालियों का शासन यथावत बना रहा। ऐसे समय में कुछ संगठनों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दायित्ववान  स्वयंसेवकों से मुलाकात की और भारत के उक्त क्षेत्रों को भी स्वतंत्र कराने की योजना बनाई गई। संघ के हजारों स्वयंसेवक सिलवासा पहुंच गए एवं दादरा नगर हवेली को आजाद करा  लिया। संघ के स्वयंसेवकों ने 1955 से गोवा मुक्ति संग्राम में भाग लेना शुरू कर दिया था।इसके बाद गोवा को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से कर्नाटक से 3000 से अधिक संघ के स्वयंसेवक गोवा पहुंच गए, इनमें कई महिलाएं भी शामिल थीं। गोवा सरकार के खिलाफ आंदोलन प्रारम्भ हो गया। सरकार ने इन सत्याग्रहियों को गिरफ़्तार कर लिया गया एवं 10 साल की कठोर सजा सुनाई गई। इसके बाद तो इन स्वयंसेवकों की रिहाई कराने एवं गोवा को स्वतंत्र कराने की मांग पूरे देश में ही उठने लगी। देश की जनता के दबाव में भारत सरकार ने ऑपरेशन विजय चलाया। 18 दिसम्बर, 1961 को इस महत्वपूर्ण अभियान को प्रारम्भ किया गया, इस अभियान में भारतीय सेना के तीनों अंग शामिल हुए थे। यह अभियान 36 घंटे चला और इसके सफल होते ही गोवा को 450 वर्ष के पुर्तगाली शासन से आजादी प्राप्त हो गई। इस प्रकार संघ के स्वयंसेवकों के प्रारंभिक उद्घोष, सक्रियता, समर्पण, जज्बे और सेना के पराक्रम से अंतत: गोवा भारतीय गणराज्य का अंग बन गया। कुल मिलाकर गोवा को स्वतंत्र कराने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में संघ की ओर से श्री देवरस जी की भी महती भूमिका रही है।   श्री देवरस जी ने कई पुस्तकें भी लिखी थीं, जिनमें कुछ पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुईं हैं, जैसे वर्ष 1974 में “सामाजिक समानता और हिंदू सुदृढ़ीकरण” विषय पर लिखी गई पुस्तक; वर्ष 1984 में लिखित पुस्तक “पंजाब समस्या और उसका समाधान”; वर्ष 1997 में लिखित पुस्तक “हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति” एवं वर्ष 1975 में अंग्रेजी भाषा में लिखी गई पुस्तक “राउज़: द पॉवर आफ गुड” ने भी बहुत ख्याति अर्जित की है।  श्री देवरस जी 17 जून 1996 को इस स्थूल काया का परित्याग कर प्रभु परमात्मा में लीन हो गए थे। आपकी इच्छा अनुसार आपका अंतिम संस्कार रेशमबाग के बजाय नागपुर के सामान्य नागरिकों के श्मशान घाट में किया गया था।   

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आर्थिकी लेख

ब्याज दरों में अब कमी होनी ही चाहिए

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भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर श्री शक्तिकांत दास ने अपने वर्तमान कार्यकाल का अंतिम मुद्रा नीति वक्तव्य (मोनेटरी पॉलिसी स्टेट्मेंट) दिनांक 06 दिसम्बर 2024 को प्रातः 10 बजे जारी किया है। इस मुद्रा नीति वक्तव्य में रेपो दर में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं करते हुए इसे पिछले 22 माह से (अर्थात 11 मुद्रा नीति वक्तव्यों से) 6.5 प्रतिशत पर स्थिर रखा गया है। यह संभवत: भारतीय रिजर्व बैंक के इतिहास में सबसे अधिक समय तक स्थिर रहने वाली रेपो दर है। इस बढ़ी हुई रेपो दर का भारत के आर्थिक विकास पर अब विपरीत प्रभाव होता हुआ दिखाई दे रहा है क्योंकि वित्तीय वर्ष 2024-25 की द्वितीय तिमाही में भारत में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर घटकर 5.4 प्रतिशत तक नीचे आ गई है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रत्येक दो माह के अंतराल पर मुद्रा नीति वक्तव्य जारी किया जाता है, परंतु पिछले 11 मुद्रा नीति वक्तव्यों में रेपो दर में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया गया है। जबकि, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर कुछ समय तक तो लगातार 6 प्रतिशत के सहनीय स्तर से नीचे बनी रही है। भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय वर्ष 2024-25 के दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित औसत मुद्रा स्फीति के अनुमान को 4.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 4.8 प्रतिशत कर दिया है। इसका आश्य यह है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खुदरा मुद्रा स्फीति की दर संभवत: वित्तीय वर्ष 2024-25 की तृतीय तिमाही में भी अधिक बनी रह सकती है। इसके पीछे खाद्य पदार्थों (विशेष रूप से फल एवं सब्जियों) की कीमतों में लगातार हो रही वृद्धि, एक मुख्य कारण जिम्मेदार हो सकता है। परंतु, क्या ब्याज दरों में वृद्धि कर खाद्य पदार्थों की कीमतों को नियंत्रित किया जा सकता है? उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खुदरा मुद्रा स्फीति की दर को आंकने में खाद्य पदार्थों का भार लगभग 40 प्रतिशत है। यदि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति में से खाद्य पदार्थों के भार को अलग कर दिया जाय तो यह आंकलन बनता है कि कोर पदार्थों की मुद्रा स्फीति की दर नियंत्रण में बनी हुई है। खाद्य पदार्थों की कीमतों को बाजार में फलों एवं सब्जियों की आपूर्ति बढ़ाकर ही नियंत्रित किया जा सकता है, न कि ब्याज दरों में वृद्धि कर। इस वर्ष मानसून का पूरे देश में विस्तार ठीक तरह से नहीं रहा है, कुछ क्षेत्रों में बारिश की मात्रा अत्यधिक रही है एवं कुछ क्षेत्रों बारिश की मात्रा बहुत कम रही है, जिसका प्रभाव खाद्य पदार्थों की उत्पादकता पर भी विपरीत रूप से पड़ा है, जिससे अंततः खाद्य पदार्थों की कीमतों में उच्छाल देखा गया है।  बाद के समय में, अच्छे मानसून के पश्चात भारत में आने वाली रबी मौसम की फसल बहुत अच्छी मात्रा में आने की सम्भावना है क्योंकि न केवल फसल के कुल रकबे में वृद्धि दर्ज हुई है बल्कि पानी की पर्याप्त उपलब्धता के चलते फसल की उत्पादकता में भी वृद्धि होने की पर्याप्त सम्भावना है। इन कारकों के चलते आगे आने वाले समय में खाद्य पदार्थों की एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खुदरा मुद्रा स्फीति की दर निश्चित ही नियंत्रण के रहने की सम्भावना है। इससे, निश्चित ही रेपो दर को कम करने की स्थिति निर्मित होती हुई दिखाई दे रही है। साथ ही, अमेरिका सहित यूरोप के विभिन्न देशों में भी ब्याज दरों को लगातार कम करने का चक्र प्रारम्भ हो चुका है, जिसका प्रभाव विश्व के अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। दूसरी ओर, भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय वर्ष 2024-25 में सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली वृद्धि दर के अनुमान को 7.2 प्रतिशत से घटाकर 6.6 प्रतिशत कर दिया है। क्योंकि, यह वृद्धि दर द्वितीय तिमाही में घटकर 5.4 प्रतिशत की रही है। वित्तीय वर्ष 2024-25 की द्वितीय तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर  के कम रहने के कई विशेष कारण रहे हैं। देश में लोकसभा चुनाव के चलते केंद्र सरकार को अपने पूंजीगत खर्चों एवं सामान्य खर्चों में भारी कमी करना पड़ी थी। इसके बाद विभिन्न राज्यों में विधानसभा चुनावों के चलते इन राज्यों द्वारा किए जाने वाले सामान्य खर्चों में अतुलनीय कमी की गई थी। जिससे अंततः नागरिकों के हाथों में खर्च करने लायक राशि में भारी कमी हो गई। दूसरे, इस वर्ष भारत में मानसून भी अनियंत्रित सा रहा है जिससे कृषि क्षेत्र में उत्पादन प्रभावित हुआ एवं ग्रामीण इलाकों में नागरिकों की आय में कमी हो गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों में अस्थिरता बनी रही, जिसके कारण भारत से विभिन्न उत्पादों के निर्यात प्रभावित हुए। इस अवधि में विनिर्माण के क्षेत्र एवं माइनिंग के क्षेत्र में उत्पादन भी तुलनात्मक रूप से कम रहा। उक्त कारकों के चलते भारत में वित्तीय वर्ष 2024-25 की द्वितीय तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर बहुत कम रही है। इस द्वितीय तिमाही में विभिन्न कम्पनियों के वित्तीय परिणाम भी बहुत उत्साहजनक नहीं रहे हैं। इनकी लाभप्रदता में आच्छानुरूप वृद्धि दर्ज नहीं हुई है। कम्पनियों के वित्तीय परिणाम उत्साहजनक नहीं रहने के चलते विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार से सितम्बर, अक्टोबर एवं नवम्बर माह में 1.50 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि निकाली है। जिससे भारतीय शेयर बाजार के निफ्टी सूचकांक में 3000 से अधिक अंकों की गिरावट दर्ज हुई है, निफ्टी सूचकांक अपने उच्चत्तम स्तर 26,400 से गिरकर 23,200 अंकों तक नीचे आ गया था। हालांकि अब यह पुनः बढ़कर 24,700 अंकों पर आ गया है और विदेशी संस्थागत निवेशकों ने एक बार पुनः भारतीय शेयर बाजार पर अपना भरोसा जताते हुए अपने निवेश में वृद्धि करना शुरू कर दिया है।  अब देश में कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में विधान सभा चुनावों एवं लोक सभा चुनाव के सम्पन्न होने के बाद केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अपने पूंजीगत खर्चों एवं सामान्य खर्चों में वृद्धि की जाएगी। साथ ही, भारत में त्यौहारी मौसम एवं शादियों के मौसम में भारतीय नागरिकों के खर्चों में अपार वृद्धि होने की सम्भावना है। त्यौहारी एवं शादियों का मौसम भी नवम्बर एवं दिसम्बर 2024 माह में प्रारम्भ हो चुका है। एक अनुमान के अनुसार नवम्बर माह में मनाए गए दीपावली एवं अन्य त्यौहारों पर भारतीय नागरिकों ने लगभग 5 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि का व्यय किया है। वित्तीय वर्ष 2024-25 के जनवरी 2025 माह (13 जनवरी) में प्रयागराज में कुंभ मेला भी प्रारम्भ होने जा रहा है जो फरवरी 2025 माह (26 फरवरी) तक चलेगा। यह कुम्भ मेला प्रत्येक 12 वर्षों में एक बार प्रयागराज में लगता है। एक अनुमान के अनुसार इस कुम्भ मेले में प्रतिदिन एक करोड़ नागरिक पहुंच सकते हैं। इससे देश में धार्मिक पर्यटन में भी अपार वृद्धि होगी। उक्त सभी कारणों के चलते, भारत में उपभोक्ता खर्च में भारी भरकम वृद्धि दर्ज होगी जो अंततः सकल घरेलू उत्पाद में पर्याप्त वृद्धि को दर्ज करने के सहायक होगी। साथ ही, अक्टोबर 2024 माह में भारत से विविध उत्पादों एवं सेवा क्षेत्र के निर्यात में भी बहुत अच्छी वृद्धि दर दर्ज हुई है। इससे अंततः भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर 7 प्रतिशत से ऊपर बने रहने की प्रबल सम्भावना बनती नजर आ रही है।  साथ ही, भारतीय रिजर्व बैंक ने नकदी रिजर्व अनुपात में 50 आधार बिंदुओं की कमी करते हुए इसे 4.5 प्रतिशत से घटाकर 4 प्रतिशत कर दिया है। इससे 1.16 लाख करोड़ रुपए की राशि भारतीय रिजर्व बैंक से बैकों को प्राप्त होगी एवं इस राशि से बैंकिंग क्षेत्र में तरलता में सुधार होगा एवं बैंकों की कर्ज देने की क्षमता में भी वृद्धि होगी। अधिक ऋणराशि की उपलब्धता से व्यापार एवं उद्योग की गतिविधियों को बल मिलेगा जो देश के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि करने में सहायक होगा।  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी डॉलर के लगातार मजबूत होने से बाजार में रुपए की कीमत लगातार गिर रही है और रुपए की कीमतों को नियंत्रण में रखने के उद्देश्य से भारतीय रिजर्व बैंक को बाजार में डॉलर की आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु अमेरिकी डॉलर को बेचना पड़ रहा है। जिससे, भारत के विदेशी मुद्रा भंडार 70,500 करोड़ अमेरिकी डॉलर के उच्चत्तम स्तर से नीचे गिरकर 65,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के निचले स्तर पर आ गए हैं। साथ ही, रुपए की कीमत गिरकर 84.63 रुपए प्रति डॉलर के स्तर पर आ गई है। अतः यदि देश में व्यापारिक गतिविधियों में सुधार होता है एवं सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर्ज होती है तो विदेशी निवेश भी भारत में पुनः वृद्धि दर्ज करेगा एवं विदेशी मुद्रा भंडार भी अपने पुराने उच्चत्तम स्तर को प्राप्त कर सकेंगे। कुल मिलाकर भारत में अब ब्याज दरों में कमी करने का समय आ गया है।  प्रहलाद सबनानी

