शख्सियत

बाबा साहब अंबेडकर व ब्राह्मणवाद

-रमेश शर्मा- ambedkar
बाबा साहब अंबेडकर हिंदुस्तान के उन विरले व्यक्तियों में से हैं जिन्होंने मनुष्य के बीच भेद खत्म करके एक समरस समाज की स्थापना के लिये संघर्ष किया। एकात्मता की जो बात ऋग्वेद में है, या गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाई उसी बात को बाबा साहब अंबेडकर ने बा्रह्मणवाद के नाम से कही। सतही तौर पर देखने में लगता है कि शायद उनका अभियान ब्राह्मणों के विरुद्ध था लेकिन अंबेडकर के विचार और जीवन जानने के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनका विरोध या उनका गुस्सा उन तथाकथित ब्राह्मणों के प्रति था जो मनुष्य और मनुष्य के बीच में भेद करते हैं, उन्हें अछूत बनाते हैं तथा एक प्रकार से कुछ खास समृद्धों के साम्राज्यवाद को मजबूत बनाने के लिये एक मंत्र के रूप में काम करते हैं। बाबा साहब अंबेडकर का जीवन चरित्र और जीवन यात्रा पढ़ऩे के बाद ही कोई व्यक्ति समझ पाएगा कि उनके व्यक्तित्व के निर्माण में ब्राह्मणों का कितना योगदान था। यह ठीक है कि तब ब्राह्मणों का एक समूह ऐसा था जिसने बाबा साहब के समरसता अभियान की खिलाफत की लेकिन यह खिलाफत सहयोग से बहुत छोटी थी जो कुछ ब्राह्मणों की ओर से उन्हें मिला। संभवत: इसीलिये उन्होंने महाड परिषद् में कहा कि यह दृष्टिकोण प्रमादपूर्ण है कि सारे ब्राह्मण अस्पृश्यों के शत्रु हैं। आपत्ति तो ब्राह्मणों की उस वृत्ति से है जो यह मानती है कि वे अन्य जातियों से उच्च व श्रेष्ठ हैं। उन्होंने कहा कि ब्राह्मणवादी वृत्ति से मुक्त ब्राह्मणों का हम स्वागत करते हैं, महत्व जन्म का नहीं गुणवत्ता का है। अंबेडकर जी ने जो बात अपने महाड परिषद के संबंध में कही यह वही तत्व है जिसे भगवान कृष्ण ने गीता में स्थापित करने का प्रयत्न किया था। उन्होंने समझाया था कि विभाजन व्यक्ति का नहीं बल्कि कर्म है और कर्म के आधार पर ही व्यक्ति का महत्व कम होगा अथवा बढ़ेगा। एक अन्य अवसर 12 फरवरी 1938 को मनमाड़ में दलित रेल्वे कामगारों के बीच उन्होंने कहा था कि जब मैं कहता हूं कि ब्राह्मणवाद शत्रु से सामना करना है तब उसका अर्थ गलत नहीं लेना चाहिये। मैंने ब्राह्मणवाद शब्द का प्रयोग ब्राह्मण जाति की सत्ता, अधिकार व हित संबंध के अर्थ में नहीं किया है। मेरे ब्राह्मणवाद शब्द का अर्थ स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व भव का विरोध करने वाली मानसिकता से है। एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा कि मुझे विश्वास है कि स्वतंत्र मजदूर दल की सरल व प्रामाणिक नीति कामगार वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करेगी तथा हिंदू समाज रचना की विभाजक शक्तियों को प्रति संतुलित करेगी। (संदर्भ पुस्तक डॉ. अंबेडकरवाद: तत्व आणि व्यवहारद्व डॉ. राव साहब कसवे पृष्ठ 49 एवं 78 )। इन बातों से एक बात साफ होती है कि उनका अभियान एक वर्ग के उत्थान का तो था लेकिन किसी के विरुद्ध नहीं था। वे समाज में विद्वेष नहीं समरसता और बराबरी के