अयोध्या की समस्‍या के मूल में संवादहीनता

– प्रो. बृज किशोर कुठियाला

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने राम जन्मभूमि का जो निर्णय दिया उससे पूरे देश की जनता ने राहत की सांस ली है। फैसले से पूर्व का तनाव सभी के चेहरों और व्यवहार में था। परन्तु इस राहत के बाधित होने की संभावनाएं बनती नज़र आ रही हैं। 60 वर्ष से अधिक की नासमझी और विवेकहीनता के कारण एक छोटा सा विवाद पहाड़ जैसी समस्या बन गया है। उसी तरह की विवेकहीनता यदि आज भी रही तो सुलझी हुई समस्या फिर से उलझ जाएगी। कारण अनेक हो सकते हैं, परन्तु एक मुख्य कारण हमारे राष्ट्रजीवन में बढ़ती हुई संवादहीनता है। उच्च न्यायालय के निर्णय से तीन मुख्य पक्ष उभर कर आये हैं। एक पक्ष ने उच्चतम न्यायालय जाने की घोषणा की है। देश से अनेक प्रतिक्रियाएं आई हैं। परन्तु एक भी प्रतिक्रिया में यह सुझाव नहीं है तीनों पक्ष आपस में वार्ता करे। प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री तीनों की मुख्य जिम्मेदारी बनती है, उनमें से किसी ने भी न तो संवाद बनाने का प्रयास किया न ही संवाद का सुझाव दिया।

प्रबंधन शास्त्र का एक मूलभूत सिद्धान्त है कि समुचित संवाद से संस्थाओं और समूहों का स्वास्थ्य सुन्दर बना रहता है। छोटी-बड़ी संस्थाओं के लिए न केवल मिशन और उद्देश्यों के निर्धारण में वार्ता के महत्व को बताया गया है परन्तु तत्कालीन उद्देश्य भी यदि चर्चाओं के कारण आम सहमति से बने तो संस्थाएं विकासोन्मुख होती है। राष्ट्र जैसी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में भी संवाद की अनिवार्यता सर्वमान्य है। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश में औपचारिक य अनौपचारिक संवाद शून्य से थोड़ा ही अधिक है। यही कारण है कि छोटी-छोटी समस्याएं विकराल रूप ले लेती हैं। उदाहरण के लिए कश्मीर घाटी के मुसलमानों और उसी घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडितों के बीच पूर्ण संवादहीनता है। माओवादियों और सरकार के बीच वार्ता के छूट-मुट प्रयासों में कोई गंभीरता नज़र नहीं आती। यहा तक की देश को चलाने वाली मुख्य राजनीतिक पार्टियों में अधिकतर संवाद संसद और विधानसभाओं में ही बनता है जहां कोशिश एक दूसरे के दोष ढूंढने की होती है, न की वार्ता के द्वारा समस्याओं का हल ढूंढने की।

अयोध्या का मसला भी संवादहीनता का ही परिणाम है। मुगलों के कार्यकाल में ढांचा बनाते समय स्थानीय लोगों से वार्ता नहीं की। अयोध्या के मुस्लिमों और हिन्दुओं में इस विषय पर वार्ता का कोई दृष्टान्त नहीं है। अग्रेंजों ने जो वार्ताएं की वे समस्या को सुलझाने की नहीं थी बल्कि एक पक्ष के मन में दूसरे के प्रति बैर-भाव को बढ़ाने की थी। 1949 में मूर्तियां रखने में कोई वार्ता नहीं हुई। ताला लगाने और ताला खोलने के समय संबंधित पक्षों से परामर्श नहीं हुआ। एक समय ऐसा भी आया जब सारा देश अयोध्या की बात कर रहा था परन्तु सभी अपना-अपना बिगुल बजा रहे थे। सरकारी तौर पर कुछ वार्ताओं के नाटक तो हुए परन्तु कुल मिलाकर ऐसा परामर्श जिससे उलझन को मिटाना ही है, कभी नहीं हुआ। ढांचा गिरने के बाद भी विषय संबंधित शोर बहुत हुआ परन्तु संवाद शून्य रहा।