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राजनीति

अमेरिका में होने वाले सत्ता परिवर्तन का भारत पर सम्भावित असर

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दिनांक 20 जनवरी 2025 को अमेरिका में श्री डॉनल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति के रूप में दूसरी बार कार्यभार सम्हालने जा रहे हैं। ट्रम्प प्रशासन ने अपने पहिले कार्यकाल में अमेरिका के रिश्तों को भारत के साथ मजबूत करने का प्रयास किया था। परंतु, नवम्बर 2024 में सम्पन्न हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान श्री ट्रम्प लगातार यह आभास देते रहे हैं कि वे अमेरिका को एक बार पुनः विनिर्माण इकाईयों का हब बनाने का प्रयास करेंगे और इसके लिए अन्य देशों विशेष रूप से चीन से आने वाले सस्ते उत्पादों पर 60 प्रतिशत तक का आयात शुल्क लगा सकते हैं, जिससे चीन से आयातित उत्पाद अमेरिका में महंगे हों जाएंगे एवं विनिर्माण इकाईयां अमेरिका में ही इन वस्तुओं का उत्पादन प्रारम्भ करेंगी। दूसरे, अमेरिका में आज भारी मात्रा में अन्य देशों से अप्रवासी नागरिक गैर कानूनी रूप से रह रहे हैं, विशेष रूप से अमेरिका के पड़ौसी देश मैक्सिको के नागरिक आसानी से सीमा पार कर अमेरिका में पहुंच जाते हैं, अतः गैर कानूनी रूप से अमेरिका में रह रहे नागरिकों को अमेरिका से बाहर भेजेंगे। उक्त दो विषयों को श्री ट्रम्प ने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान जोर शोर से उठाया था। अमेरिका को एक बार पुनः महान बनाने की बात भी जोर शोर से कही गई थी। यदि ट्रम्प प्रशासन अमेरिका में आयात कर को बढ़ा देता हैं तो इसका प्रभाव भारत से अमेरिका को निर्यात होने वाले उत्पादों पर भी पड़े बिना नहीं रह सकेगा। हालांकि अमेरिका में विनिर्माण इकाईयों की स्थापना करना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि अमेरिका में श्रम की लागत बहुत अधिक है। अमेरिका में निर्मित उत्पादों की लागत तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक रहने वाली है, इसके कारण एवं अमेरिका में आयातित उत्पादों पर आयात शुल्क के बढ़ाने से अमेरिका में मुद्रा स्फीति की समस्या भी पुनः खड़ी हो सकती है। दूसरे, अमेरिका यदि आयात को प्रतिबंधित करता है तो अमेरिकी डॉलर की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में और अधिक मजबूत होगी एवं अन्य देशों की मुद्राओं की बाजार कीमत गिरेगी जिससे इन देशों में उत्पादित वस्तुओं के निर्यात और अधिक आकर्षक होने लगेंगे। बल्कि इससे तो भारत से टेक्स्टायल, लेदर, विनिर्माण एवं कृषि क्षेत्र से उत्पादों के निर्यात अमेरिका को बढ़ेंगे। अमेरिका से निर्यात कम होने लगेंगे क्योंकि अन्य देशों को अमेरिका से आयातित वस्तुओं के एवज में महंगे डॉलर का भुगतान करना होगा। परंतु, ट्रम्प प्रशासन ने तो आगे आने वाले समय का आभास अभी से देना शुरू पर दिया है और मेक्सिको और कनाडा से आयातित वस्तुओं पर अतिरिक्त 25 प्रतिशत का आयात शुल्क एवं चीन से आयातित वस्तुओं पर 10 प्रतिशत का अतिरिक्त आयात शुल्क लगाने की घोषणा कर दी है। हालांकि अभी भारत से आयातित वस्तुओं पर किसी भी प्रकार का अतिरिक्त आयात शुल्क लगाने की घोषणा अभी नहीं की गई है।  यदि ट्रम्प प्रशासन आगे आने वाले समय में चीन से आयातित उत्पादों पर इतना भारी भरकम आयात शुल्क लागू करता है तो इससे भारतीय उत्पादों के लिए अमेरिका में जगह बन सकती है और विशेष रूप से ऑटो पार्ट्स, सौर ऊर्जा उपकरण एवं रासायनिक उत्पादन जैसे क्षेत्रों में भारतीय विनिर्माण इकाईयां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और अधिक प्रतिस्पर्धी बन सकती हैं। इसी प्रकार, यदि अमेरिकी प्रशासन द्वारा चीन से आयातित वस्तुओं पर भारी मात्रा में आयात शुल्क लगाया जाता है तो चीन के निर्यात कम होंगे और इससे चीन में आर्थिक वृद्धि दर कम होगी और ऊर्जा उत्पादों (कच्चे तेल, पेट्रोल, डीजल, गैस, आदि) की मांग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम होगी, जिससे कच्चे तेल की कीमतें भी कम होंगी, इसका सीधा सीधा लाभ भारत को हो सकता है, क्योंकि भारत विश्व में कच्चे तेल का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश है। साथ ही, श्री ट्रम्प ने अमेरिका में भी कच्चे तेल के उत्पादन को आगे आने वाले समय में बढ़ाने की घोषणा की है और तुलनात्मक रूप से कुछ सस्ते दामों पर कच्चे तेल का निर्यात भारत को किया जा सकता है। विनिर्माण एवं सुरक्षा (डिफेन्स) के क्षेत्र में भी भारतीय कम्पनियों को लाभ हो सकता है। ट्रम्प प्रशासन ने ट्रम्प के प्रथम कार्यकाल में भारत के साथ कई बड़े रक्षा सौदे सम्पन्न किए थे। अमेरिकी सैन्य क्षमताओं को और अधिक मजबूत करने के लिए, अमेरिका भारत से सुरक्षा क्षेत्र के उत्पादों का आयात आगे आने वाले समय में बढ़ा सकता है। यदि ट्रम्प प्रसाशन आयात करों में अतुलनीय वृद्धि करता है तो इससे अमेरिका में मुद्रा स्फीति की समस्या एक बार पुनः खड़ी हो सकती है जिससे सम्भव है कि बढ़ी हुई मंहगाई को नियंत्रित करने के लिए फेडरल रिजर्व एक बार पुनः फेड रेट (ब्याज दरों) में वृद्धि करे। जिसका असर विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं पर भी पड़ेगा।  अमेरिका का वित्तीय बजट घाटा भारी मात्रा में ऋणात्मक है एवं अमेरिका के ऊपर 36 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की ऋण देयताएं हैं। अतः अमेरिकी प्रशासन का सोचना है कि प्रतिवर्ष 2 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के खर्च को कम करने हेतु प्रयास करने होंगे। यदि यह वास्तव में होता है तो अमेरिका में सरकारी कर्मचारियों की बड़ी संख्या में कमी की जा सकती है। अमेरिकी सरकार के खर्चे यदि कम होते हैं तो इससे देश के आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। टैक्स कटौती एवं राजकोषीय उपायों के चलते अमेरिकी डॉलर मजबूत हो सकता है एवं इससे अमेरिकी बांड यील्ड बढ़ सकती हैं। भारत पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। रुपया अमेरिकी डॉलर की तुलना में कमजोर होगा और भारत में आयात किए जाने वाले उत्पादों विशेष रूप से कच्चे तेल की लागत बढ़ जाएगी और इससे अंततः भारत में भी महंगाई बढ़ सकती है। ट्रम्प प्रशासन ने अपने पहिले कार्यकाल में भी भारत के खिलाफ कुछ आर्थिक कदम उठाए थे जैसे भारत को जनरलाइज्ड सिस्टम आफ प्रेफ्रेन्सेज (जीएसपी) से हटा दिया था। लेकिन अंततोगत्वा भारत पर इसका कोई विपरीत प्रभाव नहीं हुआ था। वर्ष 2018 में अमेरिका ने स्टील पर 25 प्रतिशत, अल्यूमिनियम पर 10 प्रतिशत, वशिंग मशीन पर 35 प्रतिशत का उत्पाद शुल्क लगाया था परंतु वर्ष 2019 से वर्ष 2021 के बीच अमेरिका को भारत का स्टील निर्यात 44 प्रतिशत बढ़ गया था। इसी प्रकार, फूटवीयर, मिनरल्स, रसायन, इलेक्ट्रिकल व मशीनरी जैसे उत्पादों का निर्यात भी भारत से अमेरिका को बढ़ा है, इससे सिद्ध होता है कि भारत कई उत्पादों के मामले में चीन के मुकाबले वैश्विक सप्लाई चैन में होने वाले बदलाव का अधिक लाभ उठाने की स्थिति में हैं। फिर भी, भारत को अपने विनिर्माण क्षेत्र का विस्तार करना होगा। भारत को नए निर्यात बाजार को तलाशना होगा एवं आयात कम करने के लिया आत्म निर्भरता प्राप्त करने की ओर और अधिक मजबूती से आगे बढ़ना होगा। ट्रम्प प्रशासन यदि चीन के विरुद्ध कारोबारी युद्ध को प्रारम्भ करते है, जिसकी कि प्रबल सम्भावना दिखाई देती है, तो इसका लाभ भारत को मिल सकता है। फार्मा, टेक्स्टाइल एवं इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में सप्लाई चैन में होने बदलावों के देखते हुए, भारत लाभ की स्थिति में रह सकता है।   श्री ट्रम्प, अमेरिका में आय कर एवं कारपोरेट कर में कमी की घोषणा भी कर सकते हैं। इससे अमेरिका के नागरिकों के हाथों में अधिक पैसा आएगा एवं कारपोरेट जगत के लाभ में वृद्धि होगी जिससे अंततः उत्पादों की मांग में वृद्धि होगी। ट्रम्प प्रशासन की व्यापार अनुकूल नीतियों के चलते अमेरिकी शेयर बाजार में तेजी आ सकती है।  श्री ट्रम्प ने रूस – यूक्रेन युद्ध एवं हम्मास, लेबनान – इजराईल के बीच युद्ध को समाप्त करने के लिए भी प्रयास किए जाने के बारे में कहा है। यदि ऐसा होता है तो वैश्विक स्तर पर सप्लाई चैन में सुधार हो सकता है एवं भारत को अंतरराष्ट्रीय व्यापार में मदद मिल सकती है। लेबनान – इजराईल के बीच तो युद्ध विराम की घोषणा हो भी चुकी है।  ट्रम्प प्रशासन के प्रथम कार्यकाल में अमेरिका में वीजा के नियमों को कठिन बना दिया गया था। यदि अपने दूसरे कार्यकाल में भी एच-1बी वीजा के नियमों को कड़ा किया जाता है तो इसका सबसे अधिक प्रभाव भारतीय मूल के नागरिकों पर पड़ेगा। क्योंकि, अमेरिका में प्रतिवर्ष लगभग 85,000 एच-1बी वीजा जारी किए जाते हैं एवं इसमें से लगभग 60,000 वीजा भारतीय मूल के नागरिकों को जारी होते हैं। भारतीय मूल के नागरिकों पर वीजा सम्बंधी नियमों के कड़े किए जाने का प्रभाव सबसे अधिक हो सकता है। इससे भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कम्पनियों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।   भारत की तुलना में अमेरिका के पास 3.5 गुणा अधिक जमीन है, जबकि जनसंख्या, भारत की तुलना में एक चौथाई ही है। अमेरिका के पास 95,000 किलोमीटर लम्बी समुद्री तट रेखा उपलब्ध है, अमेरिका के पास पूरे विश्व का 45 प्रतिशत पानी उपलब्ध है, पूरे विश्व के कोयला भंडारण का 22 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका के पास है, पूरे विश्व की जमीन का 6 प्रतिशत भाग अमेरिका में है, पूरे विश्व की कृषि योग्य भूमि का 10 प्रतिशत भाग अमेरिका के पास है जबकि विश्व की केवल 4 प्रतिशत जनसंख्या ही अमेरिका में निवास करती है। अमेरिका के पास 25,600 करोड़ बैरल कच्चे तेल के भंडार हैं जो सऊदी अरब में कच्चे तेल के कुल भंडारण से भी 20 प्रतिशत अधिक है। अब ट्रम्प प्रशासन कच्चे तेल के इस भंडार में से अधिक मात्रा में कच्चा तेल निकालकर उपयोग करना शुरू करेगा। वर्ष 2018 तक अमेरिका कच्चे तेल का आयात ही करता रहा है जबकि इसके बाद से अमेरिका कच्चे तेल का निर्यात भी करने लगा है। इसके चलते ही अमेरिका को पूरे विश्व में विशेष राष्ट्र का दर्जा प्राप्त है। ट्रम्प प्रशासन भारत को अपना स्ट्रेटेजिक भागीदार मानता रहा है। अमेरिका से विशेष दोस्ती होने के चलते आगे आने वाले समय में भारत को विशेष रूप से आर्थिक क्षेत्र में विशेष लाभ होने की सम्भावना दिखाई देती है।   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आर्थिकी राजनीति