लिये प्रयत्नशील थे। उनका विरोध व्यक्ति से नहीं अपितु मानसिकता से था। वे किसी जातिके विरोधी नहीं बल्कि जाति के नाम पर शोषण करने और सहने के विरुद्ध था। वे हिंदू समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार, समान सम्मान और प्रगति के समान अवसर देने के हिमायती थे। साथ चलो, सच बोलो और सबके मन समान हों। असमानता एवं विभाजनवादी बातों ने देश को और समाज को बहुत नुकसान पहुंचाया है। एक लंबे समय तक गुलामी के अंधेरे में डुबोया है। यही कारण है कि देश में समतावादी और समरस समाज के निर्माण के लिये अनेक महापुरुषों ने अभियान छेड़, समी विवेकानंद, स्वामी दयानंद के अभियानों का उद्घोष भी यही रहा है। इनके साथ गांधी जी, डॉ. हेडगेवार, और डॉ. भीमराव अंबेडकर के अभियान भी समरस समाज के निर्माण की पताका को फहराने वाली थी। यह अलग बात है कि बाद के वर्षों में उनकी तमाम बातों के अर्थ कुछ अलग प्रकार से निकाले गये और प्रचारित करने का प्रयत्न हुआ मानों वे ब्राह्मणों के या हिंदू समाज के बारे में कोई नकारात्मक राय रखते हों। उनके जीवन की यात्रा को समझने से यह बात साफ हो जाती है कि उनके व्यक्तित्व के निर्माण में ब्राह्मणों का योगदान भी बेहद महत्वपूर्ण था। उनकी पत्नी डॉ. सविता अंबेडकर ब्राह्मण परिवार से थी। 15 मार्च 1956 को बाबा साहब ने अपनी बीमारी के दिनों में परिवार की सेवा सुश्रुषा के बारे में एक मार्मिक टिप्पणी लिखी यह टिप्पणी उन्होंने पुस्तक द बुद्धा एण्ड हिज धम्म की भूमिका के बीच की थी लेकिन पुस्तक का प्रकाशन बाबा साहब की मृत्यु के बाद हुआ और यह भूमिका पुस्तक का अंग न बन पाई। बाबा साहब को अंबेडकर उप नाम बचपन में उनके विद्यालय के ब्राह्मण शिक्षक ने दिया। दरअसल शिक्षक महोदय का उपनाम अंबेडकर था। वे बाबा साहब की कुशाग्र बुद्धि से प्रभावित थे। पुत्र की भांति प्यार करते थे। कक्षा 6 में एक दिन वे पानी से भींग गये थे। बा्रह्मण शिक्षक ने अपने बेटे के साथ उन्हें घर भेजा, स्नान का प्रबंध कराया और घर में बिठाकर भोजन कराया। ऐसी अन्य हृदय को छूने वाली तमाम बातें बाबा साहब ने खुद अपने संस्मरणों में लिखी हैं। हालांकि इन संस्मरणों में ऐसी घटनाओं का भी जिक्र है जिनमें जातिगत छुआछूत के कारण उन्हें अपमानित होना पड़ा। लेकिन तब उनके सम्मान की, प्रतिभा की और उनके अभियान के समर्थन में आगे आने वाले सवर्णों की भी पर्याप्त संख्या थी इसीलिये समय-समय पर उन्होंने ब्राह्मणवाद की मानसिकता पर आक्षेप तो किये, जो विभाजनकारी मानसिकता का प्रतीक और समरसता को खंडित करने वाली थी। इसका स्पष्टीकरण उन्होंने अनेक स्थानों पर किया। आज की राजनीति और सामाजिक स्पर्धाओं की आपाधापी जिस दिशा में चल पड़ी है और व्यक्ति अपने छोटे से स्वार्थ के लिये किसी भी षडय़ंत्र का हिस्सा बन जाता है ऐसे में यदि समरसता के व्यवहारिक धरातल पर कोई विचार सार्थक है तो महापुरुषों के वाक्य ही व्यवहारिक हैं, जिनका हम प्रतिदिन नाम तो लेते हैं किंतु न उनके कथनों का आशय समझते हैं और न अपने व्यवहार में लाते हैं।