अन्य समस्याओं की तरह अयोध्या विषयक समाचार, विश्लेषण, टिप्पणियां और चर्चाएं मीडिया में अनेक आईं परन्तु उनके कारण से समाज में कोई संवाद बना हो ऐसा नहीं हुआ। टेलीविजन पर हुई चर्चाएं एक ओर तो पक्षधर होती है दूसरी ओर वार्ताओं में मतप्रकटीकरण और विवाद बहुत होता है परन्तु ऐसी कोई चर्चा नहीं होती जिसके अन्त में सभी एक मत होकर समस्या के हल की ओर चलते हों। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता है जब टेलीविजन की वार्ता में किसी ने माना हो कि वह गलत था और उस चर्चा के परिणामस्वरूप अपना मत परिवर्तन करेगा। प्रबंधन शास्त्र में दिये गये चर्चा के द्वारा आम सहमति बनाने के संभी सिद्धान्तों की मीडिया में अवेहलना होती है। शंकराचार्य के वर्गीकरण के अनुसार टेलीविजन की चर्चाएं न तो संवाद हैं, न ही वाद-विवाद वे तो वितण्डावाद का साक्षात उदाहरण हैं।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अत्यन्त विवेकपूर्ण व व्यावहारिक फैसला देकर यह सिद्ध किया है कि देश की न्यायापालिका कम से कम समस्याओं का समाधान सुझाने में तो सक्षम है। परन्तु दिए गए सुझावों का क्रियान्वयन तो मुख्यतः केन्द्र सरकार को और कुछ हद तक राज्य सरकार को और देखा जाए तो सभी राजनीतिक दलों को करना है। निर्णय के बाद की प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट होता है कि ऐसा प्रयास होने वाला नहीं है। जैसे कबूतर बिल्ली को देखकर आंख मूंद लेता है मानों बिल्ली है ही नहीं वैसे ही केन्द्र सरकार ने यह मन बना लिया है कि उच्चतम न्यायालय की शरण में ही किसी न किसी पक्ष को जाना है और कोई भी कार्यवाही करने के लिए तुरन्त कुछ करना नहीं है। क्या राष्ट्र की चिति इतनी कमजोर है कि तीनों पक्षों को बिठाकर आम सहमति न बन सके। संवाद शास्त्र का भी सिद्धान्त है कि संवादहीनता अफवाहों व गलतफहमियों को जन्म देती है जिससे संबंध खराब होते हैं और परिणामस्वरूप नई समस्याएं जन्म लेती है और पुरानी और उलझती है। इसी सिद्धान्त का दूसरा पहलू यह भी है ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे संवाद से सुलझाया न जा सके। इसलिए न केवल संवाद होना चाहिये परन्तु संवाद में ईमानदारी और समाजहित भी निहित होना चाहिए।

आज देश में ऐसी अनेक प्रयास होने चाहिए जो विभिन्न वर्गों, पक्षों और समुदायों में लगातार संवाद बनाए रखें। संवादशील समाज में समस्याओं की कमी तो होगी परन्तु यदि समस्याएं बनती भी है तो गंभीर और ईमानदार संवाद से उनको अधिक उलझने से बचाया जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन में हम संवाद की सहायता से जीवन को आगे बढ़ाते हैं तो राष्ट्रजीवन में भी ऐसा क्यों न करे, क्योंकि सुसंवादित समाज ही सुसंगठित समाज की रचना कर सकता है। देखना यह है कि रामलला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक मंच पर लाने की पहल कौन करता है।

10 COMMENTS

  1. सुसम्वादित समाज ही एक सुसंगठित समाज का निर्माण करता ह . यह वाक्य सबसे सटीक और उपयोगी ह . इसी पर गौर फरमाने की जरूरत ह. सब समस्याय स्वतः दूर हो जाएगी……