भारतीय आर्थिक दर्शन एवं प्राचीन भारत में आर्थिक विकास

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भारत में वेदों, पुराणों एवं शास्त्रों में यह कहा गया है कि मानव जीवन हमें मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्राप्त हुआ है। मोक्ष प्राप्ति के लिए अच्छे कर्मों का करना आवश्यक है। अच्छे कर्म अर्थात हमारे किसी कार्य से किसी पशु, पक्षी, जीव, जंतु को कोई दुःख नहीं पहुंचे एवं सर्व समाज की भलाई के कार्य करते रहें। अर्थात, इस धरा पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी का कल्याण हो, मंगल हो। ऐसी कामना भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति में की जाती है। इसी प्रकार, धर्म के महत्व को स्वीकार करते हुए कौटिल्य के अर्थशास्त्र, नारद की नारद स्मृति और याग्वल्य की याग्वल्य स्मृति में कहा गया है कि ‘अर्थशास्त्रास्तु बलवत धर्मशास्त्र नीतिस्थिति’। अर्थात, यदि अर्थशास्त्र के सिद्धांत एवं नैतिकता के सिद्धांत के बीच कभी विवाद उत्पन्न हो जाए तो दोनों में से किसे चुनना चाहिए। कौटिल्य, नारद एवं याग्वल्य कहते हैं कि अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की तुलना में यानी केवल पैसा कमाने के सिद्धांतों की तुलना में हमको धर्मशास्त्र के सिद्धांत अर्थात नैतिकता, संयम, जिससे समाज का भला होता हो, उसको चुनना चाहिए। कुल मिलाकर अर्थतंत्र धर्म के आधार पर चलना चाहिए। गुनार मृडल जिनको नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ था एवं जिनकी ‘एशियन ड्रामा’  नामक पुस्तक बहुत मशहूर हुई थी। उन्होंने एक और छोटी किताब लिखी है जिसका नाम है ‘अगेन्स्ट द स्ट्रीम’। इस किताब में उन्होंने अर्थशास्त्र को एक नैतिक विज्ञान बताया है। कुछ वर्ष पूर्व अखबारों में एक खबर छपी थी कि विश्व बैंक ने यह जानने के लिए एक अधय्यन प्रारम्भ किया है कि विकास में आध्यात्म की कितनी भूमिका है। इसी प्रकार दुनिया में यह जानने का प्रयास भी किया जा रहा है कि दरिद्रता मिटाने में धर्म की क्या भूमिका हो सकती है। प्राचीन भारत के वेद-पुराणों में धन अर्जित करने को बुरा नहीं माना गया है। प्राचीन काल में वेदों का एक भाष्यकार हो गया है, जिसका नाम यासक था। यासक ने ‘निघंटू’ नामक ग्रंथ में धन के 28 समानार्थ शब्द बताए हैं, और प्रत्येक शब्द का अलग अलग अर्थ है। दुनिया की किसी पुस्तक में अथवा किसी अर्थशास्त्र की किताब में धन के 28 समानार्थ शब्द नहीं मिलते हैं। भारत के शास्त्रों में धन के सम्बंध में उच्च विचार बताए गए हैं। भारत के शास्त्रों ने अर्थ के क्षेत्र को हेय दृष्टि से नहीं देखा है एवं यह भी कभी नहीं कहा है कि धन अर्जन नहीं करना चाहिए, पैसा नहीं कमाना चाहिए, उत्पादन नहीं बढ़ाना चाहिए। बल्कि दरिद्रता एवं गरीबी को पाप बताया गया है। हां, वेदों में यह जरूर कहा गया है कि जो भी धन कमाओ वह शुद्ध होना चाहिए। ‘ब्लैक मनी’ नहीं होना चाहिए, भ्रष्टाचार करके धन नहीं कमाना चाहिए, स्मग्लिंग करके धन नहीं कमाना चाहिए, कानून का उल्लंघन करते हुए धन अर्जन नहीं करना चाहिए, ग्राहक को धोखा देकर धन नहीं कमाना चाहिए। मनु स्मृति में तो मनु महाराज ने कहा है कि सब प्रकार की शुद्धियों में सर्वाधिक महत्व की शुद्धि अर्थ की शुद्धि है। भारतीय शास्त्रों में खूब धन अर्जन करने के बाद इसके उपयोग के सम्बंध में व्याख्या की गई है। अर्जित किए धन को केवल अपने लिए उपभोग करना, उस धन से केवल ऐय्याशी करना, केवल अपने लिए काम में लेना, अपने परिवार के लिए मौज मस्ती करना, आदि को ठीक नहीं माना गया है। अर्जित किए गए धन को समाज के साथ मिल बांटकर, समाज के हितार्थ उपयोग करना चाहिए। भारत के प्राचीन ग्रंथों में जीवन के उद्देश्य को पुरुषार्थ से जोड़ते हुआ यह कहा गया है कि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, इन चारों बातों पर विचार करके मनुष्य को सुखी करने के सम्बंध में विचार किया जाना चाहिए। इसी विचार के चलते भारत के मनीषियों द्वारा अर्थ और काम को नकारा नहीं गया है। कई बार भारत के बारे में वैश्विक स्तर पर इस प्रकार की भ्रांतियां फैलाने का प्रयास किया जाता रहा है कि भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति में तो अर्थ और काम को नकार दिया गया है। प्राचीन काल में भी ऐसा कतई नहीं हुआ है। अगर, ऐसा हुआ होता तो भारत सोने की चिड़िया कैसे बनता? हां, भारत के प्राचीन शास्त्रों में यह जरूर कहा गया है कि अर्थ और काम को बेलगाम नहीं छोड़ना चाहिए। अर्थ और काम को मर्यादा में ही रहना चाहिए। धन अर्जित करने पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है परंतु यह धर्म का पालन करते हुए कमाना चाहिए। अर्थात, अर्थ को धर्म के साथ जोड़ दिया गया है। इसी प्रकार काम को भी धर्म के साथ जोड़ा गया है। उपभोग यदि धर्म सम्मत और मर्यादित होगा तो इस धरा का दोहन भी सीमा के अंदर ही रहेगा। अतः कुल मिलाकर अर्थशास्त्र में भी नैतिकता का पालन होना चाहिए। प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र एवं वर्तमान अर्थशास्त्र में यह भी एक बहुत बड़ा अंतर है। आजकल कहा जाता है कि नीति का अर्थशास्त्र से कोई लेना देना नहीं है। जबकि वस्तुतः ऐसी कोई भी अर्थव्यवस्था, अर्थतंत्र और विकास का कोई भी तंत्र जिसमें नैतिकता को स्वीकार न किया जाय वह चल नहीं सकती और वह समाज का भला नहीं कर सकती। अर्थ को प्रदान किए गए महत्व के चलते ही प्राचीनकाल में भारत में दूध की नदियां बहती थीं, भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, भारत का आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पूरे विश्व में बोलबाला था। भारत के ग्रामीण इलाकों में निवास कर रहे नागरिक बहुत सम्पन्न हुआ करते थे। कृषि उत्पादकता की दृष्टि से भी भारत का पूरे विश्व में डंका बजता था तथा खाद्य सामग्री एवं कपड़े आदि उत्पादों का निर्यात भारत से पूरे विश्व को होता था। भारत के नागरिकों में देश प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी रहती थी तथा उस खंडकाल में भारत का वैभव काल चल रहा था, जिसके चलते ग्रामीण इलाकों में नागरिक आपस में भाई चारे के साथ रहते थे एवं आपस में सहयोग करते थे। केवल ‘मैं’ ही तरक्की करूं इस प्रकार की भावना का सर्वथा अभाव था एवं ‘हम’ सभी मिलकर आगे बढ़ें, इस भावना के साथ ग्रामीण इलाकों में नागरिक प्रसन्नता के साथ अपने अपने कार्य में व्यस्त एवं मस्त रहते थे। प्राचीन काल में भारत में भव्यता के स्थान पर दिव्यता को अधिक महत्व दिया जाता रहा है। भव्यता का प्रयोग सामान्यतः स्वयं के विकास के लिए किया जाता है। जबकि दिव्यता का उपयोग समाज के विकास में आपकी भूमिका को आंकने के पश्चात किया जाता है। भव्यता दिखावा है, भव्यता प्रदर्शन है, अतः केवल भव्यता के कारण किसी का जीवन ऊंचाईयों को नहीं छू सकता है, इसके लिए दिव्यता होनी चाहिए, अर्थात समाज की भलाई के लिए अधिक से अधिक कार्य करना होता है।  अर्थ को धर्म से जोड़ने के साथ ही, प्रकृति के संरक्षण की बात भी भारतीय पुराणों में मुखर रूप से कही गई है। भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति के अनुसार नदियों, पहाड़ों, जंगलों, जीव जंतुओं में भी देवताओं का वास है, ऐसा माना जाता है। इसीलिए यह कहा गया है कि इस पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों का दोहन करें, शोषण नहीं करें। सर जगदीश चंद्र बसु ने एक परीक्षण किया और इस परीक्षण के माध्यम से यह सिद्ध किया कि पेड़ पौधों में भी वैसी ही संवेदना होती है जैसी मनुष्यों में संवेदना होती है। जिस प्रकार मनुष्य रोता है, हंसता है, प्रसन्न होता है, नाराज होता है, इसी प्रकार की संवेदनाएं पेड़ पौधों में भी पाई जाती हैं। सर जगदीश चंद्र बसु ने वैज्ञानिक तरीके से जब यह सिद्ध किया तो दुनिया में तहलका मच गया। जबकि भारतीय शास्त्रों में तो इन बातों का वर्णन सदियों पूर्व ही मिलता है। जब इन तथ्यों को वैज्ञानिक आधार दिया गया तो अब पूरी दुनिया भारत के इन प्राचीन विचारों पर साथ खड़ी नजर आती है। भारतीय मनीषियों ने इसीलिए यह बार बार कहा है कि पेड़ पौधों की रक्षा करें, इन्हें काटें नहीं। क्योंकि, इससे पर्यावरण की रक्षा तो होती ही है, साथ ही, पेड़, पौधों के रूप में एक प्रकार से किसी प्राणी की हत्या करने से भी बचा जा सकता है।  भारतीय संस्कृति में यह भावना रही है कि व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास हो एवं उसे पूर्ण सुख की प्राप्ति हो। इसलिए, उक्त उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ही देश में सामाजिक एवं आर्थिक रचना होनी चाहिए। प्राचीन भारत में इसी नाते व्यक्ति को मान्यता देने के साथ साथ परिवार को भी मान्यता दी गई है। परिवार को समाज में न्यूनतम इकाई माना गया है। व्यक्तियों से परिवार, परिवारों से समाज, समाज से देश और देशों से विश्व बनता है। अतः कुटुंब को भारतीय समाज में अत्यधिक महत्व दिया गया है।  भारतीय शास्त्रों में कुल मिलाकर यह वर्णन मिलता है कि प्राचीन भारत के लगभग प्रत्येक परिवार में गाय के रूप में पर्याप्त मात्रा में पशुधन उपलब्ध रहता था जिससे प्रत्येक परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत आसानी से हो जाती थी। गाय के गोबर एवं गौमूत्र से देसी खाद का निर्माण किया जाता था जिसे कृषि कार्यों में उपयोग किया जाता था एवं गाय के दूध को घर में उपयोग करने के बाद इससे दही, घी एवं मक्खन आदि पदार्थों का निर्माण कर इसे बाजार में बेच भी दिया जाता था। इसी प्रकार गौमूत्र से कुछ आयुर्वेदिक दवाईयों का निर्माण भी किया जाता था। अतः कुल मिलाकर परिवार एवं समाज में किसी भी प्रकार की गतिविधि सम्पन्न करने के लिए अर्थ की आवश्यकता महसूस होती है।      अर्थ के विभिन्न आयामों को समझने के लिए भारत के प्राचीन काल में अर्थशास्त्र की रचना की गई थी। आचार्य चाणक्य को भारत में अर्थशास्त्र का जनक कहा जाता है। अर्थशास्त्र को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि नागरिकों को संतुष्टि प्रदान करने (वस्तुओं एवं सेवाओं का भारी मात्रा में उत्पादन कर उसकी आसान उपलब्धता कराना) के उद्देश्य से उत्पादन के साधनों (भूमि, श्रम, पूंजी, आदि) का दक्षतापूर्ण वितरण करना ही अर्थशास्त्र है।  दुनिया में कोई भी विचारक जब कभी भी आर्थिक विकास के बारे में सोचता है अथवा इस सम्बंध में कोई योजना बनाने का विचार करता है तो सामान्यतः उसके सामने मुख्य रूप से यह उद्देश्य रहता है कि उस देश का आर्थिक विकास इस तरह से हो कि उस देश के समस्त नागरिकों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत आसानी से होती रहे, वे सम्पन्न बनें एवं खुश रहें। इस प्रकार, नागरिकों में प्रसन्नता का भाव विकसित करने में अर्थ के योगदान को भी आंका गया है। कई बार भारतीय समाज में यह उक्ति भी सुनाई देती है कि “भूखे पेट ना भजन हो गोपाला” अर्थात यदि देश के नागरिकों की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं होगी तो अध्यात्मवाद की ओर वे किस प्रकार मुड़ेंगे। आचार्य चाणक्य जी ने भी कहा है कि धर्म के बिना अर्थ नहीं टिकता, अर्थात धर्म एवं अर्थ का आपस में सम्बंध है। 

