कला-संस्कृति भारतीय संस्कृति की अवधारणाएं-एक विवेचन July 15, 2013 / July 15, 2013 | Leave a Comment डा.राज सक्सेना समाज में सामान्य रूप से ‘संस्कृति’ शब्द को,सुरुचि और शिष्ट व्यवहार के रुप में लिया जाता है | विस्तृत अर्थों में संस्कृति की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-“संस्कृति किसी एक समाज में पाई जाने वाली उच्चतम मूल्यों की वह चेतना है,जो सामाजिक प्रथाओं,व्यक्तियों की चित्तवृतियों, भावनाओं,मनोवृतियो,आचरण के साथ-साथ उसके द्वारा भौतिक पदार्थों को विशिष्ट […] Read more » भारतीय संस्कृति की अवधारणाएं
दोहे कन्या भ्रूण हत्या पर कुछ दोहे July 14, 2013 | 2 Comments on कन्या भ्रूण हत्या पर कुछ दोहे -डा.राज सक्सेना बेटे को दें स्वर्ग सुख, बेटी भोगे नर्क | लानत ऐसी सोच पर, करती इनमे फर्क || -०- कम अकलों की वजह से देश हुआ बरबाद | बेटी को जो समझते, घर का एक अवसाद || -०- बेटी हरेक सुलक्षणी, बेटे अधिक कपूत | बेटी घर को पालती, अलग जा बसे पूत || -०- रहती […] Read more »
जन-जागरण जरूरी है हिन्दी बचाना July 12, 2013 / July 12, 2013 | 2 Comments on जरूरी है हिन्दी बचाना डा.राज सक्सेना भाषा और लिपि में एक ऐसा अव्यक्त और अटूट बंधन है जो एक बार टूटा तो सब कुछ बिखर कर रह जाता है | यह स्वंय सिद्ध है कि भाषा का जन्म पहले हुआ और उसकी सार्वभौमिकता और एकात्मकता के लिये लिपि का आविष्कार सम्भव हुआ | अपनी बोली या भाषा की सहीसही अभिव्यक्ति की […] Read more » जरूरी है हिन्दी बचाना
दोहे सुधियां- डा.राज सक्सेना July 10, 2013 | Leave a Comment पोर – पोर थर-थर करे, प्रिय की सुधि से आज | क्या भूलूं उन क्षणों से, हर क्षण प्रिय है ‘राज’ || प्रथम पहर मधुयामिनी , प्रियतम थामा हाथ | पोर – पोर बिहंसा सखी, हर किलोल के साथ || वस्त्रों संग छूटे सभी, तन-मन के तटबंध | अंतरमन तक हो गए, जन्मों […] Read more » सुधियां- डा.राज सक्सेना
कहानी साहित्य उत्तराखण्ड का ‘बेताज’ अंग्रेज राजा July 6, 2013 / July 6, 2013 | 3 Comments on उत्तराखण्ड का ‘बेताज’ अंग्रेज राजा सन 1842 की बात है | पहले अंग्रेज-अफगान युद्ध में अंग्रेजों की हार हुई | कुछ अज्ञात कारणों से सेना से कुछ लोग भाग निकलें | शायद मरने के डर से,जेल के डर से या हारने की आत्मग्लानि से, कारण कुछ भी हो कुछ सिपाही भागे तो, इन्ही भागे हुए सिपाहियों में से एक भगोड़े […] Read more » उत्तराखण्ड का 'बेताज' अंग्रेज राजा
दोहे साहित्य सौन्दर्य वर्णन July 5, 2013 | Leave a Comment कृष्ण मेघ से कृष्णता, ले केशों में डाल | उठा दूज का चाँद ज्यों, रचा विधाता भाल | खिची कमान भोंहें रची, पलक सितारे डाल | नयन कटीले रख दिए, मृग से नयन निकाल | तीखी, सीधी और खड़ी, रची विधाता नाक | रक्तवर्ण, रस से भरे, रचे होंठ रस-पाक | चिबुक अनारों से रचे […] Read more » सौन्दर्य वर्णन