  2. lekhak ne samvad ke liye kaphi mehnat kari hai. mujhko lagta hai ki jab sabhi pakshon ne man bana liya hai to samvaad arthheen ho jata hai. khaskarke jab shareeyat ki roshni me hal khoja jayega to nirasha hi haath lagegi. waise bhi hindu kisi shariyat ke hal ko swikar nahi kar sakte. videshi dharmon ka itna moh kyon?
    is samasya ki jad me vote bank politics hai anyatha yah samsya chutkiyon me sulajh jata. musalmaano ki itni aukat nahi ki wo mandir nirman ko rok sake.
    musalmaanon se varta karna fijul hai. kyonki wo lakeer ke fakeer hain.

  3. अब तक की समीक्षा से यह तय हुआ कि अयोध्या समस्या का सर्व-सम्मत हल वर्तमान न्यायिक-तन्त्र नहीं दे सकता। इससे सम्बन्धित दोनों समुदाय आपस में बात करके कोई हल निकालना चाहें तो बात बने! बात आपसी सहमति पर टिकी है, सभी ऐसा कह रहे हैं। इस मुद्दे पर विचार-विश्लेषण कर लेना समीचीन होगा।
    आपसी बातचीत व्यक्तियों में हो सकती है। यहाँ जो भी व्यक्ति बात करेगा, उसे अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व करना है। कोई भी व्यक्ति इस बातचीत में अपना स्वतन्त्र मत नहीं रखेगा, किसी हालत में नहीं रखेगा। अर्थात बातचीत दोनों समुदायों के बीच होनी है। समुदाय मानव-निर्मित इकाई है, प्राकृतिक इकाई नहीं। जैसे परिवार प्राकृतिक इकाई है। स्त्री-पुरुष संयोग से प्रकृति-सहज विधि से स्त्री के गर्भ से सन्तान का जन्म होता है, इस तरह परिवार बनता है। परिवार के सुचारू संचालन में शिक्षालय, दूकानें, सुरक्षा समितियां आदि आवश्यक हैं, इस समीकरण से समाज भी प्राकृतिक इकाई साबित होता है। समाज में धर्मसंस्था, राज्यसंस्था, शिक्षासंस्था और विनिमय के अर्थ में व्यापार संस्था आवश्यक है। संचार आदि संस्थायें इनकी सहयोगी हैं।
    अब हम उन संस्थाओं की बात करें, जो अयोध्या मुद्दे पर सन्दर्भित हैं। दोनों समुदायोंका प्रतिनिधित्व जो भी संगठन/समुदाय करे, वह उपरोक्त पाकृतिक संस्थाओं में से नहीं हैं। संगठन तो प्रतिक्रिया में से निकलते हैं, समुदाय किसी विचार का अनुगमन करने के अर्थ में बनते हैं। जैसे तीर्थंकरों की वाणी का अनुगमन करने वाले ‘जैन’ समुदाय बने। मोहम्मद के वचनों को मानने वाले इस्लाम समुदाय और गुरुओं द्वारा प्रणीत हुआ सिक्ख समुदाय। इनको सम्प्रदाय भी कहा जाता है । सम्प्रदाय शब्द को राजनीतिज्ञों के बदनाम कर दिया, अतः मैंने आदर पूर्वक समुदाय शब्द का प्रयोग किया है, अर्थ एक ही है।
    इसी प्रकार किसी विशेष घटना या परिस्थिति की प्रतिक्रिया में संगठन बनता है। संगठन की उम्र ज्यादा होने से कभी-कभी वह सम्प्रदाय में परिणत हो जाता है। दोनों ही मानव-निर्मित होने से अप्राकृतिक हैं। एक और महत्वपूर्ण बात यह कि सिर्फ़ भ्रमित अवस्था में ही मानव स्वयं को सम्प्रदाय या संगठन से जोङता है। प्राकृतिक तौर पर हर मानव एक है, जैन,बौद्ध, मुसलमान, हिन्दू, इसाई होना मानव-निर्मित भ्रम है।
    मानव सारे एक, बांटता सम्प्रदाय और देश।
    जांच के देखो भ्रम हैं सारे, शक ना रखना लेश्।
    शक का ना हो लेश, जागृति परम सत्य है।
    सारे मानव सुख चाहें, यह धर्म सत्य है।
    कह साधक सुख देना चाहें मानव सारे।
    भ्रम के कारण बटे, दुखी हैं सारे मानव्।