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आर्थिकी राजनीति

भारत में सहकारिता आंदोलन को सफल होना ही होगा

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भारत में आर्थिक विकास को गति देने के उद्देश्य से सहकारिता आंदोलन को सफल बनाना बहुत जरूरी है। वैसे तो हमारे देश में सहकारिता आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1904 से हुई है एवं तब से आज तक सहकारी क्षेत्र में लाखों समितियों की स्थापना हुई है। कुछ अत्यधिक सफल रही हैं, जैसे अमूल डेयरी, परंतु इस प्रकार की सफलता की कहानियां बहुत कम ही रही हैं। कहा जाता है कि देश में सहकारिता आंदोलन को जिस तरह से सफल होना चाहिए था, वैसा हुआ नहीं है। बल्कि, भारत में सहकारिता आंदोलन में कई प्रकार की कमियां ही दिखाई दी हैं। देश की अर्थव्यवस्था को यदि 5 लाख करोड़ अमेरिकी डालर के आकार का बनाना है तो देश में सहकारिता आंदोलन को भी सफल बनाना ही होगा। इस दृष्टि से केंद्र सरकार द्वारा एक नए सहकारिता मंत्रालय का गठन भी किया गया है। विशेष रूप से गठित किए गए इस सहकारिता मंत्रालय से अब “सहकार से समृद्धि” की परिकल्पना के साकार होने की उम्मीद भी की जा रही है।       भारत में सहकारिता आंदोलन का यदि सहकारिता की संरचना की दृष्टि से आंकलन किया जाय तो ध्यान में आता है कि देश में लगभग 8.5 लाख से अधिक सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। इन समितियों में कुल सदस्य संख्या लगभग 28 करोड़ है। हमारे देश में 55 किस्मों की सहकारी समितियां विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं। जैसे, देश में 1.5 लाख प्राथमिक दुग्ध सहकारी समितियां कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त 93,000 प्राथमिक कृषि सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। ये मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में कार्य करती हैं। इन दोनों प्रकार की लगभग 2.5 लाख सहकारी समितियां ग्रामीण इलाकों को अपनी कर्मभूमि बनाकर इन इलाकों की 75 प्रतिशत जनसंख्या को अपने दायरे में लिए हुए है। उक्त के अलावा देश में सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं और यह तीन प्रकार की हैं। एक तो वे जो अपनी सेवाएं शहरी इलाकों में प्रदान कर रही हैं। दूसरी वे हैं जो ग्रामीण इलाकों में तो अपनी सेवाएं प्रदान कर रही हैं, परंतु कृषि क्षेत्र में ऋण प्रदान नहीं करती हैं। तीसरी वे हैं जो उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों एवं कर्मचारियों की वित्त सम्बंधी जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करती हैं। इसी प्रकार देश में महिला सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं। इनकी संख्या भी लगभग एक लाख है। मछली पालन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मछली सहकारी साख समितियां भी स्थापित की गई हैं, इनकी संख्या कुछ कम है। ये समितियां मुख्यतः देश में समुद्र के आसपास के इलाकों में स्थापित की गई हैं। देश में बुनकर सहकारी साख समितियां भी गठित की गई हैं, इनकी संख्या भी लगभग 35,000 है। इसके अतिरिक्त हाउसिंग सहकारी समितियां भी कार्यरत हैं।  उक्तवर्णित विभिन क्षेत्रों में कार्यरत सहकारी समितियों के अतिरिक्त देश में सहकारी क्षेत्र में  तीन प्रकार के बैंक भी कार्यरत हैं। एक, प्राथमिक शहरी सहकारी बैंक जिनकी संख्या 1550 है और ये देश के लगभग सभी जिलों में कार्यरत हैं। दूसरे, 300 जिला सहकारी बैंक कार्यरत हैं एवं तीसरे, प्रत्येक राज्य में एपेक्स सहकारी बैंक भी बनाए गए हैं। उक्त समस्त आंकडें वर्ष 2021-22 तक के हैं।    इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हमारे देश में सहकारी आंदोलन की जड़ें बहुत गहरी हैं। दुग्ध क्षेत्र में अमूल सहकारी समिती लगभग 70 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुई है, जिसे आज भी सहकारी क्षेत्र की सबसे बड़ी सफलता के रूप में गिना जाता है। सहकारी क्षेत्र में स्थापित की गई समितियों द्वारा रोजगार के कई नए अवसर निर्मित किए गए हैं। सहकारी क्षेत्र में एक विशेषता यह पाई जाती है कि इन समितियों में सामान्यतः निर्णय सभी सदस्यों द्वारा मिलकर लिए जाते हैं। सहकारी क्षेत्र देश के आर्थिक विकास में अपनी अहम भूमिका निभा सकता है। परंतु इस क्षेत्र में बहुत सारी चुनौतियां भी रही हैं। जैसे, सहकारी बैंकों की कार्य प्रणाली को दिशा देने एवं इनके कार्यों को प्रभावशाली तरीके से नियंत्रित करने के लिए अपेक्स स्तर पर कोई संस्थान नहीं है। जिस प्रकार अन्य बैकों पर भारतीय रिजर्व बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थानों का नियंत्रण रहता है ऐसा सहकारी क्षेत्र के बैकों पर नहीं है। इसीलिए सहकारी क्षेत्र के बैंकों की कार्य पद्धति पर हमेशा से ही आरोप लगते रहे हैं एवं कई तरह की धोखेबाजी की घटनाएं समय समय पर उजागर होती रही हैं। इसके विपरीत सरकारी क्षेत्र के बैंकों का प्रबंधन बहुत पेशेवर, अनुभवी एवं सक्रिय रहा है। ये बैंक जोखिम प्रबंधन की पेशेवर नीतियों पर चलते आए हैं जिसके कारण इन बैंकों की विकास यात्रा अनुकरणीय रही है। सहकारी क्षेत्र के बैंकों में पेशेवर प्रबंधन का अभाव रहा है एवं ये बैंक पूंजी बाजार से पूंजी जुटा पाने में भी सफल नहीं रहे हैं। अभी तक चूंकि सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी तंत्र का अभाव था केंद्र सरकार द्वारा किए गए नए मंत्रालय के गठन के बाद सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने में कसावट आएगी एवं इन संस्थानों का प्रबंधन भी पेशेवर बन जाएगा जिसके चलते इन संस्थानों की कार्य प्रणाली में भी निश्चित ही सुधार होगा। सहकारी क्षेत्र पर आधरित आर्थिक मोडेल के कई लाभ हैं तो कई प्रकार की चुनौतियां भी हैं। मुख्य चुनौतियां ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रही जिला केंद्रीय सहकारी बैकों की शाखाओं के सामने हैं। इन बैंकों द्वारा ऋण प्रदान करने की स्कीम बहुत पुरानी हैं एवं समय के साथ इनमें परिवर्तन नहीं किया जा सका है। जबकि अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में आय का स्वरूप ही बदल गया है। ग्रामीण इलाकों में अब केवल 35 प्रतिशत आय कृषि आधारित कार्य से होती है शेष 65 प्रतिशत आय गैर कृषि आधारित कार्यों से होती है। अतः ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रहे इन बैकों को अब नए व्यवसाय माडल खड़े करने होंगे। अब केवल कृषि व्यवसाय आधारित ऋण प्रदान करने वाली योजनाओं से काम चलने वाला नहीं है।  भारत विश्व में सबसे अधिक दूध उत्पादन करने वाले देशों में शामिल हो गया है। अब हमें दूध के पावडर के आयात की जरूरत नहीं पड़ती है। परंतु दूध के उत्पादन के मामले में भारत के कुछ भाग ही, जैसे पश्चिमी भाग, सक्रिय भूमिका अदा कर रहे हैं। देश के उत्तरी भाग, मध्य भाग, उत्तर-पूर्व भाग में दुग्ध उत्पादन का कार्य संतोषजनक रूप से नहीं हो पा रहा है। जबकि ग्रामीण इलाकों में तो बहुत बड़ी जनसंख्या को डेयरी उद्योग से ही सबसे अधिक आय हो रही है। अतः देश के सभी भागों में डेयरी उद्योग को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है। केवल दुग्ध सहकारी समितियां स्थापित करने से इस क्षेत्र की समस्याओं का हल नहीं होगा। डेयरी उद्योग को अब पेशेवर बनाने का समय आ गया है। गाय एवं भैंस को चिकित्सा सुविधाएं एवं उनके लिए चारे की व्यवस्था करना, आदि समस्याओं का हल भी खोजा जाना चाहिए। साथ ही, ग्रामीण इलाकों में किसानों की आय को दुगुना करने के लिए सहकारी क्षेत्र में खाद्य प्रसंस्करण इकाईयों की स्थापना करनी होगी। इससे खाद्य सामग्री की बर्बादी को भी बचाया जा सकेगा। एक अनुमान के अनुसार देश में प्रति वर्ष लगभग 25 से 30 प्रतिशत फल एवं सब्जियों का उत्पादन उचित रख रखाव के अभाव में बर्बाद हो जाता है।    शहरी क्षेत्रों में गृह निर्माण सहकारी समितियों का गठन किया जाना भी अब समय की मांग बन गया है क्योंकि शहरी क्षेत्रों में मकानों के अभाव में बहुत बड़ी जनसंख्या झुग्गी झोपड़ियों में रहने को विवश है। अतः इन गृह निर्माण सहकारी समितियों द्वारा मकानों को बनाने के काम को गति दी जा सकती है। देश में आवश्यक वस्तुओं को उचित दामों पर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से कंजूमर सहकारी समितियों का भी अभाव है। पहिले इस तरह के संस्थानों द्वारा देश में अच्छा कार्य किया गया है। इससे मुद्रा स्फीति की समस्या को भी हल किया जा सकता है। देश में व्यापार एवं निर्माण कार्यों को आसान बनाने के उद्देश्य से “ईज आफ डूइंग बिजिनेस” के क्षेत्र में जो कार्य किया जा रहा है उसे सहकारी संस्थानों पर भी लागू किया जाना चाहिए ताकि इस क्षेत्र में भी काम करना आसान हो सके। सहकारी संस्थानों को पूंजी की कमी नहीं हो इस हेतु भी प्रयास किए जाने चाहिए। केवल ऋण के ऊपर अत्यधिक निर्भरता भी ठीक नहीं है। सहकारी क्षेत्र के संस्थान भी पूंजी बाजार से पूंजी जुटा सकें ऐसी व्यवस्था की जा सकती हैं।     विभिन्न राज्यों के सहकारी क्षेत्र में लागू किए गए कानून बहुत पुराने हैं। अब, आज के समय के अनुसार इन कानूनो में परिवर्तन करने का समय आ गया है। सहकारी क्षेत्र में पेशेवर लोगों की भी कमी है, पेशेवर लोग इस क्षेत्र में टिकते ही नहीं हैं। डेयरी क्षेत्र इसका एक जीता जागता प्रमाण है। केंद्र सरकार द्वारा सहकारी क्षेत्र में नए मंत्रालय का गठन के बाद यह आशा की जानी चाहिए के सहकारी क्षेत्र में भी पेशेवर लोग आकर्षित होने लगेंगे और इस क्षेत्र को सफल बनाने में अपना भरपूर योगदान दे सकेंगे। साथ ही, किन्हीं समस्याओं एवं कारणों के चलते जो सहकारी समितियां निष्क्रिय होकर बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं, उन्हें अब पुनः चालू हालत में लाया जा सकेगा। अमूल की तर्ज पर अन्य क्षेत्रों में भी सहकारी समितियों द्वारा सफलता की कहानियां लिखी जाएंगी ऐसी आशा की जा रही है। “सहकारिता से विकास” का मंत्र पूरे भारत में सफलता पूर्वक लागू होने से गरीब किसान और लघु व्यवसायी बड़ी संख्या में सशक्त हो जाएंगे। प्रहलाद सबनानी 