दोहे साहित्य दोहों पर दोहे July 5, 2013 | 4 Comments on दोहों पर दोहे उर्दू में है शेर ज्यों, दोधारी शमशीर | हिंदी में दोहा अटल, सही लक्ष्य का तीर | शेरो में शायर भरे, पूरे मन के भाव | इसी भाँति दोहा करे, सीधे मन पर घाव | गजल शेर का एक जुज, हो इनसे परिपूर्ण | पर दोहा है चतुष्पद, भाव भरे सम्पूर्ण | […] Read more » दोहों पर दोहे
कविता साहित्य आंसू निकल पड़े July 4, 2013 | Leave a Comment लेने सबाब तीर्थ का, घर से निकल पड़े | केदार-बद्री धाम के, दर पे निकल पड़े | सब ठीक चल रहा था,मौसम भी साफ था, कुछ बादलों के झुण्ड,बरसने निकल पड़े | दीवानगी-ए-अकीदत पे जरा गौर तो करें, ठहरे जरा सी देर मगर,फिर से चल पड़े | लाखों का वो हुजूम जो,चल तो रहा था,पर- […] Read more » आंसू निकल पड़े
जरूर पढ़ें क्या सूफी फकीर वास्तव में धर्म निरपेक्ष थे ? July 1, 2013 | 13 Comments on क्या सूफी फकीर वास्तव में धर्म निरपेक्ष थे ? भारतीय इतिहास में हमें पढ़ाया जाता है कि मुस्लिम सूफी फकीर बड़े दयालू प्रजा से प्रेम करने वाले और एक हिन्दू मुस्लिम समन्वयवादी दृष्टिकोण के प्रणेता थे | मध्यकालीन मुस्लिम इतिहासकार जिन्होंने भारत के इतिहास को चाटुकारिता की सीमाएं लांघ कर झूठ का पुलिन्दा बनाने का पुनीत कार्य किया है ने भी, इन फकीरों जिन्हें […] Read more » क्या सूफी फकीर वास्तव में धर्म निरपेक्ष थे ?
कविता साहित्य एक अनाम के नाम June 27, 2013 | Leave a Comment रससिक्त छंद कुछ कविता के, कर रहा समर्पण प्रिय तुमको | चाहो, उर मे रख, दुलरा कर, संरक्षित कर लेना इनको | यूं तो तुम स्वंय अकल्पित हो, ऐसा प्रिय रूप, तुम्हारा है | लगता है स्वंय , विधाता ने, रच-रच कर तुम्हें संवारा है | है अंग सुगढ, हर सांचे सा, हर […] Read more » एक अनाम के नाम
कविता साहित्य माँ सरस्वती June 25, 2013 | 1 Comment on माँ सरस्वती कण-कण तन का उज्ज्वल करदे | एक नवल तेज, अविकल करदे | माँ सरस्वती आ, कंठ समा, मन-मस्तक को अविरल करदे | वाणी में मधु की, धार बहा | हो सृजनशील, मस्तिष्क महा | हर शब्द बने, मानक जग में, हर रचना को, इतिहास बना | जन की जिव्हा पर, नाम चढ़े, […] Read more » माँ सरस्वती
कविता रक्स करतीं थालियां June 24, 2013 | Leave a Comment डा. राज सक्सेना पी सुरा को मस्त होकर, मस्त फिरतीं प्यालियां | बैंगनों के घर में गिंरवीं, रक्स करतीं थालियां | कौरवों की भीड़, आंखें बन्द कर चलती मिली, नग्नतम् सड़कों पे खुलकर, चल रहीं पांचालियां | एक अच्छी व्यंग्य कविता,को समझ पाए न लोग, एक हज़ल पर देर तक, बजती रही थीं तालियां | […] Read more » रक्स करतीं थालियां