    अयोध्या मुद्दे पर बात होगी समुदायों के बीच, या संगठनों के बीच! समुदाय और संगठनों के पूर्वाग्रह रहते ही हैं। पूर्वाग्रह इतिहास बोध में से बनते हैं। इतिहास बोध सबका भिन्न होता है, क्योंकि प्रिय-हित-लाभ के स्तर पर भिन्नता अवश्यंभावी है। यह भिन्नता संवाद में बाधा बनती है, बल्कि संवाद होने ही नहीं देती। संवाद की आधारभूमिका नानक ने बताई-“एक ने कही, दूजे ने मानी; नानक कहे दोनों ज्ञानी”। यहाँ हाल उल्टा होगा। एक समुदाय जो बोलेगा, दूसरा उन्हीं शब्दों के कुछ और ही अर्थ निकालेगा। बोला कुछ जा रहा है, सुना कुछ – तो बात कैसे बनेगी?
    यही होता रहा है।
    दोनों एक दूसरे के लिये अविश्वास लिये चलते हैं। मिलना ऊपर-उपर होता है, देह के स्तर पर। मन तक नहीं मिलते, संवाद की बात ही क्या?
    विश्वासों का ना होना संकट है।
    एक-दूसरे पर विश्वास अलग, स्वयं पर भी विश्वास नहीं होता। समुदाय भावना हावी रहती है, इतिहास के अपने-अपने संस्करण हावी रहते हैं।
    अयोध्या मुद्दा इन्हीं उलझनों में है, और ये सारी उलझनें मानव के भ्रम का फ़ैलाव है। मानव भ्रम से बाहर आये, जागृति पाये तो सारी समस्यायें स्वतः समाहित होती हैं।
    जागृति आने तक जारी है, भ्रम का ही संसार।
    एक से एक जुङा चलता है, समस्या-व्यापार।
    समस्या-विस्तार पाये, विरोध की पाकर खाद।
    विरोध से गहराई पायें अपने-अपने वाद्।
    कह साधक कवि, अयोध्या मुद्दा जारी।
    भ्रम का ही व्यापार, जागृति तक है जारी।
    sahiasha.com