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राजनीति

कनाडा एवं अमेरिका से भारत में रिवर्स ब्रेन ड्रेन की सम्भावना बढ़ रही है

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वैश्विक स्तर पर लगातार कुछ इस प्रकार की परिस्थितियां निर्मित होती दिखाई दे रही हैं, जिससे विशेष रूप से कनाडा एवं अमेरिका से भारत की ओर रिवर्स ब्रेन ड्रेन की सम्भावना बढ़ती जा रही है। कनाडा में खालिस्तानियों द्वारा चलाए जा रहे भारत विरोधी आंदोलन के चलते वहां निवासरत भारतीयों एवं मंदिरों पर लगातार हमले हो रहे हैं एवं भारतीयों एवं मंदिरों पर हो रहे इन हमलों पर लगाम लगाने में कनाडा की वर्तमान सरकार असफल सिद्ध हो रही है एवं इन हमलों को, राजनैतिक कारणों के चलते, रोकने की इच्छा शक्ति का अभाव भी दिखाई दे रहा है। इसके चलते भारत एवं कनाडा के राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रिश्तों पर अत्यधिक विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। स्थिति तो यहां तक पहुंच गई है कि भारत ने कनाडा में अपने दूतावास में प्रतिनिधियों की संख्या को कम कर दिया है तथा भारत ने कनाडा को निर्देशित किया था कि वह भी भारत में अपने दूतावास में प्रतिनिधियों की संख्या को कम करे। भारत एवं कनाडा के बीच आज कूटनीतिक रिश्ते आज तक के सबसे निचले स्तर पर आ गए हैं। साथ ही, कनाडा में आज सुरक्षा की दृष्टि से भी स्थितियां तेजी से बदल रही हैं तथा इसका कनाडा के आर्थिक विकास पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। जिसके चलते भारतीय आज कनाडा में अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और भारत की ओर रूख कर रहे हैं।  दूसरी ओर, अमेरिका में डोनल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने के पश्चात वहां पर अवैध रूप से रह रहे अन्य देशों के नागरिकों को अमेरिका से निकाले जाने की सम्भावनाएं बढ़ गई हैं। हालांकि अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे भारतीयों की संख्या लगभग नगण्य सी ही है परंतु ट्रम्प प्रशासन द्वारा अब वीजा, एच1बी सहित, जारी करने वाले नियमों को और अधिक कठोर बनाया जा सकता है। अमेरिका में प्रतिवर्ष जारी किए जाने वाले कुल एच1बी वीजा में से 60 प्रतिशत से अधिक वीजा भारतीय मूल के नागरिकों को जारी किए जाते हैं। यदि इस संख्या में भारी कमी दृष्टिगोचर होती है तो अमेरिका में पढ़ रहे भारतीय छात्रों को, उनकी पढ़ाई सम्पन्न करने के पश्चात यदि एच1बी वीजा जारी नहीं होता है तो उन्हें भारत वापिस आने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस प्रकार अमेरिका से भी भारतीयों का रिवर्स ब्रेन ड्रेन दिखाई पड़ सकता है।  भारत आज पूरे विश्व में सबसे अधिक तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है, अतः भारत में तेज गति से हो रहे आर्थिक विकास के कारण सूचना प्रौद्योगिकी, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, उच्च तकनीकी क्षेत्रों, वाहन विनिर्माण उद्योग, फार्मा उद्योग, चिप विनिर्माण उद्योग, स्टार्ट अप, आदि क्षेत्रों में भारी मात्रा में रोजगार के नए अवसर निर्मित हो रहे हैं और भारत को इन क्षेत्रों में उच्च टेलेंट की आवश्यकता भी है। यदि कनाडा एवं अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त एवं उक्त क्षेत्रों में प्रशिक्षित इंजीनीयर्स भारत को प्राप्त होते हैं तो यह स्थिति भारत के लिए बहुत फायदेमंद होने जा रही है।  उक्त कारणों के अतिरिक्त आज अन्य देशों से भारत की ओर रिवर्स ब्रेन ड्रेन इसलिए भी होता दिखाई दे रहा है क्योंकि, भारत में आज मूलभूत सुविधाएं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। किसी भी दृष्टि से भारत का आधारभूत ढांचा आज किसी भी विकसित देश की तुलना में कम नहीं है। साथ ही, भारत में, विकसित देशों की तुलना में, मुद्रा स्फीति की दर कम होने से, सामान्य रहन सहन की लागत तुलनात्मक रूप से भारत में बहुत कम है। अतः भारत में अमेरिका एवं कनाडा की तुलना में शुद्ध बचत दर भी अधिक है। हाल ही के समय में भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में भी पर्याप्त सुधार हुआ है। आज बैंगलोर, मुंबई, हैदराबाद जैसे शहरों में बहुत ही कम लागत पर अमेरिकी अस्पतालों की तुलना में (अमेरका की तुलना में तो 1/10 लागत पर) अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं। भारत के ग्रामीण इलाकों में तो शुद्ध हवा एवं शुद्ध पानी, जो स्वास्थ्य को ठीक बनाए रखने में सहायक होता है, पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। वरना, महानगरीय इलाकों में तो आज सांस लेना भी बहुत मुश्किल हो रहा है। विभिन्न देशों से उच्च शिक्षा प्राप्त एवं टेलेंटेड भारतीय जो भारत वापिस लौटे हैं, उन्होंने अपने नए प्रारम्भ किए गए स्टार्ट अप के कार्यालय दक्षिण भारत के ग्रामीण इलाकों में स्थापित किए हैं।              भारत में बहुत लम्बे समय से मजबूत लोकतंत्र बना हुआ है एवं केंद्र में एक मजबूत सरकार, उद्योग एवं व्यापार को भारत में प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से उद्योग एवं व्यापार के मित्रवत आर्थिक नीतियों को सफलतापूर्वक लागू कर रही है। इससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मात्रा में अपार वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है। विकसित देशों में नागरिकों की औसत आयु 50 वर्ष से अधिक हो रही है जिससे श्रमिकों की संख्या इन देशों में लगातार कम हो रही है एवं श्रम लागत में भी भारी मात्रा में वृद्धि हुई है जिसके कारण इन देशों में उत्पादन लागत बहुत अधिक बढ़ गई है। हाल ही के समय में चीन भी इस समस्या से ग्रसित पाया जा रहा है। केवल भारत एवं दक्षिणी अफ्रीकी देशों में ही श्रम लागत तुलनात्मक रूप से बहुत कम है। इसके कारण विश्व की कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपनी विनिर्माण इकाईयों की स्थापना भारत में करना चाहते हैं। भारत में उत्पादों का निर्माण कर इन उत्पादों को विश्व के अन्य देशों को निर्यात किया जा रहा है। भारत में आटोमोबाईल उद्योग, मोबाइल उद्योग एवं फार्मा उद्योग इसके जीते जागते प्रमाण हैं। इन्हीं कारणों से आज भारत से कई उत्पादों का निर्यात बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है एवं भारत का विदेशी व्यापार घाटा लगातार कम हो रहा है। विदेशी व्यापार घाटे में सुधार होने के चलते भारत में विदेशी मुद्रा भंडार में भी वृद्धि दृष्टिगोचर है जो हाल ही के समय में 70,000 अमेरिकी डॉलर के आंकड़े को भी पार कर गया था। हालांकि, इसके बाद से इसमें कुछ गिरावट देखी गई है। आज विश्व के कई विकसित देशों में सामाजिक तानाबाना छिन्न भिन्न हो गया है एवं इन देशों के नागरिकों में मानसिक असंतोष की भावना लगातार बढ़ रही है एवं इन देशों की आधे से अधिक आबादी आज मानसिक बीमारीयों से ग्रसित है। जबकि इसके ठीक विपरीत भारत में हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों के अनुपालन से एवं संयुक्त परिवार की जीवनशैली के चलते भारतीय नागरिक मानसिक बीमारियों से लगभग पूर्णत: मुक्त रहे हैं एवं सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। विकसित देशों के नागरिकों ने भौतिक विकास तो अधिक किया है परंतु मानसिक शांति खोई है। जबकि इस धरा पर जन्म लेने का उद्देश्य ही सुखी जीवन व्यतीत करना है न कि अपने आप को मानसिक बीमारियों से ग्रसित कर देना। इन्हीं कारणों के चलते आज विश्व के कई देशों के नागरिक हिंदू सनातन संस्कृति को अपनाने की ओर लालायित दिखाई दे रहे हैं और वे भारत में बसने के बारे में गम्भीरता से विचार कर रहे हैं। अतः विकसित देशों से भारत में रिवर्स ब्रेन ड्रेन आने वाले कल की सच्चाई है।    

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आर्थिकी राजनीति

भारत में एकात्म मानववाद के सिद्धांत को अपना कर हो आर्थिक विकास

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भारतीय संस्कृति के अनुसार ही भारतीय आर्थिक दर्शन में भी सृष्टि की समस्त इकाईयों, अर्थात व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं समष्टि को एक माला की कड़ी के रूप में देखा गया है। एकता की इस कड़ी को ही पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ बताया है। एकात्म मानववाद वैदिक काल से चले आ रहे सनातन प्रवाह का ही युगानुरूप प्रकटीकरण है। सनातन हिंदू दर्शन आत्मवादी है। आत्मा ही परम चेतन का अंश है।  पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने समाज और राष्ट्र में भी चित्त, आत्मा, मन, बुद्धि एवं शरीर आदि का समुच्चय देखा है। अतः इस एकात्म मानववादी दर्शन के उतने ही आयाम एवं विस्तार है, जितनी मनुष्य की आवश्यकताएं हैं। इन विभिन्न आवश्यकताओं का केंद्र बिंदु अर्थ को ही माना गया है।  कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की परिभाषा में लिखा है कि अर्थशास्त्र का मुख्य अभिप्राय, अप्राप्ति की प्राप्ति; प्राप्ति का संरक्षण तथा संरक्षित का उपभोग है। एकात्म मानववाद में भी आर्थिक व्यवहार उक्त आधारों पर ही टिके होते हैं। इस प्रकार, अर्थशास्त्र की दिशा स्वतः ही विकासवादी हो जाती है। भारत के नागरिक पिछले लम्बे समय से पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था में पले बढ़े हैं अतः वे भारत की पौराणिक एवं वैदिक ज्ञान परम्परा से विमुख हो गए हैं। इसी प्रकार, प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र एवं आर्थिक चिंतन से भी हम भारतीय इतने अधिक दूर हो गए हैं कि प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र को सिर्फ उक्ति एवं सिद्धांत मानने के साथ साथ अव्यवहारिक भी मानने लगे हैं। जबकि, वैदिक साहित्य में धन के 22 से अधिक प्रकारों की स्पष्ट व्याख्या की गई है, जिसमें शेयर से लेकर आय एवं मूलधन भी सम्मिलित है। प्राचीन भारत के आर्थिक चिंतन को आज यदि लागू किया जाता है तो केवल भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता का कल्याण होगा, क्योंकि हिंदू अर्थशास्त्र एकात्म मानववाद पर आधारित है, जिसमें व्यक्ति अपने लिए नहीं, वरन समष्टि के लिए जीता है। इसे निम्नलिखित सूत्र के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता हैं –  हिंदू अर्थशास्त्र      =   व्यक्ति x परमार्थ (एकात्म मानववाद एवं त्याग) पश्चिमी अर्थशास्त्र =   व्यक्ति x स्वार्थ   (आत्म केंद्रित एवं लाभ)  एकात्म मानववादी अर्थशास्त्र में व्यक्ति अपने एवं अपनों के स्थान पर समष्टि तथा चराचर और परमार्थ के लिए जीता है। जिसमें स्वयं के लिए मुनाफा एवं लाभ के स्थान पर दूसरों की चिंता मुख्य होती है। परंतु, इसके ठीक विपरीत पश्चिम का अर्थशास्त्र आत्मकेंद्रित व्यवहार एवं स्वार्थ पर खड़ा है।  पश्चिम के विकासवादी दर्शन का केंद्र मुनाफा, स्वार्थ एवं लाभ है। परंतु, हिंदू आर्थिक चिंतन के आधार पर खड़े एकात्म मानववाद का आधार अथवा केंद्र परमार्थ है। इसलिए एकात्म मानववादी आर्थिक विकास में विकास केवल अर्थ के लिए नहीं वरन परमार्थ के लिए है। हिंदू आर्थिक दर्शन परम्परा में विकास की अवधारणा को समग्रता में व्यक्त किया गया है। यह विकास त्रिगुण आधारित है। इस त्रिगुण में – सत, रज एवं तम सम्मिलित है। प्राचीन भारतीय चिंतन में सत्तवादी विकास श्रेष्ठ माना गया है। इस सत्तवादी विकास के तत्व हैं ज्ञान, तपस्या, सदकर्म, प्रेम एवं समत्वभाव तथा इसकी उपस्थिति सतयुग में मानी गई है। विकास का दूसरा स्वरूप रजस को माना गया। इस रजसवादी विकास के तत्व हैं अहंबुद्धि, प्रतिष्ठा, मानबढ़ाई, लौकिक, पारलौकिक सुखा मत्सर, दम्भ एवं लोभ तथा इसकी उपस्थिति त्रेतायुग में मानी गई है। इसे मानवीय और मध्यम माना गया है। इसी प्रकार, विकास का तीसरा स्वरूप तमस को माना गया है। इस तमसवादी विकास के तत्व हैं असत्य, माया, कपट, आलस्य, निंदा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय तथा इसकी उपस्थिति कलयुग में मानी गई है। इस प्रकार सत, रज एवं तम गुणों के आधार पर उक्त विकास के तीन रूपों के साथ एक मिश्रित विकास का भी मॉडल माना गया है, जिसमें रजस एवं तमस गुण मिले होते हैं और इस मॉडल की उपस्थिति द्वापर युग में मानी गई है।  इस प्रकार भारतीय चिंतन परम्परा में विकास के उक्त चार प्रारूप माने गए हैं। इन चारों प्रारूपों का उपयोग चार युगों सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलियुग में होता पाया गया है। इसमें सबसे उत्तम सतयुगी विकास प्रारूप को माना गया है तथा सबसे अधम कलियुगी विकास प्रारूप को माना गया है। भारत में, वर्तमान खंडकाल में त्रेतायुग के रामराज्य को भी बहुत अच्छा माना गया है एवं इसके स्थापना की कल्पना की जाती रही है। पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने महात्मा गांधी जी के ट्रस्टी शिप एवं हिंद स्वराज्य के विवेचन को भी अपने विमर्श में स्थान दिया है। इस प्रकार भारतीय चिंतन परम्परा का आदर्श रामराज्य है, इसमें भरत जैसे राजा एवं जनक जैसे राजा तपस्वी के रूप में राज्य करते थे। स्वयं श्रीराम धर्म की मर्यादा को अपने लिए भी लागू करते थे एवं धर्म की मर्यादा का कभी भी उल्लंघन नहीं करते थे। सदैव प्रजा एवं प्रकृति की रक्षा एवं संवर्धन करते रहते हैं। यह एक ऐसा विकास का प्रारूप है जो आज भी आदर्श है। रामराज्य की अवधारणा भी एकात्म मानववाद के आधारों पर खड़ी थी। यह शासन तथा विकास एवं व्यवस्था में सब की भागीदारी तथा सब के लिए व्यवस्था थी, जो प्रकृति आधारित विकास पर बल देती थी। भारत में सबसे छोटी इकाई व्यक्ति पर बल दिया गया है और उसका संगठन किया गया है। भारत में व्यक्ति के स्वरूप को जिस प्रकार संगठित और एकात्म किया गया वैसा पश्चिम में नहीं हो सका है। पश्चिम में केवल भौतिक प्रगति पर ही बल दिया गया है। पूरे विश्व में आज सर्वाधिक विकसित राष्ट्र अमेरिका को माना जाता है। अमेरिका में नागरिकों की भौतिक प्रगति तो बहुत हो गई है, परंतु अमेरिका के नागरिकों में सुख, संतोष और समाधान का पूर्णतया अभाव है। अमेरिका में व्यक्ति के जीवन में परस्पर विरोध, असमाधान, असंतोष, सर्वाधिक अपराध और आत्महत्याएं बहुत बड़ी मात्रा में व्याप्त हैं। अमेरिकी नागरिकों में तीव्र रक्तचाप, हृदय रोग एवं अपराध की प्रवृत्ति बहुत अधिक मात्रा में पाई जा रही है। पूरे विश्व को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाला अमेरिका अपने नागरिकों के लिए भौतिक समाधान से आगे बढ़कर मानसिक समाधान प्राप्त नहीं कर सका है। इस धरा पर जन्म लेने के बाद प्रत्येक व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य आखिर है क्या? सम्भवतः सुख जो चिरंतन एवं घनीभूत हो। इतनी भौतिक प्रगति करने के बाद भी अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के नागरिकों में समाधान व सुख का अभाव है। ईसा ने कहा था कि ‘सम्पूर्ण संसार का साम्राज्य भी प्राप्त कर लिया और यदि आत्मा का सुख खो दिया तो उससे क्या लाभ?’  भारत में छोटी से छोटी इकाई व्यक्ति संगठित और एकात्म है एवं व्यक्ति को खंडो में विभक्त समझने की बुद्धिमता प्रदर्शित नहीं की गई है। परंतु, अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक ने वर्णन किया है कि ‘सड़कों पर एक ऐसी बड़ी भीड़ हमेशा लगी रहती है जो आत्मविहीन, मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ, एक दूसरे से अपरिचित और निःसंग स्थिति में है। उनका अपने ही साथ समन्वय नहीं तो दुनिया के साथ क्या होगा? व्यक्ति का समाज के साथ समन्वय नहीं। व्यक्ति भी संगठित और एकात्म इकाई नहीं। केवल भौतिक स्तर पर विचार करने के कारण वहां व्यक्ति को भौतिक एवं आर्थिक प्राणी माना गया है। यदि भौतिक आर्थिक उत्कर्ष मानव को मिले तो उससे सुख की प्राप्ति होगी, यह माना गया। किंतु भौतिक आर्थिक उत्कर्ष की चरम सीमा होने पर भी सुख का अभाव है और इसका कारण यही है कि वहां खंड खंड में विचार करने की प्रणाली है, जिसमें व्यक्ति को केवल भौतिक आर्थिक प्राणी मान लिया गया है और व्यक्ति के सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर संगठित एवं एकात्म रूप में विचार नहीं किया गया है।  भारत के प्राचीन ग्रंथों में यह माना गया है कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी भी है एवं ‘आहार, निद्रा, भय, मैथुन, आर्थिक आवश्यकताओं, आदि’ की तृप्ति की बात भारत में भी कही गई है। इन जरूरतों की पूर्ति होना चाहिए, इस तथ्य को भी स्वीकार किया गया है। किंतु भारत में मनुष्य को आर्थिक प्राणी से कुछ ऊपर भी माना गया है। मनुष्य आर्थिक प्राणी के साथ साथ वह एक शरीरधारी, मनोवौज्ञानिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक प्राणी भी है। भारतीय मनुष्य के व्यक्तित्व के अनेकानेक पहलू है। अतः यदि सम्पूर्ण व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का संगठित और एकात्म रूप से विचार नहीं हुआ तो उसको सुख समाधान की अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए भारत में इस दृष्टि से संगठित एवं एकात्म स्वरूप का विचार हुआ है। मनुष्य की आर्थिक एवं भौतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर यह कहा गया है कि इन वासनाओं की तृप्ति होनी चाहिए लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है कि इन आवश्यकताओं पर कुछ वांछनीय मर्यादा होना भी आवश्यक है। गीता के तृतीय अध्याय के 42वें श्लोक में कहा गया है कि इंद्रियां (विषयों से) ऊपर स्थित हैं, इंद्रियों से मन उत्कृष्ट है। बुद्धि मन से भी ऊपर अवस्थित है, जो बुद्धि की अपेक्षा भी उत्कृष्ट है और उससे भी अगम्य है – वही आत्मा है। अतः काम को स्वीकार करने के उपरांत भी उसे अनियत्रिंत नहीं रहने दिया गया है। काम की पूर्ति धर्म के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए, ऐसा भारतीय शास्त्रों में कहा गया है।  प्राचीन भारत में अर्थ के महत्व को भी स्वीकार किया गया है एवं अर्थशास्त्र की रचना भी हुई है। यह माना जाता रहा है कि राज्य के समस्त नागरिकों की भौतिक आवश्यकताओं की पर्याप्त पूर्ति होनी चाहिए ताकि इसके अभाव में अपना पेट पालने के लिए व्यक्ति को 24 घंटे चिंता करने की आवश्यकता नहीं पड़े। राज्य के नागरिकों को पर्याप्त अवकाश मिल सके, जिससे वह संस्कृति, कला, साहित्य और भगवान आदि के बारे में चिन्तनशील हो सके। इस प्रकार अर्थ और काम को मान्यता देकर साथ ही यह भी कहा गया है कि एक व्यक्ति का अर्थ और काम उसके विनाश का अथवा समाज के विघटन का कारण न बने। इस दृष्टि से भारत के प्राचीन दृष्टाओं ने विशिष्ट दर्शन दिया था। उसमें विश्व की धारणा के लिए शाश्वत नियम और सार्वजनिक नियम देखे थे, उनका दर्शन किया था। व्यक्ति को विनाश से बचाने के लिए, समाज को विघटन से बचाने के लिए एवं व्यक्ति के परम उत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक एवं सार्वदेशिक नियमों के प्रकाश में जो अवस्था उन्होंने बनायी उसके समुच्चय को धर्म कहा गया। इस धर्म के अंतर्गत अर्थ और काम की पूर्ति का भी विचार हुआ। साथ ही, प्रत्येक व्यक्ति परम सुख यानी मोक्ष प्राप्त कर सके, इसका चिंतन भी हुआ। इस प्रकार धर्म और मोक्ष के मध्य अर्थ और काम को रखते हुए चतुर्विध पुरुषार्थ की कल्पना भारत में ही की गई है। इस समन्वयात्मक, संगठित और एकात्मवादी कल्पना में व्यक्ति का व्यक्तित्व विभक्त्त नहीं हुआ। यह आत्मविहीन एवं मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ प्राणी न बन सका। इस चतुर्विध पुरुषार्थ ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार अपना जीवनादर्शन चुनने का अवसर दे दिया और साथ ही व्यक्तित्व को अखंड बनाए रखा। यह स्मरण रखना चाहिए कि जहां व्यक्ति के व्यक्तित्व रूपी विभिन्न पहलू संगठित नहीं है या व्यक्ति संगठित नहीं है, वहां समाज संगठित कैसे हो सकता है? इस संगठित आधार पर ही भारत में व्यक्ति से परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता और चराचर सृष्टि का विचार किया गया। एकात्म मानवदर्शन इसी का नाम है और आज भारत में आर्थिक विकास को एकात्म मानववाद के सिद्धांत का अनुपालन करते हुए ही गति दी जानी चाहिए। 