  4. सचमुच सम्बादहिंता इस समस्या का जड़ है और यह कोई नयी बात नहीं है. अगर संबाद होता रहे तो बहुत सारी समस्याएं आये ही नहीं.पर संवाद क्यों नहीं होता?अभी यही एक सज्जन ने अपनी टिपण्णी में जो पि.एच.दी. देने की बात कही है वह हमारे समाज का असली चेहरा है जिसमे लोग समस्यायों को सुलझाने नहीं उलझाने में विस्वास करते हैं.इसमें सबसे ज्यादा हाथ होता है उन धर्म गुरुओं का जिनकी रोजी रोटी इन्ही समस्यायों के बल पर चलती है.अगर एक मजहब या मजहब का कोई अंग दूसरे पर अपना वर्चस्व साबित करने की कोशिश न करे तो उसकी दूकान ही बंद हो जाये.अगर इश्वर एक है तो फिर झगड़ा काहे का?अगर मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना तो धर्म और मजहब के नाम पर इतनी लड़ाईयां क्यों?इतिहास गवाह है की जीतनी लड़ाईयां धर्म या मजहब के नाम पर हुयी हैं उतनी किसी अन्य कारन से नहीं हुयी. हमारे पूजा की विधि में अंतर हो सकता है,क्योंकि यह तो मानने की बात है,पर मतलब तो है दिल को समझाना,चाहे ये मानो चाहे वो मानो. अतः यह झगड़ा और लड़ाई क्यों?यही बात इस रामजन्म भूमि के बारे में भी आती है.ऐसा तो नहीं है की बाबर ने जहां मस्जिद बनायी वहाँ पहले से कुछ नहीं था.अगर था तो हम आसानी से मिल बैठ कर इस बात को सुलझा सकते थे. एक समाधान यह भी हो सकता थाकी पहले जो था,उसको वहाँ स्थापित करदो.रही बात दूसरे मजहब के इबादत के स्थान की तो उसे थोड़ा हटकर बना लो.अगर अल्लाह या इश्वर है तो वह तो सर्वव्यापी और समदर्शी है.उसके लिए यह स्थान और वह स्थान क्या?सचमुच में अगर संवाद होतो शायद यह हल निकल भी आये,पर क्या इससे समस्या का निदान हो जायेगा?मेरे ख्याल से नहीं.क्योंकि अगर मुसलमान भाई किसी तरह इसकेलिए मान भी गए,जिसकी संभावना ऐसे कम ही दिखती है,तो भी हिन्दू धर्मं के ही दो तीन तबके आपस में अपनी वर्चस्व स्थापित करने के लिए bhid jaayenge.

  5. वास्तव में बहुत अच्छा और प्रेरक आलेख. सही में, संवाद बना रहे तो बड़ी सस्यायें भी हल की जा सकती है जबकि अगर संवादहीनता हो तो कोई छोटी समस्या भी राष्ट्रीय संकट का रूप ले सकता है. कुठियाला सर संवाद सिखाने वाले संसथान के ही प्रमुख हैं और उन्होंने अपने नज़रिए से ‘कारणों’ की उचित ही परताल की है.

  6. “अयोध्या की समस्‍या के मूल में संवादहीनता” – by – प्रो. बृज किशोर कुठियाला

    (१) रामलला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड (तीनों प्राकृतिक व्यक्ति नहीं हैं कि स्वयं निर्णय कर सकें) और इन संस्थाओं के अधिकारी सक्षम नहीं हैं कि सार्वजनिक रूप से भूखंड के तनिक भी भाग से भी अपना अधिकार छोड़ने की बात भी कर सकें.

    (२) केंद्र सरकार को अपील में अपना हित दिखायी देता है.
    बहुजन समाज पार्टी को केंद्र सरकार पर सेंध कैसे लगे – का प्रोग्राम बनाना है. समाजवादी पार्टी ने अपने बीज डाल दिए हैं कि खोया वोट वापिस आ जाये.
    भाजपा पार्टी को प्रतीत होता है कि भलाई इसमें है कि देखो ऊठ किस करवट बेठता है.
    सभी अपनी-अपनी रोटी सेकने की सोच में हैं.
    (३) ऎसी अवस्था में प्रबंधन शास्त्र के क्या मूलभूत सिद्धान्त हों – इस विषय पर प्रो. कुठियाला जी एक शोध करवा लें – किसी को पी.एचडी दिलवा दें.

  7. कुठियालाजी ने हमारे समय के जरूरी विषय को मुखरित किया है। वास्‍तव में तमाम समस्‍याओं की जड़ में संवादहीनता ही है। सभी पक्ष अपना राग अलापते रहते हैं लेकिन मिल बैठकर समस्‍याओं को दूर करने में दिलचस्‍पी नहीं लेते। राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक श्री राजेन्‍द्र सिंह ने बाबरी ढांचा ध्‍वस्‍त होने से पूर्व अथक प्रयास किए कि सभी पक्षों के बीच संवाद बने और इसका हल ढूढ़ा जाय। अगर ऐसा कर लिया गया होता तो समाज में इतनी कलुषता नहीं फैलती।

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