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आर्थिकी राजनीति

भारत में रोजगार के संदर्भ में बदलना होगा अपना नजरिया

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भारतीय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति की सदस्य सुश्री शमिका रवि द्वारा हाल ही में सम्पन्न किए गए एक रिसर्च पेपर में, आंकड़ों के साथ, कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं। इस रिसर्च पेपर में भारत के आर्थिक विकास के कई क्षेत्रों के सम्बंध में तथ्यों पर आधारित सारगर्भित बातें बताने के साथ साथ यह भी जानकारी दी गई है कि किस प्रकार भारत में अब ग्रामीण इलाके भी देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान बढ़ा रहे हैं तथा कई राज्यों की आर्थिक स्थिति में सुधार होता हुआ दिखाई दे रहा है। साथ ही, यह भी बताया गया है कि किस प्रकार भारत में तेज गति से हो रहे आर्थिक विकास का लाभ देश के युवाओं को रोजगार के अधिक अवसरों के रूप में मिल रहा है। आज भारत में केवल मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलोर, हैदराबाद, पुणे जैसे महानगर ही देश के  विकास में भागीदारी नहीं कर रहे हैं बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी पर्याप्त विकास हो रहा है। इससे रोजगार के अवसर भी इन इलाकों में निर्मित हो रहे हैं। सबसे अधिक विकास आज अविकसित क्षेत्रों में हो रहा है। आज गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, आदि के साथ साथ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, एवं नोर्थ ईस्ट के इलाके भी तेजी से विकास कर रहे हैं। विकास के कई नए क्षेत्रों का निर्माण हुआ है। पिछड़े हुए इन राज्यों में गति पकड़ रहा विकास, भारत के सकल घरेलू उत्पाद में और भी अधिक वृद्धि दर्ज करने में सहायक सिद्ध होगा। ग्रामीण इलाकों में मूलभूत सुविधाओं का अतुलनीय विस्तार हुआ है, जिसके चलते अब सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कार्य करने वाली कम्पनियां भी अपने संस्थानों को ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित हो रही हैं। विशेष रूप से दक्षिणी प्रदेशों में कुछ कम्पनियों ने इस सम्बंध में अच्छी पहल की है। प्राचीन भारत में ग्रामीण क्षेत्र ही आर्थिक विकास के मजबूत केंद्र रहे हैं। इससे इन क्षेत्रों में निवासरत नागरिकों को रोजगार के अवसर भी इनके आसपास के इलाकों में मिल जाते हैं और इन्हें शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन करने की आवश्यकता ही नहीं होती है।    दूसरे, सामान्यतः देश के विभिन्न राज्यों की वित्तीय स्थिति में भी मजबूती आई है। कुछ राज्यों के बजटीय घाटे में अतुलनीय सुधार दृष्टिगोचर हुआ है। परंतु, साथ ही कुछ राज्यों जैसे, पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, आदि प्रदेशों में आज बजटीय घाटे की स्थिति दयनीय हो रही है जिसे शीघ्र ही सम्हालने की आवश्यकता है क्योंकि एक तो इन राज्यों में विकास दर कम होती जा रही है दूसरे इन राज्यों द्वारा मुफ्त योजनाओं को धड़ल्ले से चलाया जा रहा है, बगैर यह ध्यान दिए कि इन बढ़े हुए खर्चों के लिए क्या उनके बजट में कुछ गुंजाइश भी है। इस प्रकार के बढ़े हुए खर्चे इन राज्यों के बजट पर अंततः दबाव बढ़ाते हैं।  आज देश में कुछ राज्यों में ब्याज के भुगतान, प्रशासन सम्बंधी खर्चों एवं सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन का भुगतान करने में ही पूरे बजट की राशि समाप्त हो जाती है। प्रदेश में विकास कार्य करने के लिए कुछ भी राशि बचती ही नहीं है बल्कि कुछ राज्यों को तो इन मदों पर भुगतान करने हेतु भी ऋण लेना होता है जो बजट पर और अधिक दबाव को बढ़ाता है। पूंजीगत खर्चे इन राज्यों में कम ही हो पा रहे हैं जिससे इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय भी कम है और ये राज्य विकास की दर को हासिल नहीं कर पा रहे हैं। दिल्ली में पिछले 10 वर्ष पूर्व तक पूंजीगत मदों पर बजट का एक बहुत बड़ा भाग खर्च होता था परंतु पिछले 10 वर्षों में पूंजीगत व्यय में भारी कमी दृष्टिगोचर हुई है। पंजाब की स्थिति भी बहुत खराब हो गई है केवल 20 वर्ष पूर्व तक पंजाब देश में  सबसे अमीर राज्यों की श्रेणी में शामिल था परंतु आज इसके आसपास के राज्य, हिमाचल प्रदेश एवं हरियाणा, भी पंजाब से आगे निकल गए हैं। इन राज्यों में उद्योगों को स्थापित करने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है। पंजाब से उद्योग निकलकर हिमाचल प्रदेश एवं हरियाणा में चला गया है। मध्यप्रदेश एवं बिहार कृषि के क्षेत्र में बहुत भारी वृद्धि दर्ज कर रहे हैं परंतु उद्योग के कम मात्रा में होने के चलते इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से कम है।  किसी भी देश के लिए श्रम की भागीदारी एवं बेरोजगारी दो अलग अलग मुद्दे हैं। श्रम की भागीदारी में 18 वर्ष से 59 वर्ष के बीच के वे लोग शामिल रहते हैं जो अर्थ के अर्जन हेतु या तो कुछ कार्य कर रहे हैं अथवा कोई आर्थिक कार्य करने को उत्सुक हैं एवं इस हेतु रोजगार तलाश रहे हैं। पिछले 40 वर्षों के दौरान चीन में श्रम की औसत भागीदारी 75 प्रतिशत से ऊपर रही है। अर्थात प्रत्येक 4 में से 3 लोग या तो रोजगार में रहे हैं अथवा रोजगार तलाशते रहे हैं। वियतनाम में श्रम की भागीदारी 72 से 73 प्रतिशत की बीच रही है। बंगलादेश में यह 60 प्रतिशत से अधिक रही है। परंतु भारत में श्रम की भागीदारी 5 वर्ष पूर्व तक केवल 50 प्रतिशत के आसपास थी जो आज बढ़कर 57 प्रतिशत हो गई है। अर्थात इतने बड़े देश में कुल कार्य करने योग्य जनसंख्या में से आधे से कुछ कम आबादी या तो रोजगार में नहीं है अथवा रोजगार तलाश भी नहीं रही है। यह स्थिति भारत जैसे देश के लिए ठीक नहीं है।  दूसरे, बेरोजगारी से आश्य ऐसे नागरिकों से है जो रोजगार तलाश रहे हैं लेकिन उन्हें रोजगार मिल नहीं रहा है। भारत में ऐसे नागरिकों की संख्या मात्र 3 प्रतिशत ही है। समय के साथ बेरोजगारी की दर में थोड़ा बहुत परिवर्तन होता रहता है। परंतु, जब इस स्थिति को विभिन्न प्रदेशों के बीच तुलना करते हुए देखते हैं तो बेरोजगारी की दर में भारी अंतर दिखाई देता है। गुजरात, छत्तीसगढ़, कर्नाटक जैसे राज्यों में बेरोजगारी की दर यह 0.9 से 1.5 प्रतिशत के बीच है, जबकि केरल में 12.5 प्रतिशत है। आर्थिक विकास में वृद्धि के साथ साथ रोजगार के अवसर भी अधिक निर्मित होते हैं। इसलिए आज देश में रोजगार के नए अवसर निर्मित करने के लिए व्यवसाय को बढ़ाना होगा, विकास को बढ़ाना होगा। केवल केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारें समस्त नागरिकों को रोजगार उपलब्ध नहीं करा सकती है। इस हेतु, निजी क्षेत्र को आगे आना ही होगा। केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार के संस्थानों के रोजगार के अवसर निर्मित करने की कुछ सीमाएं हैं।  आज भारत में 30 वर्ष के अंदर की उम्र के नागरिकों में बेरोजगारी की दर 12 प्रतिशत है, जबकि देश में कुल बेरोजगारी की दर 3.1 प्रतिशत है। अतः देश के युवाओं में बेरोजगारी की दर अधिक दिखाई देती है। देश के युवाओं में कौशल का अभाव है। इसलिए केंद्र सरकार विशेष कार्यक्रम लागू कर युवाओं में कौशल विकसित का प्रयास कर रही है। विशेष रूप से भारत में युवाओं के लिए कहा जा रहा है कि वे 30 वर्ष की उम्र तक काम करना ही नहीं चाहते हैं, क्योंकि इस उम्र तक वे रोजगार के अच्छे अवसर ही तलाशते रहते हैं। 30 वर्ष की उम्र के बाद वे दबाव में आने लगते हैं एवं फिर उन्हें जो भी रोजगार का अवसर प्राप्त होता है उसे वे स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए 30 वर्ष से अधिक की उम्र के नागरिकों के बीच बेरोजगारी की दर बहुत कम है। यह स्थिति हाल ही के समय में विश्व के अन्य देशों में भी देखी जा रही है। युवाओं की अपनी नजर में सही रोजगार के अवसर के लिए वे इंतजार करते रहते हैं, अथवा वे अपनी पढ़ाई जारी रखते हैं। आज विशेष रूप से भारत में  रोजगार के अवसरों की कमी नहीं है। युवाओं में कौशल एवं मानसिकता का अभाव एवं केवल सरकारी नौकरी को ही रोजगार के अवसर के लिए चुनना ही भारत में श्रम की भागीदारी में कमी के लिए जिम्मेदार तत्व हैं। अधिक डिग्रीयां प्राप्त करने वाले युवा रोजगार के अच्छे अवसर तलाश करने में ही लम्बा समय व्यतीत कर देते हैं। कम डिग्री प्राप्त एवं कम पढ़े लिखे नागरिक छोटी उम्र से ही रोजगार प्राप्त कर लेते हैं। यह भी कटु सत्य है कि डिग्री प्राप्त करने एवं वास्तविक धरातल पर कौशल विकसित करने में बहुत अंतर है। आज भी भारत में कई कम्पनियों की शिकायत है कि देश में इंजीनीयर्स तो बहुत मिलते हैं परंतु उच्च कौशल प्राप्त इंजीनीयर्स की भारी कमी हैं। तमिलनाडु में किए गए एक अध्ययन में यह तथ्य उभर का सामने आया है कि किसी भी देश के नागरिक जब अधिक उम्र में रोजगार प्राप्त करते हैं तो उनकी कुल उम्र भर की कुल वास्तविक औसत आय बहुत कम हो जाती है। इसके विपरीत जो नागरिक अपनी उम्र के शुरूआती पड़ाव में ही रोजगार प्राप्त कर लेते हैं उनकी कुल उम्र भर की वास्तविक औसत आय तुलनात्मक रूप से बहुत बढ़ जाती है। भारत में स्टार्ट अपस को बढ़ावा दिया जाना चाहिए एवं युवाओं को सरकारी नौकरी की चाहत को छोड़कर निजी क्षेत्र में रोजगार प्राप्त करने के प्रयास करने चाहिए। साथ ही आज युवाओं को अपने स्वयं के व्यवसाय प्रारम्भ करने के प्रयास भी करने चाहिए।  प्रहलाद सबनानी

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प्रवक्ता न्यूज़

ब्रिक्स समूह देशों के सम्मेलन में बढ़ा है भारत का कद

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हाल ही में ब्रिक्स समूह के देशों का सम्मेलन रूस के कजान शहर में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में रूस ने भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का गर्मजोशी से स्वागत तो किया ही, साथ ही, चीन के राष्ट्रपति के साथ भी भारत के प्रधानमंत्री की द्विपक्षीय वार्ता सम्पन्न हुई। इस वार्ता में चीन ने भारत की सीमा के पास जमा कर रक्खे अपने सैनिकों को पीछे हटाकर, सीमा पर वर्ष 2020 की स्थिति बहाल करने की घोषणा की है। भारत को भी अपने सैनिकों को सीमा पर पीछे की ओर ले जाना होगा। इससे भारत एवं चीन की सीमा पर पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ रहे तनाव को कम करने में सफलता हासिल होगी। इस संदर्भ में विभिन्न समाचार पत्रों में छपी जानकारी के अनुसार चीन एवं भारत ने अपने 80 से 90 प्रतिशत सैनिकों को वापिस पीछे की ओर हटा लिया है। चीन और भारत के आपस में सम्बंध सुधरने का असर केवल इन दोनों देशों के आपसी तनाव को ही कम नहीं करेगा बल्कि इन सम्बन्धों में सुधार का असर आर्थिक क्षेत्र में भी देखने को मिलेगा। दरअसल चीन आज आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है, चीन में आर्थिक विकास की दर तिमाही दर तिमाही कम हो रही है। चीन के अमेरिका के साथ सम्बंध बहुत अच्छे नहीं रहे है। अमेरिका एवं कई यूरोपीयन देशों ने चीन से विभिन्न वस्तुओं के आयात पर करों को बढ़ा दिया है ताकि चीन से आयात को कम किया जा सके। चीन की आंतरिक अर्थव्यवस्था में भी उत्पादों की मांग लगातार कम हो रही हैं। साथ ही, चीन के भवन निर्माण क्षेत्र एवं बैकिंग क्षेत्र में भी कई प्रकार की समस्याएं खड़ी हो गई हैं। चीन के अपने पड़ौसी देशों, ताईवान, फिलिपींस, जापान, भारत आदि  के साथ भी सम्बंध लगातार तनावपूर्ण बने हुए हैं। इस सबका असर यह रहा है कि चीन ने भारत के साथ अपने सम्बन्धों को सुधारने की पहल शुरू की है ताकि वह भारत के साथ अपने व्यापार को बढ़ा सके एवं अपनी आर्थिक स्थिति को कुछ हद्द तक सुधार सके। हालांकि चीन के विस्तरवादी नीतियों पर चलने के कारण चीन पर तुरंत विश्वास करना बहुत कठिन है। इस संदर्भ में चीन का इतिहास भी इस बात का साक्षी नहीं रहा है कि चीन के सम्बंध किसी भी देश के साथ स्थायी रूप से बहुत अच्छे रहे हों।  ब्रिक्स देशों में विश्व की 45 प्रतिशत आबादी निवास करती है, पूरे विश्व की 33 प्रतिशत भूमि इन देशों के पास है एवं वैश्विक अर्थव्यवस्था में 28 प्रतिशत हिस्सेदारी ब्रिक्स के सदस्य देशों की है। ब्रिक्स समूह ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह गैर पश्चिमी देशों का एक समूह जरूर है, परंतु वह पश्चिमी देशों के विरुद्ध नहीं है। ब्रिक्स समूह को स्थापित करने वाले देशों में ब्राजील, रूस, भारत एवं चीन (BRIC) थे एवं वर्ष 2009 में दक्षिणी अफ्रीका को भी इस समूह में शामिल कर इस BRICS का नाम दिया गया। आगे चलकर मिश्र (ईजिप्ट), ईथीयोपिया, ईरान, सऊदी अरब एवं यूनाइटेड अरब अमीरात को भी ब्रिक्स समूह में शामिल कर इस समूह का विस्तार किया गया। आज विश्व के कई अन्य देश भी ब्रिक्स समूह के सदस्य बनकर ग्लोबल साउथ की आवाज बनना चाहते हैं। हाल ही में रूस के कजान शहर में सम्पन्न ब्रिक्स समूह के सम्मेलन में स्थायी, अस्थाई एवं आमंत्रित 36 देशों ने भाग लिया। ब्रिक्स के इस सम्मेलन में इस विषय पर भी विचार किया गया कि ब्रिक्स देशों के पास एक अपना पेमेंट सिस्टम होना चाहिए एवं वैश्विक स्तर पर हो रहे व्यापार में अमेरिकी डॉलर पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहिए। पश्चिमी देश वर्तमान में पूरे विश्व में लागू स्विफ्ट सिस्टम का दुरुपयोग कर रहे हैं एवं इसके माध्यम से अन्य देशों पर अपनी चौधराहट स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। स्विफ्ट सिस्टम के माध्यम से पूरे विश्व के देशों के बीच धन सम्बंधी व्यवहारों को सम्पन्न किया जाता है। यदि किसी देश को इसकी सदस्यता से हटा लिया जाता है तो वह देश विश्व के अन्य देशों के साथ आर्थिक (धन सम्बंधी) व्यवहार नहीं कर सकता है। रूस यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी देशों ने जब रूस पर सैंक्शन लगाए थे तब रूस को स्विफ्ट सिस्टम से हटा दिया गया था जिससे रूस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने व्यापार के लेनदेनों का निपटान करने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ा था। इस संदर्भ में, भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भारत में लागू यूनिफाईड पेयमेंट सिस्टम (यूपीएस), जिसे भारत में ही विकसित किया गया है, को भी ब्रिक्स समूह के सदस्य देशों में लागू करने पर विचार करने हेतु समस्त सदस्य देशों से आग्रह किया है। अभी तक भारत के यूनीफाईड पेयमेंट सिस्टम को 7 देशों ने अपना लिया है एवं 30 से अधिक देश इसे अपनाने के लिए विचार कर रहे हैं। भारत में यह सिस्टम बहुत ही सफलता पूर्वक कार्य कर रहा है। दूसरे, पूरे विश्व में डॉलर के प्रभाव को कम करने हेतु भी ब्रिक्स समूह के सदस्य देशों के बीच चर्चा हुई है। डॉलर के स्थान पर ब्रिक्स करेन्सी को अपनाने अथवा ब्रिक्स समूह के सदस्य देशों की बीच हो रहे व्यापार सम्बंधी व्यवहारों के निपटान हेतु ये देश आपस में अपनी करेन्सी के उपयोग पर जोर देने पर भी सहमत होते दिखे हैं। ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान ही भारत एवं चीन के बीच हाल ही में सम्पन्न हुए बॉर्डर समझौते के बावजूद भारत को चीन से भारत में होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर अपनी गहरी नजर बनाए रखना चाहिए। भविष्य में भी भारत को चीन से होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति सोच समझकर ही देना चाहिए। क्योंकि, चीन के इतिहास को देखते हुए उस पर आज भी विश्वास नहीं किया जा सकता है। भारत ने हालांकि वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए भारत में होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के 10,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के लक्ष्य को निर्धारित किया है। चीन के साथ भारत के सम्बंध सुधरने के पश्चात इस लक्ष्य को प्राप्त करने में आसानी हो सकती है। परंतु, यह कार्य फिर भी बहुत सोच समझकर ही करना होगा। चीन के साथ भारत का विदेशी व्यापार अत्यधिक मात्रा में ऋणात्मक ही है। भारत ने केलेंडर वर्ष 2023 में चीन से 12,100  करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि के उत्पादों का आयात किया था, परंतु भारत से चीन को निर्यात बहुत ही कम मात्रा में हो रहे हैं तथा चीन द्वारा भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी बहुत कम मात्रा में ही किए जा रहे हैं। चीन, भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने वाले देशों की सूची में 22वें स्थान पर है और भारत में होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में चीन की हिस्सेदारी केवल 0.37 प्रतिशत की ही है। यह सही है कि चीन के साथ बॉर्डर समझौते के बाद चीन से भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ सकता है परंतु भारत को चीन के इतिहास को देखते हुए अभी भी सतर्क रहने की आवश्यकता है।  ब्रिक्स समूह के सदस्य देशों के बीच आज भारत का कद तो बढ़ ही रहा है, साथ ही, आज विश्व के कई देशों द्वारा यूरोप एवं अमेरिका के प्रभाव से बाहर निकलने के प्रयास भी लगातार किए जा रहे हैं। रूस के राष्ट्रपति ने ब्रिक्स समूह की बैठक में बताया है कि विश्व के कई देश आज ब्रिक्स समूह की सदस्यता ग्रहण करना चाहते हैं। इस प्रकार, ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिणी अफ्रीका) एवं शंघाई समूह आदि संगठन बहुत तेजी से अपने प्रभाव को वैश्विक स्तर पर बढ़ा रहे हैं। दरअसल, आज अमेरिका सहित यूरोपीयन देशों (फ्रान्स, जर्मनी, ब्रिटेन आदि) की आर्थिक परिस्थितियां लगातार बिगड़ती जा रही हैं और इन देशों की आर्थिक प्रगति धीमे धीमे कम हो रही है और ये देश मंदी की चपेट में आने की ओर आगे बढ़ रहे हैं जबकि आर्थिक विकास की दृष्टि से यह सदी अब भारत की होने जा रही है। आने वाले समय में, वैश्विक स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली वार्धिक वृद्धि में भारत का योगदान लगभग 16 प्रतिशत तक होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। अतः विश्व के कई शक्तिशाली देश आज भारत के साथ अपने सम्बन्धों को मजबूती देना चाहते हैं, इसी के चलते ब्रिक्स समूह के सदस्य देशों के बीच भी भारत का कद अब बढ़ता दिखाई दे रहा है।  प्रहलाद सबनानी

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